Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣
भाग 1
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#ताकेजुगपदकमलमनावौं… ….*_
*📙( श्रीरामचरितमानस )📙*
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ये क्या हो गया !
ओह ! मेरे प्राणधन नें ये क्या किया ? क्यों किया ?
कितनें प्रश्न हैं मेरे मन में ……कौन देगा इनका उत्तर ?
कहते हैं एक धोबी के कहनें से मुझे छोड़ दिया मेरे “प्राणधन” नें ?
एक धोबी के कहनें से ? मेरा हृदय नही मानता ………..
मुझ सिया के लिये जिन श्रीरघुनाथ जी नें आकाश पाताल एक कर दिया था……….हाँ ……..रावण मुझे जब चुराकर ले गया था ……तब मेरे लिये क्या नही किया मेरे प्राण नें ।
वानरों को जोड़ा, सागर में पुल बाँधा……रावण जैसे दुर्दांत असुर को मार गिराया ………..पर मै ये क्या सुन रही हूँ आज एक धोबी के कहनें से अपनी प्यारी सिया को छोड़ दिया !
अरे ! ये क्या ताल पत्र फिर से भींग गया ।
हाँ …..कल ही मुझे महर्षि वाल्मीकि कह रहे थे …………कि राजा बननें के बाद उसका निज जीवन समाप्त ही हो जाता है ……….।
फिर वह राजा प्रजा के लिये ही समर्पित होता है………..प्रजा ही उसके लिये सबकुछ है ……सब कुछ ।
बात मुझे ठीक लगी ये …………..तभी तो राजा बननें से पहले ……मेरे लिए क्या नही किया मेरे प्राण धन नें ……………….
धर्म के साक्षात् रूप ही तो हैं मेरे प्राण श्री रघुनाथ जी ……..
वही अगर धर्म का पालन नही करेंगें तो फिर कौन करेगा ?
महर्षि ठीक कहते हैं ………………,
पर तार्किक दृष्टि से भले ही ये ठीक लगे ………पर
मेरा हृदय फटा जा रहा है ………..ये सोचकर की वैदेही ! तेरे राम नें तुझे छोड़ दिया ।
नही …………….नही……………ये कैसे हो सकता है ………..
हा हा हा हा हा हा ……….पगली हूँ मै कुछ भी सोचती रहती हूँ …..
कहाँ छोड़ा है ?
क्या धर्म रूप श्री राम झूठ बोलते हैं ?
नही नही …………..श्री राम झूठ कैसे बोलेंगें !
फिर पवनसुत के हाथों भेजा गया वो सन्देश क्या झूठ था ?
कि हे प्रिया ! तुममें और मुझ में कोई भेद नही है …………हम दोनों एक हैं …………..ये बात तुम जानती ही हो ना !
क्रमशः …
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 72 )
गतांक से आगे –
हे रसिकों ! श्रीमहावाणी के अनुसार युगलसरकार को “रसिकेश्वरौ” ये रसिक समाज के ईश्वर हैं …..रसिक समाज के ईश्वर कहने से तात्पर्य ये है कि ….विश्व में जितने रसिक हैं उनके पालन करने वाले आप हैं …..आपके ही कारण रसिक समाज बचा हुआ है ….और दूसरी बात आप स्वयं रस के श्रोत हैं या कहें आप स्वयं रस हैं । अद्भुत बात और एक है कि – स्वयं रस होकर भी आप रस के लालची हैं ….यानि आप रसिक भी हैं …..हरिप्रिया जी तो कहती हैं ….रसिक वो हैं …जो निरन्तर रस में ही मग्न रहे ….हर काल में रस में ही डूबा रहे …..तो कहना होगा ना , कि आदि रसिक तो ये स्वयं प्रिया लाल जी हैं । और दूसरी रसिक – सखी जन हैं ….और तीसरे रसिक में हम आप लोग हैं । किन्तु हरिप्रिया जी जब रसमग्न होकर महावाणी में कहती हैं ….”रसिक शिरोमणि जोरी जू , नव नित्य किशोर किशोरी जू”…..इसलिए प्रथम रसिक तो ये प्रिया लाल ही हैं …..अब बात कही जाये सखियों की …..महावाणी में ये बड़ा ही आनन्द का विषय लगता है कि ….प्रिया लाल जी के साथ साथ हमारी भी बातें होती हैं ….हमारी बातें ही ज़्यादा होती हैं …..अब देखो ! सखियाँ हैं तभी नित्य विहार है …सखियाँ हैं …तभी निकुँज में उत्साह और उत्सव है ….सखियाँ हैं तभी युगल सरकार प्रसन्न हैं …..इनको प्रसन्नता हमारी सेवा से ही मिलती है ……क्यों रसिकों ! मेरी ये ठसक क्या गलत है ? सखियों में इस ठसक का होना आवश्यक है …..प्रिया लाल हमारे , हम प्रिया लाल के ।
