महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (043)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
भगवान ने वंशी बजायी
अब भला। भगवान किसी को कहें कि तुम मेरे प्राण, तुम मेरे जीवन, तुम मेरे प्यारे, तुम मेरे सर्वस्व, और उसका दिल पिघल न जाय, पानी-पानी न हो जाय, तो कोई पत्थर ही होगा। लेकिन आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए- यह वंशी ध्वनि सुनकर के पत्थर भी समझते थे कि हमको पुकार रहे हैं भगवान और पिघल जाया करते थे, भला। पत्थर-पाषाण द्रवित हो जाया करते थे वंशी-ध्वनि सुनकर, वृक्ष से महासरण होता था, नदियाँ रुक जाती थीं, और पशु खाना-पीना छोड़ देते थे। वामदृशां मनोहरम्- कलं वामदृशां क+ल+ई (वामदृशा माने ई)+ अम (वामदृशां में जो ऊपर बिन्दी है सो) – क्लीं। तो ‘जगौ कलं वामदृशां’ का अर्थ हुआ कि जहाँ भगवान ने वंशी में ‘क्ली’- काम बीज का स्वर बजाया।
वामदृशां- इसमें जरा गोपियों का वर्णन हैं। क्योंकि जहाँ कृष्ण का वर्णन हो वहाँ भक्तलोग आ जाते हैं और जहाँ भक्तों का वर्णन हो वहाँ भगवान आ जाते हैं। भगवान को भक्तों की कथा प्यारी लगती है; गोपियों की चर्चा हो तो श्रीकृष्ण तुरन्तर वहाँ आ जाएंगे। ऐसा कहते हैं कि कृष्ण का ध्यान करो तो भले ही कृष्ण न आवें लेकिन गोपी का ध्यान करो तो गोपी के चारो ओर मंडराते हुआ कृष्ण अवश्य आ जाएंगे। बिना कृष्ण के गोपी कहाँ? गोपी होगी तो उसके आसपास कृष्ण जरूर होंगे। कोई देखी गोपी, उसके पीछे-पीछे पाँव दबाकर चल रहे हैं कृष्ण और बगल में- से गोपी को देख रहे हैं और गोपी भी कनखियों से कृष्ण की तरफ ही देख रही है। इसलिए कृष्ण और गोपी दोनों ही वामदृशां हैं।
इसलिए ‘वामदृशां’ का एक अर्थ यह है कि वामा दृशः याषाम जिनके नेत्र बहुत सुन्दर हों, उनको कहते हैं ‘वामदृक्’। स्त्री के नेत्र में – यहाँ गोपी के नेत्र में- सौन्दर्य होना चाहिए। तो स्त्री के नेत्र में सौन्दर्य क्या है और गोपी के नेत्र में सौन्दर्य क्या है? बोले- अँनियारे दीरघ चिती न तरुणि समान आँखें नुकीली हों और बड़ी-बड़ी हों, ये तो बहुत सी स्त्रियों की होती हैं। वह चितवनि औरैं कछु जिहि वश होत सुजान। पर गोपी की चितवन कुछ और ही है- उनका जो केवल श्रीकृष्ण की ओर देखना है उसके वश में होते हैं श्रीकृष्ण। नेत्रों मं सौन्दर्य क्या है? नेत्रों में सौन्दर्य उनकी बनावट नहीं है,- बावरी वै आखियाँ जरि जाँय जो साँवरो छाँड़ि निहारति गोरो। जो साँवरे सलोने नन्दनन्दन श्यामसुन्दर को छोड़कर दूसरे को देखती हैं वें आँखें जल जाँय।*
ऐसे भक्त लोग बोलते हैं। सुन्दर नेत्र का अर्थ है कि जो परम सुन्दर श्रीकृष्ण को निहारते हैं। तो वामदृशां का अर्थ हुआ कि गोपियों के नेत्र सुन्दर हैं- सुन्दर नेत्रोंवाली गोपियाँ। अब एक और अर्थ देखो- कुटिल आदमी दूसरे को फाँस लेता है। तो जिसकी आँखें कुटिल हों, जरा टेढ़ी हों, तिरछी चितवन जिसको बोलते हैं, वह है वामदृशा। अथवा ‘वाम’ शब्द का अर्थ हैं बायी। जिसकी बाँयी आँख ज्यादा चले उसका नाम ‘वामदृक’? यह देखो- जैसे स्त्री-पुरुष बैठे; तो दाहिने पुरुष बैठे और बायें स्त्री बैठी; तो दाहिनी आँख तो बिचारी की पहुँचती नहीं है, इसलिए बाँयी आँख जो है वह टेढ़ी होकर पुरुष की ओर देखती है।
