!! एक अनूठा प्रेमी – “वो कल्लू बृजवासी” !!
भाग – 4
गतांक से आगे –
( यमुना किनारे एक अघोरी, जो हड्डियों की माला पहने काँटों पर लेटा था उसे देखकर वो बृजवासी अल्हड़ कल्लू हंसा …तो कल्लू से हमने सिद्धि पर बातचीत की, साधकों ! बड़ी गम्भीरता के साथ सिद्धियों पर उसने अपनी बात रखी है , आइये – साधकों के लिए उपयोगी है ये वार्ता, इसलिये आप लोग इसे मनोयोग से पढ़ें ! )
“भगवन्नाम सौं बढ़कै कछु है ही नाँय । जानै भगवान के नाम कुँ पकड़ लियौ ..वानै भगवान कुँ पकड़ लियौ …नाँय नाँय , भगवान ने वाकु पकड़ लियौ है ।
भक्ति ते बड़ी सिद्धि कोई नही है…भक्त ते बड़ौ सिद्ध कोई नही है …अरे ! भक्त कौ कौन बिगाड़ कर सकै है ….भक्त के आगे तो अष्ट सिद्धियाँ हाथ जोड़के ठाडी रहैं। अरे ! मुक्ति कहै मोकूँ लेल्यौ ….मोकूँ स्वीकार करौ ..किन्तु भक्त न मुक्ति न सिद्धि, वाकूँ तौं केवल अपने ठाकुर सौं ही काम है …अपने ठाकुर जी की सेवा छोड़ कै भक्त काहूँ सिद्धि कुँ नाँय स्वीकार करै है ।
भक्त की सिद्धि मात्र वाकौ भगवान है ….कोई सिद्धि भक्त क़ौं तनिक भी बिगाड़ नही कर सकै है और अगर बिगाड़ करवे की सोची भी तो फिर वा सिद्ध कुँ का भगवान छोड़ देयगौ ? “
हम लोग गोकुल में हैं ….यमुना किनारे आनन्द आरहा है ….सर्दी आरम्भ हो गयी है तो धूप अच्छी लगती है …..कभी गोकुल जायें तो चिंताहरण महादेव के दर्शन अवश्य करें …ये मैया यशोदा के पूज्यनीय बाबा हैं …महादेव भगवान शंकर हैं । सबकी चिन्ता को क्षण में ही दूर करते हैं ।
यहीं हमको ये अद्भुत बालक मिला ….कल्लू । ये बृजवासी है ….साँवला रंग है ….वैसे इसका नाम इसके माता पिता ने “कन्हैया”रखा था …लेकिन काला है इसलिए इसे सब लोग कल्लू कहते हैं ….इसकी आध्यात्मिक ऊर्जा देखकर मैं बड़ा प्रभावित हुआ ….जैसे श्रीरामकृष्ण परमहंस के विषय में कहा जाता है वो पढ़े लिखे नही थे, किन्तु शास्त्रों की बातें उनके मुख से निकलती थीं ।
विशेष ये है इस कल्लू में ….कि ये सहज भक्त है …इसमें सहज भक्ति के गुण हैं ….कह सकते हैं कि ये बृज की माटी का प्रभाव है …किन्तु कुछ भी कहो ये बालक अद्भुत है और विलक्षण है ।
हम यमुना के किनारे ही हैं ….गैया घेरने के लिए कल्लू जाता है …तो आगे एक अघोरी मिलता है ….वो हड्डियों की माला पहने काँटों में सो रहा था …उसे देखकर कल्लू हँसता है …उसकी हंसीं बड़ी प्यारी है …..क्यों हंस रहे हो ? कल्लू ! क्या हुआ ? मैंने पूछा तो उसने उत्तर दिया ।
“जे देख कै मोहै हाँसी आवै …का मतलब है बताओ । अरे ! या देह कुँ कष्ट चौं दैंनौं ? और कष्ट दै के अगर ठाकुर मिलैं तो अलग बात है …किन्तु या सिद्धि तै ठाकुर तौ मिलवे ते रह्यो । है ना ?
