] Niru Ashra: 🌹🌹🌹🌹🌹🌹
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 132 !!
सौ वर्ष बाद….
भाग 2
🙏🙏🙏🙏🙏
इसलिये मै आपके पास आया हूँ…….और मुझे विश्वास है कि आप मुझे भी अपनें साथ ले जायेंगें ……..ये बात सहजता में बोली थी महर्षि नें ।
उत्साह नही है अब नन्दराय में……..महर्षि की बातें सुनीं ……..प्रणाम किया ………और विनम्रता से बोले – महर्षि ! अब किन्हीं कार्यों में विशेष मन नही लगता…….लगता है ……..तुलसी की माला ही फेरता रहूँ ….या अपनें नारायण भगवान के ध्यान में ही डूबा रहूँ……बस ।
“सूर्य ग्रहण पड़ रहा है…….आपको पता है नन्दराय ! कुरुक्षेत्र में सूर्यग्रहण का स्नान होता है ……..और नन्दराय ! ये जो ग्रहण पड़नें वाला है ………पता नही इसके बाद क्या होगा ………..ऐसा सूर्यग्रहण तो प्रलय से पूर्व ही आता है …..फिर उसके बाद प्रलय ……….मैं आपका पुरोहित हूँ ……इसलिए आपको ये पुण्य कार्य बतला रहा हूँ ………हे नन्दराय ! सम्पूर्ण खग्रास वाला सूर्यग्रहण पड़ रहा है ………ज्योतिषविद् कहते हैं ….महाविनाश का सूचक है ……….इसलिये मेरी बात आप मानिये और चलिए कुरुक्षेत्र ……समन्तक – पंचक तीर्थ कुरुक्षेत्र में, विशेष सूर्य ग्रहण में स्नान करनें का पुण्य फल अश्वमेध यज्ञ से भी महान होता है ……इसलिये मेरी बात मानिये और चलिये कुरुक्षेत्र ।
महर्षि शाण्डिल्य नें समझाया ।
नन्दराय अत्यन्त संकोचपूर्वक बोले – हे गुरुदेव ! क्षमा करें ……अब स्वर्ग की कामना नही है……न ऋद्धि सिद्धि की…… पुण्य भी नही चाहिये अब…….जो भी पुण्य था सब हमनें अपनें लाला कन्हैया को दे दिया……हमारे पास अब कुछ नही है …….और चाहिये भी नही ।
क्षमा करें गुरुवर ! श्रीधाम वृन्दावन को छोड़कर अब कहीं नही जाना है ……नन्दबाबा नें स्पष्ट कह दिया ।
आपको भी लगता है मुझे पुण्य की चाह है ?
महर्षि सहज बोले ।
नही, नन्दराय ! नही.. …..”कन्हैया आरहा है कुरुक्षेत्र सूर्यग्रहण में” ।
क्या कहा ? नन्दबाबा चौंके ।
हाँ …….आपनें सही सुना है……कन्हैया कुरुक्षेत्र में आरहा है ।
झरझर आँसू बह चले नन्दबाबा के…….हँस रहे हैं बाबा ……..झुर्रियों से भरा वह प्यारा बाबा का मुख मण्डल……आज सौ वर्षों के बाद हँसी दिखी है ।
क्या सच ! महर्षि ! क्या सच में हमारा कन्हैया कुरुक्षेत्र आरहा है ?
हाँ हाँ हाँ ……नन्दराय……ये सच है …….मैं तो प्रसन्न हूँ ……महर्षि नें कहा ………मैं भी आज बहुत प्रसन्न हूँ…..मैं जाऊँगा ……….हम जायेंगे …….सब जायेंगे कुरुक्षेत्र …….नन्द बाबा आनन्दित हो उठे थे ।
प्रणाम किया चरणों में महर्षि के और भीतर जानें लगे यशोदा मैया के पास …..फिर लौट आये …….महर्षि के चरणों में गिर गए नन्दराय ……..मुझे क्षमा करें…….आप मुझे क्षमा करें ……इस समय मैं सब मर्यादा भूल रहा हूँ ……आप मेरे गुरुदेव हैं ……….मैं आपकी किस प्रकार आदर सेवा करूँ ……मैं सब भूल गया हूँ ……नन्दराय चरणों में गिर रहे हैं बारबार ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –
🙇♂️ राधे राधे🙇♂️
Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( सिद्धान्त सुख – 1 )
गतांक से आगे –
राधाकृष्णौ महारम्यौ रंगदेव्यादि सेवितौ ।
परमौ नियमप्रेम्णौ : किशोरौ रसिकेश्वरौ ।1 ।
निकुँजस्थौ परागम्यौ, परात्परतमावुभौ ।
सर्वेषां प्रेरकौ दिव्यौ सदा वन्दे कलात्मकौ ।2 । ( महावाणी ,सिद्धांत सुख )
