श्रीसीतारामशरणम्मम(3-1),!! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !! & श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

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Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 3️⃣
भाग 1

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#नमामिसीतां ……_
📙( #वाल्मीकि_रामायण )📙

🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! ……………._

महर्षि नें बुलवाया था …………..इसलिये गयी थी मै वहाँ ।

कह रहे थे …………मै रामायण लिख रहा हूँ …………..

पर क्यों ? मैने पूछा था ।

तब महर्षि वाल्मीकि नें मुझ से कहा…….नही सिया पुत्री ! मेरा और कोई उद्देश्य नही है रामायण लिखनें का…….बस यही उद्देश्य है कि जगत जानें की वैदेही सीता कितनी महान है !

मै महान हूँ ! हँसी आती है ……….अगर मै महान होती तो क्या प्रभु मुझे इस तरह से छोड़ते ? नही ………….

मै कुछ नही बोली ……………सिर झुकाकर ही खड़ी रही ………

महर्षि मुझे खड़ा देखकर स्वयं खड़े हो गए थे ………..

फिर मेरे सिर में हाथ रखते हुये बोले थे ………….पुत्री सिया !

मै चाहता हूँ …………ये रामायण पूरी हो ……….तुम कितनी निर्दोष हो ….ये बात इस विश्व् को समझ में आये ………….ये विश्व तुम्हारी महानता तुम्हारे त्याग को समझे ।

कुछ भी बोले जा रहे थे महर्षि ………..मुझे अपनी बेटी मान लिया था ना …..तो अपनी बेटी का पक्षपात तो पिता करेगा ही। ।

पर ये कहा था महर्षि नें …………उस बात नें मुझे चौंका दिया ।

बेटी ! मै रामायण लिखूंगा …..और उस रामायण को तुम्हारे कोख के बालक राम की सभा में ……..जब रघुनाथ जी बैठे होंगें ……..और विश्व के प्रतिनिधि देव यक्ष नर नाग सब होंगें …….उस समय इस रामायण को गायेंगें तुम्हारे बालक ! और बतायेंगें कि उनकी माँ गंगा के समान ………..शायद गंगा से भी ज्यादा पवित्र हैं ।

महर्षि जब ये सब बोल रहे थे ……..तब उनके चेहरे में आक्रोश भी था …..और पीड़ा भी थी ……आक्रोश मेरे राम के प्रति …….और पीडा मेरे कष्ट को लेकर ……………।

बेटी सीता ! इसका नाम ही होगा। रामायण ……..वैसे देखा जाये तो ये सीतायन ही है ………..इसमें तुम्हारे ही चरित्र का वर्णन होगा …विशेष …………….ये कहते हुए महर्षि नें अपनें आँसू पोंछे थे ।

मैनें प्रणाम किया ………और अपनी कुटिया में लौट आई थी ।


जनकपुर ! मिथिला ……………….आहा !

मेरा जन्म हुआ था जनकपुर में ………………

धरती में ………….मिथिला वासी ही आनन्दित नही थे ………मेरी सखी चन्द्रकला कहती थी ……….कि सम्पूर्ण जगत ही, आस्तित्व ही प्रसन्न था ……..मेरे पिता जनक जी नें क्या नही लुटाया ……

सब खुश थे ……सब आनन्दित थे ।

पर ………….दूध मुझे कौन पिलाएगा …………..

मेरी माँ सुनयना जी को इसी बात की तो चिन्ता थी ………

मै रोये जा रही थी……….मैने अन्यों से ये बात सुनी …….कि मुझे भूख लग रही थी …….पर माँ सुनयना के वक्ष से दूध नही आरहा था ।

तभी ………….मेरी जननी ………धरती माँ थीं ………उनको ही उपाय निकालना था ……तब एकाएक धरती से दूध की नदी बह चली……..दूध मति ! हाँ उस नदी का नाम दूध मति था ।

आहा ! कितना आनन्द आता था ………..हम सब सखियाँ दूध मति के किनारे जाकर खूब खेलती थीं ………..मेरी सखियाँ !

चन्द्रकला , चारुशीला , पद्मा ………………..

हम दिन भर खेलती रहतीं ………दूध मति के किनारे ही ।

कितनी मस्ती करती थीं हम सब सखियाँ ………………

क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱


Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!

