[Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣
भाग 3
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#ताकेजुगपदकमलमनावौं… ….*_
*📙( श्रीरामचरितमानस )📙*
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मेरी माता धरती है ना ! मेरा जन्म धरती से हुआ है ………
मेरी सखी चन्द्रकला कितनें प्यार से बुलाती थी …..भूमिजा ..।
हाय ! अगर मै भूमि की पुत्री न होती ……तो शायद अभी तक मैने अपनें देह को त्याग दिया होता …………पर ।
भूमिजा ! ( सीता जी इसे कई बार दोहराती हैं )
पर मुझे तो विदेहजा, मैथिली , वैदेही, सीता, जानकी ………
मेरा जन्म हुआ था जनकपुर में …………..विदेहराज जनक की पुत्री होनें का सौभाग्य मुझे मिला ।
ओह ! वो विदेह राज जिनके आगे बड़े बड़े योगी बड़ों से बड़े ज्ञानी तत्व की शिक्षा लेंने आते थे ………वो गद्दी ही थी ……हाँ मेरे पिता की गद्दी …………जो सिद्ध थी ……..उसमें बैठनें वाले ……सब विदेह ही कहलाये……देहातीत ………सब को “विदेह” उपाधि ही मिल गयी थी…….पर मेरे पिता का नाम तो था ……..श्री शीलध्वज …….जनक ।
उनके जैसा प्रजा वत्सल कौन होगा ? एक पुत्री का पिता के लिए पक्षपात नही है ये कहना …………….
मेरी मिथिला में अकाल पड़ गया था …………..कई वर्षों से वर्षा ही नही हुयी थी ………..कहते हैं मेरे पिता का हृदय तड़फ़ उठा था ……प्रजा जल के बिना त्राहि त्राहि कर उठी थी ।
विदेह राज ! आप एक यज्ञ कीजिये ………और उस यज्ञ की समाप्ति पर स्वयं आप और महारानी सुनयना जी …..हल चलाइये …
वर्षा होगी !
…………..वेदज्ञ शास्त्रज्ञ ऋषियों की एक मण्डली नें मेरे पिता को सलाह दी थी ।
मेरे पिता नें सिर झुकाकर उन पूज्य ऋषियों की बात मान ली थी ।
यज्ञ भी हुआ …………और हल भी चला रहे थे मेरे पिता और मेरी माँ सुनयना …….।
पर वो हल एक स्थान पर रुक गया …………ओह !
बड़ा प्रयास करना पड़ा ………..हल का अग्र भाग किसी वस्तु में अटक गया था ………….
खोदा गया ………धरती को खोदते गए ………………
और कहते हैं …………….एक सुवर्ण का मोती माणिक्य से जड़ा हुआ ……एक सन्दुक था ………….वो थोडा खुला हुआ ही था ……
उसमें से रोनें की आवाज आरही थी ………………….
कहते हैं ………..उसमें मै थी ………हाँ मै भूमिजा !
सीता , मैथिली…..वैदेही ……..जानकी …………….
और कहते हैं ………….मै कुछ ही पलों में माता सुनयना की गोद में थी ।
ओह ! तभी वर्षा होनें लगी थी………….घन घोर वर्षा…………लोग नाच उठे ……..और हाँ …………कहते हैं उस दिन मेरे पिता जनक जी बहुत नाचे थे ………सब नाचे थे ……………पूरी सृष्टि नाची थी ।
वन देवी ! आपको महर्षि वाल्मीकि बुला रहे हैं …….
एक आश्रम की सेविका नें आकर सीता जी को कहा …………….
