] Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 4️⃣
भाग 1
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#सीतायाचरितम्महत……
📙( #वाल्मीकि_रामायण )📙
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#मैवैदेही ! ……………._
श्रीविदेह राज की लाड़ली ….श्रीराजाधिराज श्रीरघुनाथ जी की प्रिया !
कल के प्रसंग से आगे का ……
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ओह ! मै वैदेही तो खो गयी ……अपनी जन्म भूमि को याद करते हुए ।
हाँ मेरी जन्म भूमि मिथिला है ही ऐसी ………….
वहाँ के लोगों का प्रेम…….वहाँ के लोगों का स्नेह मै कैसे भूल पाऊँगी ।
ओह ! ये खबर क्या मेरे पिता जनक जी तक पहुंची होगी ?
कि प्रभु श्री राम नें मुझे इस तरह ………….
नही नही ……….नही पहुंचनी चाहिये …….कितना कष्ट होगा उन्हें ।
और उससे भी बड़ी बात ये कि मेरे प्राण नाथ के प्रति कहीं कुछ गलत भावना न आजाये ……….मुझे इसी बात का डर लगता है ।
पर नही …..मेरे पिता जनक जी बहुत बुद्धिमान व्यक्तित्व हैं …….वो सब समझते हैं कि …..राजा का क्या कर्तव्य होता है …..राजा के लिए प्रजा ही सब कुछ होती है ……………..।
क्या लिखूँ ! समझ नही आता ………..अभी तो मेरे मन मस्तिष्क में बस जनकपुर ही है ……….मेरी प्यारी जन्मभूमि ।
मै बड़ी होती जा रही थी ……………………
एक दिन मुझे ही तो मिले थे …….देवर्षि नारद जी महाराज ।
वाटिका में …..जब मै अपनी सखियों के साथ खेल रही थी ।
वैसे देवर्षि आते जाते रहते थे ….मेरे पिता जी के पास ।
कभी किसी ऋषि कुमार को पकड़ लाते ……और कहते मेरे पिता जी से …..कि इसका आत्म ज्ञान पक्का है की नही ?
मेरे पिता जी उस ऋषि कुमार की परीक्षा लेते ……………उत्तीर्ण हुआ या अनुत्तीर्ण हुआ ………….और हाँ ….मेरे पिता जिसे उत्तीर्ण कर देते …..वो फिर पूर्ण आत्मज्ञानी ही होता ।
पर जिसमें कमी है ………उसको वो शिक्षा देते ……..उपदेश देते ।
हँसी आती है उस दिन की बात याद करके ……………..
( कई दिनों के बाद सीता जी आज हँसती हैं …..एक घटना को याद करके )
उस ऋषि कुमार को देवर्षि नारद जी ही तो लाये थे ………हा हा हा हा ।
हे विदेह राज ! ये एक ऋषि कुमार है ………इसनें आत्मज्ञान प्राप्त किया है ………….और मार्ग में मुझे मिला ……तो मुझ से कहनें लगा …..मै आत्मज्ञानी हूँ ……….तब मैने इससे कहा था ……..मिथिलापति विदेह जब तक तुम्हे आत्मज्ञानी नही कहेंगे…….तुम आत्मज्ञानी कैसे हो सकते हो ? नारद जी नें मेरे पिता से आकर कहा था ।
मेरे पिता जी हँसे थे ……..ये क्या बात हुयी देवर्षि !
मै कौन होता हूँ किसी को भी आत्मज्ञानी का प्रमाणपत्र देनें वाला ।
हैं …..आप हैं ही उस उच्चकोटि के ज्ञानी ……………….जिनको ये समझ है कि आत्मज्ञान कैसे प्राप्त होता है ….और हो जाता है तो उसके लक्षण क्या हैं ?
मेरे पिता जी हँसे थे …..खूब ठहाका लगाकर हँसे थे…….आप भी ना !
अच्छा ठीक है …………ऋषि कुमार ! बताओ तुमनें क्या सीखा है ….और किन किन शास्त्रों का अध्ययन किया है ?
