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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 131 !!
“महाभावावस्था” – श्रीजगन्नाथ प्रभु
भाग 1
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दौड़ पड़े देवर्षि …….नाथ ! ये क्या है ?
आपके हाथ सब गल गए ………आपके चरण …..आपके ये नेत्र !
और आपके ही नही …….बलभद्र जी और बहन सुभद्रा के भी ।
बिलख उठे थे …………द्वार पर बैठे हैं ये तीनों ……….मध्य में बहन सुभद्रा हैं ……अगल बगल में कृष्ण और बलभद्र हैं ।
कुछ ही समय का भावावेश था……और अंतर्ध्यान हो गया वह रूप ।
पर श्रीकृष्ण चन्द्र जू के नेत्रों से अश्रु अभी भी बह रहे थे ।
शांतभाव से नारद जी का हाथ पकड़ कर ले गए एकान्त में ……..और सारी घटना बता दी ……..जो जो घटी थी ।
मैं “सुधर्मा सभा”( द्वारिकाधीश के सभागार का नाम) गया था …….मध्यान्ह में लौटकर आया राजभोग के लिये…….उसके बाद कुछ समय विश्राम करके …. फिर सन्ध्या को किसी विशेष कार्य के लिये सभा बुलाई गई थी …..मुझे महामन्त्री उद्धव नें कहा……तो मैं सन्ध्या के समय भी गया ।
देवर्षि ! उस समय यहाँ , समस्त मेरी रानियों नें …………..
श्रीकृष्ण चन्द्र जू बोलते गए ।
कौन है राधा ?
हमसे बड़ी हो गयी है अब राधा , सत्यभामा नें कहा ।
पर राधा के बारे में हम कुछ तो जानें………….मेरे मन में बहुत कौतुहल हो रहा है ……..वो गोप कन्या अभी भी हमारे पतिदेव को याद आती है ………और आश्चर्य ! विवाह भी नही किया उसनें ?
हम सोलह हजार होकर भी इनके हृदय में अपना स्थान नही बना पाईँ ।
जाम्बवती नें कहा ।
राधा के बारे में कौन बताएगा !…….सोचनें लगीं रुक्मणी ………कोई ऐसा तो होना चाहिये जो वृन्दावन में रहा हो………तभी प्रामाणिक बात निकल कर बाहर आएगी …………..
रोहिणी माँ ! सत्यभामा नें ही कहा ।
रुक्मणी जी प्रसन्न हो गयीं …………..अरे सत्यभामा !
बुला लाओ ना ! रोहिणी माँ को …………
रुक्मणी ये कह ही रही थीं कि – ओह ! माँ ! रोहिणी माँ !
वह किसी कार्यवश इधर ही आगयी थीं ।
माँ ! एक प्रार्थना है ……..हमारी बात आप को सुननी पड़ेगी ………
हाँ हाँ …….बोलो ! रुक्मणी ! माँ रोहिणी नें प्रेम से कहा ।
माँ ! ये राधा कौन है ?
ओह ! ये क्या पूछ लिया रुक्मणी नें…….सजल नयन हो गए “राधा” नाम सुनते ही रोहिणी माँ के ।
उफ़ ! क्यों इस विषय को छेड़ रही हो……..मैं जैसे तैसे अपनें को सम्भाले हूँ……रात रात में नींद नही आती ………वृन्दावन की ही याद आती है …….सोचती हूँ मुझे मेरे आर्यपुत्र वसुदेव जी क्यों ले आये यहाँ, इस खारे समुद्र में …………वहीं रहनें देते मुझे ……..मेरी जीजी ……..शायद सगी जीजी भी इतना प्यार नही देती, जितना यशोदा जीजी नें मुझे दिया ……….और वहाँ के लोग ………और वो प्रेम प्रतिमा श्रीराधा ……..रोहिणी माँ इससे आगे कुछ कह न सकीं ।
माँ ! तो हमें सुनाइये ‘राधा” के बारे में ……हमें सुनना है…
…..सब रानियों नें एक स्वर में कहा ।
पर – ना ना ! मैं नही कहूँगी …………मैं कैसे राधा के बारे में कहूँ ….? क्यों की राधा ………यानि साकार प्रेम …….उस प्रेम का मैं कैसे वर्णन करूँ ! रोहिणी माँ नें साफ मना कर दिया ।
फिर हमें कौन बतायेगा राधा के बारे में ? आपनें तो देखा है राधा को …..आपके सामनें तो सारी लीलाएं हुयी होंगीं ना !