हाँ ……………….अपनी लेखनी रखकर ताल पत्र को लपेटकर सीता जी गयीं ऋषि वाल्मीकि जी के पास ।
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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[Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 74 )
गतांक से आगे –
भरे तँबोल रंग रद जोई । मंजुल-मनि सु कहावति सोई ॥
पुनि अनार की उपमा पावैं । अब आगे सुनि और बतावैं ॥
मधुक सुमन संज्ञा कपोल की। कोकिल कलरव कही बोल की ॥
चिबुक रसाल कुब्ज छबि पावैं। गहवर कुंज सुहियो कहावैं ॥
कंबु कपोत कंठ गुन डोरी। कदलीपत्र पीठि रस बोरी ॥
मौलसिरी सोभा लहि जानौं । रायबेलि सोई रुचि मानौं ।
चारु पदाग्र चमेली कही। जोहनि जुही मानिये सही ॥
सदा सुहाग सेवती स्यामा । याही तें पियवासौ नामा ।।
आलिंगन चुंबन जो वही। मल्लि मालती संज्ञा नामा लही ॥
*सच में ये “रस रत्न” मंजूषा की चाबी है ….यही चाबी है …जिस चाबी से आप उस मंजूषा को खोल सकते हैं …..फिर तो आपको अनंतानंत “रस रत्न” भरे मिलेंगे ….किन्तु ये चाबी होनी बहुत आवश्यक है ……क्या आपको नही लगता ….जब आप श्रीधाम की अवनी देखें तो आपको लगे की ये तो प्रिया जी हैं ….उनका ये श्रीविग्रह है …..हाँ , तभी तो हमारे अनेकानेक रसिकाचार्य श्रीवन में चलते भी थे तो बिना पनही के ..बड़ी सावधानी पूर्वक । श्रीवन की अवनी में तृण देखा तो उसमें पैर नही रखते थे ….वृक्षों के पत्ते नही तोड़ते थे …..अरे ! अकेले में मैंने स्वयं देखा है अपने बाबा को …वृक्षों को गले लगाते हुए …..मोरों को , अन्य पक्षियों को दाने खिलाते हुए ….मुझे स्मरण है ….बाबा के कुँज में एक बार कोयल बोली थी तो बाबा आनंदित होते हुए मुझे बोले थे …ये आवाज मेरी स्वामिनी श्रीप्रिया जी की है । कदम्ब को देखते मेरे बाबा तो उसे छूते , अपने हृदय से लगाते । मैं जब प्रथम बार पागल बाबा से मिला था तो मैंने उनसे पूछा था ….क्या करूँ जिससे साधना में शीघ्र उन्नति हो ….तो बाबा ने मुझे कहा था ….सामने जो कदम्ब वृक्ष है ना …नित्य उसको लगे लगाना आरम्भ करो …अपनी बात उससे कहो …..मैंने ये प्रयोग किया ….पहले प्रयोग था किन्तु बाद में तो उस कदम्ब से मेरी मित्रता ही हो गयी थी …..मुझे उस कदम्ब की धड़कन तक सुनाई देने लगी थी …ये बात जब मैंने बाबा से कही तो बाबा बोले थे तुम्हें क्या लगता है ये श्रीवृन्दावन के वृक्ष हैं …ये सामान्य थोड़े ही हैं ….और कदम्ब वृक्ष तो हमारी श्रीजी के चरणारविंद हैं । मेरे बाबा मात्र कदम्ब ही नही ….श्रीवृन्दावन की परिक्रमा देते हुए मार्ग में जो वृक्ष पड़ते , उनको दाहिनी और करते हुए चलते ….उन्हें छूते उन्हें आलिंगन करते …..ये उनका नियम ही था , है । मुझे स्मरण है …एक बार श्रीवृन्दावन की परिक्रमा में किसी ने मोरछली के वृक्ष को काट दिया था ….बाबा उस दिन बहुत दुखी हुए थे ….वो मुझे कहते रहे …मोरछली , कदम्ब , तमाल आदि ये वृक्ष नित्य निकुँज के हैं ।
