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November 21, 2024 11:04 pm

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#श्रीसीतारामशरणम्मम-मैंजनकनंदिनी2️⃣,!! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !! & श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

#श्रीसीतारामशरणम्मम-मैंजनकनंदिनी2️⃣,!! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !! & श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣

भाग 2

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#ताकेजुगपदकमलमनावौं… ….*_
*📙( श्रीरामचरितमानस )📙*

🙏🙏👇🏼🙏🙏

हा हा हा हा हा हा ……….पगली हूँ मै कुछ भी सोचती रहती हूँ …..

कहाँ छोड़ा है ?

क्या धर्म रूप श्री राम झूठ बोलते हैं ?

नही नही …………..श्री राम झूठ कैसे बोलेंगें !

फिर पवनसुत के हाथों भेजा गया वो सन्देश क्या झूठ था ?

कि हे प्रिया ! तुममें और मुझ में कोई भेद नही है …………हम दोनों एक हैं …………..ये बात तुम जानती ही हो ना !

हाँ ……प्राण धन ! मै सब जानती हूँ …………..तुम कैसे मुझे छोड़ सकते हो ……………!


मुझ में सहन शीलता बहुत है …………..हाँ और सब कहते हैं ये सहनशीलता मेरी माँ के कारण मुझ में आई ।

मेरी माता धरती है ना ! मेरा जन्म धरती से हुआ है ………

मेरी सखी चन्द्रकला कितनें प्यार से बुलाती थी …..भूमिजा ..।

हाय ! अगर मै भूमि की पुत्री न होती ……तो शायद अभी तक मैने अपनें देह को त्याग दिया होता …………पर ।

भूमिजा ! ( सीता जी इसे कई बार दोहराती हैं )

पर मुझे तो विदेहजा, मैथिली , वैदेही, सीता, जानकी ………

मेरा जन्म हुआ था जनकपुर में …………..विदेहराज जनक की पुत्री होनें का सौभाग्य मुझे मिला ।

ओह ! वो विदेह राज जिनके आगे बड़े बड़े योगी बड़ों से बड़े ज्ञानी तत्व की शिक्षा लेंने आते थे ………वो गद्दी ही थी ……हाँ मेरे पिता की गद्दी …………जो सिद्ध थी ……..उसमें बैठनें वाले ……सब विदेह ही कहलाये……देहातीत ………सब को “विदेह” उपाधि ही मिल गयी थी…….पर मेरे पिता का नाम तो था ……..श्री शीलध्वज …….जनक ।

क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभागमें……….


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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!

( “सिद्धान्त सुख” – 73 )


गतांक से आगे –

॥ दोहा ॥

महावाणी रस-रतन कौ, भौ गहर दृढ गेह ।
ताके ताले खुलन की, कहूँ तालिका एह ॥

॥ पद ॥

महावाणी रस-रतन सालिका। कहूँ जु याकी एह तालिका ॥
तन अवनी सरिता सिंगार । चरन कदंब कहावत चार ॥
कही केतकी पिंडुरी रूप। कदली जंघा जानि अनूप ॥
मंडल जघन सुकटि तटि कहिये। मध्य देस पुनि संज्ञा लहिये ॥
नाभि सरोवर गहर गंभीर। भरयौ सुधा नव-निर्मल नीर ॥
चल दल उदर अनूपम ओभा। श्रीफल कोक कलस कुच सोभा ॥
हृदय कमल मुख कमल सुहाये। कर पद नैंन कमल मनभाये ॥
औरहु कमल भेद बहु बिधि के। भरे सुरंग समर रिधि सिधि के ॥
जहँ-जहँ जैसो लगै संबंध। तहँ-तहँ तैसो समझि प्रबंध ॥
खंज मीन अलि मृग-दूग कहिये। चंप बरन पुनि नासा लहिये ॥
पुनि मुख की ससि संज्ञा मानहु । अधर बिंब रद कुंदहि जानहु ॥
भरे तँबोल रंग रद जोई । मंजुल-मनि सु कहावति सोई ॥
पुनि अनार की उपमा पावैं । अब आगे सुनि और बतावैं ॥
मधुक सुमन संज्ञा कपोल की। कोकिल कलरव कही बोल की ॥
चिबुक रसाल कुब्ज छबि पावैं। गहवर कुंज सुहियो कहावैं ॥
कंबु कपोत कंठ गुन डोरी। कदलीपत्र पीठि रस बोरी ॥
मौलसिरी सोभा लहि जानौं । रायबेलि सोई रुचि मानौं ।॥
चारु पदाग्र चमेली कही। जोहनि जुही मानिये सही ॥
सदा सुहाग सेवती स्यामा । याही तें पियवासौ नामा ।।
आलिंगन चुंबन जो वही। मल्लि मालती संज्ञा नामा लही ॥