रुक्मणी नें जिद्द की ।
किसी की बात काटना रोहिणी माँ को आता नही है …….ये स्वयं कहती भी हैं ……”ये गुण मैने यशोदा जीजी से बृज में सीखा है” ।
पर कृष्ण आगया तो ? क्यों की तुमनें ही देखा रुक्मणी !……कि वृन्दावन नाम लेते ही मेरे अश्रु निकल पड़े थे …….और वहाँ की लीला जब मैं सुनाऊँगी ………राधा और श्याम के प्रेम लीलाओं का वर्णन करूंगी……ना ! ना ! मुझे क्षमा करो……रोहिणी मैया जानें लगीं ।
देखिये ! बहन सुभद्रा भी आगयी हैं……….
भाभी ! क्या बात है …..क्यों परेशान कर रही हो माँ रोहिणी को ?
सुभद्रा हँसती हुयी बोलीं थीं ।
हमें राधा के बारे में सुनना है…….. रुक्मणी नें सुभद्रा से कहा ।
ओह ! यहाँ भी राधा …..वहाँ भी राधा ! क्या हो गया है द्वारिका को ……राधामय द्वारिका होनें जा रहा है ……..माथा पकड़ कर बैठ गयीं थीं सुभद्रा ।
बहन सुभद्रा ! क्या हुआ ? राधा को लेकर आप भी परेशान हो ?
सत्यभामा नें सहजता में कहा ।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल-
🕉️ राधे राधे🕉️
!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! अनिर्वचनीय रस !!
गतांक से आगे –
ओह ! ये रस वाणी का विषय नही है …ये रस तो पूर्ण अनुभव की वस्तु है …..और जिसने अनुभव किया वो बता भी नही सकता , क्या बतायेगा ? हमारे श्रीनिधिवन राज के विषय में कहा जाता है कि जो रात्रि में उस महारास का दर्शन कर लेता है …वो गूँगा हो जाता है या पागल हो जाता है …..भगवान के दर्शन करके भी पागल क्यों ? एक साधक ने पूछा , तो मैंने कहा था …सांसारिक सुख भी अति सुख आपके सामने आजाए …और एकाएक आजाए तो आपकी हृदय गति अवरुद्ध हो जाएगी कि नहीं ? फिर ये सुख तो महासुख है ….इसके विषय में तो कहना ही क्या ! भावना करो ….महारास चल रहा है ….युगल नाच रहे हैं अनन्त सखियाँ ताल पे ताल मिला रही हैं ….इस मधुर दृष्य को आप पचा पायेंगे …आपका ये पंचभौतिक देह पचा पायेगा ? और अगर पचा भी लिया नाम जाप आदि से ….तो आप पागल नही होंगे ये बात पक्के ढंग से आप कह सकते हैं ? जिसने उस दिव्य रास का दर्शन कर लिया वो तो संसार के किसी काम का रहा ही नही । कल टटिया स्थान के पास दो साधक मिले …मुझे देखते ही मेरे पास आये और बोले …पागल हो गये हैं “आज के विचार” पढ़ के ….अब तो प्रिया लाल जू से मिला ही दीजिए । मैंने कहा ….”पागल बनो” इसलिए तो मैं इतने वर्षों से लिख रहा हूँ …बिना पूर्ण पागलपन के “प्रिया लाल” मिलने वाले भी नही हैं ।
हे रसिकों ! ये रस अनिर्वचनीय है …..गूँगे के स्वाद की तरह है …इसलिए आप बस चलिए …..”चलहुँ चलहुँ चलिये निज देश” ।
!! पद !!
