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July 31, 2025 11:55 am

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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 131 !!(3),!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!,महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (087)& श्रीमद्भगवद्गीता: Niru Ashra

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 131 !!(3),!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!,महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (087)& श्रीमद्भगवद्गीता: Niru Ashra

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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 131 !!

“महाभावावस्था” – श्रीजगन्नाथ प्रभु
भाग 3

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कृष्ण चन्द्र जू नें उद्धव कि ओर देखा……..और सिर हिलाकर बोले ….ठीक है ….बैठा हूँ ।

पर कुछ ही देर में फिर……….उद्धव ! मुझे बैचेनी हो रही है …….पता नही क्यों ……….मुझे रोना आरहा है ……..मुझे लग रहा है मैं अकेले में कहीं जाऊँ ……………कृष्ण चन्द्र जू की बातें सुनकर उद्धव नें सभा को वहीँ विसर्जित किया ।

क्या हुआ ? क्या हुआ तुम्हे कृष्ण ?

बलभद्र तुरन्त आये …………उद्धव नें बलराम जी से कहा …….भैया ! आप प्रभु को महल में ले जाएँ ……मैं सबको विदा करके आता हूँ ।

हाँ …….चलो ! हाथ पकड़ कर ले गए बलराम जी ।

महल के द्वार पर…………सुभद्रा बैठीं हैं ………….बलराम जी और कृष्ण भीतर जानें लगे …….तो सुभद्रा नें रोक दिया ।

भैया ! अभी नही…….”कुछ चल रहा है महिलाओं का” …….फिर हँसी और अपनें दोनों भाइयों का हाथ पकड़ कर बैठा लिया अपनें ही पास ।

ठीक है ………यहीं बैठते हैं कुछ देर ………कृष्ण नें कहा …..बलराम नें भी समर्थन किया …….सुभद्रा मुस्कुराईं ।


राधा , राधा ! क्या कहूँ मैं राधा के बारे में ………वो प्रीति की मूरत है ……….पता है रानियों ! कृष्ण जब मथुरा के लिए चले थे ना …..तब सब रो रही थीं ………पर मैने देखा था …………वो शान्त थी …..वो बस अपलक देखे जा रही थी ।

पता है रानियों ! राधा क्यों नही रोईं ? इसलिये नही रोई कि …….किसी नें कह दिया था …….कि यात्रा के समय कोई रोता है तो जानें वाले का असगुन होता है …..वो नही रोई ….इसलिये नही रोई ।

पर जैसे ही रथ चला …………………

भावावेश में रोहणी माँ भी आगयीं थीं ……….बोलते बोलते …..उनकी आवाज तेज़ होती जा रही थी ……………..वो आवाज महल से निकल कर बाहर आरही थी ……………पहले तो हल्की आवाज में कृष्ण नें सुना ……..’राधा प्रेम की मुरति है”………….राधा ! कृष्ण को भाव आगया ………राधा ! राधा नाम ? मेरी श्रीराधा ?

सुननें लगे ध्यान से ………अब आवाज तेज़ तेज़ और तेज़ होती गयी ….क्यों की बोलनें वाली जो थीं ……..वो भी इन प्रेम प्रसंगों को कहते हुए भाव विभोर हो रही थीं ।

सुभद्रा के कानो में गयी “राधाचरित”…..बलभद्र जी सुन रहे हैं …….और कृष्ण ……………

राधा की कोई होड़ नही है ………राधा कुछ चाहती भी नही है ………उसकी कोई कामना ही नही है ……….पता है राधा की एक ही कामना है …….वो कामना है ….”कृष्ण खुश रहे …..कृष्ण प्रसन्न रहे ।

ये क्या ! कृष्ण की हिलकियाँ छूट पडीं………उनके नेत्रों से अविरल अश्रु प्रवाह चल पड़ा……….इतना ही नही …..बलराम जी के भी …….दोनों भाइयों के ही नही ……..मध्य में बैठीं बहन सुभद्रा के भी ।

