महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (045)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपियों ने वंशी-ध्वनि सुनी
कहा- क्यों? तो बोले- उसकी मुक्ति में तो कोई बाधा नहीं पड़ती, मुक्त तो है, परंतु यदि पहले से उपासना का संस्कार है तब तो ‘नेति-नेति’ से निषेध के अनन्तर स्वरूप-स्थिति होने पर इस सच्चिदानन्दघन सगुण ब्रह्मा का आविर्भाव तत्त्ववित् के सामने हो जायेगा और यदि उपासना का संस्कार नहीं है ‘नेति- नेति’ का ही प्रबल संस्कार है तो विज्ञानान्दघन ब्रह्म से एक होने पर भी इस रस का आविर्भाव नहीं होता है। इसलिए आओ चलो एक बार वृन्दावन।
रे मन ! वृन्दाविपिन निहार ।
विपिनराज सीमा के बाहर हरिहूँ को न निहार ।
वृन्दावन में आज क्या हो रहा है नारायण? बोले- शरद ऋतु है और भगवान् के द्वारा रासलीला के लिए स्वीकृत रात्रियाँ हैं, जिनका दान भगवान् ने गोपियों को कर दिया है और वे गोपियाँ हैं जिनका प्रणय-समर्पण भगवान् ने स्वीकार कर लिया है। बेला, चमेली खिल रही हैं। श्रीकृष्ण ने वीक्षण करके अपने लिए आनन्ददायी बनाया। योग-माया का आश्रय लेकर भगवान् ने विहार का संकल्प किया। आधिदैविक चंद्रमा का उदय हुआ। जनता का शोक दूर हुआ। सारी सृष्टि आनन्द में मग्न हो गयी।
श्रीकृष्ण ने देखा-अखण्ड-मण्डल-रमाननाभ, नवकुंकुमारुण, कुमुद्वान, चंद्रमा को और देखा कि चंद्रमा ने ‘वनं च तत्कोमलगोभिरंजित’ उस वृन्दावन-वन को अपनी कोमल किरणों से, कोमल रश्मियों से रंग दिया है। श्रीकृष्ण ने बाँसुरी हाथ में उठायी- ‘जगौ कलं वामदृशां मनोहरं’- बज उठी बांसुरी कैसी बाँसुरी? जगौ कलं इसमें क चीज देते हैं और एक चीज लेते हैं। आप देखो, दानादान बिलकुल बराबर हैं। देते हैं क्या? तो कलं कं सुखं लाति ददाति- सुख देते हैं। और छीनते हैं क्या? ‘किं मनोहरम्’ – मन छीनते हैं। मन को तो लूट लेते हैं परंतु सुख देते हैं। ‘मनोहरम्’- कल आपको सुनाया था, मन को क्यों हरण कर लिया। अरे, अब मनोज की क्रीड़ा होने वाली है, मनीराम तुम यहाँ रहोगे तो मनोज शर्म करेगा, शर्मायेगा। मनोज माने कामदेव। बाप मौजूद हो तो शर्मायेगा। तो मन का हरण कर लिया। बोले- उसके रूप को थोड़ी देर के लिए अपने पास बन्द कर लिया, मन रहेगा तो उसको पाप-पुण्य लगेगा।*
‘माभूदासामनुरपि अधर्मसंस्पर्श इत्यनन्तात्मा’*- खींच लिया मन को। अरे! मन ही तो दुनिया की गड़बड़ी पैदा करता है, तो मन को ही हर लिया। गोपियों के शरीररूपी घर में और हृदय रूप पिटारी में मनरूपी रत्न जो बहुत छिपाकर रखा हुआ था, उसको श्रीकृष्ण ने ध्वनि से हर लिया। शब्दबेधी बाम होते हैं न? बाण तो मारने के लिए होते हैं, हरण करने के ले लिए थोड़े होते हैं? अरे! इनकी तो वंशीध्वनि ऐसी है कि जाय भी और वहाँ से माल-मसाला भी निकालकर ले आवे, और किसी को पता ही न चले। यह महाचोर का अस्त्र है, महाचौरास्त्र इसका नाम है।
आँख से दिखायी न पड़े, कान के रास्ते हृदय में घुस जाय। ‘मनलेतै देते छटाँक नहीं’- व्रज में बोलते हैं, मन तो ले लें, मन माने मनभर वजन ले तो लेते हैं पर देते छटाँक भर भी नहीं। यह भी अर्थ है कि मन ले लेते हैं पर छटाका अंक भी नहीं देते हैं, छटा की झलक भी नहीं देते। मनोहरम्- ये मनोहर हैं और कलं शब्द का अर्थ बताया था- क्लीं मंत्र- कल माने क्लीं। यह श्रीकृष्ण का सर्वोपरि मंत्रराज है, पर आश्चर्य तो यह है कि काली का भी मंत्र है, सरस्वती भी मंत्र है, कृष्ण का भी मंत्र है, सर्वदेवता इसमें समाये हुए हैं। कलं-क और ल और वामदृशां माने ई और वामदृशां में ऊपर जो बिन्दी है उसको मिलाकर क्लीं- यह मंत्र बनाया श्रीकृष्ण ने।
