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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 131 !!
“महाभावावस्था” – श्रीजगन्नाथ प्रभु
भाग 2
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ओह ! यहाँ भी राधा …..वहाँ भी राधा ! क्या हो गया है द्वारिका को ……राधामय द्वारिका होनें जा रहा है ……..माथा पकड़ कर बैठ गयीं थीं सुभद्रा ।
बहन सुभद्रा ! क्या हुआ ? राधा को लेकर आप भी परेशान हो ?
सत्यभामा नें सहजता में कहा ।
मेरे पतिदेव भी आये हैं वृन्दावन से…..पता नही ……रात रात भर मुझे ……कुञ्ज, निकुञ्ज, नित्य निकुञ्ज ……..इनके रहस्य ….और सर्वेश्वरी श्रीराधारानी……..मैं यही सुन रही हूँ आज कल अपनें पति ( अर्जुन ) के मुखारविन्द से ।
माँ रोहिणी !
एक काम हो सकता है ……प्रसन्न होते हुए रुक्मणी बोलीं ।
क्यों न द्वार पे सुभद्रा बहन जी को बैठाया जाए……..और भीतर महल में आप हमें “राधा” के विषय में सुनाइये ।
हाँ ………ये हो सकता है ……….रोहिणी माँ नें कहा ।
जी ! मैं बैठ जाऊँगी दरवाजे में …….सुभद्रा नें भी स्वीकृति दे दी ।
बस फिर क्या था……..तुरन्त ही समस्त रानियाँ इकट्ठी हुयीं …….भीतर महल में …….एक ऊँचे आसन पर माँ रोहिणी विराजीं ……..द्वार पर सुभद्रा बैठ गयीं ……………पहरेदारी करनें के लिये …..क्यों कि श्रीराधा का प्रसंग था …….पुत्र का प्रेम प्रसंग माँ कहे ……उसे पुत्र सुन ले …….ये कुछ शोभा नही देता …..इसलिये ही सुभद्रा को द्वार पर बैठाया था …….कि कृष्ण के आते ही आवाज लगा देना …….मैं चुप हो जाऊँगी ………।
द्वार पर सुभद्रा बैठ गयीं ……भीतर महल में “श्रीराधाचरित” प्रारम्भ हुआ ……..बोल रही हैं माँ रोहिणी ।
“बरसाना गाँव हैं ………बड़ा सुन्दर गाँव है …..श्रीबृषभान नामक गोप वहाँ के मुखिया हैं ………उनकी अर्धांगिनी श्रीकीर्तिरानी………
उनके यहाँ ही प्रकटीं – श्रीराधा ।
“हमारे कन्हैया”….. हँसीं ……”अब वृन्दावन का प्रसंग है …तो वहाँ तो यही कहते थे”………रोहिणी माँ नें कहा ।
कन्हैया ! सब रानियाँ भी हँसीं………..ये नाम था वृन्दावन में ।
बहुत नाम थे …….कान्हा, कन्हैया, कानू, श्याम , श्याम सुन्दर , मुरलीधर………रोहिणी माँ ये सब बोलते बोलते भाव में डूबनें लगीं ।
राधा और कृष्ण का प्रेम हो गया ………..गहरा प्रेम !
ऐसा प्रेम …..जिसके बारे में ये संसार सोच भी नही सकता ……..ये दो लगते थे ……पर थे नही ………एक ही थे ।
बाँसुरी थी कृष्ण के हाथों में …….और पायल राधा की ।
इधर बाँसुरी बजी वृन्दावन में ……..उधर राधा दौड़ी बरसानें से ।
दोनों एक दूसरे में लीन….राधा हँसती, कृष्ण हँसते …….राधा रोती कृष्ण रोते …..राधा राधा राधा ….बस, ये कृष्ण के जीवन में साथ थी ।
माँ रोहिणी आँखें बन्द करके सुना रही हैं ………..
उधर –
उद्धव ! मन नही लग रहा सभा में …….पता नही क्यों कृष्ण एकाएक बैचेन हो उठे थे ……….मैं जा रहा हूँ ………उद्धव ! मैं जा रहा हूँ ।
उद्धव जी नें देखा ……..आज कि सभा महत्वपूर्ण है …….देवता तक उपस्थित हैं आज इस सभा में ……….