नवरंगी हो नवरंगी तुम न्याय दोउ नवरंगी ॥
श्रीबृन्दावन की कुंजगलिन में गरबहियाँ दै डोलौ ।
आपस में अनुरागे तता थेई थेई बोलौ ॥
जाने जात न गात साँवरे गोरे आँखिन आगे ।
प्यारी तें पिय पिय प्यारी तें बदलत वार न लागे ॥
जीते-से जगमगत जगत में कौन कहैं तुम हारे ।
हारे कहैं सोई हारे हैं कहि कहि कर्म तिहारे ॥
अलकलड़ैतीजू अलबेली अलकलड़ौ अलबेलौ ।
प्रिया प्रसन्नवदनी के पाछे मनभावै ज्यों खेलौ ॥
परम रमनीय दोउ रसिक राजीव मुख सकल सुख सींव सौभाग्य सीवाँ।
भाग अनुराग चित चौंप रसरंगभरे सुरति रति ररे दिये भुजा ग्रीवाँ ॥
साँवरी दुलहनी गौर दूलह निरखि हरखि हिय में हितू प्रान वारें ।
धन्य जिय में धरै सुमन बरषा करें मुद भरैं सब्द जै जै उचारें ॥
सिंधु सब सुखन के मूल मंगल महा मान जित मैंन के श्री श्रिया की ।
छबीलि छबिपावती सुरस बरषावती रहसि मनभावती श्रीहरिप्रिया की ॥ १७५ ॥
*आज प्रिया लाल जू श्रीवन में विहार कर रहे हैं ….दोनों ही विपरीत दशा में हैं …लाल जू प्रिया जी बन गए हैं और प्रिया जी लाल जू । पुष्पों का चयन कर रहीं हैं प्रिया जी उन्हें अपने प्रिय जू की वेणी गूँथनीं है । इनके पीछे अनन्त सखियाँ हैं ….वो सब अत्यन्त हर्षित इनके पीछे पीछे चल रही हैं …..गठजोर कर ही दिया है श्रीरंगदेवि जू ने । दोनों चूनरी और पीताम्बर से बंधे हुए श्रीवन के उन्मत्त हिरणों को देख रहे हैं …तो इनके सामने मोर भी आजाते हैं ….युगल वर मोर को स्नेह देते हैं ….अद्भुत रूप माधुरी बरस रही हैं इस समय श्रीवन में । पर पीछे चल रही सखियाँ अब चुप रहने वाली थोड़े ही थीं …वो सब मधुर वाणी में गारी देना आरम्भ कर देती हैं …..