****वो दिव्य निकुँज , मैं कैसे पहुँच गया था वहाँ ….पता नही , पता नही इसलिए कह रहा हूँ क्यों की निकुँज में प्रवेश मुझे मिले ऐसा मैंने कुछ किया नही है …न मेरे अन्दर प्रेम जैसी कोई वस्तु है , देह से चिपका देहासक्त एक जीव । “कृपा से ही यहाँ पहुँचते हैं”….एक अत्यन्त सुन्दर सखी मेरे सामने थीं …..उनके नेत्रों से करुणा बरस रही थी ….उनका अंग अंग स्नेह से पूर्ण था । साड़ी पीली पहनी थी उन्होंने । “निकुँज में मैं कैसे ! यहाँ तो सखियों का ही प्रवेश है” मेरे मन में जैसे ही ये विचार आया …..”तुम सखी हो”…..वो सखी मुझ से बोलीं …..मैंने अपने आपको देखा तो सच में । मैंने उनको देखते हुए साश्चर्य संकेत किया ….वो मुस्कुराती हुई वहीं बैठ गयीं …यमुना कंकनाकार बह रही थीं …कमल अनगिनत थे । जिनमें भौरें गुंजार कर रहे थे । वहीं वो बैठ गयीं थीं ….और मुझे भी संकेत करके उन्होंने बैठने के लिए कहा था , मैं बैठ गया ।
आपका मंगल नाम ? मैंने कुछ देर बाद ये प्रश्न किया ।
“हरिप्रिया”…..उन्होंने मुस्कुराते हुये कहा ।
ओह ! आप श्रीहरिप्रिया सखी जू हैं ? मुझे आनन्द आया ।
हाँ , हाँ हाँ …”मैं ही हूँ हरिप्रिया” किन्तु तुम इतनी चकित क्यों हो ? उन्होंने मेरी ओर देखते हुए पूछा था …..मैं कुछ उत्तर देता एक हंस यमुना से उड़ते हुए आया और हरिप्रिया सखी जू की गोद में बैठ गया ….उस हंस को दुलार किया हरिप्रिया ने ……ये हमारी प्रिया जी को बहुत प्रिय है ….उस हंस को पुचकारते हुए सखी कह रहीं थीं ….और लाल जी को ? मैंने पूछा था तो ….”वो हंस, देखो”…..दूर एक हंस मोती चुग रहा था ….उसको दिखाया ….वो लाल जी को प्रिय है । हरिप्रिया उस हंस को स्नेह देती रहीं फिर वो उड़कर चला गया था । अभी युगलवर कहाँ हैं ? उनका वो मोहन मन्दिर कहाँ है ? मेरे प्रश्न को सुनकर हरिप्रिया बोलीं ……अभी शयन कर रहे हैं …राजभोग आरोग कर शयन कुँज में शयन कर रहे हैं….तभी तो तुम से मैं बात कर रही हूँ ।
ओह ! मैं यही बोला ।
मैं तो बहुत कुछ पूछने वाला था ..मेरे भीतर बहुत प्रश्न थे …निकुँज को लेकर …युगल सरकार को लेकर और सखियों को लेकर ।
कुछ जानना है ?
मैं कुछ कहता ….कुछ पूछता वो स्वयं ही मुझे युगलतत्व के विषय में बताने लगीं थीं ….निकुँज में मन की बात सब जान लेते हैं …..ये बात आज मुझे पता चली ।
मन की बात ? हरिप्रिया सखी जी ने ये बात भी मेरे मन की सुन ली थी ।
अरी ! यहाँ मन है ही नही ….तो मन की बात कहाँ होगी ?
क्या ? मैं चौंका । मेरे लिए ये बात बड़ी अटपटी थी …कि यहाँ मन ही नही है ।
फिर – “सखियन के उर ऐसी आई”….ऐसे पद तो हमने बहुत गाये हैं ……
मेरी बात पर हरिप्रिया सखी बहुत हंसीं …..फिर बोलीं ….मन तो केवल युगल सरकार का ही है यहाँ ….उन्हीं के मन से सब कुछ होता है ….उनके मन में जो इच्छा जागती है वही इच्छा हमारे मन में सम्प्रेषित हो जाती है ….मन उन्हीं का है …इच्छा भी उन्हीं की है ….हम तो उनकी इच्छा रूप हैं ।
हरिप्रिया सखी इतना बोलकर कुछ देर के लिए मौन हो जाती हैं ….मैं चारों ओर देख रहा हूँ ….यहाँ पक्षी भी “राधा राधा राधा” बोलते हैं ….मैं चारों ओर देखकर गदगद हो रहा हूँ । “आप कुछ बतायें”…..मैंने उनका मौन तोड़ना चाहा …उन्होंने नयनों के संकेत से ही पूछा ….क्या ? “युगल सरकार के विषय में”…..मेरी ये बात सुनते ही हरिप्रिया सखी जी बोलीं – यहाँ युगल सरकार ही विषय हैं ….यहाँ और कोई विषय ही नही है ….ये कहते ही सखी जू हंसीं ….इनकी हंसीं ने हंसों के सुन्दर सुन्दर अनगिनत जोडों को अपनी ओर आकर्षित किया था ….सब हंस यमुना में बिहरते ….सखी जू के पास आगये थे ।
किन्तु हरिप्रिया सखी ने अपने नेत्र बन्द कर लिए ….और वो मंगल श्लोक का गायन करने लगीं थीं …मैं भी उनके साथ ही गा रहा था …अजी ! हंस भी गा रहे थे …मुझे बाद में इन सखी जू ने ही बताया कि यहाँ निकुँज में सब सखियाँ हैं …ये हंस भी , और ये लता पत्र आदि भी ….
