!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! “सब रंगी युगल के रंग” !!
गतांक से आगे –
फिर क्या करें ?
“पूर्ण आत्मसमर्पण”…..मैंने कहा …..प्रेम का मार्ग है बच नही सकते …ये मार्ग तुम्हारा पूर्ण आत्मसमर्पण तो चाहेगा ही ।
तो कैसे करें आत्मसमर्पण ? उन साधक ने ये प्रश्न और किया ।
मैं कुछ कहता उन्होंने मुझ से ये और पूछ लिया …”क्या मानसिक चिन्तन लीला चिन्तन या ध्यान भी कह सकते हैं …वो करें ? “
मैंने कहा ….पूर्ण आत्मसमर्पण में मात्र मन ही तो नही आयेगा । और सीधे मन के स्तर पर आप पहुँच जाओ …और मन से चिन्तन करने लगो …तो ये इतना सरल भी नही है ।
फिर क्या करें ?
सीढ़ीदर सीढ़ी चढ़ोगे तो सरलता से पहुँचोगे ….या छलांग लगाते हुए गये तो पता चला की लाभ तो हुआ नही अपनी टाँग और तुड़वा बैठे …..मेरी बात सुनकर वो थोड़ा हंसे ।
तो ? कुछ देर में वो बोले ।
मैंने कहा ….रसग्रन्थ महावाणी जी का पाठ तो आप करते ही होंगे ….रसोपासकों के लिए श्रीमहावाणी जी से बढ़िया ग्रन्थ कोई दूसरा नही है …इसके आधार पर चलें तो निश्चय ही निकुँज रस के आप अधिकारी होंगे …..ये मेरा अनुभव है ।
कैसे ? ये पंजाब के साधक साधना को लेकर बड़े ही गम्भीर थे ।
मैंने कहा ….पहले शरीर , फिर वाणी , फिर मन …इस तरह चलिये ….क्यों की आप देह में अभी हैं …इसलिए देह को आप नज़रअन्दाज़ नही कर सकते । इसको आप इस तरह समझिये …पहले कायिक सेवा , फिर वाचिक सेवा , फिर मानसिक सेवा । देखिए ! परम रस ग्रन्थ महावाणी जी में पाँच सुखों का वर्णन किया गया है …..पहला सुख है ‘सेवा सुख’ ….दूसरा सुख है ‘उत्साह सुख’ तीसरा सुख है ‘सुरत सुख ‘, चौथा सुख है “सहज सुख” फिर पाँचवाँ “सिद्धांत सुख” है ।
इस तरह चलिए ….पहले “सेवा सुख” है …सेवा देह से होती है ….उठिए और अपने विग्रहस्वरूप ठाकुर जी को उठाइये ….मंगला कीजिए ….फिर शृंगार , फिर राजभोग ….इस तरह कायिक सेवा का बड़ा सुन्दर स्वरूप महावाणी जी के “सेवा सुख” में दिखाया गया है । यहाँ एक बात स्मरणीय है कि …”सेवा” से ज़्यादा “उत्सव” गहरा मन में जाता है ….उत्सव में मन सहज लगता है …सेवा सुख में कभी आलस आजाये ….किन्तु होली , झूला , जन्माष्टमी , श्रीराधाष्टमी ब्याहुला उत्सव ….इसमें उत्साह उमंग भर जाता है …साधक रसमय हो जाता है …इसलिए सेवा सुख के आगे उत्साह सुख है …यानि इस सुख में उत्सव ही उत्सव हैं ….आप भी उत्सव मनाइये ….केवल देह से ही सेवा मत कीजिये …वाणी से भी गाइये …..पद गाइये …अरे ! विवाह आदि में , न गाने वाले भी तो , बेसुरे ही सही, गाते तो हैं, फिर इसके बाद आता है “सुरत सुख “ ये न देह के स्तर की साधना है न वाणी के स्तर की …ये है अब मन की ….ध्यान कीजिए ….देखिये ब्याहुला के बाद रतिरंग में कैसे रँगे हैं हमारे प्रिया लाल । सखियाँ भी तो निहार रही हैं ….बस निहार रही हैं …आप भी मन से निहारिये …इस तरह चलें …धीरे धीरे चलें …आनन्द से ।
मैं आज ये कहते हुए ध्यानस्थ हो गया था । युगल घाट में ।
मेरे मन में उत्सव ही छाया हुआ है …ब्याहुला उत्सव । जिसमें प्रिया लाल को रतन चौकी में बिठाकर सखियाँ दुलहा दुलहिन बना रही हैं ।
!! पद !!
