!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 54 – “जहाँ निरभिमान ही अभिमान है” )
गतांक से आगे –
यत्रागर्वत्वमेव सगर्वत्वम् ।।
अर्थ – जहाँ ( प्रेम नगर में ) निरभिमानता को ही अभिमान समझा जाता है ।
*हे रसिकों ! इस प्रेमनगर में प्रेम की उल्टी धार बह चली है ….”प्रेम नदिया की सदा उल्टी बहे धार” ….इस आधार से इस नगर में सब कुछ उल्टा है ….सब कुछ । यहाँ अधर्म धर्म है , अविनय विनय है, स्त्रियाँ ही पुरुष हैं आदि ।
अब यहाँ बताया गया है कि “यहाँ निरभिमानता ही साभिमानता है”। “मैं कुछ नही हूँ”….ये कहना यहाँ अभिमान का ही दूसरा स्वरूप है ।
ओह ! आप ऐसे नही समझ पायेंगे ….एक सुन्दर प्रेम-झाँकी का दर्शन कीजिए ।
कुँज से श्रीराधारानी रस केलि करके बाहर आयीं ….तो कुँज के बाहर थी चन्द्रावली सखी ।
श्रीराधारानी को देखते ही उनके नयन मटकने लगे ….ईर्ष्या भाव से ग्रस्त चन्द्रावली श्रीराधा रानी से कहतीं हैं…..समझ में नही आता कि अपने अंगों में कैसे इतनी सुंदर पत्रावली तुम श्याम सुन्दर से बनवा लेती हो ? श्रीराधारानी ने सुना तो वो बोलीं ….क्यों ? इसमें क्या कष्ट है ? ये तो परमआनन्द का विषय है ….प्रीतम स्वयं अपने हाथों से चित्रावली बनाते हैं और मैं बनवाती हूँ ।
किन्तु मुझे से नही बनवाया जाता ! चन्द्रावली मटकते हुए बोली ।
क्यों ? श्रीराधारानी ने चन्द्रावली से पूछा ।
चन्द्रावली भाव में डूब गयी ….गर्वोन्मत्त हो गयी और श्रीराधारानी से बोली ….जब मेरे श्याम सुन्दर चित्रावली बनाने के लिए तैयार होते हैं ना …तब राधे ! मेरा परम शत्रु कम्प और रोमांच …ये ऐसे आजाते हैं कि चित्रावली बिगड़ जाती है …चित्रावली बन ही नही पाती । श्रीराधारानी चन्द्रावली की बातें सुनकर जब बिना कुछ कहे आगे जाने लगीं ….तो पूर्ण ईर्ष्या से भरी चन्द्रावली कहती है …..ओह ! श्याम सुन्दर मेरे अंग छूते हैं ….फिर उसमें चित्र काढ़ते हैं …..बस ! यहीं मेरा बिगड़ जाता है ….रोमांच होता है …कम्प होता है …अति आनन्द के कारण मेरे देह में सिकुड़न आरम्भ हो जाती है …बस , चन्द्रावली बोली ….हे किशोरी ! फिर चित्रावली बिगड़ जाती है ।
हूँ ……कहते हुये श्रीराधारानी जब जाने लगीं ….तब चन्द्रावली ने फिर पूछा ……तुमको नही होता कम्पन ? तुम्हें नही होता रोमांच ? श्रीराधा जा रहीं थीं ….रुक गयीं ….चन्द्रावली की ओर देखकर मुसकुराईं ….फिर बोलीं ….क्यों होगा कम्पन ? मुझे पता है ये श्याम सुन्दर सबके अंगों में ही चित्रावली बनाते चलते हैं ….हाँ , मेरे ही अंगों में बनाते तो शायद कम्पन रोमांचादि होता …..किन्तु ये तो ….कोई मेरे ही थोड़े हैं श्याम सुन्दर । इस बृज की सभी गोपियों के हैं ।
ये कहते हुए श्रीराधा रानी चल दीं थीं ….चन्द्रावली देखती रही ….बातों में पूर्ण निरभिमानता थी श्रीराधा के …..किन्तु इसी निरभिमानता से अभिमान झाँक रहा था । श्रीराधारानी ने एक बार और चन्द्रावली की ओर मुस्कुराकर देखा था …फिर अपनी गजगामिनी चाल से चल दीं थीं ।
हे रसिकों ! यही है प्रेम नगर की अपनी रीत । निरभिमानता में ही यहाँ अभिमान छिपा है ।
आप कहोगे ..अभिमान तो अच्छी बात नही है …क्या आप अभी भी इन बातों में विश्वास करते हैं ?
ये प्रेम नगर है …..यहाँ सब चलता है , सब कुछ , बस प्रेम की गाढ़ता होनी चाहिये ।
शेष अब कल –


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