अब ये बात भी ध्यान देने योग्य है कि ….निकुँज में सखियाँ दो प्रकार की हैं ….एक सखी है …रसात्मिका और दूसरी सखी है रागात्मिका । इन दोनों के भेद को समझना आवश्यक है ….श्रीरंगदेवी जी , श्रीसुदेवी जी , श्रीललिता जी आदि जो अष्ट सखियाँ हैं ये सब रसात्मिका हैं …ये रस का पान , सीधे रसिकेश्वर से निर्झरित रस को पीती हैं …..ये आचार्य सखियाँ हैं ….ये गुरु सखियाँ हैं , और दूसरी सखी जो हैं ….वो इनकी अनुचरी हैं । ये रस पीती तो हैं किन्तु अपनी गुरु सखी के माध्यम से …..इनका राग है …और इनका राग ही इन्हें निकुँज में ले जाता है और अपनी अपनी गुरु सखी के माध्यम से ये रस का पान करती हैं । हे रसिकों ! दूसरी श्रेणी हमारी है …..इसलिए मैंने तीन चार दिन पहले के आलेख में लिखा था कि …हमें राग की आवश्यकता है …..राग युगल सरकार में ….तो वही राग हमें इन आचार्य सखियों के पास ले जाएगा ….जाना पड़ेगा क्यों राग आपको चैन लेने नही देगा …वो दौड़ायेगा …वो खोजने में तुम्हें लगाएगा ….फिर उसी राग को पकड़कर तुम गुरु को खोज लोगे ….वो गुरु तुम्हें उपाय बतायेंगे …मन्त्र तन्त्र देंगे …सब मंज़ूर है जी ! बाँध दो गंठा ताबीज़ जो करना है करो …किन्तु हमारे प्रिया लाल से हमें मिला दो …..ये राग की स्थिति है ….इसी से तुम-हम पहुँच जायेंगे निकुँज की अवनी में ……और वहाँ विराजे हैं हमारे राजा और रानी ।
मैंने पूछा ….कौन राजा और कौन रानी ? ऐसे ही पूछा था हरिप्रिया जी से ।
उन्होंने तो ये पंक्ति गाकर सुना दी …….
“सदा सनातन एक रस , सदा बसत सब काल ।
श्रीराधा रानी जहाँ , राजा मोहन लाल ।।”
हे रसिकों ! कल मुझ से एक रसिक साधक ने पूछा था ….ये निकुँज क्या है ? यहाँ की अवनी क्या है ? वृक्ष क्या हैं ? यहाँ के लता क्या हैं ? खग पक्षी आदि क्या हैं ?
मैंने उनसे कहा ….सब प्रिया जी हैं ….सब कुछ प्रिया जी का दिव्य विग्रह है ……
उन्होंने फिर पूछा ….क्या इसका वर्णन है ? मैंने कहा …महावाणी जी के “सिद्धान्त सुख” के अन्तिम में इसका बड़ा अद्भुत वर्णन है …..तो कल इसका वर्णन होगा ….आप लोग उसका भी आनन्द लीजिएगा ।
शेष आज इतना ही –
[Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (147)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रास में श्रीकृष्ण की शोभा
जैसे बड़े लोगों के पास कनभरवा लोग रहते हैं, कान भरते रहते हैं, सलाह देते रहते हैं, ऐसे भगवान् के पास दो कनभरवा हैं- एक ओर साङ्ख्य और एक ओर योग। तो भगवान् जब व्रज में आये तो उन दोनों से कहा कि तुम थोड़े दिनों के लिए वैकुण्ठ में चले जाओ। कहा- हमारे कान में यहाँ मकराकृति कुण्डल रहेगा। मकरकुण्डल का मतलब है काम। अब काम ही कान भरता है- इनको आपकी प्राप्ति की बड़ी कामना है, इसके मन में आपकी प्राप्ति की बड़ी लालसा है, बड़ी अभिलाषा है, यह आपका प्रेमी है, ये मकरकुण्डल जिसकी सिफारिश कर देंगे, वह भगवान् को पावेगा। अब वासना वान को भगवान् की प्राप्ति होगी, जिसके मन में भगवद्वासना होगी, उसको भगवान् मिलेंगे। बड़ी विलक्षण रीति है!
