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July 21, 2025 4:12 pm

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श्रीजगन्नाथ मंदिर सेवा संस्थान के अध्यक्ष श्रीमती अंजली नंदा जी तथा संस्थान के अन्य भक्त जनो सहीत श्री सुरेशभाई गुंडीचा मंदिर सभी ने संयुक्त रुप मेंउपस्थित रहकर श्रीमहेशभाई आगरीया को भगवान श्रीजगन्नाथ जी की मुल छबी भेट की ।

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अध्याय 3 : कर्मयोग-श्लोक 3 . 32 : Niru Ashra

अध्याय 3 : कर्मयोग-श्लोक 3 . 32 : Niru Ashra

अध्याय 3 : कर्मयोग

श्लोक 3 . 32

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् |
सर्वज्ञानविमुढ़ांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः || ३२ ||

ये – जो; तु – किन्तु; एतत् – इस; अभ्यसूयन्तः – ईर्ष्यावश; न – नहीं; अनुतिष्ठन्ति – नियमित रूप से सम्पन्न करते हैं; मे – मेरा; मतम् – आदेश; सर्व-ज्ञान – सभी प्रकार के ज्ञान में; विमूढान् – पूर्णतया दिग्भ्रमित; तान् – उन्हें; विद्धि – ठीक से जानो; नष्टान् – नष्ट हुए; अचेतसः – कृष्णभावमृत रहित |

भावार्थ

किन्तु जो ईर्ष्यावश इन उपदेशों की अपेक्षा करते हैं और इनका पालन नहीं करते उन्हें समस्त ज्ञान से रहित, दिग्भ्रमित तथा सिद्धि के प्रयासों में नष्ट-भ्रष्ट समझना चाहिए |

तात्पर्य

यहाँ पर कृष्णभावनाभावित न होने के दोष का स्पष्ट कथन है | जिस प्रकार परम अधिशासी की आज्ञा का उल्लंघन के लिए दण्ड होता है, उसी प्रकार भगवान् के आदेश के प्रति अवज्ञा के लिए भी दण्ड है | अवज्ञाकारी व्यक्ति चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो वह शून्य हृदय होने से आत्मा के प्रति तथा परब्रह्म, परमात्मा एवं श्री भगवान् के प्रति अनभिज्ञ रहता है | अतः ऐसे व्यक्ति से जीवन की सार्थकता की आशा नहीं की जा सकती |

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