क्या सिद्धि होती है ? ये प्रश्न एक ने पूछा ।
तो कल्लू का उत्तर था ….मेरे बाबा( पिता जी ) के पास में एक सिद्ध आयौ …आयौ हो वो कामाख्या ते …मैं छोटौ हो पर मोहे सब याद है ….बु मोतै बोल्यो – बालक ! जा बालू लै कै आ । मैंने अपने बाबा माहूँ देख्यो तो बाबा बोले …जा ले आ रेती ….मैं भी भग्यो …और एक डब्बा मैं रेती भरके लै आयौ …..पर हम सबके सामैं …वा सिद्ध ने रेती कुँ चीनी बनाए के हमें दे दियो । मैं चौंक गयौं ….पर बाबा हंस रहे ….मैंने कही बाबा ते – बाबा ! जे तौ भगवान है ….तब हंसते भए बाबा बोले …चलो अब भगवान की परीक्षा ली जावैगी । वो लेकर आए वा सिद्ध कुँ ….यमुना जी के किनारे ….और बोले …महाराज ! बड़ौ ही उपकार होयगौ …..यमुना जी की सबरी रेतन कुँ तुम चीनी बनाय देओ ।
कल्लू हंसते हुए कहता है …..
भक्तन कुँ इन सिद्धि गिद्दिन के पीछे पड़नौं नही चहिए ….भक्ति की हानि होय है ।
फिर उस सिद्ध ने क्या यमुना के रेत को चीनी बनाया ? एक साधक ने प्रश्न किया ।
कुछ देर तक वो कल्लू हँसता रहा …उसकी खिलखिलाहट अद्भुत थी ….फिर गम्भीर होकर बोला ….देखो ! जे सिद्धियां जो होमें ना ..उनकी एक सीमा होवे …..तुम सीमा तक ही अपनी सिद्धि दिखाय सकौ …वाते ज़्यादा और कछु नहीं । पर इन बातों में अब कल्लू को कोई रुचि नही आरही थी …इसलिए वो इधर उधर देखते हुए बोला ….भक्त बनौं …प्रेमी बनौं ….प्रेमी ते बड़ौ सिद्ध कोई नही है …प्रेमी के आगे सब सिद्ध गिद्ध बन जावैं । ये कहते हुए कल्लू फिर हंसा था ।
कैसे ?
मुझे बड़ा प्रिय लग रहा था ये कल्लू , इसलिए मैंने ही ये प्रश्न किया । किन्तु कल्लू ने इस प्रश्न का कोई उत्तर नही दिया और वो इधर उधर ही देखता रहा ।
भक्त तो कोई साधना करता नही है …न तप न व्रत , कुछ भी तो नही है उसमें ।
ये बात मेरे साथ के व्यक्ति ने पूछा था ।
कल्लू बोला …हाँ , कछू नाँय करै भक्त ….किन्तु “मैं भगवान कौ हूँ”……जे बात वानै हृदय में मान लियौ है ….अब काहूँ ने अगर सीधे राजा ते सम्बन्ध बनाय राखौ है …तो कहा राजा के सेवक , सैनिक , सिपाही वाकौ कछु बिगाड़ पामेंगें ? जे जितने सिद्ध वाले हैं…जे तौ बस राजा के सैनिक , सिपाही मन्त्री आदि तक ही सीमित हैं ….इन्हीं के प्रताप ते जे सिद्ध हैं …किन्तु भक्त तौ सीधौ भगवान के गोद में बैठ्यों है ….वाकी और देखवें की हुँ काहूँ में हिम्मत नही हैं । बतायौ ! है काहू में हिम्मत जौ भक्त की ओर कोई देख भी लै? अगर भक्त कौ काहू ने बिगाड़ करवे की हूँ सोची …तो जा की गोद में जे बैठ्यो है …बु का छोड़ देगौ ? समझौ या बात कुँ – भक्त के ऊपर कोई सिद्धि नही चले है …कोई तन्त्र काम नही करे है ….या लियै भक्त बनौं । भक्त ते बड़ौ कोई नाँय । कोई नाँय ।
कल्लू इतना बोलकर चुप हो गया था ।
भक्त कैसे बनें ?