भगवान् के आभूषण बड़े विलक्षण हैं। भगवान् के गले में जो कौस्तुभमणि है- वह जीव है। कौस्तुभव्यपदेशेन स्वात्मज्योतिर्विभर्त्यजः। न उसमें सूत है, न उसमें छेद है, बिलकुल पद्मराग अनुराग का रंग है उसका और गले में अपने आप ही चिपका रहता है। भगवान् के मन में हुआ कि एक गिलास पानी पियें, तो कौस्तुभमणि उतरकर गले से गया और एक गिलास पानी लेकर आया; और भगवान् ने पिया और पीने के बाद फिर उनके गले से चिपक गया। वह चिन्मय होता है, सायुज्यप्राप्त सेवक जो है! वह कण्ठ से लगा रहता है। लक्ष्मी तो नीचे रहती हैं, सायुज्यप्राप्त सेवक जो है! वह कण्ठ से लगा रहता है। लक्ष्मी तो नीचे रहती हैं, कभी छाती पर कभी पाँव में- श्रीवत्सपदाम्बुजरजस्व- और भक्त जीव कहाँ रहता है? बोले- गले में रहता है। भगवान् के आभूषण के बारे में श्रीमद्भागवत् में, विष्णुपुराण में, जहाँ मूर्तिरहस्य का प्रसंग है, वहाँ इनका प्रसंग है।
‘वैजयन्तीं मालां बिभ्रद्’- माला शब्द में ‘मा’ माने प्रभा- ब्रह्मविषयक, ईश्वर विषयक, रसविषयक, जीवविषयक, जो यथार्थज्ञान है वही ‘मा’ है, है; और ‘ला’ माने लाति, लानेवाली। उस ज्ञान का दान करने वाली जो है, उसको खींचने वाली जो है वह है माला। बड़े-बड़े ज्ञानियों के ज्ञान खींच लें और बड़े-बड़े ज्ञानियों को ज्ञान देकर बिदा कर दे कि चलो महाराज। ऐसी यह माला, अपूर्व शोभा, मन को मोहनेवाली। अब वही माला धारण करके गोपियों के बीच में भगवान् कर क्या रहे हैं? बोले- उपगीयमान उद्गायन् वनिताशतयूथपः। कभी गाती हुई झुण्ड-की-झुण्ड गोपियाँ कृष्ण के पास आ जाती हैं।+
आपको सुनाया था कि तीन पद्धतियाँ रास में हैं- एक तो है कि एक झुण्ड में एक कृष्ण और दूसरी पद्धति है कि दो गोपी के बीच में एक कृष्ण और तीसरी पद्धति है कि जितनी गोपी उतने कृष्ण-
तासां मध्ये द्वयोर्द्वयोः, प्रविष्टेन गृहीतानां कण्ठे स्वनिकृतं स्मियाः ।
कृत्वा तावन्तमात्मानं यावतीर्व्रजयोषिताम् ।।
अभी झुण्ड में है और अभी वनिताशतयूथपः उपगीयमानः, गोपियाँ जाती हुई कृष्ण से बिलकुल आकर सट जाती हैं! ‘उपमाने सान्त्येन गीयमानः उपगीयमानः’ जैसे उपनिषद् परमात्मा का गान करती हैं, तो आप जानते हैं कहाँ से गान करती हैं? वह ‘उप’ से गान करती हैं। माने स्वयं भगवान का गान नहीं करती हैं, उनके पास बैठकर गान करती हैं- उपनिषीदति है ना! षद् धातु, विशरण गति, अवसादन के अर्थ में है। तो उपनिषद् ने अविद्या का अवसादन कर दिया, भगवान को लखा दिया, दुःख का आत्यन्तिक नाश कर दिया, परंतु भगवान से एक होकर वहीं भगवान के पास बैठकर।