हो श्यामा श्याम सिर सीरी चढ़ी ।
रोरी को तिलक अछित मोतिन के , तिन सों मिलि कल कांति बढ़ी ।।
बड़रे नैंन ऐंन अनहोनें , कानन कोने कोर कढ़ी ।
श्रीहरिप्रिया प्रानप्रीतम की , परमा परत न परत पढ़ी ।।
कंकण के आकार में यमुना रस रानी बह रही हैं …..निकुँज यमुना परिवेष्टित है ….मोरछली ,तमाल , कदम्ब आदि के सघन वृक्षावली हैं …लताएँ मन मोहक हैं …..उनमें पुष्पों की भरमार है ….निकुँज की अवनी मणिमाणिक्य से खचित है …पक्षियों का सुन्दर सुमधुर कलरव चलता ही रहता है …ये है जी निकुँज ! किन्तु आज कल कुछ विशेष है निकुँज में ….ब्याहुला उत्सव चल रहा है ….इसलिए वृक्ष और लताएँ भी प्रमुदित हैं …..वृक्ष लताएँ भी ? जी ! क्यों की यहाँ कुछ जड़ सत्ता है ही नही …सब कुछ चेतन है ….और ये तो सखियाँ ही हैं ।
अब ब्याहुला उत्सव की जो सजावट है वो तो दिव्यातिदिव्य है …..हंसों के जोड़े भी उन्मत्त होकर इस ब्याहुला का दर्शन कर रहे हैं ….और पक्षी गण भी लताओं में बैठकर दुलहादुलहिन को निहार रहे हैं ….सखियाँ तो अनन्त हैं …..सब सुन्दर हैं ….सुन्दर ही नही अत्यधिक सुन्दर हैं ….अब जब सखियाँ ही अत्यधिक सुन्दर हैं ….तो फिर दुलहा दुलहिन के भेष में विराजे प्रिया लाल कैसे होंगे ! मन की वहाँ पहुँच हो ही नही सकती …फिर भी अपनी भावना का अश्व दौड़ाइये ।
प्रिया लाल के सिर में सेहरा सजा है ….लाल जू के सिर में मौर और प्रिया जू के सिर में मौरी बांधा गया है ….वो ऊपर सिर में ऐसा चमक रहा है ….जिसे जो देखे उसकी आँखें चुधियाँ जायें । सखियाँ निहार रही हैं …और मन्त्र मुग्ध हैं । “ये ही बहुत था पागल बनाने के लिए तो” ….हरिप्रिया सखी खिलखिलाती हुयी कहती हैं …..उस पर ये रोरी का तिलक ! उसमें मोतियों का अक्षत और लगा हुआ है ! अरी ! इस रोरी के तिलक से तो प्रिया लाल की मुख की कांति और बढ़ गयी है । है ना ? ये अपनी सखियों से कहती हैं । और अपने कपोल में हाथ रखकर निहारती रहती हैं ….हरिप्रिया सखी । कुछ देर तक वहाँ मौन छा जाता है ..पक्षी भी कलरव करना भूल जाते हैं …सखियाँ गीत गा रही थीं वो सब भूल जाती हैं …बस निहारती रहती हैं । ये कुछ समय तक चलता है …फिर आह भरते हुए हरिप्रिया सखी कहती हैं ….इनके नैनों ने तो और कमाल कर दिया ….अरी सखियों ! अब इनके नयनों को तो देखो ….कानों तक खिंचे हुए ये बड़े नुकीले नैंन लगते हैं …ये हम सब को घायल ही कर देंगे ! कर देंगे नही कर दिया ! हरिप्रिया सखी बस हंसे जा रही हैं ….वो इतनी आनंदित हैं इस रूप सुधा का पान करके …क्या कहें !
जब अन्य सखियों ने देखा हरिप्रिया जू कुछ कह नही रहीं ……बस नयनों से आनंदाश्रु बह रहे हैं उनके और वो खो गयी हैं अपने प्रिया प्रियतम के सौन्दर्य सिन्धु में ..तो सखियों ने कहा ….हरिप्रिया जू ! और वर्णन कीजिए ना ! हरि प्रिया कहती हैं …क्या वर्णन करूँ ….इन प्रिया प्रीतम के परम प्रेम की अवस्था में प्रकट प्रेम का मैं क्या वर्णन करूँ ….अरी ! सखियों ! इनका सौन्दर्य हमारी वाणी का विषय कहाँ है ….इसलिए कुछ मत कहो …बस निहारो । देखो । देखो कैसे सुंदरतम लग रहे हैं ……ये कहते हुए हरिप्रिया युगल के रूप सिन्धु में डूब जाती हैं ।
तब निकुँज ही जब देखता कि सखियाँ अब कुछ करने की स्थिति में नही हैं …तो पक्षियों के द्वारा गायन आरम्भ हो जाता है …..कोयल कुँहुंक ने लग जाती है ..शहनाई बज उठती है …..इन सबसे सखियों का ध्यान भंग होता है ….और वो अपने को सावधान करती हुयी ….आगे के उत्सव की तैयारी में लग जाती हैं ।
क्रमशः ….


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