वो राधा है ……..हाँ मानिनी थी ……..रूठ जाती थी कृष्ण से…….पर अपना कृष्ण उसे मनानें के लिए क्या नही करता था ।

रोहिणी माँ बोल रही हैं ………..भाव में बोल रही हैं ।

पर बाहर ………अरे ! ये क्या ? आँसू बहते बहते कृष्ण चन्द्र की आँखें……बाहर उभर आयीं थीं ।

हाथ सिकुड़नें लगे …………विरह के मारे देह सुकुड़नें लगा ……..”राधा राधा राधा” ……..रोम रोम उनका बोल रहा था ।

अरे ! यही दशा बलराम जी की भी ….और यही दशा बहन सुभद्रा की भी ………….तीनों महाभावावस्था को प्राप्त हो गए थे ।

कण्ठ अवरुद्ध हो गया था इन तीनों का ।

ओह ! ये क्या होगया !

देवर्षि दौड़े दौड़े आये ……………सबसे पहले तो महल के भीतर ही गए ……और चिल्लाकर बोले ……..”बन्द करो” ।

पता है तुम लोगों को बाहर श्रीकृष्ण चन्द्र और बलभद्र जू और बहन सुभद्रा की कैसी दशा हुयी है !

नारद जी नें बन्द करवाया इस प्रेम प्रसंग को ………..

रानियाँ जब बाहर आईँ ………देखा ……..तो स्तब्ध रह गयीं ।

महाभावावस्था को प्राप्त हो चुके थे, ये तीनों ………..हाथ सिकुड़ गए थे विरहाग्नि में झुलस कर ….चरण भी, और नेत्र बाहर उभर आये थे ।

रानियाँ इस रूप को देख नही पाईँ …….वो सब रोनें लगीं ……..तब देवर्षि नें समझाया …………ये दिव्य रूप है हमारे कृष्ण चन्द्र जू का ….ये तत्वमय रूप है हमारे श्रीकृष्ण जू का ……….ये प्रेम रूप अद्भुत है …….निराला है………देवर्षि नारद जी नें साष्टांग प्रणाम किया ।

पर ये क्या कुछ ही समय रहा वो रूप …….फिर अंतर्ध्यान हो गया ।

तब एकान्त में देवर्षि को समझाते हुए बोले कृष्ण ………..

“प्रेम तत्व सबसे बड़ा है………अगर प्रेम तत्व को जानना है ……..तो मेरी श्रीराधारानी को जानना भी आवश्यक है ……….हे देवर्षि ! इस रूप को मैं प्रकट करूँगा ……समय आनें दो ……….कलियुग में ये रूप मेरा प्रकट होगा ………और जगत में प्रेम का विस्तार करेगा ।

जय जय मेरे नाथ ! पर आप इस रूप से “जगन्नाथ” हैं ……..जगत में प्रेम का प्रसार करेंगें ……..जय हो, जय हो ।

नारद जी नें साष्टांग प्रणाम किया ।

हाँ देवर्षि ! भक्तराज राजा इन्द्रद्युम्न के माध्यम से इस रूप का फिर प्राकट्य होगा ……भक्तराज की हजारों वर्षों की तपस्या भी तो है, उसी के चलते मैं “दारु ब्रह्म” के रूप में इसी स्वरूप में प्रकट होऊंगा ।

“जगन्नाथ” नाम से मैं प्रेम प्रदान करूँगा विश्व को ……….पर इस मेरे प्रेम प्रदाता बननें में …….पूरा योगदान मेरी श्रीराधारानी का ही है ।

वो हैं …..तभी मैं प्रेम जगत को बाँटता हूँ देवर्षि! ।

इतना कहकर कृष्ण चन्द्र जू शान्त हुये ….और अपनें महल में चले गए ।

ये दिव्य कथा भावोन्माद की है, हे वज्रनाभ !

महर्षि शाण्डिल्य नें बताया ।

शेष चरित्र कल-

🕉️ राधे राधे🕉️

!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!

( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )

!! इति ब्याहुला उत्सव !!

