Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख”- 76 )
गतांक से आगे –
आलिंगन चुंबन जो वही । मल्लि मालती संज्ञा लही ।
करना भरना अंक कहावें । उरज अग्र जंबू मन भावें ॥
पांडर परनि विनय जाचंज्ञा । पारिजात परिरम्भन संज्ञा।
नाना वरन उचारन जोई । कही निवारि नवेली सोई ॥
कोमल चित्त जुगल कौ जोहें। महा मृदुल रस महल सु सोहें ।
जाचत में जो अति अभिलास । सोई कहिये सरद निवास ।
त्रिविधि पवन मन रवन महाई । सो समुझो स्वासा सुखदाई ।
अंग अंग उदै होय जो काम । रतन जोति जाहि को नाम ।
*हे रसिकों ! दृष्टि में श्यामा श्याम को बसाइये …फिर देखिए सृष्टि वैसी ही बन जाएगी ।
ये बात मैं बारम्बार कह रहा हूँ …इसलिए कि “श्रीमहावाणी मात्र शृंगार रस का एक काव्यग्रन्थ ही नही है …ये अपना एक सिद्धान्त लेकर चलती है, और इसका सिद्धान्त बड़ा ही दृढ़ है ,परिपक्व है ।
आप अपनी दृष्टि में बसाइये युगलसरकार को …फिर उसी दृष्टि से आप देखिए इस जगत को ..आपको सर्वत्र वही वही दिखाई देंगे । एक श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय के महात्मा जी को मैं जानता हूँ …..बरसाने में रहते हैं ….उन्होंने अपनी कुटिया में एक वृक्ष और एक लता लगायी हैं …वृक्ष है तमाल का और लता है कनक वेल….उन विलक्षण महात्मा जी को मैंने देखा कि …निरन्तर युगल महामन्त्र का जाप करते रहते हैं और कोई विग्रह नही है उनके पास ….वो बस उसी वृक्ष और लता को ही “युगल सरकार” कहते हैं ….उसी को प्रणाम करते हैं ….नित्य उसी की एक सौ आठ परिक्रमा लगाते हैं …..और उनके यहाँ जो जाता है …उसे कहते हैं ये हमारे प्रिया लाल हैं । मैं उनके साथ श्रीजी महल भी गया था …तो मार्ग में जो लता मिलतीं …जो वृक्ष मिलते वो उन्हें अपने हृदय से लगाते …किसी को तो छूकर पूछते मेरे लाल जी ! आप ठीक तो हैं ? लता को वो प्रणाम करते थे …..मेरे सामने एक व्यक्ति ने कील ठोक कर वृक्ष में एक प्रचार का बोर्ड क्या लगाया ….मैंने उस दिन उन महात्मा जी को देखा था , उनका रौद्र क्रोध से भरा रूप …..सारी गालियाँ दीं उन महात्मा जी ने उस आदमी को …और बहुत चिल्लाए …ये मेरे प्रिया लाल जी हैं ….इनको तुम जल नही दे सकते दुष्ट ! तो कम से कम कील तो न ठोको । ये बरसाना धाम है ….यहाँ हर वृक्ष-लता पत्र प्रिया लाल हैं । बरसाने के सांकरी खोर में वे रहते हैं …बड़े प्यारे और सिद्ध महात्मा हैं ।
आहा !