उद्धव नें धीरे से धीरे से द्वारिकाधीश के कान में कहा ……….आपको आज सभा में रहना ही होगा प्रभु ! देखिये देवता गण बैठे हैं ……….विश्व में ही आपकी ये ऐसी सभा है …….जिसमें देवता भी आते हैं ……और सभा में भाग लेते हैं ।
कृष्ण चन्द्र जू नें उद्धव कि ओर देखा……..और सिर हिलाकर बोले ….ठीक है ….बैठा हूँ ।
पर कुछ ही देर में फिर……….उद्धव ! मुझे बैचेनी हो रही है …….पता नही क्यों ……….मुझे रोना आरहा है ……..मुझे लग रहा है मैं अकेले में कहीं जाऊँ ……………कृष्ण चन्द्र जू की बातें सुनकर उद्धव नें सभा को वहीँ विसर्जित किया ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल-
🕉️ राधे राधे🕉️
!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! धनि धनि भाग मनावौ री !!
गतांक से आगे –
सखियाँ तत्सुखसुखित्व की भावना से पूर्ण हैं ……इनकी प्रत्येक क्रिया युगलवर को सुख मिले इसलिए ही है । इनके हृदय में अगाध भाव सिन्धु लहराता रहता है । युगल के चारों ओर ही ये मंडराती रहती हैं …क्यों की यही युगल इनके प्राणधन हैं …जीवन सर्वस्व हैं । ये इन्हीं के लिए हैं इन सखियों का अलग से कोई अस्तित्व ही नही हैं ….इन्हें रखना भी नही हैं । ये प्रातः उठाती हैं इन सुकुमार युगल को ….फिर कुछ खिलाकर श्रीवन में भ्रमण करवाती हैं …वहाँ से आकर स्नान आदि होता है …फिर सखियाँ इनका शृंगार करती हैं …..फिर आरती ….शृंगार आरती । इसके बाद राज भोग लगाया जाता है ….फिर दोपहर में शयन ….सन्ध्या में उत्सव आदि होते हैं ….सखियों के मन में जो आता है ….किस तरह अपने उत्साह को प्रकट करें …..किस तरह हृदय में उमड़ रहे आनन्द की अभिव्यक्ति होने दें …..तो उस समय उत्सव होते हैं …..इस बार ब्याहुला उत्सव सखियों ने ही रचाया था । खूब नाचीं , गायीं , युगल को लाड़ किया । ब्याहुला उत्सव पूर्ण हुआ है …..अब ? चलिए ! स्वयं ही चल कर देखते हैं कि सखियाँ अब क्या करेंगी ? और हाँ …”धनि धनि भाग मनावौ री” , सखियाँ अपना भाग मना रहीं हैं ….कह रही हैं हमारे जैसा भागवान कौन होगा ? आप भी मना रहे हैं ? अपने भाग ।
॥ दोहा ॥
नव नव आनंद नित करें प्रेम-प्रकास सदीव ।
जै जै दूलह दुलहनी, पौढ़ावौ दोउ पीव ॥
॥ पद ॥
दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री, छबि निरखत नैंन सिरावौ री।
दूलह दुलहनि पौढ़ावो री, दुरि दुरि दृग देखि सिहावौ री ॥
रसरंग में रैंनि बिहावौ री, बहु मनबंछित फल पावौ री।
धनि धनि निज भाग मनावौ री, श्रीहरिप्रिया की बलि जावौ री ॥ १७७ ॥
श्रीवन में भ्रमण करते युगल को निहार कर जब सखियों को ये अनुभव हुआ कि …ये सुकुमार किशोर किशोरी अब थक गए होंगे ! सुबह से ही ब्याह उत्सव की धूम चल रही है …अब, अब रात्रि भी होने आयी है ….इन्हें क्या ? श्रीरँगदेवि सखी जू कहती हैं ….ये तो बालक हैं इन्हें तो केलि में ही रस आता है …किन्तु सखियों ! हमें ध्यान देना ही होगा ना ! थक गए हैं ये अब इन्हें सुलाओ । श्रीरंगदेवि जू ने अपनी प्यारी सखी हरिप्रिया को ये बात कही ….तभी देखते ही देखते ….सामने एक “नवल रँग महल” मणि माणिक्य से तैयार था ये महल । उस महल में सुगन्धित दीप जल रहे थे ….उसके प्रकाश में पूरा महल जगमग हो रहा था । उस महल में नवल सेज था …जो अत्यंत कोमल और मृदु था । पुष्पों की अद्भुत कलाकारी उस महल पर की गयी थी …सुगन्ध मादक थी उस महल की । झरोखे थे जिसमें सुन्दर सुन्दर पर्दे लगे थे ।
इसी नव रँगमहल में अब लाना है इन दम्पतिकिशोर को ।
हे सखियों ! बहुत आनन्द दिया इन दम्पति ने …हमारे हृदय में तो प्रेम का प्रकाश ही कर दिया ….अब एक काम करो …इन्हें ले चलो नव रँगमहल में ..वहाँ इन्हें सुलाओ …फिर ये विहरेंगे …..हरिप्रिया अपनी सखियों से कहती हैं ….अपने नयनों को शीतल करो । उस श्याम गौर के परम मिलन का दर्शन करके अपने आपको रस में डुबो दो । देखो ! रस भी होगा और उस रस में रँग भी चढ़ेगा …और वो रँग रात्रि में फैलेगा ….सखी ! उस रैन में फैलने वाले रस रँग को अपने हृदय में अनुभव करो ….देखो ! तुम जो मन में कामना करोगी ना सब की पूर्ति होगी …क्यों की यही हैं वो , जो समस्त की मन कामना पूर्ण करने वाले …..फिर हम तो इनकी हैं …..सगी हैं …ये कहते हुए हरिप्रिया खूब हंसती हैं ….और फूल गयीं हैं …अपने को युगल की सगी बताते हुए ।
सभी सखियाँ अति उमंग में भरकर युगल के पास जाती हैं …हरिप्रिया सखी प्रार्थना करती हैं ।
क्रमशः….