गतांक से आगे –

अब निकुँज में युगलवर रति रस में मत्त होंगे ….सखियों ने कोमल कोमल नूतन पल्लवों से सेज सजा दिया है ….अब दोनों दम्पति हंस शावक तुल्य गौर श्याम रति रस के सिंधु में विहार करेंगे ।

सखियाँ इनको निहार कर अपने नेत्रों को धन्य करेंगीं । इनका यही आहार है ।

हे रसिकों ! ये प्रेम उज्ज्वल है …शृंगार रस से भरा है …और इन युगल की परस्पर रति ही इनका स्वरूप है …..इस स्वरूप रस का पान करना हो …तो आवश्यक है ….सखी भाव की । बिना सखी भाव के ये रस न समझ सका है कोई ….न समझ सकेगा । सखियाँ ही हैं जो इनके नित्य विहार की दर्शिका हैं ..नही, मात्र दर्शन नही करतीं …ये तो अपने नेत्र रूपी अंजलि से पान भी करती हैं ।

ब्याहुला उत्सव सुसम्पन्न हो चुका है ..बड़ा ही आनन्द और उमंग रहा …सखियाँ अब युगल सरकार को सुरत सेज में ले जाती हैं ….सुरत सेज ….जिसे सखियों ने सजाया है …और अब हरिप्रिया सखी विदा करती हैं ….अपनी लाड़ली प्रिया जी को । विदा करती हैं ? हाँ ….कन्या दान इन्हीं ने किया है …..और अब विदा करते हुए हिलकियों से रोने लगती हैं …इनको रोता हुआ देख श्रीरँगदेवि जू भी रोती हैं …..अन्य सखियाँ अब सब रो पड़ते हैं ।

लाल जू ! हमारी लाड़ली बहुत कोमल हैं …इन्हें कष्ट ना देना ….लाल जू ! हमारी लडैती ने कभी ऊँची आवाज़ में कुछ सुना नही है …आप ऊँची आवाज़ में मत बोलना । ये मान करें …तो सही गलत न देखते हुए इन्हें मनाना ….आज हम अपने प्राण आपको सौंप रहे हैं ….ये कहते हुए सखियाँ बहुत रोईं हैं । प्रिया जी के हृदय से लगीं हैं ….प्रिया जी के भी अश्रु बह चले । और फिर धीरे धीरे रँग महल में सखियाँ ही लेकर आती हैं ….दोनों को विराजमान कराया सेज में ….और अपने अश्रु पोंछते हुए लाल जू के मस्तक को चूमा फिर अपनी लाड़ली के ।

!! दोहा !!

बलि जावैं सहचरि सबैं, तन मन प्रान लगाय ।
पौढ़ाये रस रंग में , मिली सरस सुखदाय ।।
पौढ़े रसिक सुलाड़ले , बना बनी मन भाय।
श्रीहरिप्रिया रस रूप ह्वै, तन मन रहे समाय ।।

***और ये कहा …आप रति रँग में रँग दो एक दूसरे को ….सुख लूटो , सुखी रहो …हमारा सुख भी आपको मिल जाये …हे युगलवर बस …रस ही बन जाओ …दो का भेद ही मिटा दो । रसिक रस भरे छैल छबीले युगल सरकार की …हरिप्रिया दोनों हाथों को ऊपर उठाकर बोली …..अनन्त सखियाँ बोल उठीं …जय जय जय जय ।

इस तरह सखियाँ रँगमहल में, प्रियाप्रियतम को शयन कराकर प्रसन्नता पूर्वक बाहर आजाती हैं ।

हे रसिकों ! श्रीमहावाणी का “ब्याहुला उत्सव” यहीं पर विश्राम होता है ….ये वस्तु रसिकों की है …रसिकों के लिए है । आप को रस का चस्का लगे बस इसीलिये मैंने ये गाया है ।

स्वयं सुषमा जिनकी सेवा में लगी है …उस परम माधुर्य का वर्णन कौन कर सकता है …फिर भी मैंने इसे गाया …असफल गाया किन्तु मेरी इस असफलता से ही तुम रीझ जाओ युगलवर ! तो मुझे सफल होना ही नही है । बस तुम मेरे हृदय में बसे रहो ….और …