( रसिकों ! ये सिद्धांत सुख का प्रथम और द्वितीय श्लोक है , जो ऊपर लिख दिया गया है …ऊपर दिए गये श्लोक की यहाँ व्याख्या है , रसिक समाज इसका आनन्द लें। )
*अत्यंत सुंदर , सुषमारत श्रीराधा कृष्ण हैं । हरिप्रिया सखी नेत्रों को मूँद कर बता रही हैं ।
श्रीरंगदेवि आदि अष्टसखियों से ये सेवित हैं, सर्वोपरि प्रेम ही जिनका नियम है और ये नित्य किशोर अवस्था के हैं, सर्व रसिकों के आराध्य हैं, निभृत निकुँज गूढ़तम लीला परायण, पर से भी परात्पर , चराचर से लेकर भगवत्स्वरूपों के प्रेरक उन परम दिव्य युगलवर की मैं वंदना करती हूँ ।
हरिप्रिया सखी ये कहते हुए भाव में डूब गयीं थीं …उनके अंग अंग से मानों प्रेम झरने लगा था ।
“राधा कृष्ण” …..हरिप्रिया लम्बी साँस लेकर बोलीं । ये नाम नही है …ये स्वयं राधा कृष्ण हैं ….हाँ , नाम और नामी में भेद कहाँ है ? बोलो – राधेश्याम …मैंने कहा “राधेश्याम” । ये नाम तुम्हारे हृदय में नही आया स्वयं युगल सरकार आकर विराज गए हैं ….क्यों कि …नाम और नामी में अभेद है । फिर उन सखी जू को क्या लगा वो बोलीं ….नही , ये नाम भी एक ही है …ये दो नाम नही है …”राधे श्याम” ये एक नाम है । ये अद्भुत बात बता दी थीं इन सखी जू ने । हाँ , वो अब मुस्कुराने लगीं …..जहाँ कृष्ण हैं वहाँ राधा हैं ..और जहाँ राधा हैं वहाँ कृष्ण हैं । जैसे ? अब मैंने भी प्रश्न करने आरम्भ कर दिये थे …मैं कुछ खुल रहा था अब ।
“जहाँ कृष्ण राधा तहाँ , जहाँ राधा तहाँ कृष्ण ।
प्यारे निमिषन होत दोउ , समझि करो यह प्रश्न ।।”
हरिप्रिया सखी ने मुझे ये दोहा और सुना दिया था ….बोलीं …ये दोनों मूलतः एक ही हैं ।
मुझे और स्पष्ट समझना था …..इसलिए मैंने संकेत नही किया तो सखी जू ने मुस्कुराते हुए मुझ से कहा ….जैसे – आँखें दो …लेकिन दृष्टि एक । कान दो ….लेकिन श्रवण एक । ऐसे ही राधा कृष्ण नाम दो ….लेकिन मूलतः ये एक ही हैं । “महारम्यौ” हैं …..हरिप्रिया इसका अर्थ मुझे समझाती हैं …..”रम्य” उसे कहते हैं …..”अपनी आभा से अपने आपको जो रंजित करे” उसे कहते हैं रम्य …..लेकिन महारम्य उसे कहते हैं …जो अपनी आभा से अपने को तो रंजित करे ही …सकल जीव चराचर को , और देवता आदिओं को भी …भगवद्रूपों को भी जो रंजित कर रहा है …उसे ही कहते हैं महारम्यौ । अरी ! ये राधा कृष्ण महारम्य हैं ….इनकी तो बात ही अनूठी है…
हरिप्रिया सखी ने कहा था ।
मैं समझी नही ? ये मेरा कहना था ।
फिर मुझे समझाने लगीं थीं हरिप्रिया जी ………
देखो , स्वयं के प्रकाश से जो अन्य को रंजित करे …वो रम्य ….किन्तु जो स्वयं के प्रकाश से अन्य को भी रंजित करके स्वयं को भी उसमें डुबो दे …स्वयं भी रंजित हो जाए वो है “महारम्यौ”।
मैंने हाँ ना कुछ नही कहा …मैं और स्पष्ट जानना चाहता था ।
हरिप्रिया परम उदार सखी हैं …..वो हंसते हुये बोलीं …समझ रहे हो …फिर भी ?