( “सिद्धान्त सुख” – 75 )


गतांक से आगे –

भरे तँबोल रंग रद जोई । मंजुल-मनि सु कहावति सोई ॥
पुनि अनार की उपमा पावैं । अब आगे सुनि और बतावैं ॥
मधुक सुमन संज्ञा कपोल की। कोकिल कलरव कही बोल की ॥
चिबुक रसाल कुब्ज छबि पावैं। गहवर कुंज सुहियो कहावैं ॥
कंबु कपोत कंठ गुन डोरी। कदलीपत्र पीठि रस बोरी ॥
मौलसिरी सोभा लहि जानौं । रायबेलि सोई रुचि मानौं ।
चारु पदाग्र चमेली कही। जोहनि जुही मानिये सही ॥
सदा सुहाग सेवती स्यामा । याही तें पियवासौ नामा ।।
आलिंगन चुंबन जो वही। मल्लि मालती संज्ञा नामा लही ॥

*श्रीहरिप्रिया जी धाम धामी का अभेद दर्शन जो करा रही हैं श्रीमहावाणी जी में – वो अद्भुत है ….मैंने पूर्व में ही कहा है कि निकुँज में सब कुछ “रस” है । “नायक तहाँ न नायिका रसहिं मचावत केलि” …..सब कुछ रस हैं यहाँ …..वृक्ष रस , यमुना रस , पुष्प रस …नभ रस ..अवनी रस और तो और सखियाँ रस …युगल सरकार स्वयं रस । एक ही तत्व है यहाँ , वही प्रिया लाल हैं …वही सखियाँ हैं वही वृक्ष-लताएँ हैं और पक्षी आदि भी वही हैं । इस रस रहस्य को समझना आवश्यक है ।

उस दिव्य नित्य निकुँज में हरिप्रिया जी बैठी हैं ….”रस रत्न” को कैसे प्रकट करना है वो बता रहीं हैं ….ठीक तो है ….रस तो आस्वादन का विषय है …रस शब्द आस्वादन से ही निकला है …..इसलिए आस्वादन करना है ….आस्वादन मात्र मुख या जिह्वा का ही विषय तो नही है ….ये तो नेत्र आदि से भी आस्वादन किया जाता है …कानों से भी …और क्या कहूँ ? मूल रूप से ये विषय मन का है …..मन रस सिक्त हो ….ये आवश्यक है । साधकों ! यही विषय मेरे पागलबाबा बता रहे थे तब मैंने उनसे प्रश्न किया था कि …..”मन तो सखियों के पास है नही …..फिर सखियाँ रस का आस्वादन कैसे करती हैं ? “ मैंने एक और अबोध प्रश्न ये भी किया था कि …”सखियन के उर ऐसी आई”…..ये जो उर में आइ …..”उत्कण्ठा उदय भई कि आज प्रिया लाल को वन विहार कराया जाए” तो बिना मन के ये कैसे सम्भव है ? बाबा ने समाधान किया था ….”चिद मन सखियों के पास है”….वो आगे बोले थे ….”हमारा मन जड़ मन हैं” …..और दूसरी बात ये भी उन्होंने कही थी कि “युगलसरकार के मन से ही सखियाँ चलती हैं , सखियों का अपना स्वतन्त्र मन नही है” । चिद मन है इनके पास । हे रसिकों ! वही चिद मन हमें चाहिए …इस संसारी जड़ मन से रस रत्न की मंजूषा नही खुलेगी ….उसके लिए ये जड़ मन हटाओ …और चिद मन को स्वीकार करो ….ये चिद मन युगल सरकार का मन है । कैसे होगा ये ? इसका उपाय यही है ….सर्वत्र प्रिया लाल को देखो ….जैसे – हमारी प्यारी सखी जी श्रीहरिप्रिया बता रही हैं ।


श्रीहरिप्रिया जी रसोन्मत्त हैं ….चारों ओर रस का उन्मुक्त नृत्य वो देख रही हैं ….हमें वही बता रही हैं …….देखो ! प्रिया जी मुस्कुरा रही हैं ….उनकी ये दंतपंक्ति हैं ….कहाँ ? तो हरिप्रिया जी बोलीं …..ये जो अनार के दाने हैं ना …..यही प्रिया जी की दंतपंक्ति हैं ….वो आगे बढ़ती हैं …मधुक पुष्प ( महुवे का फूल ) का बाग है आगे ….हरिप्रिया जी चहकते हुए वहाँ पहुँचती हैं ….उस मधुक पुष्प को छूती हैं ….और परम आनन्द में भर जाती हैं । मुझे दिखाती हैं ….ये फूल गोल गोल और रस भरी जैसा होता है …..हरिप्रिया जी कहती हैं ये हमारी प्रिया जी के कपोल हैं ……वो बहुत देर तक स्पर्श करती रहती हैं …..तभी कोयल बोल उठी …चौंक कर हरिप्रिया जी बोलीं ….ओह ! प्रिया जी की बोली । कोयल बोलती रही ….हरिप्रिया जी तन्मय होकर सुनती रहीं ….वो कोयल को नही सुन रहीं थीं …प्रिया जी की बोलन सुन रहीं थीं ….हैं ना अद्भुत !