अच्छा ! ‘वामे सुन्दरे दृशो याषां’ वाम में सुन्दर है, अथवा महाराज; वामदृशां- किसी काम में स्त्री वाम भाग में बैठे, उसको वामा बोलेंगे- ‘वामदृशौ मनोहरम्’। कहा- नहीं-नहीं, बाबा, जिनकी चाल, ढाल, गति, मति दाहिने कभी नहीं, बायें ही रहे हमेशा। वह है वामदृक्। कहो- बोलो; तो चुप हो जायँ। कहो देखो- तो मुँह फेर लें। कहो कि चलो तो बैठ जायँ। इसको वाम बोलते हैं। हमेशा ही बाँये महाराज, कभी दाहिनी नहीं। ऐसी वामदृशां मनोहरम्।
अब देखो- इसका भाव क्या है? भाव इसका यह है कि असल में आँख को तिरछी होनी चाहिए। क्यों? बोले- सीधे यह संसार की ओर देखते हैं, जरा टेढ़ी करो तो भगवान दिखेंगे। वह कैसे-
चरणदास गुरु कृपा कीन्ही, उलटि गयीं मोरि नयन पुतरियाँ ।
खुली हुई, जरा आँख को थोड़ी तिरछी कर दो। एक आँख होती है पूर्ण- पूर्णा दृष्टि पूर्णिमा के चंद्रमा जैसी। एक होती है अमार की दृष्टि बन्द और एक होती है अधखुली; इसको बहू बोलते हैं-
एकैव शाम्भवी मुद्रा गुप्ता कुलवधूरिव ।
अन्तर्लक्ष्यम्- लक्ष्य हो भीतर और दृष्टि हो बाहर। शर्म के मारे खुलकर बाहर न देखती हो और भीतर-भीतर उसी का ध्यान करती हो, यह है बहू अधखुली आँख। जरा भीतर देखो- कौन है? परम सुन्दर ईश्वर भीतर बैठा हुआ है, ईश्वर से प्रेम करने वाली जो गोपी हैं, उनके मन को हरण करने वाला- मनोहरम्। अब मन को हरण करने वाला- इसका भाव क्या होता है?**
मनोहर एक तो सुन्दर होता है और दूसरे होता है मन को हरण करने वाला। आप देखो- अपने मन से कोई जब काम किया जाता है तो जिम्मेदारी अपने पर रहती है और बड़ों के कहने से कोई काम किया जाए तो बड़ों पर चली गयी जिम्मेवारी। तो ‘मनोहरम्’ का अर्थ है कि भगवान ने सोचा कि गोपियों के पास यदि मन रहेगा तो वे अपने मन में सोचेंगी कि हमको पाप लगेगा कि पुण्य लगेगा। तो आओ मन ही भगा लें-
मा भूदासामनुरपि अधर्मसंस्पर्श इत्यनन्तात्मा
सुकृता सुकृततनिदानं मन एव आदौ जहार सद्गीत्या ।
इनको पाप-पुण्य का बिलकुल स्पर्श नहीं हो, इसलिए पाप-पुण्य के कारण मन को ही भगवान् ने अपनी ओर खींच लिया। भगवान् ने कहा- बाबा; इस रास में गोपियों की जिम्मेवारी नहीं, हमारी जिम्मेवारी है; पाप लगेगा तो हमको, पुण्य लगेगा तो हमको, इसलिए बाँसुरी बजाकर उनको मन को चुरा लिया। मन से कहा- हे मन! देखो- तुम्हारे बेटे-बेटी आज बड़ा-बड़ा खेल खेलेंगे। मन के बेटे को आप जानते हैं? मन के बेटे का नाम है मनोज। मनोज माने काम होता है। मन के बेटे का नाम है काम, उसकी बेटी हैं बहुत सी स्मृतियाँ आदि। जैसे घर के बच्चे, बेटे, बेटी खेल रहे हों आंगन में और बाप बैठकर देखे तो उसका मजा आएगा कि नहीं? तो भगवान् ने कहा- हे मनीराम आज आओ देखो- तुम्हारे बेटे-बेटी खूब खेलेंगे, रास करेंगे। तुम जरा तमाशा देखो तो! देखो आज तुम्हारा बेटा क्या-क्या गजब ढाता है।
‘मनोहरम्’- मनोहरम् का क्या अर्थ है? भगवान् की जो वंशीध्वनि है यह मनके लिए हर है। हर माने होता है शंकर। शंकर करते हैं संहार। तो यह भगवान् की वंशीध्वनि क्या करती है? यह संसारी मन का संहार करती है। जो इसको सुन लेता है उसकी संसार-वासना मिट जाती है। अब यह है कि आजकल पहले परचा बाँटो, गाँव में प्रचार करो, लाउडस्पीकर लगाओ, पंखा चलाओ, जूते का बन्दोबस्त करो, फिर कथा कहो। तो केवल पारमार्थिक वृत्ति के लोग आवेंगे, ऐसा तो होगा नहीं, इसमें तो सांसारिक वृत्ति के लोग भी आते हैं; और सांसारिक वृत्ति के लिए यह है भी कथा। संसार से परमार्थ में ले जाने वाली कथा उनके लिए हित है लेकिन कौन अपनी वासना को मिटाना चाहता है और कौन अपनी वासना को पूरी तरह नचाता है?
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹


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