उपनिषद् में है- न विद्यो न विजानीमः। यस्यामतं तस्य मतं। अविज्ञातं विजानतां। न तत्र वाग्गच्छति। यतो वाचो निर्वन्तते उपनिषद् ब्रह्म का वर्णन कैसे करती हैं? जैसे एक आदमी ने तख्ते पर घड़ा रख दिया और बच्चे को कहा- घड़े को वहाँ से उठाओ और उसमें पानी लाकर यहाँ रख दो। अब घड़े को बच्चा ले गया और यहाँ लाकर रख दिया। घड़े को बच्चा खुद पहचान गया। अब बापने कहा- बच्चा जरा तख्ते को खींचकर ले आओ। बच्चे ने कहा-पिताजी, तख्ता क्या होता है? बोले- भाई! जिस पर घड़ा रखा था वही तख्ता है। और अब जहाँ घड़ा नहीं है, वह तख्ता है। अर्थात्- घड़ा, घड़े का आधार और घड़े का अभाव जिस पर है वह तख्ता है। तो घटभावाभावोपलक्षित कौन हुआ? तख्ता?
घड़ा भी तख्ते पर और घड़े का आधार भी तख्ते पर। इसको बोलते हैं उपलक्षित। अब बच्चे ने पहचान लिया कि घड़ा जिस पर रखा था उसका नाम तख्ता और घड़ा जिस पर से हटा लिया उसका नाम तख्ता। तो उपनिषद् परब्रह्म परमात्मा की पहचान कैसे बताती है? कि उपलक्षण से बताती है। प्रपंचभावाभावोपलक्षितत्त्वं ब्रह्मत्वम्। अथवा परिच्छेदसामान्यात्यन्ताभावोपलक्षितत्त्वं ब्रह्मत्वम्। अर्थात् प्रपंच के भाव और अभाव का जो अधिष्ठान है वह ब्रह्म है। अब गोपियाँ कृष्ण का गान कैसे करती है? उपगीयमानः। उपनिषद् में पूर्वाभावोपलक्षितः अपराभावोपलक्षित, अंतराभावोपलक्षित, बाह्याभावोपलक्षित कौन है? ब्रह्म है- अपूर्वं अनपरं अनन्तरं अबाह्यम्। और यहाँ ब्रह्म है ‘उपगीयमानः’- गीयमानोपलक्षित। गोपियाँ जिसका गान कर रही हैं सो कृष्ण हैं।++
श्रीकृष्ण क्या कर रहे हैं? अभी देखो कृष्ण की पहचान आती है। गोपियाँ जिसका गान करती हैं सो कृष्ण- ‘कृष्णः शरच्चंद्रकौमुदीं- कुसुमाकरं जगौ गोपी जनस्त्वेकं कृष्णनामैव केवलम।’ विष्णुपुराण में जहाँ रास का प्रसंग आया है, ऐसा प्रसंग है कि श्रीकृष्ण कहते हैं- गोपियो देखो कैसी शरद ऋतु है, शीतल-मंद-सुगन्ध वायु चल रही है और चंद्रमा की चाँदनी छिटक रही है; कैसे वृक्ष हैं, कैसी लता है, कैसी यमुना है, क्या मोर हैं, क्या चकोर हैं, क्या उत्तेजक सामग्री है। चंद्रमसं शरद कृष्णः शरच्चन्द्रमसं कौमुदीं कुसुमाकरम्, देखो, शरद् ऋतु में वसन्त आ गया। क्या फूलों का आकर्षक वन है। देखो-देखो गोपियों। और कृष्ण वन का वर्णन करते हैं। उद्गायन। कृष्ण तो सबका गान करते हैं, और गोपी क्या बोलती है कि-जगौ गोपीजनस्त्वेकं कृष्णनामैव केवलम जब कृष्ण बड़ा भारी लम्बा गाना गा लेते हैं, एक पद जब कृष्ण का पूरा होता है, तो टेक देती हैं गोपियाँ- कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण। गोपियाँ गाती-गाती कृष्ण से चिपक गयीं, और श्रीकृष्ण गाते-गाते गोपियों के बीच में घुस गये।
बोले- कितने कृष्ण होंगे अन्दाज से? वनिताशतयूथपः वनिता के सौ-सौ यूथ है- ‘वनिताशतकोटिभिराकुलिता’। वनिता किसको बोलते हैं? यहाँ वनिता शब्द का योग क्या जाँच किया गया है-
सर्वं परित्यज्य श्रीकृष्णार्थं वनं इता इति वनिता।
सबका परित्याग करके जो श्रीकृष्ण के लिए वन में आयीं, सो वनिता। वनिता माने ये लाल कपड़ा पहनने वाले संन्यासी, वनिता, परमहंस! भाई, ये लाल साड़ी कहाँ से आयी? यह लाल कपड़ा कहाँ से आया? तो कहा-