ऐसी दृष्टि बन जाये …वृक्ष में लता में , पुष्प में , पक्षी में ..सबमें वही हैं …..वही हैं …वही हैं ।
ये दृष्टि बने इसलिए श्रीमहावाणीकार ने हमें ये सिद्धान्त दिया है । चलिए श्रीहरिप्रिया जी अब आगे क्या बता रही हैं – वो सुन लेते हैं ।
श्रीहरिप्रिया जी कहती हैं जब वो देखती हैं कि सामने एक मालती लता वृक्ष से लिपटी हुयी है ….हंसती हैं मुग्ध हो जाती हैं ….वहीं मल्ली नामक एक पुष्प भी खिला है …ये बेला जाति का पुष्प है …इन दोनों को अब देखती हैं हरिप्रिया जी तो तन्मय हो जाती हैं …कहती हैं ….ये देखो – प्रिया लाल चुम्बन और आलिंगन कर रहे हैं । कहाँ ? मैंने पूछा तो हरिप्रिया जी बोलीं ….मालती वृक्ष से लिपटी है ….यही आलिंगन है …मालती लता प्रिया जी हैं , और वृक्ष लाल जी …और ये सुगन्धित पुष्प बेला जाति का , ये पुष्प ऐसा नही लग रहा …आलिंगन करके युगल परस्पर चूम रहे हैं एक दूसरे को ! मैंने हरिप्रिया जी की दृष्टि से देखा तो यही सत्य था …सारी सृष्टि ही तो रस मग्न है ….रसोत्सव मना रही है । पारिजात वृक्ष को देखा तो हरिप्रिया जी कहती हैं ….ये तो ऐसा लग रहा है जैसे ….प्रिया लाल परिरंभन कर रहे हैं ….आलिंगन की ही ये एक क्रिया है …जिसमें गर्दन आदि में चूमना है …और मात्र चूमना ही नही है ….रस दान की मौन प्रार्थना भी होती है …जिसे केवल प्रिय ही समझता है । हरिप्रिया जी कहती हैं ….चारों ओर प्रिया लाल का विहार है ….देखो तो ! तभी हवा चलने लगी …त्रिविध समीर चल पड़ी थी ….किन्तु ये क्या!हरिप्रिया जी तो आनन्द सिन्धु में अवगाहन करने लगीं ….अति आनन्द के कारण वो बोल नही पा रहीं थीं …..अति सुख के कारण उनका मुखमण्डल अरुण हो उठा था । सुगन्धित है ना ये हवा ? ये युगलसरकार की स्वाँस हैं ….युगल सरकार की सुखप्रद स्वाँस ! वो इतना ही बोल पाईं फिर खो गयीं उसी त्रिविध समीर वयार में । आहा !
शेष अब कल –
Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 3️⃣
भाग 2
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#नमामिसीतां ……_
📙( #वाल्मीकि_रामायण )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏
#मैवैदेही ! ……………._
तभी ………….मेरी जननी ………धरती माँ थीं ………उनको ही उपाय निकालना था ……तब एकाएक धरती से दूध की नदी बह चली……..दूध मति ! हाँ उस नदी का नाम दूध मति था ।
आहा ! कितना आनन्द आता था ………..हम सब सखियाँ दूध मति के किनारे जाकर खूब खेलती थीं ………..मेरी सखियाँ !
चन्द्रकला , चारुशीला , पद्मा ………………..
हम दिन भर खेलती रहतीं ………दूध मति के किनारे ही ।
कितनी मस्ती करती थीं हम सब सखियाँ ………………
माँ सुनयना तो बस मेरी चिन्ता में ही सूखी जातीं ………कहाँ गयी मैथिली ! कहाँ गयी मेरी लाली ! पर हम लोग सभी सखियाँ दिन भर खेलना……….बड़ी होती जा रही थी मै ।
मेरे पिता एक धनुष को पूजते थे …………………
हाँ वो शिव धनुष था ……………..
मेरे पिता जनक जी भगवान शंकर जी के परम भक्त थे ।
उन्होंने तप किया था ……घोर तप ।
महादेव प्रसन्न हुए …….महादेव तो मेरे पिता से सदैव प्रसन्न ही रहे ।
आप मुझ पर प्रसन्न हों”
…….मेरे पिता नें और कुछ नही माँगा था ……बस आराध्य प्रसन्न हो …….इससे ज्यादा सच्चा साधक कुछ और माँगे भी तो क्या माँगे ?
