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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 114 !!
जब निकुञ्ज दर्शन के लिये तड़फ़ उठे थे अर्जुन
भाग 2
ये तो अवतारकाल की लीला है ………जिसमें संयोग वियोग की लीला चलती ही रहती है ……..पर हे अर्जुन ! एक लीला है, निकुञ्ज की लीला …….जो अनादि है अखण्ड है …………
सूर्य मिट जाएँ, चन्द्र मिट जाए ………प्रलय हो जाए …….महाप्रलय आजाये …….जिसमें सारे लोक जलमग्न रहते हैं …………उस समय भी दिव्य वृन्दावन के निकुञ्जलीला में कोई व्यवधान नही पड़ता ।
प्रेम की बातें, वो भी कृष्ण के मुख से ………आहा ! अर्जुन गदगद् हो रहे हैं……और कृष्ण भी बड़े उमंग-उत्साह के साथ बताते जा रहे हैं ।
हे वज्रनाभ ! अर्जुन कोई साधारण तो हैं नहीं……….ये भी ईश्वर के अनादि सखा हैं ………नर नारायण की जोड़ी तो सनातन ही है ।
अर्जुन को समझनें में देरी नही लगी…………..वो तुरन्त युगल चरणों में साष्टांग लेट गए …………….
वासुदेव ! क्या मुझे “निकुञ्ज दर्शन” का सौभाग्य प्राप्त नही होगा ?
हँसे श्रीकृष्ण……….शेष , अनन्त, संकर्षण को तो मात्र “कुञ्ज” प्रवेश का ही अधिकार मिला ……..फिर तुम क्या हो ? ये बात अर्जुन के पीठ में हाथ मारते हुए बोले थे कृष्ण ।
पर क्यों ? निकुञ्ज दर्शन का अधिकार हमें क्यों नही ?
अर्जुन ! क्यों की अहंकार “प्रेमनगर” में बाधक है……कृष्ण नें कहा ।
पर मेरे अंदर अहंकार कहाँ ? अर्जुन नें पूछा ।
तुम पुरुष हो ना ? कृष्ण बोले ।
अर्जुन ! क्या पुरुष का अर्थ ही अहंकार नही होता ?
फिर अहंकार को ढोकर, प्रेम नगरी में जाओगे ?…….जा ही नही पाओगे …..और गली छोटी है यार ! उसमें दो कहाँ ?
फिर ? मैं क्या करूँ ? क्या मुझे दर्शन नही होंगें उस दिव्य निकुञ्ज के ? फिर चरणों में गिर गए अर्जुन ……..आप चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं ………..कीजिये ना ?
पर कुछ नही बोले श्रीकृष्ण………….अर्जुन प्रार्थना करते रहे ।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –
🌸 राधे राधे🌸


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