हे प्रिया लाल ! एक बात कहती हैं बुरा मत मानना …नव रँग से रँगे हो …तभी तो इस श्रीवन में खुल कर गलवैयाँ दिए उन्मत्त विहार कर रहे हो ….ये भी नही सोचते कि हम क्या सोचेंगी ? ये कहकर सखियाँ हंसती हैं ….खूब हंसती हैं ….इतने निर्लज्ज न बनो । एक सखी बोली …इसमें निर्लज्जता की बात कहाँ है ? ये सीधे सीधे चल तो रहे हैं …कर क्या रहे हैं सो ? हरिप्रिया सखी हंसते हुए कहती हैं ….चलें , सीधे सीधे चलें ….हमें कोई दिक्कत नही हैं….किन्तु ये तो “ताता थई -ताता थई” कहकर मटकते हुए चल रहे हैं । ये क्यों ? एक बात और कहूँ ! हरिप्रिया सब सखियों से पूछती हैं ….हाँ हाँ कहो सखी जू ! सब एक साथ कहती हैं । देखो ! ये जो श्याम सुन्दर हैं ना …इनकी जात का हमें क्या पता ! और काले और हैं ….काले की लीला को समझना बड़ा कठिन है ….और ये तो बाहर से भी काले नही …भीतर से भी काले हैं …ये सुनकर सब सखियाँ खूब हंसीं । हर समय जीतते हो ….कभी हारा भी करो प्यारे ! हारने में जो सुख है वो जीतने में कहाँ है ? श्याम सुन्दर ये सुनकर हंसे और रुक कर हरिप्रिया की ओर देखा …हए ! हरिप्रिया ने अपनी छाती में हाथ रखकर आह भरी । हे श्याम सुन्दर ! वैसे तुम्हें हराने वाली हमारी स्वामिनी ही हैं …..इनके आगे हारे ही रहते हो …हारे हो तभी तो इनके पीछे चल रहे हो …बलिहारी जाऊँ तुम्हारी प्राण प्यारे ! हरिप्रिया बलैयाँ लेती हैं । वैसे सुरत संग्राम में तुम हार जाते हो हमारी प्रिया जी के आगे ….उनके अंगों को देखते ही तुम देह भान खो बैठते हो ….हारे हो तुम हारे । वैसे ….हरिप्रिया मुस्कुराकर कहती हैं ….अब क्या कहूँ …तुम्हारे कर्म मुझ से छिपे तो हैं नहीं …इसलिए तो तुम बोल नही पा रहे …क्या बोलोगे तुम्हारा भेद तो हम खोल देंगी ।
ये बोलकर हरिप्रिया अब निहारने लगीं थीं दोनों को …..
हे श्याम सुन्दर! तुम लाड़ले हो हम सबके , और ये लाड़ली हैं हम सब सखियों की …जीते रहो …ऐसे ही गलवैयाँ दिये इस श्रीवन की शोभा बढ़ाते रहो ….हम देख रहीं हैं तुम्हारे नयनों में रति रँग छा गया है ….सुरत केलि की इच्छा तुम्हारे हृदय में प्रकट हो रही है ।
ओह ! अब पूरी तरह से युगल सरकार सखियों की ओर उन्मुख हुए तो जब देखा सखियों ने इन्हें ….तो सब जयजयकार करने लगीं …..और हरिप्रिया हंसते हुए बोली ….साँवरी दुलहन और गोरे दुलहा क्या शोभा बनी है तुम दोनों की । हम क्या चढ़ायें तुम दोनों को ….अपने प्राण न्योछावर करती हैं …..ये कहते हुए हरिप्रिया के नेत्र भाव के कारण सजल हो गये थे ….फिर तो पुष्पों की डलिया लेकर जय जयकार करते हुये ये पुष्प बरसाने लगीं थीं । उस समय रस की जो स्थिति बनी ….वो अनिर्वचनीय थी !
क्रमशः….