हे रसिकों ! दो प्रकार हैं दृष्टि बनाने के , या तो सबको मिथ्या मान लो ….लेकिन मिथ्या मानना भक्ति मार्ग है नही ….इसलिए हमारे मार्ग में तो मिथ्या नही …स्वयं प्रभु ही सर्वत्र हैं । श्रीमहावाणी में जो ये दृष्टि दी है ….वो अद्भुत है ….यही दृष्टि रहे , ऐसी दृष्टि रहे तो रस रत्न की मंजूषा खुल ही जाएगी …..आप हर वस्तु को , हर स्थान को अपने प्रिया लाल से जोड़ दो …आप जो जो देखें , आपकी जहाँ जहाँ दृष्टि जाये …सब कुछ प्रिया लाल हैं …उन्हीं का अंग है …..ये मानें तो फिर देखिये …सर्वत्र रस सत्ता प्रकट हो जाएगी ….आप उसी रस में मग्न रहेंगे । यही दृष्टि तो अपनाई थी श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने , उन्हीं ने श्रीराधा बाबा जी को यही दृष्टि दी थी …तो गोरखपुर भी श्रीवृन्दावन बन गया था । हे रसिक जनों ! यही दृष्टि अपनाइये , वृक्ष , कुँज , जल , पक्षी , रज , सुन्दर स्त्री , सुन्दर पुरुष आदि आप जहाँ देखो ….इन सबमें युगल सरकार की भावना कीजिए …सुन्दर स्त्री देखो तो सोचो आहा ! हमारी प्रिया जी की सखियाँ हैं ….प्रणाम करो …सुन्दर पुरुष देखो तो हमारे श्याम सुन्दर ऐसे बनकर घूम रहे हैं । इसीलिए श्रीमहावाणी के इस “सिद्धान्त सुख” के अन्तिम विवरण में ये सब बात लिखी है ।
“महावाणी रस रत्न कौं , भरयौ गहर दृढ़ गेह ।
ताके ताले खुलन की , कहूँ तालिका ऐह”।।
शेष अब कल –
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
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श्लोक 8 . 5
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अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः || ५ ||
अन्त-काले – मृत्यु के समय; च – भी; माम् – मुझको; एव – निश्चय ही; स्मरन् – स्मरण करते हुए; मुक्त्वा – त्याग कर; कलेवरम् – शरीर को; यः – जो; प्रयाति – जाता है; सः – वह; मत्-भावम् – मेरे स्वभाव को; याति – प्राप्त करता है; न – नहीं; अस्ति – है; अत्र – यहाँ; संशयः – सन्देह |
भावार्थ
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और जीवन के अन्त में जो केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह तुरन्त मेरे स्वभाव को प्राप्त करता है | इसमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं है |
तात्पर्य
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इस श्लोक में कृष्णभावनामृत की महत्ता दर्शित की गई है | जो कोई भी कृष्णभावनामृत में अपना शरीर छोड़ता है, वह तुरन्त परमेश्र्वर के दिव्य स्वभाव (मद्भाव) को प्राप्त होता है | परमेश्र्वर शुद्धातिशुद्ध है, अतः जो व्यक्ति कृष्णभावनाभावित होता है, वह भी शुद्धातिशुद्ध होता है | स्मरन् शब्द महत्त्वपूर्ण है | श्रीकृष्ण का स्मरण उस अशुद्ध जीव से नहीं हो सकता जिसने भक्ति में रहकर कृष्णभावनामृत का अभ्यास नहीं किया | अतः मनुष्य को चाहिए कि जीवन के प्रारम्भ से ही कृष्णभावनामृत का अभ्यास करे | यदि जीवन के अन्त में सफलता वांछनीय है तो कृष्ण का स्मरण अनिवार्य है | अतः मनुष्य को निरन्तर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे | हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – इस महामन्त्र का जप करना चाहिए | भगवान चैतन्य ने उपदेश दिया है कि मनुष्य को वृक्ष के समान सहिष्णु होना चाहिए (तरोरिवसहिष्णुना) | हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे | हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – का जप करने वाले व्यक्ति को अनेक व्यवधानों का सामना करना पड़ सकता है | तो भी इस महामन्त्र का जप करते रहना चाहिए, जिससे जीवन के अन्त समय कृष्णभावनामृत का पूरा-पूरा लाभ प्राप्त हो सके |