मेरे पिता जनक जी नें पूछा था उस ऋषि कुमार से ।
वो हँसा था ……..आत्मज्ञान के लिए शास्त्र पढ़नें की जरूरत है क्या ?
नही ….बिल्कुल नही …………मेरे पिता जी नें कहा ।
फिर आप ये प्रश्न क्यों कर रहे हैं ?
ऋषि कुमार का अहंकार बोल रहा था ।
मेरे पिता इतनें में ही समझ गए थे कि ….ये कोई आत्मज्ञानी नही है ।
फिर भी उसे तो ये बताना आवश्यक ही था ……..कि तुम्हारी स्थिति अभी आत्मज्ञानी बननें में कई कोसों दूर है ………।
अच्छा बताओ …….आत्मज्ञानी के लक्षण क्या है ?
मेरे पिता के इस प्रश्न का उत्तर उसनें दिया था ……………
क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 78 )
गतांक से आगे –
मदन रंग मद मृगमद जोहै। जखि कर्दम सौभग रस सोहै ॥
अतर अरगजा और अगरसत । उमँग उलास अनँग रँग बरसत ॥
कुटिल कटाछि छुटत पिचकारी। भरी रहसि रंगन सों भारी ॥
बिबिध भाँति के बाजे बाजें। सो अँग-अंग भूषन सुर साजें ॥
लसनि हँसनि में द्विज दुति जोई। अबीर गुलाल कही है सोई ॥
अति चित चाव सोई चोवा सुनि । सुख संगम सोधौं गुनिये पुनि ॥
कर पद बर अंसन पर ढाल । सोई कही कमल की माल ॥
बीरी कल कपोल रस चाखें । ताही की यह संज्ञा भाखें ॥
अधर राग बंदन छबि पावें । सुमन सनेह फुलेल कहावें ॥
रोरी तिलक अछित मुकतन के। जानि सुलगनि मनोरथ मन के ॥
भाल कह्यौ तन लाल बालकौ। सब सुख दायक सखिन जालकौ ।।
सुखदासन सौं कहिये बेदी। जानत हैं जिय में जे भेदी ॥
खेलत में चंचलता जोई। चाँचरि नाम कहावैं सोई ॥
झूमि-झूमि अलि झूम करावें। सोई झूमक नाम कहावें ॥
रहसि-रंग रति-रस में सानें। सोई कहिये बसन सहानें ॥
अद्भुत था ही सब कुछ किन्तु मेरे देखते ही देखते बसन्त छा गया था निकुँज में …वैसे अनुभव ये है कि निकुँज में दो ही ऋतुओं की प्रधानता देखी गयी है ….या तो शरद या बसन्त । हरिप्रिया जी का रसोन्मत्त होकर ये कहना कि युगल सरकार का खिलता यौवन ही ऋतु बसन्त है ….बस ..निकुँज में बसन्त की वयार चल पड़ी थी । “ओह ! तो सखियाँ ही ऋतुएँ बुलाती हैं “ मेरा ये कहना ही था कि हरिप्रिया जी तुरन्त बोल उठीं …सखी ही ऋतु बसन्त है…और बसन्त ही नही समस्त ऋतुयें ही सखियाँ हैं । मैं इसके बाद कुछ नही बोला ।
सुनो अब – निज सुख विलास में जब युगल सरकार उतरते हैं ….तब ये कस्तूरी की सुगन्ध निकुँज में फैलने लगती है …उन्मत्त काम विलास ही चन्दन कुमकुमा है और केसर की कीच है …जिससे ये परस्पर होली खेलते हैं । सुगन्धित लेप कुटिल कटाक्ष हैं प्रिया जी के । और उन्मत्त होकर प्रिया जी का लाल जी को आलिंगन करना ही रंग से भरी पिचकारी है …जिसे तक के मारती हैं अपने प्रियतम के ऊपर । हरिप्रिया जी की रसोन्मत्तता देखते ही बनती है ….कामदेव अपने आयुधों के सहित आचुका है ..प्रिया जी के अंगों में विविध आभूषण जब बजने लगते हैं …ये कामदेव के आने की सूचना है ..दुंदुभी हैं । प्रिया जी लाल जी को देखकर जब हंसती हैं …उनके अधर भी मुस्कुराते हैं और नयन भी , यही अबीर और गुलाल हैं ।