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (086)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
प्रेम में सूखी जा रहीं गोपियाँ आखिर बोलीं
दिल जलता है, आँखें बहती हैं! क्या स्वभाव है! दिल में ताप होता है, तो चीज गर्म की जाती है वही तो गलती है, वही द्रवित होती है, वही गीली होती है, परंतु गीली होती हैं आँखें। एक कवि ने लिखा है- आँसू बनकर आग बरसने आयी, ठीक से हमको याद नहीं है- ‘जो घनीभूत पीड़ा थी’ पीड़ा जो है घन बन गयी बादल बन गयी, और वह आँखों से आँसू बनकर बरसती है। लेकिन उसमें मिल गया कज्जल, क्यों? इसलिए कि हमारे हृदय में जो रोग है वह साँवरे का है, गोरे का नहीं है। हमारे दिल में काला है, इसलिए काले आँसू बह रहे हैं, श्याम राग कज्जल मिलने से आँसू हो गये काले! नारायण! तो अब देखो, आँसू बहते हैं तो केसर को धोते हैं; कहते हैं, यदि श्याम नहीं मिले, तो अब श्रृंगार किस काम का? जब उन्होंने ही मना कर दिया तो वक्षस्थल को धो दो, इस पर तो अब केसर का नहीं, काजल का लेप स्याही लगा दो।
ये कृष्ण को दिखाना चाहती हैं, बताना चाहती है हमारे हृदय में कितनी व्याकुलता है। घनश्याम रस की वर्षा कराकर घनश्याम को बताना चाहती हैं कि तुम भी रस बरसो, ना! कठोर क्यों हो रहे हो? कहती हैं, यदि इन आँखों से श्यामसुन्दर देखने को नहीं मिलते तो इनका अंधा हो जाना ही श्रेष्ठ है। दोनों आँखों से महाराज वह यमुना निकली, काली-काली नदी, और ये हृदय पर आवे तो सूख जाय क्योंकि वहाँ पर विरह का ताप है। श्यामसुन्दर के त्याग का ताप बड़ा है कि ये आँखों से निकलने वाली यमुना बड़ी है? दो यमुना-प्रवाह, दो-दो यमुना आकर हृदय पर, वक्षस्थल पर सूख जाती हैं। देखो, हमने गाँव में देखा था कि कोई लकड़ी चीरनी होती है तो एक सूत रंग लेते हैं।
कोयला पीसकर उसमें सूत को काला रंग लेते हैं, फिर उससे लकड़ी पर निशान लगाते हैं कि आरा जायेगा तो कहाँ-कहाँ होता हुआ जाएगा। बोले- यह जो विरहा का बढ़ई है वह हमारे शरीर को चीरना चाहता है। चीरने के लिए इसने कज्जलमिश्रित आँसू से ये दो रेखाएं बनायी हैं, इस पर चीरते चले जाओगे तो कलेजा जो है, दिल जो है चीर-चीर हो जावेगा, चीरने के लिए निशान बैठा दिया है इसलिए आँखों से आँसू बह रहे हैं।+
खैर आप देखो- अस्त्रैरुपात्तमषिभिः कुचुकुंगमानि तस्थुर्मृजन्त्य उरुदुःखभराः स्म तूष्णीम।।
भगवान से मिलना है, और राग है हृदय में? प्रत्यक्चैतन्याभिन्न ब्रह्म का साक्षात्कार करना है और केसर का राग-रंग है हृदय में? तो यह राग धलना चाहिए कि नहीं? रागो लिंगमबोधस्य। वीतरागभयक्रोधैः मुनिर्भिवेदपारगैः ।। अभ्यासवाग्याभ्यां तन्निरोधः। वीतरागभयक्रोधः ।* राग दो तरह का होता है; एक शरीर से बाहर की चीजों का राग और दूसरा शरीर से चीजों का राग। भक्त में शरीर से बाहर की चीजों का राग कभी नहीं आता; लेकिन शरीर के भीतर की जो चीजें हैं ना, उनमें यह अहं जो है वह कभी बढ़ जाता है, कभी घट जाता है, कभी फूलता है, कभी पटकता है।’