“श्रीहरिप्रिया रस रूप ह्वै , तन मन रहे समाय ।

मैं भी सखी भाव से भावित हो तुम दोउन को आशीष देती हूँ …..कि प्रसन्न रहो …ऐसे ही हम सखियों को रस प्रदान करते रहो । प्यारे ! जीयो ।

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (087)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

प्रेम में सूखी जा रहीं गोपियाँ आखिर बोलीं

ब्रह्मवैवर्त में राधारानी ने श्राप दे दिया है श्रीकृष्ण को! वह बड़े प्रेम की कथा है। कई लोग तो उस पर बड़ा आक्षेप करते हैं कि क्या राधारानी हैं जो श्रीकृष्ण को श्राप दे देती हैं। पर बात तो यह है कि यह जो अपना प्रियतम है उसके ऊपर प्रेम करना का जैसा अधिकार है वैसे उसके ऊपर क्रोध करने का भी अधिकार है। हाथ जोड़ने में भी प्रेम है और क्रोध करने में भी प्रेम है, परन्तु बोलने से पहले वे मौन हो गयीं- तूष्णीम्। तूष्णीम्- यह मौन जो है वह सन्धि है। गोपियाँ तो वेग से दौड़ी आयीं कृष्ण के पास, और कृष्ण ने डाली रुकावट, और दोनों के सन्धिस्थल पर है मौन। इस मौन के बाद गोपियाँ अगर कमज़ोर हैं तो घर लौट जायँ, जैसी यज्ञपत्नियों की दशा हुई थी वह हो जाय, और कमज़ोर न हों तो कृष्ण के मना करने पर भी, पहाड़ बीच रास्ते में आ जाने पर भी आगे बढ़ जायँ। गोपियों का प्रेम ऐसा है कि इसमें लौटाना नहीं है। श्रीकृष्ण भी कौन उनको लौटाना चाहते थे, वे तो स्थूणाखनन-न्याय से उनके प्रेम को मजबूत करन चाहते थे। वह प्रेम ही क्या, जिसमें लौटाना हो।

प्रेष्ठं प्रियेतरमिव प्रतिभाषमाणं कृष्णं तदर्थविनिवर्तितसर्वकामाः ।
नेत्रे विमृज्य रुदितोपहते स्म किंचित्संम्भग द्ग्दगिरोऽब्रुवतारनुरक्ताः ।।

अपना जो हृदयेश्वर है, परम प्रियतम है, प्रेष्ठ है। जैसे श्रेयाम् को श्रेष्ठ बोलते हैं, ज्यायाम् को ज्येष्ठ बोलते हैं। उसी प्रकार प्रेयाम् को प्रेष्ठ बोलते हैं और ये तो प्राण-प्रियतम् हैं। इनके लिए हृदय द्रवित हो गया, जो संसार की पकड़ की कठोरता थी वह मिट गयी। परंतु वह आज बाण ऐसी बोल रहा है, जैसे कोई प्रियेतर बोल रहा हो। अपने प्यारे के सिवाय और कोई बोल रहा हो। बोली है दूसरे की, और बोल रहे हैं कृष्ण! यहाँ ‘इव’ जोड़ने का अभिप्राय है कि वास्तव में कृष्ण प्रियेतर नहीं है, प्रियेतर लगते हैं।