इतना कहकर वो मुझे बताते लगीं …जैसे – प्रिया जी की गौर अंग कान्ति है …उसी से पूरा-निकुँज, यमुना , शुक पक्षी आदि , श्रीवन के लता पत्रादि ….इतना ही नही स्वयं श्याम सुन्दर भी गौर वरण के हो जाते हैं …अब समझी बुद्धू ! मेरे सिर में हल्की चपत लगाई थी सखी जी ने …इसी प्रकार श्याम सुन्दर के आभा मण्डल से सब कुछ श्याम हो जाता है ….निकुँज भी , यमुना भी , शुक पक्षी आदि , श्रीवन के लता पत्रादि …और यहाँ तक की …कि प्रिया जी भी श्याम वरण की हो जाती हैं …ये दूसरे को तो प्रेम में रंगते ही हैं …स्वयं भी प्रेम रंग में रंग जाते हैं ।
ओह ! तभी हरिप्रिया एक पद गाने लगती हैं …वीणा समान उनकी वाणी झंकृत हो रही थी ।
“गौर अंग में झलमले , श्याम वरण सुभ साज ।
देखि री देखि निहार छबि , प्यारी प्रीतम आज ।। “
ये तो हमारी गौर वरणी श्रीप्रिया जी श्याम वरण हो गयी हैं ….अब श्याम सुन्दर ?
“श्याम वरण ते गौर तन , ह्वै सोहत रस जाल ।
देखि री देखि निहार सखी , लाल भई छबि बाल” ।।
आहा ! ये दो नही हैं सखी ! ये दोनों एक ही हैं ….श्रीरंगदेवि आदि सखियों से सेवित हैं ….परम हैं , परात्पर हैं , प्रेम ही जिनका नियम है ….ये रसिकों के ईश्वर हैं ….नहीं नही ईश्वर के भी ईश्वर हैं ….निकुँज में रहते हैं ….दिव्य हैं , ऐसे युगल सरकार को मेरा वंदन है । हरिप्रिया सखी ये कहते हुए गदगद हो उठी थीं , भाव में भर गयीं थीं ।
शेष अब कल –
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (088)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
प्रेम में सूखी जा रहीं गोपियाँ आखिर बोलीं
कर्त्तव्य-विमूढ़ता में मौन था- ‘संरम्भगद्दगदगिरो’ जीभ लड़खड़ा रही है क्योंकि गुस्सा आ रहा है। बोले कि तब गुस्सा ही होगा? बोले- नहीं, ‘अनुरक्ताः’ रंग तो उन्हीं का है, अनुराग के रंग में रँगी हुई अनुरक्ता हैं ये। जैसे विरक्त शब्द है- इसके कई अर्थ होते हैं; जिसके शरीर में रक्त न हो, कम हो, उसका नाम विरक्त-विगत रक्त; और एक विशेष प्रकार का रक्त शरीर में आ जाय तो भी विरक्त होगा; जो दुनिया से अपने को ना जोड़ना चाहे माने संसार में जिसका किसी से राग न हो सो विरक्त, विगतरक्त; और ईश्वर से जिसका विशेष राग हो सो विरक्त; तो विशेष रक्तवाला, विगत रक्तवाला, विशेष रागवाला और विगत रागवाला ऐसे विरक्त होते हैं। ये गोपियाँ जो हैं वे श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्त हैं। अनुराग का रंग चढ़ा हुआ है- ‘एकहि रंग में रंगे ये दोऊ।’
अनुराग का रंग- यह अनुराग क्या होता है? इसमें बड़ी विशेषता है। देखो, प्रेम में दो ही बात बाधक हैं- एक तो विश्वास की कमी और एक अभिमान की वृद्धि। प्रेम में विश्वास बना रहता है कि वे हमसे बहुत प्रेम करते हैं, और उनके प्रेम के सामने तो हमारा प्रेम कुछ है ही नहीं। अपने प्रेम में कमी का अनुभव हो, और उनके प्रेम में अधिकता का अनुभव हो। अपने प्रेम की कमी देखकर अनुराग बढ़ता है। और उनके प्रेम की अधिकात का ख्याल करके अपना प्रेम बढ़ता है और यदि अनुभव होय कि उनका प्रेम कम, हमारा ज्यादा तो प्रेम और कम हो जाएगा। दूसरे अभिमान न हो, क्यों? अभिमान में दोष यह है कि अभिमन में अपनी नजर अपने ऊपर होती है, प्रियतम पर नहीं होती है। विश्वास में अपनी नजर अपने ऊपर नहीं होती है, प्रियतम के ऊपर होती है।
एक राग है, एक अनुराग है। ईश्वर के हम आत्मज हैं। इसलिए ईश्वर का हमारे ऊपर राग होना स्वाभाविक है; उस राग के प्रति जो हमारा उनके प्रति राग है वह अनुराग है। जैसे एक यायी होता है, एक अनुयायी होता है; जैसे एक गमन होता है, एक अनुगमन होता है। वैसे ही जो ईश्वर का अखण्डराग हमारे ऊपर बरस रहा है, उसके प्रति हमारे हृदय का जो उन्मुक होना है, उसका नाम अनुराग है। गोपियों के मन में दोनों बाते हैं- संशय नहीं है। वे कहती हैं कि ऐसा नहीं है कि चूँकि ये निष्ठुर भाषण करते हैं इसलिए हमारे प्रति इनका प्रेम नहीं है। वे कहती हैं इनके हृदय में हमारे प्रति राग तो बहुत है, क्योंकि राग न होता तो रोज गोचारण से लौटते हुए देखते हुए क्यों जाते, हमारे लिए बाँसुरी क्यों बजाते, उलटकर हमारी ओर क्यों देखते, चीरहरण के समय हमारे साथ क्यों आते, हमसे छेड़छाड़ क्यों करते। फिर सखी, ऐसा बोलते क्यों हैं? तो बोलने में शायद सखी ये चाहते हों कि हम कलेजा चीरकर क्यों नहीं दिखातीं? तो चलो, जबान से अपना हृदय निकालकर उनको दिखा दें। अपना हृदय दिखाने का तरीका यही नहीं है कि छूरे से हृदय को चीर दिया जाय और फिर प्रियतम के सामने तश्तरी में रख दिया जाय कि देखो हमारा दिल ऐसा है। अपना दिल दिखाने का यह तरीका नहीं है।+