साथ के मित्र ने कल्लू के आगे हाथ जोड़ लिया, क्यों की कल्लू कोई साधारण बालक नही था।
एक ही इच्छा , एक ही वासना मन में रहै कि भगवान के नाम में पूर्ण रुचि है जाये । और नाम जाप खूब बनैं । कल्लू बोला ।
स्पष्ट कहें । ये कहा गया ।
अब भैया ! जा ते स्पष्ट और कहा कहूँ …..नाम कौ जाप ही सबते बड़ौ साधन है ….जीभ सौं निरन्तर जाप , मन सौं अपने प्राण प्रिय ठाकुर कौ चिन्तन और हाथ ते ठाकुर जी की सेवा …देखौ ! मैं गैया चराय रह्यो हूँ ना , जे सेवा है ….जो करो भगवान की सेवा मानौ ….अब गैया चरेगी …साँझ में दूध देयगी …दूध कौं भोग गोपाल लगावेगौ …..बस यही सोच राखनी है ….याही सोच ते ही ठाकुर मिल जावैगौ । यही सोच तुम्हें भक्त बनाये देगी , पर अपने मन कुँ संसार के प्रपंच में फ़सानौ नही है…..क्यों की प्रपंच में फँसे कि ठाकुर कु तुम भूल जाओगे । कल्लू हंसते हुए ये कहता है ।
किन्तु संसार का काम तो करना ही है ना ? फिर ये प्रश्न दोहराया ।
तौ मैंने कब मना कियौ ? करो , संसार कौ सबरौ काम करौ …किन्तु मन में सोच लियौं …कि जे काम तौ मैं भगवान के लिये ही कर रह्यों हूँ …..बस , अरे ! भैयाओं ! सीधी भाषा में समझौ ….धन कमायवे में लगे हो …है ना ? किन्तु लक्ष्य मुख्य होवे है …क्रिया मुख्य नही है …धन चौं कमायरहे हो ? बताओ ? कल्लू ने प्रतिप्रश्न कर दिया था ।
रोटी के लिए , घर के लिए , कपड़ा के लिए …..मैंने ही कह दिया ।
हाँ , रोटी कौ पहले भोग लगाओ ….ठाकुर जी कुँ भोग लगावे के लिए हम कमाय रहे हैं …जे भावना मन में पक्कौ करौ ….तुम जो कर रहे हो …वो अपने लिए नही …ठाकुर जी के लिए …घर तुम्हारौ नही है …जे घर हूँ ठाकुर जी कौ है ….तो घर में पैसा लगा रहे हैं …तो ठाकुर जी के घर कुँ ही सजाय रहे हैं ….अब कपड़ा काहे के ताँईं ? जे देह स्वस्थ रहे …स्वस्थ रहेगौ तौ भजन होयगौ …जा लिए । कल्लू कहता है ..जो करौ “ठाकुर के लिए ही कर रह्यों हूँ” जे भावना रखो ।
कल्लू यहाँ कुछ देर के लिए मौन हो जाता है …फिर आगे कहता है ……
मैं तौ सबेरे नहाऊँ हुँ ना तो भी जेई सोचूँ कि …ठाकुर जी की सेवा करनी है जा लिए नहाय रह्यों हूँ ….फिर यहाँ हंसा कल्लू , फिर गम्भीर हो गया …..यानि छोटी छोटी बातन कुँ भगवान ते जोड़ देओ । काम बन गयो । सब साधना है , अलग ते साधना करवे की जरुरत ही नहीं है ।
और हाँ ….नाम जाप करो तो सावधान रहियौं ….कि मन में सांसारिक कामना जागृत न हो ….जैसे …मोकूँ धन मिल जाये ….तो धन तो मिल जावेगौ …क्यों की भजन कौ प्रभाव है ….किन्तु प्रेम नही मिलैगौ ….नाम है जाये मेंरौ ….तो भैया ! नाम हुँ है जाएगौ तुम्हारौ …किन्तु भगवत्प्रेम नही मिलैगौ । कल्लू के नेत्रों से यहाँ अश्रु बहने लग जाते हैं …..तुम तो बस …गोपाल के चरणन में प्रेम माँगौ …..तुम गोपाल ते कहो कि – हे मेरे प्यारे ! अपने चरणन की प्रीति दे । बस यही सबते बड़ौ साधना है ….तुम सबसे बड़े सिद्ध हो …तुम ही सबते बड़े ज्ञानी हो । चौं कि तुम भक्त बन गये … बस इतनी बात समझ में आय जाय की …एक मात्र “गोपाल ही हमारौ है “।
ये कहते हुए कल्लू यहाँ पर रोने लगा था ….
ओह ! क्या प्रेमपूर्ण ऊर्जा उसमें से प्रकट हो रही थी । अद्भुत ।
शेष अब कल –
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