ये जो तुम सुन रही हो ना ! ये श्रीमहावाणी है ….रस रत्नों कि तिजोरी ! एक भी रत्न हाथ लग जाये तो बस काम बन गया ! हरिप्रिया जी कितनी सरलता से इस “रस रहस्य” का भेद खोल रहीं थीं । ये मात्र रस काव्य नही है , रस रत्नों से भरी एक बहुत बड़ी तिजोरी है ….इस तिजोरी को खोले बिना वो रस रत्न प्राप्त होगा नही , ये पक्का है । कैसे खुलेगी यह तिजोरी ? मेरे इस प्रश्न पर हरिप्रिया जी कहती हैं ….अब जो मैं कह रही हूँ वही इस महावाणी रूप तिजोरी की चाबी है …वस्तुतः इसको समझे बिना रसरत्न की प्राप्ति होगी नही । हरिप्रिया जी के इस प्रकार कहने पर मैं सावधान हुआ और उनके एक एक शब्द को ध्यान पूर्वक सुनने लगा ।

“तन अवनी सरिता शृंगार”। ये जो निकुँजवन की भूमि है ये श्रीप्रिया जी का ही श्रीविग्रह है ।

हरिप्रिया जी ने इतना ही तो कहा था किन्तु मुझे रोमांच होने लगा ….ये कितनी गहरी बात कह दी थी ….कि प्रिया जी ही हैं …उनके सिवा और कुछ है ही नही । प्रिया जी का तन निकुँज की अवनी है तो यमुना जी उस तन का शृंगार हैं । मैंने उसी समय यमुना जी के दर्शन किए तो अद्भुत रूप था यमुना जी का …कितने सुन्दर सुन्दर , रंग विरंगे कमल खिले थे …..हंसों का जोड़ा विहार कर रहा था ….ये हमारी प्रिया जी का शृंगार हैं । फिर उसी समय हरिप्रिया जी बोलीं ….कदम्ब के ये वृक्ष प्रिया जी के चरणकमल हैं …और केतकी का सुन्दर पौध प्रिया जी की पिंडली हैं ….केले के खम्भे प्रिया की की अनुपम जंघा है । मण्डल देश यानि मध्य देश ….मध्य देश में ही मोहन महल है …वो निकुँज की भाग प्रिया जी की कटि यानि कमर है ….हरिप्रिया जी रसावेश में आगे बोलती हैं …..सुन्दर जो सरोवर है …..गहन गम्भीर सरोवर वो प्रिया जी की नाभि है ….इसी में तो नवीन नवीन रसामृत भरा रहता है ….जिसे पान करने के लिए लाल जी ललचाये फिरते हैं ।

यहाँ हरिप्रिया जी मानों ध्यानस्थ हो जाती हैं …रसावेश के कारण वो आगे बोल नही पातीं ….तभी सामने पीपल का एक सुन्दर सा घना वृक्ष देखती हैं उसका एक पत्ता गिरता है तो उसे उठाकर कहती हैं …ये तेज युक्त पीपल का पत्ता हमारी प्रिया जी का उदर है ….और श्रीफल और सुवर्ण कलश द्वय वक्षोज हैं …..सामने सरोवर में कमल खिले हैं उन्हें देखकर हरिप्रिया जी कहती हैं ….ये कमल हमारी प्रिया जी के मुख हैं , फिर कहतीं हैं , नहीं नहीं …हृदय हैं …हरिप्रिया जी मुस्कुराती हैं ….नेत्र हैं , हाथ हैं …….सरोवर में मछली देखती हैं ….तो हरिप्रिया जी कहती हैं ये तो हमारी प्रिया जी के नेत्र हैं ……खंजन पक्षी उड़ते हुये हरिप्रिया जी के स्कन्ध में बैठ जाती है …..हरिप्रिया जी इस पक्षी को देखकर फिर चहकते हुए कहती हैं …ये प्रिया जी के नेत्र हैं …..तभी सामने के कुँज से भ्रमरों का झुण्ड निकला तो हरिप्रिया जी ने यहाँ पर भी कहा …ये प्रिया जी के नेत्र हैं …ओह ! हिरणों का झुण्ड उछलते हुए आरहा था तो इनको भी देखकर सखी जी ने कहा …ये प्रिया जी के नेत्र । आपने चार उपमा दीं …पहली उपमा मछली की , दूसरी उपमा खंजन पक्षी की , तीसरी उपमा भ्रमर की और चौथी उपमा हिरण की …..मैं पूछ ही रहा था कि हरिप्रिया जी आनन्द के अतिरेक में बोलीं ….चारों उपमा सही है प्रिया जी के नेत्रों के लिए । फिर अपनी रस से सनी वाणी में बोलने लगीं …..मछली की आकृति जैसे नेत्र हैं प्रिया जी के ….और खंजन पक्षी अत्यन्त चंचल होता है ….प्रिया जी के नेत्र भी ऐसे ही चंचल हैं …खंजन पक्षी जैसे । और भ्रमर की मँडरान ! कैसे सुन्दरता से मँडराता है ….ऐसे ही प्रिया जी मँडराते भ्रमर की तरह नेत्र हैं ….और हिरण के नेत्रों में एक भोलापन होता है ….कितना भोलापन है इन नयनों में । हमारी किशोरी जी भोली हैं ….बहुत भोली हैं । ये कहते हुये हरिप्रिया जी आगे बढ़ने लगती हैं …..चम्पा का बाग दिखाई देता है तो सखी जी कहती हैं ….इसी चम्पा पुष्प की तरह सुन्दर वरण हैं प्रिया जी का । और इस चन्द्र की तरह मुखकमल है ……बिम्ब अधर …..हैं । कुंद कलि जो शुभ्र है उसके समान दंतपंक्ति हैं हमारी प्रिया जी की । ये कहते हुए यहाँ हरिप्रिया जी रुक जाती हैं …..गदगद गिरा है उनकी ……उनको रोमांच हो रहा है ….पूरा श्रीवन ही प्रिया रूप में दृष्टि गोचर हो रहा है हरिप्रिया जी को । हमारी भी यही रसमयी दृष्टि हो ….सर्वत्र प्रिया जी ही दिखाई दें …..वही हैं हीं ……फिर लाल जी ? अजी ! जहाँ प्रिया जी आगयीं वहाँ क्या लाल जी नही आयेंगे ?

