Niru Ashra: || श्वेत आर्क गणपति ||
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श्वेतार्क गणपति की पूजा के लाभ-
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वैदिक पथिक✍️
श्वेतार्क गणपति की पूजा करने पर सभी प्रकार की दैविक बाधाओं से रक्षा होती है। गणपति की इस मूर्ति की पूजा से भूत, प्रेत, नजर दोष, जादू-टोना, तंत्र-मंत्र आदि का भय नहीं रहता है। साधक इन सभी चीजों से हमेशा सुरक्षित रहता है। श्वेतार्क गणपति की प्रतिमा तत्काल सिद्धि के लिए अत्यंत लाभप्रद मानी गई है।
भगवान गणेश के अनेक रूपों में से एक चमत्कारी रूप है सफेद आंकड़े के गणेश। यही श्वेतार्क गणेश कहलाते हैं। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार आंकड़े के गणेशजी की पूजा से धन, सुख-सौभाग्य, ऐश्वर्य और सफलता प्राप्त होती है। यदि श्वेतार्क गणेशजी की प्रतिमा तिजोरी में रखी जाए तो स्थाई लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। घर में रिद्धि- सिद्धि की कृपा बनी रहती है। हर काम में लाभ प्राप्त होता है।
श्वेतार्क वृक्ष से सभी परिचित हैं।इसे सफेद आक, मदार, श्वेत आक, राजार्क आदि नामों से जाना जाता है।सफेद फूलों वाले इस वृक्ष को गणपति का स्वरूप माना जाता है।इसलिए प्राचीन ग्रंथों के अनुसार जहां भी यह पौधा रहता है, वहां इसकी पूजा की जाती है। इससे वहां किसी भी प्रकार की बाधा नहीं आती।वैसे इसकी पूजा करने से साधक को काफी लाभ होता है।
अगर रविवार या गुरूवार के दिन पुष्प नक्षत्र में विधि पूर्वक इसकी जड़ को खोदकर ले आएं और पूजा करें तो कोई भी विपत्ति जातकों को छू भी नहीं सकती। ऐसी मान्यता है कि इस जड़ के दर्शन मात्र से भूत-प्रेत जैसी बाधाएं पास नहीं फटकती। अगर इस पौधे की टहनी तोड़कर सुखा लें और उसकी कलम बनाकर उसे यंत्र का निर्माण करें, तो यह यंत्र तत्काल प्रभावशाली हो जाएगा। इसकी कलम में देवी सरस्वती का निवास माना जाता है। वैसे तो इसे जड़ के प्रभाव से सारी विपत्तियां समाप्त हो जाती हैं।
इसकी जड़ में दस से बारह वर्ष की आयु में भगवान गणेश की आकृति का निर्माण होता है। यदि इतनी पुरानी जड़ न मिले तो वैदिक विधि पूर्वक इसकी जड़ निकाल कर इस जड़ की लकड़ी में गणेशजी की प्रतिमा या तस्वीर बनाएं। यह आपके अंगूठे से बड़ी नहीं होनी चाहिए।इसकी विधिवत पूजा करें।पूजन में लाल कनेर के पुष्प अवश्य प्रयोग में लांए।
|| श्वेत आर्क गणपति देव को प्रणाम ||
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Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
भाग 2
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#जनकसुताजगजननीजानकी …._
📙( श्रीरामचरितमानस )📙
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मारीच के प्रसंग में …….जब लक्ष्मण नें मुझे लाख समझाया था ….कि माँ ! वो भगवान हैं ……उनका कोई क्या बिगाड़ेगा ………वो काल के भी महाकाल हैं …………आप चिन्ता मत कीजिये ………मुझे जानें के लिए मत कहिये …..यहाँ अनेक राक्षस हैं …………कुछ भी हो सकता है ।
तब क्या मैने लक्ष्मण की बात मानीं …….?
