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October 23, 2025 5:52 pm

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महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (053) & (054) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (053) & (054) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (053)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

जो जैसिह तैसिह उठ धायीं-1

किसी ने कहा कि जब तक धर्म-अर्थ-कामरूप, त्रिवर्ग की प्राप्ति न हो तब तक कर्म करो, माने फल-पर्यन्त कर्म करते रहो। अब फल मिलना तो अपने हाथ में नहीं है- ‘फलमतः उपत्तेः’- फल देने वाला ईश्वर है; पता नहीं किस जन्म में किस जन्म का फल देता है; हम इस जन्म में जो कर्म कर रहे हैं, उसका फल इसी जन्म में देगा या अगले जन्म में देगा, कि हजार जन्म के बाद देगा, उसका नियामक तो ईश्वर है। कोई फलप्राप्ति पर्यन्त अगर कर्म करेगा तो कभी कर्म से छूट नहीं सकेगा। तो बोले- भाई, इस बात को छोड़ो, अंतःकरण शुद्धि-पर्यन्त कर्म करो। अरे, अंतःकरण- शुद्धि का क्या लक्षण है? बोले- ब्रह्मज्ञान हो जाय तो अंतःकरण छोड़ दो, और जब तक न हो तब तक कर्म मत छोड़ो। नारायण, लो यह भी हाथ से गया। अच्छा, श्रीमद्भागवत में सको ऐसे बताया है-

तावत्कर्माणि कुर्वीत निर्विद्येत यावता।
मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावत्र जायते।

तब तक कर्म करना चाहिए जब तक कर्म के फल से हृदय में वैराग्य न हो अथवा भगवान् कहते हैं, कि जब तक मेरी कथा सुनने में, मेरा गुणानुवाद करने में, मेरी पूजा करने में, मेरा ध्यान करने में, मुझसे प्रेम करने में, रुचि उदय न हो जाय, तब तक कर्म करना चाहिए। ये दो बातें भागवत् में कर्म की अवधि बतायी हैं- एक तो होवे संसार से वैराग्य, कर्म और कर्म फल दोनों से वैराग्य और या हो ईश्वर से प्रेम। किसी ने कहा- अच्छा भाई, फल न सही; लेकिन कर्म तो पूरा कर लें? अरे बाबा, ये कर्म कभी पूरे नहीं होते। एक ने कहा- भगवान् का भजन करेंगे कब? कि जरा बेटा बड़ा हो जाय तब। बेटा बड़ा हो गया तो बोले- ब्याह कर लें। ब्याह कर देने के बाद जरा पोते को गोद में खिला लें। अंत में बोले- अब तो शरीर में शक्ति नहीं है, अब वैराग्य लेकर क्या करेंगे?+

हम ये बातें आपको गोपियों के प्रसंग में सुना रहे हैं। गोपियाँ अपने-अपने कर्म में लगी हैं और श्रीकृष्ण बाँसुरी बजा रहे हैं। तो गोपियाँ कर्म का जो फल है उसको प्राप्त कर लें तब कर्म छोड़े या कर्म पूरा कर लें तब कर्म को छोड़ें? न तो फल पाना अपने हाथ में है और न तो कर्म को पूरा करना अपने हाथ में है। अगले क्षण क्या होगा यह मालूम नहीं। क्या दुकान का काम कभी पूरा होगा? अरे भाई, वह तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी के लिए खो ली गयी है। दुकान पूरा करने के लिए तुम काम नहीं करते हो, अपनी जिंदगी पूरा करने के लिए काम करते हो- यह बात आप समझो! जिसको छोड़ना होगा वह फल की पूर्णता पर नहीं छोड़ेगा, वह दुकान की पूर्णता पर नहीं छोड़ेगा; वह तो जब भगवान् के चरणों में लगन लगी, जैसे बुलावा आता है, तभी सबको जाना पड़ता है; तब सब काम छोड़कर जाना पड़ता है।