श्रीशुकदेवजी महाराज गवाही दे रहे हैं कृष्ण की ओर से, ‘प्रियेतरमिव प्रतिभाषमाणं’- कि यह गोपियों की कम अक्ली है जो प्रिय को प्रियेतर समझती हैं। श्रीकृष्ण का ऐसा जादू है कि वह प्यार जताना चाहें तो प्यार जता दें, मार जताना चाहें तो मार जता दें; धर्म ही धर्म, धरम ही धर्म की बात करते हैं कि लौट जाओ, अरे लौट जाओ। गोपियाँ रो रही हैं, आँसू की धारा बह रही हैं, धरती में धँसी जा रही हैं, मुँह लटका जा रहा है और बोलते हैं- गोपियोँ! चिन्ता छोड़ो, रोओ मत, स्वस्थ हो जाओ, अगर रास्ता भूल गयी हों तो चलो, हम पहुँचा दें, तुमको धर्म के विरुद्ध कोई काम नहीं करना चाहिए! यह यदि हमारा प्यारा है जिसके लिए हम सब छोड़कर आयी हैं तो यह तो दुश्मन बन रहा है ऐसा बोलता है- ‘प्रियेतरमिव प्रतिभाषमाणं’ ‘कृष्णं तदर्थविनिवर्तितसर्वकामाः’ पर बोलता कौन है? जिसने आकर्षण किया है, जिसने खींचा है, वही कृष्ण बोलता है। जैसे लोहे के लिए चुम्बक होता है वैसे गोपियों के लिए हैं श्रीकृष्ण। परंतु कृष्ण सबको नहीं खींचते हैं। किसको खींचते हैं?+

गोपी को। गोपी शब्द का अर्थ है- गो माने इंद्रियाँ और प माने रक्षा करने वाली। गां इंद्रियाणि पान्ति इति गोप्यः- जो अपनी इन्द्रियों को विषयों से सुरक्षित रखे वह गोपी और गोभिः पिबन्ति इति गोप्यः- इन्द्रियों से श्रीकृष्ण रस का जो पान करें सो गोपी। पान्ति और पिबन्ति-पा-रक्षणे और पा-पाने, दोनों धातु से गोपी शब्द बनता है। तो कृष्ण सिर्फ उन्हीं को खींचता है जो इंद्रिय-संयमी हैं, भोग और काम के परायण नहीं है और जो अपनी इंद्रियों से कृष्ण-रस पान करने के इच्छुक हैं। निर्गुण ब्रह्म के पास बाँधने की कोई रस्सी नहीं है, खींचने की कोई आकर्षण-शक्ति नहीं है। तुम स्वयं उसकी ओर खिंचकर जाओ और उसके साथ बँधो और बँधो मत एक हो जाओ। परंतु कृष्ण तो सगुण है, इसके पास फन्दा है, रस्सी है, यह चुम्बक है। इसके पास तो आकर्षण-शक्ति है, यह खींचता है।

तो कृष्ण के खींचे आयी हैं गोपियाँ। गोपियों की विशेषता क्या है- ‘तदर्थविनिवर्तितसर्वकामाः’ नारायण, बेटे को लेकर पति के पास नहीं जाया जाता। काम तो कृष्ण का बेटा है (प्रद्युम के रूप में) तो बेटे को भेज दिया बाहर माने श्रीकृष्ण से मिलन के लिए गोपियों ने काम को लौटा दिया। अब देखो उसका शाब्दिक अर्थ बतलाते हैं। एक तो सर्वकामाः का अर्थ है पति, सारी कामना जिससे पूर्ण हो उसका नाम सर्वकाम – ‘सर्वे कामाः अस्पात् सा सर्वकामाः पतिः’ स्त्री की सारी कामना अपने पति से पूरी होती है। माँ की जगह भी पति है, पिता की जगह भी पति है, पुत्र की जगह भी पति है, भाई की जगह भी पति है, उसका घर-परिवार वही है, उसकी जाति वही हैं, उसका कुल वही है। गोपियों ने क्या किया कि ‘तदर्थविनिवर्तितसर्वकामाः तदर्थ विनिवर्तिताः सर्वकामाः पतयः याभिः ताः। पति कहते थे कि यमुना-तट पर मत जाओ। चाँदनी मत देखो, वृन्दावन में मत जाओ, परंतु कृष्ण का प्रेम आत्मज है। कृष्ण के लिए उन्होंने पतियों को उनके आदेशों को छोड़ दिया। दूसरा सर्वकामाः का अर्थ है सर्व कामनाएँ- ‘तदर्थविनिवर्तित सर्वकामाः’ सारे काम उन्होंने निवृत्त कर दिये। देखो श्रुति आ गयी।’

यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः ।
अथ मर्त्योऽमृतो भवति अत्र ब्रह्म समश्रुते ।। ++