नही मानीं ……….ओह ! कितना भला बुरा कहा मैनें लक्ष्मण को ।
हाय हाय ! ……….अपराधिनी हूँ मै लक्ष्मण की …….।
ठीक किया लक्ष्मण नें …..मुझे छोड़ कर चले गए गंगा के किनारे ।
अकेली मै …………….रात हो रही थी ……..मै गर्भ वती ………
कहाँ जा रहे हो लक्ष्मण ? मै यहाँ अकेली ?
हिलकियाँ छूट गयीं थीं बेचारे लक्ष्मण की ……..वो भी क्या करे ……वो तो अपनें बड़े भाई का सेवक है …सेव्य जो कहे सेवक वही तो करेगा ।
माँ ! माँ !
मेरे पैरों में गिर गया था ……..और रोता ही जा रहा था ।
क्या हुआ तुम क्यों रोते हो लखन भैया !
बहुत देर तक तो वो बोल भी नही पाया ।
फिर अपनें आपको सम्भाला …….रथ में बैठा ………
क्या हुआ ? मै रथ में बैठनें जा रही थी ।
आपको प्रभु नें त्याग दिया है !
लक्ष्मण बहुत मुश्किल से ये बोल पाये थे ।
क्या ! क्या !
मै स्तब्ध थी……..मै चेतना शून्य हो गयी थी ।
ये क्या कह रहे हो ? मै कुछ और बोल पाती कि तब तक लक्ष्मण चल दिया …..रथ लेकर ।
रात हो रही थी ………..भयानक जंगल था ।
झुंगुर की आवाज चारों दिशाओं से आरही थी ……..मेरे बगल से होकर साँप गुजर रहे थे ……..सिंह मेरे सामनें से जा रहा था …….मै डर रही थी ………….।
कूद जाऊँ गंगा में ……..एक क्षण के लिए मेरे मन में ये विचार आया ।
मै गंगा में कूद कर इस देह को ही समाप्त करना चाहती थी ……..कि तभी मैने अपनें गर्भ को देखा ………..ओह ! इसमें मेरे प्राण रघुनाथ जी के अंश हैं ।
इन्हें कैसे नष्ट करूँ ……?
बैठ गयी ………..डर ……..अपार दुःख ……………
क्रमशः …..
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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[] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
श्लोक 8 . 1
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अर्जुन उवाच
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किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम |
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते || १ ||
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; किम् – क्या; तत् – वह; ब्रह्म – ब्रह्म; किम् – क्या; अध्यात्मम् – आत्मा; किम् – क्या; कर्म – सकाम कर्म; पुरुष-उत्तम – हे परमपुरुष; अधि-भूतम् – भौतिक जगत्; च – तथा; किम् – क्या; प्रोक्तम् – कहलाता है; अधि-दैवम् – देवतागण; किम् – क्या; उच्यते – कहलाता है |
भावार्थ
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अर्जुन ने कहा – हे भगवान्! हे पुरुषोत्तम! ब्रह्म क्या है? आत्मा क्या है? सकाम कर्म क्या है? यह भौतिक जगत क्या है? तथा देवता क्या हैं? कृपा करके यह सब मुझे बताइये |
तात्पर्य
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इस अध्याय में भगवान् कृष्ण अर्जुन के द्वारा पूछे गये, “ब्रह्म क्या है?” आदि प्रश्नों का उत्तर देते हैं | भगवान् कर्म, भक्ति तथा योग और शुद्ध भक्ति की भी व्याख्या करते हैं | श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि परम सत्य ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् के नाम से जाना जाता है | साथ ही जीवात्मा या जीव को ब्रह्म भी कहते हैं | अर्जुन आत्मा के विषय में भी पूछता है, जिससे शरीर, आत्मा तथा मन का बोध होता है | वैदिक कोश (निरुक्त) के अनुसार आत्मा का अर्थ मन, आत्मा, शरीर तथा इन्द्रियाँ भी होता है |