काम जो किया जाता है वह फल की पूर्णता के लिए नहीं और कर्म की पूर्णता के लिए नहीं, अपने पास अब से लेकर और प्रियतम के बुलावा आने के बीच में जो समय है, उसको भरने के लिए किया जाता है। श्रीरामानुज सम्प्रदाय में इसका नाम कालक्षेप है। वह समय काट रहे हैं। एक महात्मा थे। वे दन भर तिल का चावल अलग-अलग करते थे और शाम को फिर मिला देते थे। और दूसरे दिन फिर अलग करते और शाम को फिर मिला देते? बोले- भाई क्या कर रहे हो? तो कहा- ‘यावत्र विमोक्षेऽथ सम्पत्स्ये’ अब से लेकर जो विदेह मोक्ष के बीच में समय है उसको भर रहे हैं। क्योंकि हमको न कुछ लेना है न कुछ देना है, न स्वर्ग जाना है, न चेले को उपदेश करना है, और न मठ-मंदिर बनाना है, समय ही भरना है सो समय भर रहे हैं। ये महात्मा लोग तो समय भरते हैं; और प्रेमी लोग? वे प्रतीक्षा करते हैं। अरे, काम करते रहो और कान जरा खड़े रखो। सावधान। साधु सावधान। जब भगवान् बुलावें तब कहीं ऐसा न हो कि तुम प्रमाद में उनकी बाँसुरी न सुन पाओ।

दुहन्त्योभिययुः काश्चिद् दोहं हित्वा समुत्सुकाः ।
पयोऽधिश्रित्य संयावं अनुद्वास्यापरा ययुः ।।

अब देखो, इसमें भी एक बात है। प्रियतम के मन में उत्सुकता है, वे बुलावें सो तो ठीक है, परंतु यदि तुम्हारे मन में उत्सुकता नहीं है तो तुमको उनका बुलाना सुनाई नही पड़ेगा। अरे, इधर भी तो चाहिए कुछ भाई। बोले- उनकी जब मौज होगी तब आकर हमसे मिल लेंगे। अरे बाबा, तू जा नही सकता, तो खिड़की पर खड़ा होकर रास्ते की ओर देख तो सही। गोपियों ने हृदय में तो उत्सुकता पहले से थी। मिलेंगे यह आशा थी और अब आते हैं, अब आते हैं, अब आते हैं- यह प्रतीक्षा थी और उनके बिना प्राणों की व्याकुलता थी। आओ, प्राणनात। अब प्राण लगे सियरान-प्राणनाथ, पधारो। अब तुम्हारे बिना हमारे प्राण शिथिल पड़े रहे हैं। भगवान् के लिए-

आशाबन्धः समुत्कण्ठा नामगाने सदा रुचिः ।
आसक्तिस्तद्गुणाख्याने प्रीतिस्तद्वसतिस्थले ।।
इत्यादयोध्नु भावाः स्युः जातभावांकरे जने ।।

जिसके हृदय में प्रेम का अंकुर उगता है उसकी आशा कभी नहीं टूटती। उत्कंठा होती है मिलने की, उसका नाम निकलता है मुँह से, उसके गुणों में आसक्ति होती है। जहाँ उसकी याद आवे वहाँ रहने की रुचि होती है। प्रेम दिखाने के लिए कुछ कहना थोड़े ही पड़ता है वह तो स्वयं इतना चमकता है कि दूर से लोग पहचान जाते हैं। बताने की जरूरत नहीं।

दिन द्वै में बात फैल जइहैं ।
कहाँ लौ समानी चंद हाथन छिपाइहैं ।।
आज मैंने देखी बीर निपट कालिन्दी तीर,
दोउ उनसौ तेउ उनसौ मोरि मुसकाइबाँ ।।
दोउ परैं पैयां, दोउ लेत हैं बलैयां,
उन्हें भूल गई गैयां, उन्हें गागर उठाइबौं ।।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹


महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (054)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

जो जैसिह तैसिह उठ धायीं-1

तो बाबा, दो दिन में बात फैलाने वाली है- चंद्रमा कहीं हाथ से थोड़े ही छिपता है। प्रेम आता है हृदय में तो आशा लेकर आता है, प्रतीक्षा लेकर आता है, व्याकुलता लेकर आता है? यह नहीं कि वही सब कुछ करेगा। जैसे श्रीकृष्ण के हृदय में ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ विहार का संकल्प था, वैसे गोपियों के मन में भी उत्सुकता थी। उस गोपी के पास भगवान् नहीं जा सकते या उसको अपने पास नहीं बुला सकते, जिसके मन में उत्सुकता न हो।