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (148)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रास-स्थली की शोभा
नद्याः पुलिनमाविय……तत्तरलानन्दकुमुदामोदवायुना
उपगीयमान उद्गायन् वनिताशतयूथपः ।
मालां बिभ्रद् वैजयन्तीं व्यचरनमण्डयन् वनम् ।।
नद्याः पुलिनमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुकम् ।
*रेमे तत्तरलानन्दकुमुदामोदवायुना ।। *
तो चलो सहेलियो! रँगो वृन्दावन के रंग। हे सहेली, अब वृन्दावन के रंग में रंग जाओ! सजनी, अब उस वृन्दावन के देश में चलो जो आनन्द का देश है, दिव्य प्रेम का देश है। जैसे योगी लोग काल का दो भेद कर देते हैं एक विक्षेपकाल- एक समाधिकाल; अब काल में भला भेद कहाँ से आया? काल तो काल ही है- योगियों ने अपना साधना-परिपाकरूप जो समाधि है उसके काल को समाधिकाल कहा है और बाकी सारा काल विक्षेपकाल है- उसी प्रकार उपासकलोग अन्तर्देश को जिसमें प्रियतम की उपलब्धि होती है दिव्य-देश, वैकुण्ठ-धाम, गोलोक-धाम, साकेत-धाम, कैलाश-धाम इत्यादि बोलते हैं। सबसे सुन्दर देश कौन-सा है? जहाँ अपने प्रियतम की उपलब्धि हो। सबसे बढ़िया देश कौन-सा? जहाँ अपना प्यारा मिले। प्यारा न मिले, तो स्वर्ग भी नरक है। चित्त एकाग्र न हो, तो बढ़िया-से-बढ़िया वस्त भी विषके समान है। तो आओ, अपने मन को उठायें, मन को मन में- से निकालें, मन को विक्षेप में – से निकाल लें, मनको विषय में – से निकाल लें।
सन 1934-35 की बात है। प्रयागराज के पास गंगापार झूसी है। वहाँ मैं मौन रहता था, माला फेरता था; बाल बढ़े हुए थे, जूता नहीं पहनता था, और खादी की चद्दर ओढ़ता था। बोलता तो केवल तब जब श्रीमद्भागवत की कथा करनी होती थी। बस, एक घण्टा बोलता था। वहाँ एक महात्मा आये। उनके बाल बड़े-बड़े थे, चन्दन लगाते थे, गौड़ेश्वर-सम्प्रदाय के थे और स्त्री-समुचित वेश-भूषा में रहते थे। श्रीवल्लभाचार्य जी ने लिखा है कि भगवान श्रीकृष्ण को स्त्रियाँ बहुत प्यारी हैं। वैसे कई पुरुष भी भगवान का प्रेम प्राप्त करने के लिए अपने को स्त्री बनाकरके उनके सामने जाते हैं, नारायण, तो वे भी स्त्री वेश-भूषा में रहते थे। जब मैं उनके सामने गोपीगीत की कथा करता तो उनको मन से ही मालूम पड़ता था कि वह मुझको बड़ा भावुक भक्त समझते हैं। बात तो करता नहीं था और वेदान्त की कथा भी नहीं करता था।+
वैसे वहाँ भी किसी प्रसंग के संदर्भ में वेदान्त की कथा एकाध-दो दिन चली, तो हमारे एक मित्र श्रीसुदर्शन सिंह चक्र ने पहले तो हमसे लड़ाई की, और उसके बाद लड़ाई करके बिलकुल नंगे भाग गये; रातभर कहीं ठिठुरते रहे, छटपटाते रहे, नाले में पड़े रहे, फिर दूसरे दिन आये। तो वे गौड़ेश्वर संप्रदाय के जो महात्मा थे उन्होंने हमको दो श्लोक लिखकर दिये; आपको उसका भाव सुनाता हूँ-
अलं विषयवार्तया नरककोटिवीभत्सया- बस-बस, अब विषयों की चर्चा मत करो; यह तो करोड़-करोड़ नरक से भी गन्दी चीज है। बोले- अच्छा चलो, श्रुति पढ़ें। तो कहा- वृथा श्रुतिकथाश्रमः वह तो बहुत मेहनत का काम है महाराज और वह हमारे लिए व्यर्थ है क्योंकि कैवल्यमोक्ष उसका प्रयोजन है और वह हमें चाहिए नहीं, हमको तो अकेलेपन से डर लगता है। ये तो शुकदेव, वामदेव आदि विरक्तों का काम है। तब तुमको क्या चाहिए? बोले-