यह दिल में से जो वाणी निकलती है ना, इससे पता चलता है कि कितना प्रेम है। सखी शायद उनके मन में हो कि गोपियों की मीठी-मीठी प्रेमभरी बातें सुनें, इसलिए अब गोपियाँ बोलीं। गोप्य ऊचुः-
मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं सन्त्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम् ।
भक्ता भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान् देवो यथाऽऽदिपुरुषो भजते मुमुक्षून् ।।
मैंव- संस्कृत भाषा की प्रणाली यह है कि एक पूर्वपक्ष होता है और एक उत्तर पक्ष; तो जो न मानने की बात होती है वह पूर्वपक्ष में कही जाती है और जब उत्तर पक्षी बोलने लगता है, खण्डन करता है, तो पहली बात उसके मुँह से नहीं निकलती है। मैंव- एव मा- ऐसा नहीं; जैसा तुमने कहा ऐसा नहीं। अरे नारायण। कृष्ण ने कहा, घर देखो, धर्म देखो, शरीर देखो, परिवार देखो, दुनिया देखो, भजन करो, कीर्तन करो, ध्यान करो, माला, फेरो, तस्वीर रखो घर में, ये सब बताया। गोपी के मुँह से पहले ही शब्द निकला- ‘मैवं’ ऐसी बात मत बोलो, तुम्हारी यह बात बिलकुल गलत है, सोलह आने! कैसे गलत है? विभो। विभो माने हे व्यापक। तुम हमारे दिल में बैठे हो। ये जो हमारी साँस चलती है इसको भी गिन लेते हो, हमारे मन में जो तुम्हारे लिए प्रेम के संकल्प उठते हैं उनको तुम देखते हो, तुम विभु हो। हमारे दिल में अगर तुम न होतो और ऐसी बात कहते तो हम समझते कि कोई ऐरा-गैरा, जो हृदेश्वर नहीं है, वह बोल रहा। परंतु तुम तो हमारे दिल में बैठे हो। हे विभो एवं मा- तुम जानते ही हो, ऐसी बात नहीं है।
मैंवं विभोऽर्हति भगवान् गदितुं नृशसं- एक तो विभु होने के कारण तुमको ऐसा कहना अयोग्य है, क्योंकि तुम जानते हो; दूसरे तुम्हारे जैसा प्रेमी अगर ऐसा कहे तो यह तुम्हारे अयोग्य है। और तीसरी बात यह कि मीठी में से कड़वाहट कहाँ से निकली? नृशंसं। जीवनदान करने वाले में से यह वध का उद्योग कहाँ से निकला? जो जीवनदाता है वही हत्या करने वाले में से यह वध का उद्योग कहाँ से निकला? जो जीवनदाता है वही हत्या करने के लिए आवे, इसलिए यह निश्चय होता है कि यह बात तुम जो बोल रहे हो वह ऊपर-ऊपर से है, भीतर से नहीं है। ‘मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं’ माने आपको ऐसा नहीं कहना चाहिए। यह कोई दूसरा बोल रहा है। ऐसा लगता है कि हमारा जो प्यारा कृष्ण है वह नहीं बोल रहा है। यह कोई वैकुण्ठ से आ गया होगा बाबा। यह कोई निर्गुणियों का, वेदान्तियों का ब्रह्म होगा, हमारा वह नन्दनन्दन, हमारा श्यामसुन्दर, हमारा पीताम्बरी, हमारा मुरलीमनोहर, हमारा गोपीजनवल्लभ, हमारा राधारमण, हमारा वृन्दावनविहारी, ऐसा नहीं बोल सकता। ‘मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं’ यह वक्ता कोई और होगा।++
बोले- क्यों ऐसा नहीं बोल सकते? ‘सन्त्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम् भक्ताः’ अरे, हम तो सारे बन्धन काटकर तुम्हारे चरण के तलवे में सट गयी हैं- ‘विशेषवन्ति इति विषयाः’ विषय उनको कहते हैं जो बाँधे, बन्धन की रस्सी का नाम विषय है। दुनिया में बन्धन की रस्सी बहुत होती हैं। ऐक आदमी को जाना था गंगोत्री। हमने कहा- भाई, तुमको पान खाने की आदत है, वहाँ तो पान नहीं मिलेगा।
बोला- बाबा, तब हम नहीं जाएंगे। एक सच्ची घटना आपको सुनाता हूँ। एक ब्रह्मचारी थे। पचास वर्ष की उनकी उम्र हो गयी थी, स्वयं-पाकी थे। एक दिन उन्होंने संकल्प किया कि अब संन्यास ग्रहण कर लें। तो उनके घर के लोग श्री उड़ियाबाबाजी महाराज के पास आये और कहा कि ब्रह्मचारीजी संन्यास लेना चाहते हैं। फिर तो हमारा-उनका मिलना-जुलना सब कुछ कट जाएगा। कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे दण्डीस्वामी हो जायें तो बड़े कड़े। तो बाबा जब स्नान करने के गये तो वहीं ब्रह्मचारी जी की कुटिया थी छप्पर की जंगल में, उनकी कुटिया में चले गये तो वहीं ब्रह्मचारी जी की कुटिया थी छप्पर की जंगल में, उनकी कुटिया में चले गये। ब्रह्मचारी जी झट भोजन से उठे और प्रणाम किया, बैठाया, बोले- कैसे पधारे? तो बाबा ने कहा कि सुना है तुम संन्यास लेने वाले हो?