समुत्सुकाः- उत्सुकता है गोपी के मन में। और उत्सुकता का लक्षण क्या है, पहचान क्या है? गोपी काम कर रही थी- ‘दुहन्त्योभिययुः काश्चिद्’। अपने कुल का, अहीर कुल का धर्म कर रही थी। ग्वाले कुल का धर्म है कि वहाँ ग्वालिनी दूध दुहती हैं। सो कोई गोपी उस समय गाय दुह रही थी। यह नहीं समझना कि कोई आध-सेर पाव-भर दूध देने वाली गाय दुहती थीं- दस-दस बीस-बीस सेर दूध देने वाली गायें थीं और उनको हाथ से ही दुहती थीं। बंबई के सीकिंया पहलवान यदि दुहने लगें तो उनको उँगली टूट जायँ। ये तो गूजरी महाराज वह मुट्ठी चलाती हैं, उँगली से कब तक दुहेंगी? हमको भी दुहने का काम पड़ा है बचपन में। जो लोग उँगली से कब तक दुहेंगी? हमको भी दुहने का काम पड़ा है बचपन में। जो लोग उंगली से दुहते हैं उनकी उँगली दुःख जाती है और जो मुट्ठी से दुहते हैं वे ग्वालिनी बाल्टी लेकर दुहने बैठती हैं। सेर दो सेर दूध दुहना होता है तो जाँघ पर रखकर दुह लेती हैं। पर दस-पाँच सेर दूध दुहना हो, तो बाल्टी धरती पर रखकर दुहते हैं।

‘दोहं हित्वा समुत्सुकाः’- हुआ क्या अब? देखो, इसमें जो दोहन कर्म था वह बड़ा था या जो दोहनी पात्र था वो बड़ा था या ग्वालिनी के हृदय में जो उत्सुकता थी वह बड़ी थी? जब बाँसुरी बजी, तो गाय तो रह गयी खड़ी और बछड़ा रह गया बँधा हुआ नुवनासे। जिससे गाय के पाँव में बछड़े को बाँधते हैं उसका नाम नुवना है। संस्कृत में उसको निर्योग बोलते हैं। गाय के पाँव में फंदा लगाया भी रह गया और नुवना लगाया भी रह गया। और वह बाल्टी जिसमें दूध दुह रही थीं, वह धरती पर रक्खी रह गयी। और जब बांसुरी की ध्वनि कान में पड़ी तो उसका मुँह घूम गया। उधर जिधर से वंशीध्वनि आ रही थी और हाथ से ‘ऐसे-ऐसे’ करती जाएँ जैसे गाय दुह रही हों। और कृष्ण की तरफ चलती जायँ। श्लोक में ‘दुहन्त्यः’ पद में शतृ प्रत्यय का प्रयोग है। अतः दुहन्त्यः का अरथ है- दुहती हुई- दुहन्त्यः अभिययुः कृष्णस्याभिमुखं ययुः।+

गाय दुहती हुई ही कृष्ण की ओर चली। और दोहं हित्वा समुत्सुकाः- दोह छूट गया माने दोहनी पात्र छूट गया, गाय वहीं रह गयी, बछड़ा वही रह गया; बस हाथ में जो दोहने की मुद्रा है वह ज्यों-की-त्यों रह गयी है और आप आँख बन्द करके चली जा रही है, खिंची हुई चली जा रही हैं, माने किसी ने जादू डाला है, जैसे किसी ने जादू के सरसों डाल दिए हों उसके ऊपर जिससे वह खिंची जा रही हैं, मानो आकर्षण मंत्र से, बाँसुरी से हिप्नोटाइज कर दिया हो- दोहं हित्वा समुत्सुकाः। योग आता है तो आदमी को स्थिर करता है और प्रेम आता है तो विचलित करता है। धर्म आता है तो क्रिया में स्थिर करता है और प्रेम आता है तो प्रियतम में स्थिर करता है। योग आत्मा में स्थिर करता है और ज्ञान सबको सम कर देता है। जिसमें समत्व न हो वह ज्ञान नहीं। ज्ञान में समता और वैराग्य में उप रमता आती है जबकि प्रेम में ममता और प्रियतम् में रमता आती है। ‘दोहं हित्वा समत्सुकाः’- दुहती हुई गोपी चली और वर्तमान की दोहन क्रिया का गोपी को विस्मरण हो गया क्यों? कि समुत्सुकाः मिलन की उत्सुकता थी, इसलिए।