उफ़ ! आम्र का वन आगे था …धीरे धीरे मदमत्त हरिप्रिया जी उस वन में गयीं ….ये आम हमारी प्रिया जी की ठोड़ी है …यानि चिबुक । इतना ही बोलीं थीं कि तभी घन छा गए कुँज में ….हंसती हुयी हरिप्रिया जी सामने के गहवर कुँज में गयीं …..ये गहवर कुँज अद्भुत गहराई लिए हुए है ….कितनी भी धूप हो …यहाँ सूर्य की किरणें भी नही जा पातीं …कितनी भी वर्षा हो ….जल भीतर नही जाएगा …..गहरा वन है ये । हरिप्रिया उस गहवर कुँज में जाकर नृत्य करने लगीं …बोलीं …ये हमारी प्रिया जी का हृदय है ….सुन्दर है ना स्वामिनी जी का हृदय ! और सुन्दर ही नही गहरा भी है । हरिप्रिया जी एक कदली वृक्ष देखती हैं तो कहती हैं इस कदली का ये जो पत्ता है ना …ये हमारी प्रिया जी की पीठ है …सरसता से भरी पीठ । सामने मोरछली का वृक्ष दिखाई दिया …उसमें अत्यन्त छोटे छोटे पुष्प खिले हैं ….उसकी सुगन्ध से पूरा वन महक रहा था …..हरिप्रिया जी बोलीं …इस मोरछली के वृक्ष को ऊपर से लेकर नीचे तक निहारो तो ! मैंने निहारा तो बोलीं – कैसा लगा ? मैंने कहा अत्यन्त सुन्दर । हरिप्रिया जी बोलीं …ये मोरछली का वृक्ष हमारी प्रिया जी का मंगल विग्रह है ….प्रिया जी की शोभा है ये । आगे चमेली का बाग महक रहा था ….हरिप्रिया जी चलते हुए वहाँ गयीं , चमेली पुष्प को देखकर वो बोलीं ….प्रिया जी के चरण की उंगली हैं ये …मैं देखता रहा चमेली के पुष्प को …सच ! प्रिया जी के चरण की उंगली ऐसी ही हैं …चमेली के फूल की कली की तरह । बहुत देर तक हरिप्रिया जी चमेली के पुष्प को ही देखती रहीं थीं …..ओह ! उनकी दशा देखते ही बन रही थी ।

शेष अब कल –
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 8 . 6
🌹🌹🌹

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् |
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः || ६ ||

यम् यम् – जिस; वा अपि – किसी भी; स्मरन् – स्मरण करते हुए; भावम् – स्वभाव को; त्यजति – परित्याग करता है; अन्ते – अन्त में; कलेवरम् – शरीर को; तम् तम् – वैसा ही; एव – निश्चय ही; एति – प्राप्त करता है; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; सदा – सदैव; तत् – उस; भाव – भाव; भावितः – स्मरण करता हुआ |

भावार्थ
🌹🌹🌹
हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है |

तात्पर्य
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यहाँ पर मृत्यु के समय अपना स्वभाव बदलने की विधि का वर्णन है | जो व्यक्ति अन्त समय कृष्ण का चिन्तन करते हुए शरीर त्याग करता है, उसे परमेश्र्वर का दिव्य स्वभाव प्राप्त होता है | किन्तु यह सत्य नहीं है कि यदि कोई मृत्यु के समय कृष्ण के अतिरिक्त और कुछ सोचता है तो उसे भी दिव्य अवस्था प्राप्त होती है | हमें इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए | तो फिर कोई मन की सही अवस्था में किस प्रकार मरे? महापुरुष होते हुए भी महाराज भरत ने मृत्यु के समय एक हिरन का चिन्तन किया, अतः अगले जीवन में हिरन के शरीर में उनका देहान्तरण हुआ | यद्यपि हिरन के रूप में उन्हें अपने विगत कर्मों की स्मृति थी, किन्तु उन्हें पशु शरीर धारण करना ही पड़ा | निस्सन्देह मनुष्य के जीवन भर के विचार संचित होकर मृत्यु के समय उसके विचारों को प्रभावित करते हैं, अतः उस जीवन से उसका अगला जीवन बनता है | अगर कोई इस जीवन में सतोगुणी होता है और निरन्तर कृष्ण का चिन्तन करता है तो सम्भावना यही है कि मृत्यु के समय उसे कृष्ण का स्मरण बना रहे | इससे उसे कृष्ण के दिव्य स्वभाव को प्राप्त करने में सहायता मिलेगी | यदि कोई दिव्यरूप से कृष्ण की सेवा में लीन रहता है तो उसका अगला शरीर दिव्य (आध्यात्मिक) ही होगा, भौतिक नहीं | अतः जीवन के अन्त समय अपने स्वभाव को सफलतापूर्वक बदलने के लिए हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे | हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का जप सर्वश्रेष्ठ विधि है |

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