तो गोपियों ने कहा, कि यह हमारे हृदय पर जो कुमकुम-राग है; केसर का राग है, वह दुनिया का रंग है, संसार का रंग है। प्यारे से मिलने के लिए दिल में संसार की रंगीनी नहीं चाहिए, जिस प्यारे से मिलना है उसी का राग चाहिए, उसी का रंग चाहिए। इसलिए उन्होंने श्याम रंग आँखों से निकालकर अपने हृदय पर जो केसर का रंग था उसको पोंछ दिया और बोलीं कि हमारे हृदय में भी श्यामरंग ही है, केसर का रंग नहीं है। श्रवसोकुवलयनं गोपी कान में कमलाकर आभूषण धारण तो करती है, लेकिन नीलम का। श्रवसोकुवलयनं अक्षिणो अज्जनं आँखों में श्याम अज्जन लगाती हैं, और हृदय में हार पहनती हैं, परंतु वह भी नीला- यह महाकवि कर्णपूर का प्रथम श्लोक माना जाता है।
श्रवसो कुवसो कुलयं अक्षणो अञ्जनं उरसो महेंद्र मणिदानं वृन्दावनरमणीनां।
मण्नमखिलं हरिर्जयति- गोपियाँ सोने-चाँदी का आभूषण नहीं पहनती हैं, सोने-चाँदी से उनको प्रेम नहीं है; उनको अपने-अपने शरीर को सजाना है, पर श्याम रंग की वस्तुओं से सजाना है, कषाय रंग की वस्तुओं से नहीं सजाना है। उनको कषाय नहीं चाहिए माने उनको संसार का राग नहीं चाहिए। परमात्मा के साक्षात्कार के लिए हृदय का रागद्वेष रहित होना आवश्यक है।++
गोपियों ने कहा कि ये श्रीकृष्ण ने हमको मना किया तो इसमें जरूर हमारे हृदय में ही कोई दोष होगा। प्रेम में सारी बुद्धि इस दृष्टि से काम करती कि अपने प्रियतम को सुख पहुँचे। प्रेम में दोष कहाँ होगा? कि जहाँ अपने सुख की बात आ जायेगी। अब अपने सुख के लिए प्रियतम के सिवाय दूसरे को देखना, यह तो व्यभिचार होगा और प्रियतम के सुख के लिए प्रियतम के अतिरिक्त अपने को सुख पहुँचाना, यह व्यभिचार तो नहीं हुआ। लेकिन अभिमान के कारण प्रेम का रस किरकिरा हो गया। तो ये गोपियाँ क्या करती हैं कि अस्त्रैरुपात्तमषिभिः कुचुकुंगमानि तस्थुर्मृजन्त्य श्यामरागरंजित आँसू से केसर राग-रंजित हृदय को धो रही हैं, माने अपने हृदय को शुद्ध कर रही हैं। प्रियतम की अप्राप्ति से उनको बड़ी भारी पीड़ा है, और मुँह से शब्द नहीं निकलता- उरुदुःखभराः स्म तूष्णीम्। प्रेम का स्वभाव यह है कि उसमें जिससे सुख होता है उसी से दुःख होता है। अगर दूसरे से दुःख होता हो, तब तो वह प्रेम ही नहीं है। वह तो जिससे दुःख होगा उससे द्वेष हो जावेगा, लेकिन प्रियतम से दुःख होगा तो प्रियतम से द्वेष नहीं होगा।
देखो, जब तक मनुष्य का शरीर है, तब तक दुःख-सुख तो दोनों आवेंगे, लेकिन जिसको अपने दुश्मन से दुःख मिलेगा, उसके हृदय में दुश्मन के प्रति-द्वेष का उदय होगा। लेकिन हमारे हृदय में यदि अपने प्रियतम से दुःख होगा तो प्रियतम के प्रति द्वेष का उदय नहीं होगा, और जो पीड़ा होनी है, जो प्रारब्ध से दुःख आना है वह सब भोग हो जायेगा। अच्छा कहो कि प्रेम करें किसी दूसरे से और सुख मिले दूसरे से, तो चलेगा? बोले- नहीं चलेगा। प्रेम में स्वसुख पर तो दृष्टि ही नहीं है, फिर उसे दूसरे से प्राप्त करना तो व्यभिचार है। प्रेम में प्रियतम को सुख पहुँचाना है, जैसे भी पहुँचे। यदि प्रियतम कैसे भी प्रसन्न नहीं हो पाता तो प्रेमी के हृदय में यह तकलीफ होती है कि अरे, हमारा जीवन हमारे प्रियतम को प्रसन्न करने के काम नहीं आया। प्रेम क्रिया प्रधान नहीं है, प्रेम भोगप्रधान नहीं है, प्रेम वस्तुप्रधान