जनितात्यर्थानुरागायाम्- भगवान् के प्रति जो अत्यंत अनुराग हृदय में है उस अनुराग की लाली है यह! वनिताजनितात्यर्थानुरागायां च योषितिः। और वनं इता इति वनिता।
अब यहाँ सौ-सौ यूथ हैं गोपियों के ऐसा कहते हैं कि करोड़-करोड़ गोपी के सौ यूथ हैं- ऐसा कहते हैं? सौ करोड़ गोपी का वर्णन तन्त्रशास्त्र में आता है। अब ये लोग नहीं समझते हैं वे पूछेंगे कि इतनी गोपी भला वृन्दावन में कहाँ? अरे, कहाँ क्या धरती में? अरे, यह तो ध्यान की बात है, सूक्ष्म, दिव्यजगत् की बात है। यह महाराज सौ करोड़ ब्रह्माण्ड वृन्दावन के एक अल्पप्रदेश में- यह वृन्दावन-भूमिका की महिमा है। तो अब यहाँ सौ झुण्ड हैं गोपियों के और उनमें एक-एक के नेता श्रीकृष्ण हैं। तो सौ कृष्ण हो गये- ‘मालां बिभ्रद् वैजयन्तीं व्यचरन्मण्डयन् वनम्’ आज ये श्रीकृष्म वृन्दावन-भूषण हो गये। मण्डयन् = अलंकार; वृन्दावनालंकार, वृन्दावनभूषण, वृन्दावनरत्न, वृन्दावनचंद्र! भगवान् श्रीकृष्ण गोपियों के साथ रास-विलास कर रहे हैं, आज अब आप इस रास-विलास के ध्यान का ही आनन्द लेते रहिये।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
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श्लोक 8 . 3
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श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोSध्यात्ममुच्यते |
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः || ३ ||
श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; अक्षरम् – अविनाशी; ब्रह्म – ब्रह्म; परमम् – दिव्य; स्वभावः – सनातन प्रकृति; अध्यात्मम् – आत्मा; उच्यते – कहलाता है; भूत-भाव-उद्भव-करः – जीवों के भौतिक शरीर को उत्पन्न करने वाला; विसर्गः – सकाम कर्म; संज्ञितः – कहलाता है |
भावार्थ
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भगवान् ने कहा – अविनाशी और दिव्य जीव ब्रह्म कहलाता है और उसका नित्य स्वभाव अध्यात्म या आत्म कहलाता है | जीवों के भौतिक शरीर से सम्बन्धित गतिविधि कर्म या सकाम कर्म कहलाती है |
तात्पर्य
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ब्रह्म अविनाशी तथा नित्य और इसका विधान कभी भी नहीं बदलता | किन्तु ब्रह्म से परे परब्रह्म होता है | ब्रह्म का अर्थ है जीव और परब्रह्म का अर्थ भगवान् है | जीव का स्वरूप भौतिक जगत् में उसकी स्थिति से भिन्न होता है | भौतिक चेतना में उसका स्वभाव पदार्थ पर प्रभुत्व जताना है, किन्तु आध्यात्मिक चेतना या कृष्णभावनामृत में उसकी स्थिति परमेश्र्वर की सेवा करना है | जब जीव भौतिक चेतना में होता है तो उसे इस संसार में विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करने पड़ते हैं | यह भौतिक चेतना के कारण कर्म अथवा विविध सृष्टि कहलाता है |