हम आपको एक बात बताते हैं- साधक के हृदय में घर बनाकर रहने वाली जो कामनाँ हैं ना, उनको जब फेंक दिया जाता है बाहर, उस समय यह मनुष्य मरकर अमृत हो जाता है और इसी जीवन में ब्रह्म समश्रुते, ब्रह्मास्वादी हो जाता है, ब्रह्मानन्दी हो जाता है। अब गोपियों का वर्णन करते हैं- ‘तदर्थ’- विनिवर्तितसर्वकामाः ‘यदा सर्वेप्रमुच्यन्ते, कामाः यस्य हृदि श्रिताः ग्रन्थयः’ हृदय में जो काम की गाँठ है- काम-ग्रंथि है, हृदय में जो काम है वह कठोर गांथि है, जिसमें से रस तो निकलता है, परंतु ग्रंथि इतनी कठोर है कि जल्दी टूटती नहीं। काम-ग्रंथि है। क्रोध-ग्रंथि भी है, क्रोध बड़ा घटाटोप बनाकर आता है। मुहँ से गाली निकले, आँख लाल हो जाय, भौंहें चढ़ जायँ, हाथ-पाव काँपने लगें, नारायण! ऐसी अनेक ग्रंथि शरीर में रहती हैं। कभी कोई उमड़ जाती है, कभी कोई उमड़ जाती है। गोपियाँ कृष्ण के पास कामवश नहीं गयी हैं- ‘तदर्थ-विनिवर्तितसर्वकामाः’– श्रीकृष्ण के लिए उन्होंने अपने संपूर्ण काम को बाहर से लौटा दिया है। इसमें एक बात देखने लायक है कि श्रीकृष्ण ने हँसी-हँसी में यह बात कही थी कि ‘लौट जाओ!’ गोपी के ध्यान में यह बात आनी तो चाहिए कि यह हँसी है। बोले- नहीं, भोली हैं। श्रद्धा है, प्रेम है, भक्ति है, विश्वास है, मुग्धता है। कितने ही गुण हैं।

कहते हैं- अच्छा, काम तो सारे लौटा दिए, अब न माँ से कोई काम न बाप से, न भाई से, बहन से, न परिवार से, न पति से, न पुत्र से, न गोप से, न शरीर से कोई काम, न लोक से, न परलोक से कोई काम। तो अब किसी की ओर देखना तो बाकी नहीं रहा, आँखों ने जवाब दे दिया, काजलमिश्रित आँसू निकलने लगे। बोले- अब तो मरना ही है- ‘नेत्रे विमृज्य रुदितोपहते स्म’ रोते-रोते आँखें उपहत-सी हो गयीं, खराब हो गयीं तो पोंछ लें आँख? पर आँख काहे को पोंछने लगीं। एक बार देख तो लें भला, मरना तो है ही है। मरने के लिए पहले एक बार देख लें. ‘बावरी वे अखियाँ जरि जायँ जो साँवरो छाँड़ि निहारति गोरो।’ देखा जब तो मन में आया कि क्या मौन ही प्रेम है? अरे, मौन ही प्रेम नहीं है, बोलना भी प्रेम है। प्रेम को एक भाग में नहीं कर सकते हैं। खिलाना प्रेम हो तो कभी भूखे रहना भी प्रेम है। मीठा बोलना प्रेम है तो कभी कड़वा बोलना भी प्रेम है। प्रेम का स्वभाव थोड़ा ठंडा, थोड़ा गरम दोनों हैं, थोड़ा संगोय, थोड़ा वियोग दोनों है, थोड़ा रोना, थोड़ा हँसना दोनों है। प्रेम का स्वभाव अनिर्वचनीय होता है। उसको एक रूप में नहीं बाँधा जा सकता, भला! तो मौन ही प्रेम नहीं, मौन तो जरा दुःख हो गया था कि अब क्या करें?