नहीं चाहे। चाहे अपना प्रियतम प्रत्यक्ष हो, चाहे अपना प्रियतम ईश्वर-चैतन्य हो, चाहे अपना प्रियतम प्रत्यक्-चैतन्याभिन्न हो, प्रियतम की जो स्वयं प्रकाशता है वही प्रेमी को अभीष्ट है। इसलिए गोपियाँ खड़ी हैं शरीर से; लेकिन ‘तूष्णीम्’ एक क्षण के लिए हो तो उनकी बोलती बंद हो गयी, और दुःख के भोर से दब गयी। फिर उनके मन में आया कि प्रियतम अपना है, कोई पराया तो है नहीं। तो बोलीं- फिर तो इनको गाली देकर ठीक करेंगे- संरम्भ गद्गद गिरोऽब्रुवतानुरक्ताः ।। इनको गाली देकर ठीक करेंगे, इनको मारकर ठीक करेंगे, इनको नाराज करके ठीक करेंगे, श्राप देकर भी ठीक करेंगे।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
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श्लोक 5 . 25
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लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः |
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः || २५ ||
लभन्ते – प्राप्त करते हैं; ब्रह्म-निर्वाणम् – मुक्ति; ऋषयः – अन्तर से क्रियाशील रहने वाले; क्षीण-कल्मषाः – समस्त पापों से रहित; छिन्न – निवृत्त होकर; द्वैधाः – द्वैत से; यत-आत्मानः – आत्म-साक्षात्कार में निरत; सर्वभूत – समस्त जीवों के; हिते – कल्याण में; रताः – लगे हुए |
भावार्थ
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जो लोग संशय से उत्पन्न होने वाले द्वैत से परे हैं, जिनके मन आत्म-साक्षात्कार में रत हैं, जो समस्त जीवों के कल्याणकार्य करने में सदैव व्यस्त रहते हैं और जो समस्त पापों से रहित हैं, वे ब्रह्मनिर्वाण (मुक्ति) को प्राप्त होते हैं |
तात्पर्य
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केवल वही व्यक्ति सभी जीवों के कल्याणकार्य में रत कहा जाएगा जो पूर्णतया कृष्णभावनाभावित है | जब व्यक्ति को यह वास्तविक ज्ञान हो जाता है कि कृष्ण हि सभी वस्तुओं के उद्गम हैं तब वह जो भी कर्म करता है सबों के हित को ध्यान में रखकर करता है | परमभोक्ता, परमनियन्ता तथा परमसखा कृष्ण को भूल जाना मानवता के क्लेशों का कारण है | अतः समग्र मानवता के लिए कार्य करना सबसे बड़ा कल्याणकार्य है | कोई भी मनुष्य ऐसे श्रेष्ठ कार्य में तब तक नहीं लग पाता जब तक वह स्वयं मुक्त न हो | कृष्णभावनाभावित मनुष्य के हृदय में कृष्ण की सर्वोच्चता पर बिलकुल संदेह नहीं रहता | वह इसीलिए सन्देह नहीं करता क्योंकि वह समस्त पापों से रहित होता है | ऐसा है – यह दैवी प्रेम |
जो व्यक्ति मानव समाज का भौतिक कल्याण करने में ही व्यस्त रहता है वह वास्तव में किसी की भी सहायता नहीं कर सकता | शरीर तथा मन की क्षणिक खुशी सन्तोषजनक नहीं होती | जीवन-संघर्ष में कठिनाइयों का वास्तविक कारण मनुष्य द्वारा परमेश्र्वर से अपने सम्बन्ध की विस्मृति में ढूँढा जा सकता है | जब मनुष्य कृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध के प्रति सचेष्ट रहता है जो वह वास्तव में मुक्तात्मा होता है, भले हि वह भौतिक शरीर के जाल में फँसा हो |


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