परं तु मम राधिकापदे रसे मनो रज्जत ।
हमको तो यह चाहिए कि श्रीराधारानी के चरणारविन्द के मकरन्द-रस में हमारा मन डूब जाय।
एक श्लोक तो यही था। पर इससे भी विलक्षण एक दूसरा था। आप वेदान्त में सुनते ही होंगे कि वेदान्ती लोग आत्मचिन्तन करते हैं, आत्मानं चिन्तयामि। पर भक्तलोग क्या चिन्तन करते हैं? दूसरे श्लोक में था-
दुकूल बिभ्रणां अथ कुचयुगे कञ्चुकपटं
प्रसादे स्वामिन्याः स्वकरतलवस्तं प्रणयतः ।।
छाती पर कंचुकी, राधारानी अपने हाथ से प्रसाद दे रही हैं, बड़े प्रेम से, और हम उसको ले रहे हैं, स्थितां नित्यं पार्श्वे- और हम सुकुमारी कुमारी के रूप में हमेशा श्रीराधारानी के साथ रहते हैं, और वे बड़े प्रेम से हमारे सिर पर हाथ रख देती हैं, हमको प्रसाद देतीं हैं, हमारी ओर देखकर हँसती हैं, हमसे बड़े प्रेम से बोलती हैं, प्यारे के पास भेज देती हैं कि जाओ तुम उनको पंखा झलकर आओ, अथवा उनको पान दे आओ। वे हमको सेवा देती हैं, हमारी सारी चतुराई श्रीकृष्ण की सेवा में लग जाती है-
किशोरीमात्मानं किमपि सुकुमारी न कलये ।
हम अपने को सुकुमारी किशोरी के रूप में चिन्तन करते हैं। यह बात आपको क्यों सुनायी कि संसार के जो विषय हैं तो गंदी चीज हैं, इनका तो ध्यान ही नहीं करना है। और अपने को सुकुमारी, किशोरी के रूप में, ठाकुरजी के सामने उपस्थित कर लो। ठाकुरजी का प्रेम बड़ा विलक्षण है।+
हमको ऐसा लगता है कि जगत् के मूल में तत्त्व है वह नाचने वाला जरूर होना चाहिए। कारण उपादान में नृत्य न होता, तो कार्य में नृत्य कहाँ से आता? हमने देखा कि दुनिया में ऐसी कोई चीज नहीं है, जो नाचती नहीं है, बल्कि वह मण्डलाकार नृत्य करती है। पृथ्वी अपनी धुरी में और सूर्य के चारों ओर घूमती है। माने अपने मण्डल में स्वयं घुमती है और समूचे मण्डल में घूमकर सूर्य की परिक्रमा भी कर लेती है। चंद्रमा नाच रहा है, सूर्य नाच रहा है, नारायण! अग्नि प्रज्ज्वलित होती है तो उसकी लपटें कैसा नृत्य करती हैं। समुद्र की लहरें, गंगा की लहरें कैसा नृत्य करती हैं।
वायु के झकोरे कैसे नाचते हैं। आकाश में क्या प्रकाश फैलता है झिलमिल, झिलमिल! हमारी आँख कैसी नाचती हैं; हमारा मन कैसा नाचता है, संसार की उसी नर्तक का नृत्य है, यह अविद्या नदी भी परब्रह्म परमात्मा के सकाश से नृत्य कर रही है। स्वयं परमात्मा नृत्य कर रहा है-
रूप रासि नृप अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रतिबिम्ब निहारी ।।
आपकी आँख कभी नाचती हैं, कभी भौहें नाचती हैं? अब एक आदमी ने पूछा कि आखिर ये चैतन्य जड़ कैसे मालूम पड़ते हैं? मैंने कहा कि अच्छा, एक स्वस्थ आदमी है जिसके दोनों पाँव ठीक-ठाक हैं, और वह लँगड़ाकर चलने लगे तो क्या कहोगे ना कि मस्ती कर रहा है। यही हुई न मस्ती की पाँव ठीक ह और लँगड़ाकर चले या कि आँख ठीक हो और काना बनकर देखे। तो मैंने कहा कि यह ब्रह्म भी मस्ती कर रहा है।