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻

श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
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श्लोक 5 . 27-28
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स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्र्चक्षुश्र्चैवान्तरे भ्रुवो: |
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ || २७ ||

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः |
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः || २८ ||

स्पर्शान् – इन्द्रियविषयों यथा ध्वनि को; कृत्वा – करके; बहिः – बाहरी; बाह्यान् – अनावश्यक; चक्षुः – आँखें; च – भी; एव – निश्चय हि; अन्तरे – मध्य में; भ्रुवोः – भौहों के; प्राण-अपानौ – उर्ध्व तथा अधोगामी वायु; समौ – रुद्ध; कृत्वा – करके; नास-अभ्यन्तर – नथुनों के भीतर; चारिणौ – चलने वाले; यत – संयमित; इन्द्रिय – इन्द्रियाँ; मनः – मन; बुद्धिः – बुद्धि; मुनिः – योगी; मोक्ष – मोक्ष के लिए; परायणः – तत्पर; विगत – परित्याग करके; इच्छा – इच्छाएँ; भय – डर; क्रोधः – क्रोध; यः – जो; सदा – सदैव; मुक्तः – मुक्त; एव – निश्चय ही; सः – वह |

भावार्थ
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समस्त इन्द्रियविषयों को बाहर करके, दृष्टि को भौंहों के मध्य में केन्द्रित करके, प्राण तथा अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर और इस तरह मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है | जो निरन्तर इस अवस्था में रहता है, वह अवश्य ही मुक्त है |

तात्पर्य
🌹🌹🌹
कृष्णभावनामृत में रत होने पर मनुष्य तुरन्त ही अपने अध्यात्मिक स्वरूप को जान लेता है जिसके पश्चात् भक्ति के द्वारा वह परमेश्र्वर को समझता है | जब मनुष्य भक्ति करता है तो वह दिव्य स्थिति को प्राप्त होता है और अपने कर्म में भगवान् की उपस्थिति का अनुभव करने योग्य हो जाता है | यह विशेष स्थिति मुक्ति कहलाती है |

मुक्ति विषयक उपर्युक्त सिद्धान्तों का प्रतिपादन करके श्रीभगवान् अर्जुन को यह शिक्षा देते हैं कि मनुष्य किस प्रकार अष्टांगयोग का अभ्यास करके इस स्थिति को प्राप्त होता है | यह अष्टांगयोग आठ विधियों – यं, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि में विभाजित है | छठे अध्याय में योग के विषय में विस्तृत व्याख्या की गई है, पाँचवे अध्याय के अन्त में तो इसका प्रारम्भिक विवेचन हि दिया गया है |
योग में प्रत्याहार विधि से शब्द, स्पर्श, रूप, स्वाद तथा गंध का निराकरण करना होता है और तब दृष्टि को दोनों भौंहों के बिच लाकर अधखुली पलकों से उसे नासाग्र पर केन्द्रित करना पड़ता है | आँखों को पूरी तरह बन्द करने से कोई लाभ नहीं होता क्योंकि तब सो जाने की सम्भावना रहती है | न ही आँखों को पूरा खुला रखने से कोई लाभ है क्योंकि तब तो इन्द्रियविषयों द्वारा आकृष्ट होने का भय बना रहता है | नथुनों के भीतर श्र्वास की गति को रोकने के लिए प्राण तथा अपान वायुओं को सैम किया जाता है | ऐसे योगाभ्यास से मनुष्य अपनी इन्द्रियों के ऊपर नियन्त्रण प्राप्त करता है, बाह्य इन्द्रियविषयों से दूर रहता है और अपनी मुक्ति की तैयारी करता है | इस योग विधि से मनुष्य समस्त प्रकार के भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है और परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव करता है | दूसरे शब्दों में, कृष्णभावनामृत योग के सिद्धान्तों को सम्पन्न करने की सरलतम विधि है | अगले अध्याय में इसकी विस्तार से व्याख्या होगी | किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति सदैव भक्ति में लीन रहता है जिससे उसकी इन्द्रियों के अन्यत्र प्रवृत्त होने का भय नहीं रह जाता | अष्टांगयोग की अपेक्षा इन्द्रियों को वश में करने की यः अधिक उत्तम विधि है |

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