बोले- हमाराज, इच्छा तो है, ले लें? आपकी क्या आज्ञा हैं? बाबा ने कहा- अरे, पचास वर्ष से तुम अपनी हाथ की रसोई बनाकर खाते आये हो। इतना मीठा भोजन अब तुमको खाने को कहाँ मिलेगा। क्योंकि तब अपने हाथ से बना खाना नहीं सकोगे और पता नहीं किसके-किसके हाथ का खाना पड़ेगा। बोले- हाँ, यह तो हमको ख्याल ही नहीं था, महाराज! अब हम संन्यास नहीं लेंगे, हम तो दूसरे के हाथ का खाना नहीं खा सकते। तो जिनको महाराज कोई अपनी आदत होती है, अपनी बुद्धि, अपना अभ्यास वह दूसरे के साथ जुड़े भी तो क्या करेगा? अपनी आदत पूरी करेगा, अपनी बुद्ध पूरी करेगा, अपना अभ्यास पूरा करेगा और प्रेम तो महाराज सामने वाले की आदत, सामने वाली की बुद्धी, सामने वाले का अभ्यास पूरा करने के लिए होता है। गोपियों ने साफ कह दिया- ‘संत्यज्य सर्वविषयान्’ हम अपने सारे बंधन, सारे विषयभोग, सारे लोक-परलोक, छोड़कर तब तुम्हारे पास आयी हैं। हम अपने अहं को अपने अहं को दबाने के लिए आयी हैं। आपको ये कठोर वचन शोभा नहीं देते।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
[ Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (089)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपियों का समर्पण-पक्ष
मैवं विभोऽर्हति भवान्…………. किल बन्धुरात्मा
मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं
सन्त्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम् ।
भक्ता भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान्
देवो यथाऽऽदिपुरुषो भजते मुमुक्षून् ।।
यत्पत्यपत्यसुहृदामनुवृत्तिरंग
स्त्रीणां स्वधर्म इति धर्मविदा त्वयोक्तम् ।
अस्त्वेवमेतद्पदेशपदे त्वयीशे
प्रेष्ठो भवांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा ।।[1]
जो उपसनासंबंधी, भक्तिसंबंधी, प्रेमसंबंधी मंत्र हैं उन मंत्रों के लिए श्रीकृष्ण का ध्यान बताया जाता है : कृष्ण खड़े हैं- त्रिभंगललितभाव से- माने बांके बिहारी के रूप में, बाँयें पाँव पर दाहना पाँव रखकर, घुटने टेढ़े, कमर थोड़ी टेढ़ी, सिर थोड़ा टेढ़ा, और बाँसुरी अधरों पर लगाकर, मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए, प्रेमभरी चितवन से देखते हुए; भाल पर गोरोचन का तिलक; और गोपिया जो हैं छटपटा रही हैं, मन ही मन कृष्ण से मिलने के लिए। यह जो गोपियों के छटपटाने का ध्यान है, तड़पने और व्याकुल होने का जो ध्यान है, यह ध्यान जब कोई प्रेमी भक्त गोपियों सरीखा प्रेम होवे, इसका उपाय है कि गोपियों के हृदय में जो श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए व्याकुलता है उस व्याकुलता का हम ध्यान करें- स्मरे वृन्दावने म्ये गोपगोभिः समावृतम्। गोविन्दं पुण्डरीकाक्षं गोपकन्यासहस्रशः।।
सबकी आँखरूपी भ्रमर श्रीकृष्ण की ओर दौड़ रही हैं, एक-एक गोपी कृष्ण की ओर देख रही हैं, गोरी भी काली भी; और गेहुँए रंग की सी जो गोपी है वे भी श्रीकृष्ण की ओर देख रही हैं; पीली साड़ीवाली, नीली साड़ीवाली लाल ओढ़नी वाली, लहँगे वाली, ये सबकी सब; जिसके बाल खुले हैं वह भी और जिसके बाल में फूल लगे वह भी चारों ओर गोपी खड़ी हैं श्रीकृष्ण से मिलने के लिए और देखो कि एक-एक गोपी मिलने के लिए ललक रही है। नारायण! असल में ध्यान में आपका मन अनेक रूप धारण करके श्रीकृष्ण से मिलने के लिए व्याकुल हो रहा है। ध्यान का अभिप्राय हुआ कि आपके मन को श्रीकृष्ण के लिए व्याकुल होने का अभ्यास हो जायेगा, आपके मन में श्रीकृष्ण की प्राप्ति की इच्छा हो जायेगी।
एक लालसा मन मँह डारूँ।
वंशीवट, कालिन्दी तट नटनागर नवल निहारूं ।।
तो
आत्मनो हृदयाम्भोजे प्रेरिताक्षिमधुव्रताः ।
पीड़िताः कामबाणेन चिरमाश्लेषणोत्सुकाः ।।