श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
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श्लोक 5 . 26
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कामक्रोधविमुक्तानां यतीन यतचेतसाम् |
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् || २६ ||
काम – इच्छाओं; क्रोध – तथा क्रोध से; विमुक्तानाम् – मुक्त पुरुषों की; यतीनाम् – साधु पुरुषों की; यत-चेतसाम् – मन के ऊपर संयम रखने वालों की; अभितः – निकट भविष्य में आश्र्वस्त; ब्रह्म-निर्वाणम् – ब्रह्म में मुक्ति; वर्तते – होती है; विदित-आत्मानम् – स्वरुपसिद्धों की |
भावार्थ
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जो क्रोध तथा समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हैं, जो स्वरुपसिद्ध, आत्मसंयमी हैं और संसिद्धि के लिए निरन्तर प्रयास करते हैं उनकी मुक्ति निकट भविष्य में सुनिश्चित है |
तात्पर्य
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मोक्ष के लिए सतत प्रयत्नशील रहने वाले साधुपुरुषों में से जो कृष्णभावनाभावित होता है वह सर्वश्रेष्ठ है | इस तथ्य की पुष्टि भागवत में (४.२२.३९) इस प्रकार हुई है –
यत्पादपंकजपलाशविलासभक्त्या
कर्माशयं ग्रथितमुद्ग्रथयन्ति सन्तः |
तद्वन्न रिक्तमतयो यतयोSपि रुद्ध-
स्त्रोतोगणास्तमरणं भज वासुदेवम् ||
“भक्तिपूर्वक भगवन् वासुदेव की पूजा करने का प्रयास तो करो! बड़े से बड़े साधु पुरुष भी इन्द्रियों के वेग को अपनी कुशलता से रोक पाने में समर्थ नहीं हो पाते जितना कि वे जो सकामकर्मों की तीव्र इच्छा को समूल नष्ट करके और भगवान् के चरणकमलों की सेवा करके दिव्य आनन्द में लीन रहते हैं |”
बद्धजीव में कर्म के फलों को भोगने की इच्छा इतनी बलवती होती है कि ऋषियों-मुनियों तक के लिए कठोर परिश्रम के बावजूद ऐसी इच्छाओं को वश में करना कठिन होता है | जो भगद्भक्त कृष्णचेतना में निरन्तर भक्ति करता है और आत्म-साक्षात्कार में सिद्ध होता है, वह शीघ्र हि मुक्ति प्राप्त करता है | आत्म-साक्षात्कार का पूर्णज्ञान होने से वह निरन्तर समाधिस्थ रहता है | ऐसा हि एक उदाहरण दिया जा रहा है-
दर्शनध्यानसंस्पर्शैः मत्स्यकूर्मविहंगमाः |
स्वान्यपत्यानि पुष्णन्ति तथाहमपि पद्मज ||
“मछली, कछुवा तथा पक्षी केवल दृष्टि, चिन्तन तथा स्पर्श से अपनी सन्तानों को पालते हैं | हे पद्मज! मैं भी उसी तरह करता हूँ |”
मछली अपने बच्चों को केवल देखकर बड़ा करती है | कछुवा केवल चिन्तन द्वारा अपने बच्चों को पालता है | कछुवा अपने अण्डे स्थल में देता है और स्वयं जल में रहने के कारण निरन्तर अण्डों का चिन्तन करता रहता है | इसी प्रकार भगवद्भक्त, भगवद्धाम से दूर स्थिर रहकर भी भगवान् का चिन्तन करके कृष्णभावनामृत द्वारा उनके धाम पहुँच सकता है | उसे भौतिक क्लेशों का अनुभव नहीं होता | यह जीवन-अवस्था ब्रह्मनिर्वाण अर्थात् भगवान् में निरन्तर लीन रहने के कारण भौतिक कष्टों का अभाव कहलाती है |
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