वैदिक साहित्य में जीव को जीवात्मा तथा ब्रह्म कहा जाता है, किन्तु उसे कभी परब्रह्म नहीं कहा जाता | जीवात्मा विभिन्न स्थितियाँ ग्रहण करता है – कभी वह अन्धकार पूर्ण भौतिक प्रकृति में मिल जाता है और पदार्थ को अपना स्वरूप मान लेता है तो कभी वह परा आध्यात्मिक प्रकृति के साथ मिल जाता है | इसीलिए वह परमेश्र्वर की तटस्था शक्ति कहलाता है | भौतिक या आध्यात्मिक प्रकृति के साथ अपनी पहचान के अनुसार ही उसे भौतिक या आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है | भौतिक प्रकृति में वह चौरासी लाख योनियों में से कोई भी शरीर धारण कर सकता है, किन्तु आध्यात्मिक प्रकृति में उसका एक ही शरीर होता है | भौतिक प्रकृति में वह अपने कर्म अनुसार कभी मनुष्य रूप में प्रकट होता है तो कभी देवता, पशु, पक्षी आदि के रूप में प्रकट होता है | स्वर्गलोक की प्राप्ति तथा वहाँ का सुख भोगने की इच्छा से वह कभी-कभी यज्ञ सम्पन्न करता है, किन्तु जब उसका पुण्य क्षीण हो जाता है तो वह पुनः मनुष्य रूप में पृथ्वी पर वापस आ जाता है | यह प्रक्रिया कर्म कहलाती है |
छांदोग्य उपनिषद् में वैदिक यज्ञ-अनुष्ठानों का वर्णन मिलता है | यज्ञ की वेदी में पाँच अग्नियों को पाँच प्रकार की आहुतियाँ दी जाती हैं | ये पाँच अग्नियाँ स्वर्गलोक, बादल, पृथ्वी, मनुष्य तथा स्त्री रूप मानी जाती हैं और श्रद्धा, सोम, वर्षा, अन्न तथा वीर्य ये पाँच प्रकार की आहुतियाँ हैं |
यज्ञ प्रक्रिया में जीव अभीष्ट स्वर्गलोकों की प्राप्ति के लिए विशेष यज्ञ करता है और उन्हें प्राप्त करता है | जब यज्ञ का पुण्य क्षीण हो जाता है तो वह पृथ्वी पर वर्षा के रूप में उतरता है और अन्न का रूप ग्रहण करता है | इस अन्न को मनुष्य खाता है जिससे यह वीर्य में परिणत होता है जो स्त्री के गर्भ में जाकर फिर से मनुष्य का रूप धारण करता है | यह मनुष्य पुनः यज्ञ करता है और पुनः वही चक्र चलता है | इस प्रकार जीव शाश्र्वत रीति से आता और जाता रहता है | किन्तु कृष्णभावनाभावित पुरुष ऐसे यज्ञों से दूर रहता है | वह सीधे कृष्णभावनामृत ग्रहण करता है और इस प्रकार ईश्र्वर के पास वापस जाने की तैयारी करता है |
भगवद्गीता के निर्विशेषवादी भाष्यकार बिना करण के कल्पना करते हैं कि इस जगत् में ब्रह्म जीव का रूप धारण करता है और इसके समर्थन में वे गीता के पँद्रहवें अध्याय के सातवें श्लोक को उद्धृत करते हैं | किन्तु इस श्लोक में भगवान् जीव को “मेरा शाश्र्वत अंश” भी कहते हैं | भगवान् का यह अंश, जीव, भले ही भौतिक जगत् में आ गिरता है, किन्तु परमेश्र्वर (अच्युत) कभी नीचे नहीं गिरता | अतः यह विचार कि ब्रह्म जीव का रूप धारण करता है ग्राह्य नहीं है | यह स्मरण रखना होगा कि वैदिक साहित्य में ब्रह्म (जीवात्मा) को परब्रह्म (परमेश्र्वर) से पृथक् माना जाता है |
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877