हाँ ……..वो रावण …..जो मुझे हरण करके ले गया था …..उसनें भी साथ साथ तप किया था …………डरता तो था मेरे पिता से रावण भी …..क्यों की मेरे पिता तेजवान थे …….अद्भुत शक्ति से सम्पन्न थे …इसके साथ साथ ज्ञानवान और सत्यवान थे ।
इसलिये रावण चारों दिशाओं में विजय प्राप्त करनें के बाद भी उसनें जनकपुर मिथिला की ओर देखनें की हिम्मत भी नही की थी ।
हाँ ………मिथिला में अकाल पड़ता नही …….पर मिथिला में जो अकाल पड़ा ………वो रावण के कारण ही था ।
मेरे पिता की उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति देखकर रावण चिढ़ता था ।
वो ब्राह्मण होकर भी उस स्थिति को पा नही सका ……पर मेरे पिता क्षत्रिय होकर भी उस ब्रह्म बोध को प्राप्त कर चुके थे …..नही नही ब्रह्म बोध को पा चुके थे नही ……..अपितु पाकर भी अन्यों को बाँट भी रहे थे ………..।
क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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[4/9, 1] Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (149)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रास-स्थली की शोभा
वनिताशतयूथपः- सौ-सौ वनिता, सौ-सौ गोपी। वैसे गोपी भी बड़ी विलक्षण-विलक्षण हैं। एक गोपी है जिसका ध्यान श्यामसुन्दर की बाँसुरी पर है; एक गोपी ऐसी है जो देखती है एकटक, एक गोपी है जो मौका मिले तो चिपक जाय; एक गोपी है कि चाट जाय; एक गोपी है जो मौका मिले तो चूम ले; एक गोपी हैं जो मौका मिले तो हाथ पकड़ ले; एक गोपी है जो पाँव-से-पाँव मिला ले; एक गोपी है कि वह मन में देखती है।
नारायण! एक गोपी है जो साँवरेपन को ही निहारती है; एक गोपी है जो वनमाला को ही निहारती है। मानो जितनी अपनी वृत्ति हैं और जितनी श्रीकृष्ण की विशेषताएँ हैं- एक-एक को ग्रहण करके और एक-एक रूप में ग्रहण करके भगवान् का उपगान करती हैं। गाना माने प्रेम की बोली। प्रेम की बोली में बड़ी मिठास होती है, बड़ा सुरीलापन होता है। आप लोगों को तो मालूम पड़ता होगा कि आपकी बोली कितनी मीठी है। लेकिन जब कभी बच्चे को पुकारते हैं तो ख्याल करना, जब नौकर को पुकारते हैं तब ख्याल करना, जब लड़ने लगते हैं तब देखना! लगता है कि हमारी आवाज बहुत मीठी है, पर अपनी आवाज मीठी नहीं होती है, मीठी आवाज उसकी होती है और वह होती है जो बोली जाती है, उसके प्रति जिससे प्रेम होता है। पहले भारत में कोई प्रिय अतिथि आता था तो मधुपर्क उसको देते थे। तो भगवान् के सामने अपने हृदय का मधु उपस्थित करो।
मालां बिभ्रद् वैजयन्तीं व्यचरन् मण्डयन् वनम्- श्यामसुन्दर के गले में वैजयन्ती माला। यह महाराज माला क्या करती है कि श्रीकृष्ण बायीं तरफ लटकें तो वह बायीं तरफ और कृष्ण दायीं तरफ तो वह भी दायीं तरफ लटक जाती है। बायीं तरफ यह लक्ष्मी को बिलकुल ढक देती है। बोले-भाई, तुम इधर क्यों लटकते हो? तुम छाती पर दोनों तरफ क्यों रहती हो? माला कहती है- बाबा, हम अपने मन से नहीं लटकते, जिधर हमारे प्यारे लटकते हैं उधर हम लटकते हैं, हम तो उनकी छाया में रहना चाहते हैं। माला शब्द के अनेक अर्थों की चर्चा हम कर चुके हैं। व्यचरन् मण्डयन् वनम्- अभी वन की चर्चा सुनाते हैं, क्योंकि पहले यह चर्चा की कि यह जो दिव्य देश है न, यह भक्ति में प्रधान वस्तु है। आपके घर में कोई आये नारायण, और पहले से झाड़ू भी न लगाया हो तो क्या आप अपने प्यारे का सत्कार कर रहे हैं?+
