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November 21, 2024 1:18 pm

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श्रीमद्भगवद्गीता-अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान💙श्लोक 4 . 40 & 41💙: Niru Ashra

श्रीमद्भगवद्गीता-अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान💙श्लोक 4 . 40 & 41💙: Niru Ashra

Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान
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श्लोक 4 . 40
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अज्ञश्र्चाद्यधानश्र्च संशयात्मा विनश्यति |
नायं लोकोSस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः || ४० ||

अज्ञः – मुर्ख, जिसे शास्त्रों का ज्ञान नहीं है; च – तथा; अश्रद्द धानः – शास्त्रों में श्रद्धा से विहीन; च – भी; संशय – शंकाग्रस्त; आत्मा – व्यक्ति; विनश्यति – गिर जाता है; न – न; अयम् – इस; लोकः – जगत में; अस्ति – है; न – न तो; परः – अगले जीवन में; न – नहीं; सुखम् – सुख; संशय – संशयग्रस्त; आत्मनः – व्यक्ति के लिए |

भावार्थ
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किन्तु जो अज्ञानी तथा श्रद्धाविहीन व्यक्ति शास्त्रों में संदेह करते हैं, वे भगवद्भावनामृत नहीं प्राप्त करते, अपितु नीचे गिर जाते है | संशयात्मा के लिए न तो इस लोक में, न ही परलोक में कोई सुख है |

तात्पर्य
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भगवद्गीता सभी प्रामाणिक एवं मान्य शास्त्रों में सर्वोत्तम है | जो लोग पशुतुल्य हैं उनमें न तो प्रामाणिक शास्त्रों के प्रति कोई श्रद्धा है और न उनका ज्ञान होता है और कुछ लोगों को यद्यपि उनका ज्ञान होता है और उनमें से वे उद्धरण देते रहते हैं, किन्तु उनमें वास्तविक विश्र्वास नहीं करते | यहाँ तक कि कुछ लोग जिनमें भगवद्गीता जैसे शास्त्रों में श्रद्धा होती भी है फिर भी वे न तो भगवान् कृष्ण में विश्र्वास करते हैं, न उनकी पूजा करते हैं | ऐसे लोगों को कृष्णभावनामृत का कोई ज्ञान नहीं होता | वे नीचे गिरते हैं | उपर्युक्त सभी कोटि के व्यक्तियों में जो श्रद्धालु नहीं हैं और सदैव संशयग्रस्त रहते हैं, वे तनिक भी उन्नति नहीं कर पाते | जो लोग ईश्र्वर तथा उनके वचनों में श्रद्धा नहीं रखते उन्हें न तो इस संसार में न तो भावी लोक में कुछ हाथ लगता है | उनके लिए किसी भी प्रकार का सुख नहीं है | अतः मनुष्य को चाहिए कि श्रद्धाभाव से शास्त्रों के सिद्धान्तों का पालन करे और ज्ञान प्राप्त करे | इसी ज्ञान से मनुष्य आध्यात्मिक अनुभूति के दिव्य पद तक पहुँच सकता है | दूसरे शब्दों में, आध्यात्मिक उत्थान में संशयग्रस्त मनुष्यों को कोई स्थान नहीं मिलता | अतः मनुष्य को चाहिए कि परम्परा से चले आ रहे महान आचार्यों के पदचिन्हों का अनुसरण करे और सफलता प्राप्त करे |
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान
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श्लोक 4 . 41
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योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् |
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय || ४१ ||

योग – कर्मयोग में भक्ति से; संन्यस्त – जिसने त्याग दिये हैं; कर्माणम् – कर्मफलों को; ज्ञान – ज्ञान से; सच्छिन्न – काट दिये हैं; संशयम् – सन्देह को; आत्म-वन्तम् – आत्मपरायण को; न – कभी नहीं; कर्माणि – कर्म; निब्ध्नन्ति – बाँधते हैं; धनञ्जय – हे सम्पत्ति के विजेता |

भावार्थ
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जो व्यक्ति अपने कर्मफलों का परित्याग करते हुए भक्ति करता है और जिसके संशय दिव्यज्ञान द्वारा विनष्ट हो चुके होते हैं वही वास्तव में आत्मपरायण है | हे धनञ्जय! वह कर्मों के बन्धन से नहीं बँधता |

तात्पर्य
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जो मनुष्य भगवद्गीता की शिक्षा का उसी रूप में पालन करता है जिस रूप में भगवान् श्रीकृष्ण ने दी थी, वो वह दिव्यज्ञान की कृपा से समस्त संशयों से मुक्त हो जाता है | पूर्णतः कृष्णभावनाभावित होने के कारण उसे श्रीभगवान् के अंश रूप में अपने स्वरूप का ज्ञान पहले ही हो जाता है | अतएव निस्सन्देह वह कर्मबन्धन से मुक्त है |

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Author: admin

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