अब आगे चलते हैं। बाँसुरी ने क्या आश्चर्य किया। जैसो गुरुलोग कान में मंत्र फूँककर लोगों के हृदय में आत्मा का आविर्भाव कर देते हैं, वैसे श्रीकृष्ण वंशीध्वनि के द्वारा ऐसी दीक्षा देते हैं गोपियों को कि उनका हृदय कृष्ण की ओर खिंच आवे। यह भी एक प्रकार की दीक्षा है। तो बोले भाई यह हृदयाणी दीक्षा है। कृष्ण का नाम तो मुक्तजनाकर्षकः- मुक्तों को अपनी ओर आकृष्ट करने वाला है। मुक्त लोगों को तो कोई काम रहता नहीं, स्वर्ग में जाना नहीं, वैकुण्ठ से कोई काम नहीं और लोक-परलोक की कोई इच्छा नहीं, तो भगवान् ने कहा कि ये लोग निकम्मे बैठे हैं, जरा हमसे प्रेम ही क्यों नहीं करते हैं। यह तुम्हारी जीभ ख़ाली पड़ी है, बोलो- कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण।**
सूत्र है वेदान्त दर्शन में- मुक्तोपसृप्य व्यपदेशात्- भगवान् मुक्तोपसृप्य हैं। जब मुक्त हो जाते हैं, जब कुछ पाना शेष नहीं रहता है, तो कहते हैं- आओ-शर्बत ही पियें। यह साँवरा शर्बत है, यह रसवत् है। जब न कुछ लेना, न कुछ देना, स्वर्ग जाने के लिए यज्ञ नहीं करना, समाधि लगाने के लिए योग नहीं करना, अज्ञान मिटाने के लिए ब्रह्माकार वृत्ति नहीं करना, कुछ कर्तव्य शेष है नहीं तब आओ आओ! नन्द के लाड़ले के साथ खेलें।
मुक्तोपसृप्य व्यपदेशात्- भाई! श्रुति में साफ कहा है कि मुक्त लोग भी भगवान् का भजन करते हैं। नृसिंह तापिनी में साफ आया है- यं सर्वे नमन्ति मुमुक्षवो ब्रह्मवादिनश्च- मुमुक्षु भी भगवान् को नमस्कार करें और ब्रह्मवादी भी। शंकराचार्य ने भाष्य किया है- मुक्ताऽपि लीलया निग्रहं कृत्वा भजन्ते- मुक्तलोग भी भजन करते हैं। तो ये श्रीकृष्ण मुक्तों के प्यारे हैं। असल में, बद्ध लोग भला क्या भजन करेंगे। पैसे के साथ बँधे है, भोग के साथ बँधे हैं, स्त्री-पुत्र धन के साथ बँधे हैं, खुद तो उनके कैदी हैं हाथ में हथकड़ी पड़ी हैं, पाँव में बेड़ी पड़ी हैं, जेलखाने में बन्द, वे भगवान् की क्या सेवा करेंगे? सेवा तो असल में मुक्त लोग ही करते हैं। अब आओ-
निशम्यगीतं तदनंगवर्द्धनं व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाः ।
आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमाः स यत्र कान्तो जवलोलकुण्डलाः ।।
निशम्यगीतं तदनंगवर्द्धनम्- भगवान् स्वयं सीधे गोपी के कान में मंत्र नहीं फूँका, बाँसुरी द्वारा मंत्र फूँका। बीच में वंशी को रखा, यह मर्यादा है; यही गुरु है। माने भगवान् सीधे जीव को अपनी ओर नहीं बुलाते, गुरु के द्वारा बुलाते हैं। भगवान् ने भी गोपियों को बुलाया। तो बीच में एक प्रतिनिधि रखा; कौन? वंशी। यह वंशी है तो गीत क्या है? आप जानते हैं कि हृदय में जो मधुर भाव का उदय होता है, उसको अभिव्यक्ति देने वाली जो स्वरताल-युक्त शब्दराशि है उसको गीत कहते हैं। कितना प्रेम है हृदय में, यह गीत के द्वारा भगवान् प्रकट कर रहे हैं- गीतम्।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹


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