स्वच्छ वस्त्र भी न बिछाया हुआ हो, अपना कपड़ा भी साफ किया हुआ न हो, यह कैसा सत्कार? जब अपने प्रिय अतिथि आते हैं तो उनके लिए घर को स्वच्छ करते हैं, कपड़े को स्वच्छ करते हैं; ऐसे भगवान् को अपने हृदय में बुलाना हो, तो हृदय को भी स्वच्छ करना होता है। इसमें भीड़ मत रखो, भगवान् को मिलने का स्थान मुसाफिरखाना नहीं है जहाँ 10 आदमी आये और 10 आदमी गये। उसके लिए एकान्त कमरा चाहिए; और स्वच्छ चाहिए; हृदय में वही-वही रहे, दूसरा न रहे।
अब वृन्दावन की बात आपको सुनाते हैं। आज श्रीकृष्ण वृन्दावन में विचरण कर रहे हैं। आप जानते हैं कि वृन्दावन का जो स्वरूप है वह बड़ा विलक्षण है। स्थूल-सूक्ष्म कारण से परे जो ब्रह्मतत्त्व है उसका ज्ञान होने पर फिर ब्रह्म से भिन्न कुछ अनुभव में नहीं आता। उसमें यह जो स्थूल जड़सृष्टि पञ्चभूतात्मक मालूम पड़ती है यह विराट् ब्रह्मचैतन्य से पृथक् नहीं रहती; जो सूक्ष्म सृष्टि है वह हिरण्यगर्भ रूप ब्रह्मचैतन्य से पृथक् नहीं रहती और जो कारणसृष्टि है वह ईश्वर चैतन्य से पृथक् नहीं रहती। और विराट् हिरण्यगर्भ और ईश्वर- ये ब्रह्म के ही अलग-अलग नाम हैं। पहले ब्रह्म, फिर ब्रह्म का घनीभाव ईश्वर, फिर ईश्वर का घनीभाव हिरण्यगर्भ और हिरण्यगर्भ का घनीभाव श्रीकृष्ण। बात क्या हुई कि सृष्टि जैसे ज्ञान के पूर्व थी रहती तो वैसे ही है ज्ञान के बाद भी परन्तु फिर सब चिन्मय हो जाती है।
कार्य-कारम, स्थूल-सूक्ष्म के वज्र-भेद समाप्त हो जाते हैं, सब चैतन्य का विलास हो जाता है। ब्रह्म-ज्ञान होने के बाद ये व्यष्टि जगत् के अभिमानी, विश्व, तैजस और प्राज्ञ और समष्टि जगत् के विराट्, हिरण्यगर्भ और ईश्वर सब ब्रह्म से अभिन्न हो गये। परंतु चिन्मयरूप में भी स्थूलता और कारणता की प्रकृति तो ज्यों-की-त्यों रहती है। सूक्ष्मता तो ब्रह्मचैतन्य का किञ्चित् घनीभाव कारण में है, विशेष घनीभाव सूक्ष्म में और अत्यंत घनीभाव स्थूल में है : निर्गुण ब्रह्म, निराकार ईश्वर, हिरण्यगर्भ और अपने परमप्रिय रूप में श्रीकृष्ण। ब्रह्म का सबसे घनीबूत रूप श्रीकृष्ण हैं। नेति, नेति द्वारा सम्पूर्ण भूत और प्राणियों का एक सच्चिदानन्दघन तत्त्व में निषेध करने पर, ब्रह्म का साक्षात्कार होने पर, ज्यों-की-त्यों जो प्रतीयमान सृष्टि हैं, वह वृन्दावन है। उसमें यह मुरलीमनोहर, पीताम्बरधारी श्यामसुन्दर, विचरण कर रहा है।++
मैं ही हूँ व्रज तो मैं बसत यह वृन्दावन।
तो मैं ये राधाकृष्ण सदा-सदा बिहारी ।।
अपना हृदय वृन्दावन है। इसमें जो आनन्द है सो राधा है और जो प्रेम है सो कृष्ण है और आनन्द कृष्ण है तो प्रेम राधा है। प्यास राधा है तृप्ति कृष्ण है और प्यास कृष्ण है और तृप्ति राधा है। प्यास ही को रूप मनो प्यारी जी को रूप है।