यह संसार ब्रह्म की मस्ती है, यह ब्रह्म की स्फुरणा है, यह ब्रह्म का नृत्य है, यह ब्रह्म की मौज है। मौज माने तरंग; जैसे समुद्र में तरंग उठती हैं। यह ब्रह्म की मस्ती है कि वह नाना रूप धारण करके, नाना आकार धारण करके, नाना विकार-प्रकार-संस्कार अपने-आप में दिखा रहा है। नारायण, संसार में दुःख नाम की वस्तु कहीं नहीं है- न जीने-मरने में, न मिलने-बिछुड़ने में और न ज्ञान-अज्ञान में- परब्रह्म अव्यक्त है और उस अव्यक्त की अभिव्यक्ति यह संसार है। यह परमात्मा का रास है। यह रासलीला जो है वह परमात्मा की अभिव्यक्ति है। मैंने एक घर में देखा- माफ करना देहात की बात है- एक लड़की थी। उसको ब्याह से पहले भी देखा था और बाद में भी। जब उसका ब्याह हो गया और ससुराल से आयी, बड़े घर में ब्याह हुआ, तो गाँव में, घुँघरूदार पायजेब पहनकर आँगन में वह झमाझम चले कि सारा आँगन झंकृत हो जाय।++
पहले जब वह चलती थी तो उसको ठुमुककर पाँव रखने का अभ्यास नहीं था। लेकिन अब जब पायजेब पहनकर आयी तब ठुमुक-ठुमुककर चले, झमक-झमककर चले। यह ठुमुककर चलना जैसा उसके आनन्द की अभिव्यक्ति थी, वैसे यह जो ब्रह्म है न, तो यह जब पायजेब पहन लेता है, नूपुर पहन लेता है तब वह नाचने लगता है। नूपुर वाले ब्रह्म का नृत्य है रास- रसो वै सः । अब आप देखो- दो गोपियों के मण्डल बन गये- वनिताशतयूथपः। आप थोड़ी देर के लिए बंबई को भूल जाओ और फिर मन में देखो- वृन्दावन की वह भूमि, वृन्दावन जहाँ पृथ्वी ने अपना हृदय प्रकट कर दिया है।
पृथ्वी के बुलाने से भगवान् आये हैं, इसलिए पृथ्वी भगवान् का स्पर्श चाहती है। वृन्दावन के रूप में इस पृथ्वी ने अपना हृदय प्रकट किया, और उसके लिए भगवान् वहाँ अपने चरण रखकर के चल रहे हैं। कभी आगे बढ़ते हैं, कभी पीछे हटते हैं- उपगीयमान उद्गायन्- गोपियाँ गाती हुई कभी आ जाती हैं कृष्ण के पास- जैसे उपनिषदें पहले धर्म का वर्णन करें, फिर उपासना का, फिर योग का और फिर साक्षात् परब्रह्म का ही वर्णन करने लग जायँ, तो जैसे श्रुतियाँ क्रम-क्रम से पादविन्यास करती हुई चलती हैं, प्रथमपाद का वर्णन, द्वितीयपाद का वर्णन, तृतीयपाद का वर्णन, चतुर्थपाद का वर्णन करती हैं, वैसे गोपियाँ पाद-विन्यास करती हुई- कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण का गान करती हुई कभी श्रीकृष्ण के पास पहुच जाती हैं और कभी दूर पहुँच जाती हैं। जब वे पीछे हटती है तब श्रीकृष्ण उनकी ओर बढ़ते हैं, और जब वे पढ़ती हैं कृष्ण की ओर तो कृष्ण पीछे हटते हैं। यह देखो, इसमें प्रेम संपूर्ण हो गया। कृष्ण की ओर बढ़ना स्नेह है और पीछे हटना मान है। लेकिन जब एक मान करे तो दूसरा आगे बढ़े, और जब दूसरा मान करे तो पहला आगे बढ़े। और- उपगीयमानः गोपी गाती हुई कृष्ण के पास आती हैं।
जब वे पीछे हटती हैं, तब श्रीकृष्ण उनके पास आते हैं, जब वे कृष्ण के पास बढ़ती हैं तो कृष्ण पीछे हटते हैं। जितना-जितना पकड़ने की कोशिश करें उतना-उतना पीछे और जितना-जितना हटने की कोशिश करें उतना आगे- ये हटना और सटना यह श्रृंगाररस की पूर्ण अभिव्यक्ति है। हट-हटकर सचना, सट-सटकर हटना। ज्ञान में हटना और सटना नहीं है। लेकिन यह प्रेम है, इसको रास बोलते हैं। वृन्दावनियों की भाषा में इसका एक सांकेतिक नाम है। नेमप्रेम-प्रेमनेम। प्रेम का मतलब है प्रीतम के आगे बढ़ना और नेम का अर्थ है पीछे हटना। आगे बढ़ो, पीछे हटो जैसे झूला झूलते हैं न, जैसे हिंडोले का सुख होता है वैसे हृदय में प्रेम-हिंडोला डालकर, प्रेम का झूला डाल करके, कभी पीछे, कभी आगे।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