अपने हृदयकमल में देखो कि श्रीकृष्ण के मिलन की कामना के बाण से पीड़ित है गोपी और भगवान के आश्लेष, आलिंगन की प्राप्ति के लिए चिरकाल से उत्सुक है। अपने हृदय में ऐसा ध्यान करते हैं कि-
मुक्ताहारलसत्पीनोत्तुमंगस्तनभरानताः ।
सस्त्रधं भिल्लवसनाः मदस्खलितभाषणाः ।।
यह कोई निर्गुण, निराकार, निर्विकार का ध्यान थोड़े ही है। यह गोपी का ध्यान है और मन में कृष्ण आवें, इसलिए ध्यान है। यह प्रेम-पन्थ अलग है, निराला है। अच्छा आओ! जब श्रीकृष्ण ने कहा- हटो, लौट जाओ। तो गोपी जो श्रीकृष्ण के चारों ओर हैं, बोलीं- क्या सब एक साथ बोलीं या एक-एक करके? एक साथ बोलीं तो एक सी बात ही कैसे बोल गयीं? परंतु उन सबका श्रीकृष्ण के प्रति समानभाव था। अतः समानभाव होने से समानवाणी निकल सकती है।
कभी-कभी हम देखते हैं कि सूरदास का और हितहरिवंश का दोनों का पद एक सा है, क्योंकि जब भाव दोनों का समान है तो समानपद का स्फुरण हो गया। नारायण। हमको पहले विश्वास शायद न होता, पर एक बार हम दो जने रेलगाड़ी में आपस में निश्चय करके बैठे- दूर-दूर बैठे- कि आओ भगवान का ध्यान करके कोई कविता लिखें। जब लिखी और मिलायी तो दोनों ने जो लिखा था वह एक ही कविता लिखी थी। वह सज्जन अभी हैं। हमको तो यह बात भूल गयी थी क्योंकि बचपन की बात है, लेकिन उन्होंने जब अपना संस्मरण लिखकर भेजा तो उसमें इस बात की चर्चा थी, तब हमको भी याद आ गयी।++
यह बात क्यों कही? इसलिए कही कि गोपियाँ अनेक हैं और उनका कृष्ण के प्रति भाव एक है। एक भाव से यदि सब गोपियाँ एक ही श्लोक बोलती हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं है। परंतु चार दिशा में रहने वाली गोपियों ने चार प्रकार से बोलना शुरू किया। क्योंकि एक साथ बहुत लोग बोलने लगें तो वह तो सट्टाबाजार हो जाय। बहुत सारे सटोरिया- लोग एक साथ बोलते हैं। प्रेम की बात करनी हो तो ऐसा कोलाहल तो नहीं मचना चाहिए, शांति रहनी चाहिए। पहले संसार के लिए जो विक्षेप है वह शांत हो जाता है, तब भगवान् के लिए भाग्योदय होता है। जब तक संसार के लिए विक्षेप है तब तक भगवान् के लिए भाव नहीं उठेगा। यह संसारीभाव नहीं है।
मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं सन्त्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम् ।
भक्ता भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान् देवो यथाऽऽदिपुरुषो भजते मुमुक्षून् ।।
मैवं विभो- विभो माने हे विभु! आप विभु हैं। कहती हैं- प्राणनाथ! यह जो हमारे शरीर में श्वास चलता है, इसको चलने देने का, या रोक देने का पूरा-पूरा अधिकार आपको है, मारो या जिलाओ! हमें हमारे जीने-मरने का अधिकार नहीं है, तुम्हें हमारे जिलाने-मारने का अधिकार है। चीज तुम्हारी हम कैसे मार डालेंगे? यह जो प्रेमी होता है; वह न जीने में स्वतंत्र है, और न मरने में स्वतंत्र है; जीता है तो अपने प्रियतम के लिए और मरता है तो अपने प्रियतम के लिए, गोपियों का शरीर अपना है ही नहीं। गोपियों के प्रेम में यह बात विशेष है। आपको आश्चर्य होगा कि ब्रह्माण्डपुराण में ऐसा वर्णन है कि श्रीकृष्ण के विरह में किसी गोपी का वजन कम नहीं हुआ था, और बढ़ा ही था।
बोले- अरे बाबा, गोपियों को क्या विरह व्यापता है, ये तो बिलकुल अच्छी तगड़ी है, गाय दुहती हैं, पानी भरती हैं, गोबर उठाती हैं, उनको विरह कहाँ है? तो गोपियों ने कहा- यह शरीर तो हमारा नहीं है, कृष्ण का है। इसको सुखा डालने का अधिकार हमको नहीं है। हम इनके विरह में इसको दुबला नहीं कर सकतीं। वे आवेंगे और देखेंगे कि हमारा चेहरा सूख गया है, हमारी आँख रोते-रोते खराब हो गयी है, हमारा श्रृंगार बिगड़ गया है, हम उदास हो गयीं हैं, तो उनके मन में ग्लानि होगी, दुःख होगा, अपने किये पर उनको पछताना पड़ेगा। तो उनको न पछताना पड़े, इसके लिए हमको ठीक रहना चाहिए। यह विभु शब्द का अर्थ बताया। विभु माने, अपने प्राणों का स्वामी प्रियतम। गोपियाँ कहती हैं- बाबा, इन प्राणों के स्वामी हम नहीं हैं, तुम हो।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 6 : ध्यानयोग