अर्जुन ने परमेश्र्वर को पुरुषोत्तम या परम पुरुष कहकर सम्बोधित किया है, जिसका अर्थ यह होता है कि वह ये सारे प्रश्न अपने एक मित्र से नहीं, अपितु परमपुरुष से, उन्हें परम प्रमाण मानकर, पूछ रहा था, जो निश्चित उत्तर दे सकते थे |
Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 70 )
गतांक से आगे –
सदा मोहनी मन छबि सोहें। गुन रस मंजरि गिरा जु जोहें ॥
सखी सुधा संचारनि हासा। सहज सनिग्धनि नेह निवासा ॥
निवासा नेह सनिग्धनी सुनि विनै नव वासावली।
ललित गुन सुंदरी लाड़ उमंग आनंदावली ॥
सार सारावली सुख सनि मोद महा मतंगनी।
सदय सुंदरि दृष्टि विमद विन्यासनी गति बर बनी ॥
अनँग उदीपनि सहचरि जोई । अतनरूप बिबि सेवै सोई ॥
रहसि रंग आवलि रति रूपा। अगद अंभोज्वलि सुरस अनूपा ॥
अनूपा रस चित्र रागावलि जु सेवति रंग है।
सत्य संकल्पा सखी जु स्वभाव बिहरति संग है ॥
सदाप्रियकर्तृनी सहचरि श्री सुजय उतकर्षिनी ।
सुभ्र सोभावली सहचरि जस सदा रसवर्षिनी ॥
अब सुनि समवर्तनि सखि जोई । इहि प्रकार बिबि सेवें सोई ॥
सरदेंदुका मुकर मन मोहैं। अनंतरँगा सिंघासन सोहैं ॥
सोहैं अनंतरँगा सिंघासन चॅवर मधु-मारुत अली।
छत्र है ऐश्वर्यपूर्ण सुगंध गंध मादावली ॥
सर्वतोभद्रनी सज्या सुमन वल्लरि फूल है।
स्वतः संतोषनि स्मय है सेवहीं अनुकूल है ॥
निज सहचरि इच्छा अनुसारैं। बिबिधि रूप धरि संग बिहारें ॥
जो कछु पारहिं पावैं। यथासक्ति कहि भलौ मनावैं ॥
मनावैं भलौ कहि यथासक्तिहिं हार मानि न रह जियें।
कहत सुनत ही होत है उपकार यातें कह जियें ॥
जै-जै श्रीहरिप्रिया सहचरि सदा ततपर टहल में।
नित्य राजत राज अविचल महा मोहन महल में ॥३७॥
**हे रसिकों ! चर्चा अब मैं आरम्भ कर रहा हूँ ….एक एक शब्द को पढ़ना , समझ न आए तो दुबारा पढ़ना । युगलतत्व और युगलरूप ये एक वस्तु नही हैं , दो हैं ….युगलतत्व सर्वदा सभी जगह विद्यमान तत्व है ….और वो अन्त में एक हो जाता है ….”दोनों मिल एकही भये श्रीराधाबल्लभ लाल” …तत्व, रूप में बदल कर अनेक हो गया , और फिर वो अनेक रूप , तत्व में बदल कर एक हो गया । रस तत्व है ….उसी रस का जो विस्तार है वो आकार और प्रकार है ….वो रूप है । नही , मेरी बात का गलत अर्थ न लीजिएगा ….तत्व में रूप समाहित है …रूप में तत्व है ही …दोनों एक दूसरे में ही हैं । किन्तु रस है तो रस का आस्वादन भी तो करना है ….स्वयं का आस्वादन स्वयं से ही । अब इसे फिर स्पष्ट समझिए ……रस कहें या प्रेम कहें ….वो एक है …..और अन्त में ( नित्य निभृत निकुँज में ) वो फिर एक हो जाता है…..सखियाँ भी कुँज रंध्र से देखती हुई उन्हीं युगल तत्व में मिल जाती हैं ….सब कुछ एक हो जाता है , रह जाता है …..