तृप्ति माने कृष्ण और प्यास माने राधा और राधा माने तृप्ति, प्यास माने कृष्ण- ‘परस्पर दोउ चकोर दोउ चन्दा’- परस्पर दोनों चकोर हैं और परस्पर दोनों चंदा हैं। राधा चन्दा है और कृष्ण चकोर है। और कृष्ण चंदा हैं और राधा चकोरी हैं। यह गोपी और कृष्ण का प्रेम है, और वृन्दावन प्रेम की भूमि, रास की भूमि है। आज जब साकार होकर के झिलमिल-झिलमिल झलकते हुए श्रीकृष्ण उसमें विहार कर रहे हैं तो आज वृन्दावन की शोभा हो गयी- ‘मण्डयन् वनम्’ और श्रीकृष्ण हो गये वृन्दावनभूषण, वृन्दावनालंकार, मण्डन माने- अलंकार।
अब भगवान् ने कहा कि आओ गोपियो यमुना तट पर विहार करें-
नद्याः पुलमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुकम् ।
रेमे तत्तरलानन्दकुमुदामोदवायुना ।।
‘नद्याः पुलिनमाविश्य’- यह यमुनाद नदी है। नदति- जिसके प्रवाह में ध्वनि हो वह नदी। प्रवाहित होती है तो ध्वनि होती है। बिना ध्वनि का प्रवाह नहीं होता। प्रवाह में ध्वनि होती है। इसी से जब हृदय में भगवान् के प्रति प्रवाह होता है तो उसमें भी ध्वनि होती है, और उस ध्वनि में भगवान् का नाम निकलता है- कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण। हृदय में प्रेम का प्रवाह चला और मुँह से कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण ध्वनि होने लगी। जहाँ प्रवाह होगा वहाँ ध्वनि होगी। आप अगर कहीं जा रहे हों, तो पाँव में ध्वनि होगी कि नहीं?
‘वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी’- लेकिन इतना ही नहीं, जब आप मिलने के लिए जा रहे होंगे, तो बारम्बर उसका नाम, उसका ख्याल, मन में आवेगा। तो प्रवाह में ध्वनि होती है। अब चलो, यमुनाजी में ध्वनि है। यमुनाजी कलिन्दनन्दिनी हैं और गंगाजी हिमनन्दिनी हैं।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
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श्लोक 8 . 7
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तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः || ७ ||
तस्मात् – अतएव; सर्वेषु – समस्त; कालेषु – कालों में; माम् – मुझको; अनुस्मर – स्मरण करते रहो; युध्य – युद्ध करो; च – भी; मयि – मुझमें; अर्पित – शरणागत होकर; मनः – मन; बुद्धिः – बुद्धि; माम् – मुझको; एव – निश्चय ही; एष्यसि – प्राप्त करोगे; असंशयः – निस्सन्देह ही |
भावार्थ
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अतएव, हे अर्जुन! तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिन्तन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा करना चाहिए | अपने कर्मों को मुझे समर्पित करके तथा अपने मन एवं बुद्धि को मुझमें स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे |
तात्पर्य
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अर्जुन को दिया गया यह उपदेश भौतिक कार्यों में व्यस्त रहने वाले समस्त व्यक्तियों के लिए बड़ा महत्त्वपूर्ण है | भगवान् यह नहीं कहते कि कोई अपने कर्तव्यों को त्याग दे | मनुष्य उन्हें करते हुए साथ-साथ हरे कृष्ण का जप करके कृष्ण का चिन्तन कर सकता है | इससे मनुष्य भौतिक कल्मष से मुक्त हो जायेगा और अपने मन तथा बुद्धि को कृष्ण में प्रवृत्त करेगा | कृष्ण का नाम-जप करने से मनुष्य परमधाम कृष्णलोक को प्राप्त होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है |