अच्छा आपको बतावें- स्त्रियों का यह स्वभाव होता है। क्यों कि समझो वे उनका काम कर रही हों या कपड़े एक ऊपर कोई बेलबूटा बना रही हों, और इतने में ऐसा मालूम पड़े कि सड़क पर से कोई बारात जा रही है, बाजे बजने लगे, तो हाथ में ऊन लिए हुए ही और कपड़ा लिए ही निकलकर छज्जे में खड़ी हो जाती हैं- जो जैसी रहती हैं वैसी ही। तो यहाँ भी- ‘पयोऽधिश्रित्य संग्रावं अनुद्वास्यापरा ययुः’ दूध-दुहना कुल धर्म था। वंशीध्वनि सुनकर वह छूट गया। अब पारिवारिक धर्म भी छूटा है। कैसे? कि दूध करम करना, घर में रोटी बनाना, हलुआ बनाना ये पारिवारिक धर्म हैं। अच्छा गोपी के घर में ‘पयोऽधिश्रित्य’। एक गोपी ने घर में दूध तो चढ़ा दिया था आग पर। इतने में बज गयी बाँसुरी। तो हमने दूध चढ़ाया था तो आगे उतारेंगे नहीं तो उफन के सारा का सारा आग में चला जावेगा और घर की हानि हो जाएगी, इस बात का ख्याल किये बिना ही वह दूध ज्यों का त्यों छोड़कर चल दी। माने काम देखकर भी प्रेम थकित नहीं होता और भविष्य का विचार करके भी प्रेम थकित नहीं होता। ब्रिटिश परंपरा में भी अभी थोड़े दिन पहले ऐसा हुआ था। एक सज्जन एक स्त्री से ब्याह करने वाले थे तो उनसे कहा गया कि ब्याह करोगे तो- राजगद्दी नहीं मिलेगी। उसने कहा कि भले हमको राजगद्दी ना मिले, पर हम ब्याह करेंगे तो इसी स्त्री से।+

वेदान्तियों के भविष्य बाधित होता है पर क्रिया सब ठीक होती है; पर प्रेमियों का भविष्य बाधित नहीं होता है, बस भविष्य का ख्याल ही उतर जाता है, भविष्य का विस्मरण हो जाता है। वेदान्ती को ऐसा नहीं होता। प्रेम तो चित्त में सदा रहने वाली एक वृत्ति है- प्रेम हृदय में रहने वाला प्रियता विशिष्ट हृदय का आकार है, वह प्रेमी में रहता है। परंतु वेदान्ती लोगों के कुछ रहता ही नहीं, एक बार बाधा हुआ और खाली। अपने स्वरूप का ज्ञान हुआ और फिर कुछ नहीं। उनको कुछ याद वाद की जरूरत ही नहीं, यदि रहे तो ठीक और ना रहे तो ठीक; पर प्रेम में याद रहती है।

एक बार एक बड़े भगतराज बीमार थे अब हमको तो वह वेदान्त के विद्यार्थी समझते थे, सो हमको वह जिज्ञासु बोलना सीख गये थे। हम गये उनको देखने। वे तो महाराज शिर पकड़ के और बस छटपटायें इधर-से-उधर। उनको देखकर हमको एक शंका हुई- प्रश्न उठा चित्त में। हमने जाकर महात्मा से पूछा- मैंने कहा कि यदि वह वेदान्ती होते और ब्रह्मज्ञ होते हैं और ब्रह्मज्ञ होने के बाद सिर के दर्द से उनका शरीर छटपटाता होता तो हम कहते कि उनका वह शरीर और वह दर्द भी वाधित था, तो उनका वह छटपटाना भी वाधित होने दो। लेकिन जब वह भगवान के प्रेमी हैं और उनके हृदय में भगवदाकार वृत्ति है, तो यह बताओ कि दर्दाकार वृत्ति और भगवदाकार वृत्ति दोनों एक साथ हृदय में कैसे? शायद यह सुनकर किसी और के मन में भी प्रश्न उठे कि ऐसा कैसे? इसलिए बताता हूँ कि उन महात्माने क्या बताय। भक्त को ऐसा मालूम पड़ता है कि भगवान हमारा शिर भीतर- ही- भीतर दबा रहे हैं और यह दर्द उनका ही दिया हुआ है।

जब वे दबाते हैं तब मैं चिल्लाता हूँ हाय- हाय- हाय, अरे राम मार डाला क्यों इतना दर्द देता है? क्यों इतना दबाता है? उसी से लड़ते हैं हम। उनको दर्द में भी भगवान दिखताहै। अगर रोने में, चिल्लाने वाला भगवान न दिखे और हँसने में हँसाने वाला भगवान न दिखे तो अपने प्रेम की कमी समझना। वहाँ जिलाने वाला भी भगवान है, मारने वाला भी भगवान है। अगर दूसरे के रुलाये रोते हो, दूसरे के मारे मरते हो और दूसरे के जिलाये जीते हो तो प्रेम नहीं है। प्रेम में वही रुलाने वाला, वही हँसाने वाला, वही जिलाने वाला है। यह भक्ति की बात बड़ी विलक्षण है।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

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