क्या रह जाता है ? बस – “रस”। उसी रस का विस्तार है …उसी रस का आकार है । हे रसिकों ! नित्य लीला के इस रहस्य को समझिये ….ये लीला नित्य चल रही है ….नित्य तत्व से रूप प्रकट हो रहा है ….और नित्य तत्व में रूप समा रहा है ……सब कुछ रसमय है ….सब कुछ रसरूप है । इस बात को अच्छे से समझिये …..तभी ये निकुँजोपासना समझ में आएगी और आप चल सकोगे ….नही तो , वाणी का विलास और मन का रंजन ही रहेगा ।
श्रीहरिप्रिया जी आनन्दसिन्धु में किलोल कर रहीं हैं …..वो रसमत्त हैं ….रस के अधिक होने के कारण वो बोल भी नही पा रहीं, उनका मुखमण्डल अत्यन्त अरुण हो गया है ।
किन्तु सखियाँ तो युगल की ही हैं ….अति भेद भी इनको प्रिय नही हैं ….दोनों के मध्य भेद प्रकट करना तो इनका लक्ष्य नही है …इनका लक्ष्य है दोनों प्रसन्न रहें …..दोनों को सुख मिले ….हरिप्रिया जी कुछ समय के बाद बोलीं थीं । प्रिया जी की पक्षपाती सखियाँ प्रिया जी के अंगों में वस्त्राभूषण बनकर लग गयीं ….लाल जी की पक्षपाती सखियाँ लाल जी के अंगों में वस्त्राभूषण बनकर लग गयीं ……किन्तु एक सखियों का वर्ग ऐसा भी दृष्टिगोचर होने लगा ….कि ये सखियाँ युगल की ही हैं ….दोनों की हैं …युगल को ही सुख मिले ये इनकी कामना है …..तो इस वर्ग की सखियों का प्रेम उच्चतम है …..ये वस्त्राभूषण नही बनतीं ….ये सुख रूप बनकर युगल के हृदय में बस जाती हैं और युगल सरकार सुख के अर्णव में डूबने लगते हैं …इससे इस सखी को बड़ा ही सन्तोष होता है । तभी दूसरी सखी …हर्ष , आनन्द , प्रेम केलि बनकर युगल के मन में विराज जाती हैं ….इसके कारण युगलवर हर्षित हो उठते हैं ….अत्यन्त हर्ष के कारण उन्हें आनन्द आने लगता है ….फिर इनकी केलि आरम्भ हो जाती है । प्रेम केलि ।
हरिप्रिया जी का मुखमण्डल आज देखने जैसा है….वो हंस रहीं हैं , अति आनन्द के कारण उनमें मत्तता छा गयी है ।
हरिप्रिया जी हंसते हुए कहती हैं ….एक सखी ने अवसर देखा और वो “चाह” ( अभिलाषा ) बनकर युगल के हृदय में विहार करने लगी ….चाह प्रकट हुई ….तो अब निकटता आवश्यक प्रतीत होने लगी …दोनों निकट थे ही और निकट आगये ….निकट आगये तो एक सखी मन्दहास्य बनकर युगल के हृदय को उद्वेलित करने लगीं जिसके कारण युगल मुख-अरविंद में हास्य बिखर गया …पूरा नित्य निभृत निकुँज हास्य में सरावोर हो गया था ….तभी एक सखी अवसर पाकर गयी …और उल्लास , उमंग , आकाँक्षा बनकर युगलवर को रति केलि के लिए हृदय में उकसाने लगी । हरिप्रिया जी उन्मद होकर कहती हैं ….एक सखी फिर उसी समय गयी और वो “आसक्ति”बनकर युगल के मन में छा गयी …अब ये युगलवर एक दूसरे पर अतिआसक्त हो गए थे …और निकट आए …..दोनों इतने निकट हैं कि हाथ हाथों से मिले हैं ….वक्ष वक्ष से मिल गये हैं ….तभी इस रस केलि को पूर्णता में ले जाने के लिए …एक सखी “मनोज”( कामदेव ) बनकर युगलवर को उद्वेलित करने लगीं थीं….बस फिर क्या था ….दोनों मिल गये …धीरे धीरे धीरे ….दो एक हो गए …एक । हरिप्रिया जी मौन हो गयीं इसके बाद । अद्वैत घट गया था ।
शेष अब कल –
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877