शेष अब कल –
[] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
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श्लोक 8 . 4
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अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्र्चाधिदैवतम् |
अधियज्ञोSहमेवात्र देहे देहभृतां वर || ४ ||

अधिभूतम् – भौतिक जगत्; क्षरः – निरन्तर परिवर्तनशील; भावः – प्रकृति; पुरुषः – सूर्य, चन्द्र जैसे समस्त देवताओं सहित विराट रूप; च – तथा; अधिदैवतम् – अधिदैव नामक; अधियज्ञः – परमात्मा; अहम् – मैं (कृष्ण); एव – निश्चय ही; अन्न – इस; देहे – शरीर में; देह-भृताम् – देहधारियों में; वर – हे श्रेष्ठ |

भावार्थ
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हे देहधारियों में श्रेष्ठ! निरन्तर परिवर्तनशील यह भौतिक प्रकृति अधिभूत (भौतिक अभिव्यक्ति) कहलाती है | भगवान् का विराट रूप, जिसमें सूर्य तथा चन्द्र जैसे समस्त देवता सम्मिलित हैं, अधिदैव कहलाता है | तथा प्रत्येक देहधारी के हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित मैं परमेश्र्वर (यज्ञ का स्वामी) कहलाता हूँ |

तात्पर्य
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यह भौतिक प्रकृति निरन्तर परिवर्तित होती रहती है | सामान्यतः भौतिक शरीरों को छह अवस्थाओं से निकलना होता है – वे उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं, कुछ काल तक रहते हैं, कुछ गौण पदार्थ उत्पन्न करते हैं, क्षीण होते हैं और अन्त में विलुप्त हो जाते हैं | यह भौतिक प्रकृति अधिभूत कहलाती है | यह किसी निश्चित समय में उत्पन्न की जताई है और किसी निश्चित समय में विनष्ट कर दी जाती है | परमेश्र्वर का विराट स्वरूप की धारणा, जिसमें सारे देवता तथा उनके लोक सम्मिलित हैं, अधिदैवत कहलाती है | प्रत्येक शरीर में आत्मा सहित परमात्मा का वास होता है, जो भगवान् कृष्ण का अंश स्वरूप है | यह परमात्मा अधियज्ञ कहलाता है और हृदय में स्थित होता है | इस श्लोक के प्रसंग में एव शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसके द्वारा भगवान् बल देकर कहते हैं कि परमात्मा उनसे भिन्न नहीं है | यह परमात्मा प्रत्येक आत्मा के पास आसीन है और आत्मा के कार्यकलापों का साक्षी है तथा आत्मा की विभिन्न चेतनाओं का उद्गम है | यह परमात्मा प्रत्येक आत्मा को मुक्त भाव से कार्य करने की छूट देता है और उसके कार्यों पर निगरानी रखता है | परमेश्र्वर के इन विविध स्वरूपों के सारे कार्य उस कृष्णभावनाभावित भक्त को स्वतः स्पष्ट हो जाते हैं, जो भगवान् की दिव्यसेवा में लगा रहता है | अधिदैवत नामक भगवान् के विराट स्वरूप का चिन्तन उन नवदीक्षितों के लिए है जो भगवान् के परमात्मा स्वरूप तक नहीं पहुँच पाते | अतः उन्हें परामर्श दिया जाता है कि वे उस विराट पुरुष का चिन्तन करें जिसके पाँव अधोलोक हैं, जिसके नेत्र सूर्य तथा चन्द्र हैं औ जिसका सिर उच्च्लोक है |

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