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श्लोक 6 . 1
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श्रीभगवानुवाच
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अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः |
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः || १ ||
श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; अनाश्रितः – शरण ग्रहण किये बिना; कर्म-फलम् – कर्मफल की; कार्यम् – कर्तव्य; कर्म- कर्म; करोति – करता है; यः – जो; सः – वह; संन्यासी – संन्यासी; च – भी; योगी – योगी; च – भी; न – नहीं; निः – रहित; अग्निः – अग्नि; न – न तो; च – भी; अक्रियः – क्रियाहीन |
भावार्थ
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श्रीभगवान् ने कहा – जो पुरुष अपने कर्मफल के प्रति अनासक्त है और जो अपने कर्तव्य का पालन करता है, वही संन्यासी और असली योगी है | वह नहीं, जो न तो अग्नि जलाता है और न कर्म करता है |
तात्पर्य
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इस अध्याय में भगवान् बताते हैं कि अष्टांगयोग पद्धति मन तथा इन्द्रियों को वश में करने का साधन है | किन्तु इस कलियुग में सामान्य जनता के लिए इसे सम्पन्न कर पाना अत्यन्त कठिन है | यद्यपि इस अध्याय में अष्टांगयोग पद्धति की संस्तुति की गई है, किन्तु भगवान् बल देते हैं कि कर्मयोग या कृष्णभावनामृत में कर्म करना इससे श्रेष्ठ है | इस संसार में प्रत्येक मनुष्य अपने परिवार के पालनार्थ तथा अपनी सामग्री के रक्षार्थ कर्म करता है, किन्तु कोई भी मनुष्य बिना किसी स्वार्थ, किसी व्यक्तिगत तृप्ति के, चाहे वह तृप्ति आत्मकेन्द्रित हो या व्यापक, कर्म नहीं करता | पूर्णता की कसौटी है – कृष्णभावनामृत में कर्म करना, कर्म के फलों का भोग करने के उद्देश्य से नहीं | कृष्णभावनामृत में कर्म करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है, क्योंकि सभी लोग परमेश्र्वर के अंश हैं | शरीर के अंग पुरे शरीर के लिए कार्य करते हैं | शरीर के अंग अपनी तृप्ति के लिए नहीं, अपितु पूरे शरीर की तुष्टि के लिए कार्य करते हैं | इसी प्रकार जो जीव अपनी तुष्टि के लिए नहीं, अपितु परब्रह्म की तुष्टि के लिए कार्य करता है, वही पूर्ण संन्यासी या पूर्ण योगी है |
कभी-कभी संन्यासी सोचते हैं कि उन्हें सारे कार्यों से मुक्ति मिल गई, अतः वे अग्निहोत्र यज्ञ करना बन्द कर देते हैं, लेकिन वस्तुतः वे स्वार्थी हैं क्योंकि उनका लक्ष्य निराकार ब्रह्म से तादात्मय स्थापित करना होता है | ऐसी इच्छा भौतिक इच्छा से तो श्रेष्ठ है, किन्तु यह स्वार्थ से रहित नहीं होती | इसी प्रकार जो योगी समस्त कर्म बन्द करके अर्धनिमीलित नेत्रों से योगाभ्यास करता है, वह भी आत्मतुष्टि की इच्छा से पूरित होता है | किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को कभी भी आत्मतुष्टि की इच्छा नहीं रहती | उसका एकमात्र लक्ष्य कृष्ण को प्रसन्न करना होता है | त्याग के सर्वोच्च प्रतिक भगवान् चैतन्य प्रार्थना करते हैं –
न धनं न जनं ण सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये |
मम जन्मनि जन्मनीश्र्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि ||
“हे सर्वशक्तिमान प्रभु! मुझे न तो धन-संग्रह की कामना है, ण मैं सुन्दर स्त्रियों के साथ रमण करने का अभिलाषी हूँ, न ही मुझे अनुयायियों की कामना हैं | मैं तो जन्म-जन्मान्तर आपकी प्रेमाभक्ति की अहैतुकी कृपा का ही अभिलाषी हूँ |”
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