महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (048)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपियों ने वंशी-ध्वनि सुनी
शुकी गोपी इनका नाम है। फिर ये व्रज में किस-किस नाम से प्रकट हुए। यह सब पद्मपुराण में है। गीताप्रेम से हिंदी में जो पद्मपुराण छपा है, उसके पाताल-खण्ड का अधिकांश छोड़ दिया है, भला! उसमें वे कथाएँ नहीं छापीं। वैसे पद्मपुराण जहाँ-जहाँ से संस्कृत में छपा है, आनन्द आश्रम से, कलकत्ता से, हमारे पास कितनी तरह के पद्मपुराण हैं। उन सबमें है यह पद्मपुराण के पाताल खण्ड में कथा आती है। तो संसार की कामना से भगवत कामना जगे।
प्रेमैव गोपरामाणां कामयित्यगमत्प्रथाम् ।
इत्युद्धवादयोऽप्येनं वाञ्छन्ति भगवतप्रियाः ।।
गोपियों के हृदय में प्रेम है। वे श्रीकृष्ण को सुख देना चाहती हैं। एक ने श्रीराधारानी से पूछा- तुम श्रीकृष्ण पर रुष्ट क्यों होती हो? रूठती क्यों हो? श्रीराधारानी ने कहा- मैं जानती हूँ कि मेरे बिना उनको बहुत तकलीफ होती है, मेरे बिना वे सुखी नहीं हो सकते, मैं उनके प्रेम को जानती हूँ। लोग उनको घेर लेते हैं; रोक लेते हैं। कभी यशोदा मैया रोक लेती है, कभी ग्वालबाल रोक लेते हैं, कभी ग्वालिनी रोक लेत है। तब वे बिना मनके उनके साथ रुक जाते हैं और दुःख पाते हैं। में तो उनसे यूँ रूठती हूँ, उनके ऊपर नाराज होती हूँ, कि वे लोगों का लिहाज करके स्वयं अपने सुख से वंचित हो जाते हैं। उनके आने से हमको सुख मिलेगा, इसलिए हम नाराज नहीं होती हैं; हमारे पास न आने से जो उनको भीतर-ही-भीतर दुःख होता है, उस दुःख पर मैं नाराज होती हूँ कि क्यों नहीं आये मेरे पास।
प्रेमैव गोपरामाणां- गोपियों का प्रेम ही संसार में काम के नाम से प्रसिद्ध है, क्योंकि गोपियों ने अपने प्रेम का विज्ञापन नहीं किया। जिस समय यह बात कही जाती है कि हमारा प्रेम है, तो प्रेम जूठा हो जाता है। उसको बाहर की हवा लगती है और लड़खड़ाता है। प्रेम सुख देने के लिए होता है-
इत्युद्धवादयोप्येनं वाञ्छन्ति भगवत्प्रियाः ।+
उद्धवजी को भगवान् बताते हैं- अरे, उद्धव! तुमको वृन्दावन की बात क्या सुनाऊँ-
तास्ताः क्षपाः प्रेष्ठतमेन नीता मय्यैव वृन्दावनगोचरेण ।
क्षणार्द्धत्यक्ताः स्वयमंगतासा, क्षणा मया कल्प समाबभूवुः ।।
मेरे साथ गोपियों ने एक कल्प की रात को क्षण के समान बिताया और बिना गोपियों के मेरे लिए एक क्षण कल्प के बराबर हो गया।
मत्कामा रमणं जारमस्वरूप विदोऽबलाः ।
ब्रह्म मां परं प्रापुः संगाच्छतसहस्रशः ।।
वे हजारों-लाखों गोपियाँ मुझे जानती नहीं है कि मैं कौन हूँ; मुझे अपना प्यारा समझती थीं। वे मेरे स्वरूप को प्रात् हुई। मत्कामाः उनके मन में कामना थी, चाहती थी परंतु चाह किसके लिए थी?
चाह उसके लिए थी जहाँ जाकर के चाह मटियामेट हो जाती है, जहाँ चाह अपनी नहीं रहती, उसकी रहती है; उसके पास चाह गयी, जहाँ चाह अपनी नहीं रहती उसकी हो गयी। चाह भी उसकी हो गयी। मैं तो उसकी हो गयी, चाह भी उसकी हो गयी। ठगे गये- पहले तो अपनी चाह लेकर गये थे उसके पास कि मेरी चाह पूरी होगी; वहाँ मैं तो रह गयी, चाह भी उसकी हो गयी, अब उसकी चाह चलेगी, हमारी चाह नहीं चलेगी। वर्णन आता है-
निजांगमपि या गोप्यो ममेति समुपासते।
ताभ्यः परं न मे किञ्चिन्निगूढ़ः प्रेमभाजनम् ।। ++
श्रीकृष्ण कहते हैं जब जो गोपियाँ अपने शरीर का श्रृंगार करती हैं, वह अपने शुख के लिए नहीं, अपने सौन्दर्य के लिए नहीं। वे कहती हैं यह कृष्ण का शरीर है, इसको रूखा कैसे होने दें? चिकनाकर रखना चाहिए। ये कृष्ण के बाल हैं। इनको रूखा कैसे होने दें, चिकना रखना चाहिए। यह कृष्ण शरीर है, स्वस्थ रखना चाहिए। ये कृष्ण के कपड़े हैं, मैले कैसे होंगे?
निजांगमपि या गोप्यो ममेति समुपासते ।
गोपी अपने शरीर की सेवा करती है, लेकिन शरीर को अपना समझ करके नहीं, कृष्णा का समझकर मेरा समझकर करती हैं।
ताभ्यः परं न मे किञ्चिन्निगूढ़ः प्रेमभाजनम् ।।
जिस गोपी ने अपने जीवन को, अपने प्राण को, अपने हृदय को, अपने जीने को, अपने मरने को, अपने सर्वस्व को मेरा कर दिया, उस गोपी के काम का नाम कोई काम है? वह प्रेम है। श्रीकृष्ण ने चीरहरण के प्रसंग में स्वयं कहा-
न मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते ।
भर्जिता क्वथिता धाना प्रायो बीजा नेष्यते ।।
‘दुनिया में किसी के प्रति कामना करो तो उसमें से बीज निकलेगा; परंतु यदि हमारे- (कृष्ण के) प्रति कामना करो, तो उसमें से बीज नहीं निकलेगा’ तो, यह भगवान् की वंशी श्रीकृष्ण के प्रति काम, कृष्ण के प्रति मिलन की आकांक्षा जगाने वाली है। सुनकर गोपियों के क्या दशा हुई। यह आगे बतायेंगे।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹


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