हरिप्रिया हंसती हैं ….जोर से आनन्दमग्न होकर हंसती हैं …कहती हैं …..युगल सरकार के चित्त में जो मिलन की तीव्र इच्छा है ….वो सुगन्धित चोवा है । लाल जी के करकमल जब प्रिया जी के चरण कमल पर झुकते हैं वो सच में कमल की दिव्य माला है । लाल कपोल प्रिया जी के , यही लाल जी के लिए बीरी पान हैं ….और इनका जो उज्ज्वल प्रेम है वो फुलेल है …..जिससे पूरा निकुँज क्या पूरा ब्रह्माण्ड ही महक रहा है । लाल जी के प्रति सुन्दर लगन …जो प्रिया जी के हिय में बसा है ….उसे ही रोरी का तिलक कहते हैं …हरिप्रिया मुस्कुराती ही जा रही हैं ….मन में विविध मनोरथ जो प्रिया जी के उदित हो रहा है …वो अक्षत है , मोतियों का अक्षत जो रोरी के तिलक में लगाया गया है । हरिप्रिया जी कहती हैं …जो तेज दिखाई दे रहा है ना ! वो युगल के अंग हैं …..जो हम सखियों को सर्व सुख देने वाला है । रति सुख आसन को यज्ञ वेदी कहा है ….यहाँ हरिप्रिया कहती हैं – इस रहस्य को रसभेदी ही जानते हैं यानि रसिक ही जान सकते हैं ….हरिप्रिया जी आगे कहती हैं …रति केलि की चंचलता को ही चाँचरि कहते हैं …जो होली का एक विशेष अंग है होली के उत्साह में खेला जाता है । प्रिया जी के कानों में जो झुमका है ना ! वो रतिरस के कारण अंग अंग जब झूमने लगता है….अजी ! उसी को झुमका कहते हैं ।
हरिप्रिया जी रसमत्त हो गयी हैं ….वो नाचने लगती हैं ….”श्यामा जू खेलत रंग भरी ….श्यामा जू”।
आनन्द ही छा गया था , अजी ! छा गया था चारों ओर आनन्द , अवर्णनीय था ये सब ।
शेष अब कल –
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
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श्लोक 8 . 9
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कविं पुराणमनुशासितार-
मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः |
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-
मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् || ९ ||
कविम् – सर्वज्ञ; पुराणम् – प्राचीनतम, पुरातन; अनुशासितारम् – नियन्ता; अणोः – अणु की तुलना में; अणीयांसम् – लघुतर; अनुस्मरेत् – सदैव सोचता है; यः – जो; सर्वस्य – हर वस्तु का; धातारम् – पालक; अचिन्त्य – अकल्पनीय; रूपम् – जिसका स्वरूप; आदित्य-वर्णम् – सूर्य के समान प्रकाशमान; तमसः – अंधकार से; परस्तात् – दिव्य, परे |
भावार्थ
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मनुष्य को चाहिए कि परमपुरुष का ध्यान सर्वज्ञ, पुरातन, नियन्ता, लघुतम से भी लघुतर, प्रत्येक के पालनकर्ता, समस्त भौतिकबुद्धि से परे, अचिन्त्य तथा नित्य पुरुष के रूप में करे | वे सूर्य की भाँति तेजवान हैं और इस भौतिक प्रकृति से परे, दिव्य रूप हैं |
तात्पर्य
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इस श्लोक में परमेश्र्वर के चिन्तन की विधि का वर्णन हुआ है | सबसे प्रमुख बता यह है कि वे निराकार या शून्य नहीं हैं | कोई निराकार या शून्य का चिन्तन कैसे कर सकता है? यह अत्यन्त कठिन है | किन्तु कृष्ण के चिन्तन की विधि अत्यन्त सुगम है और तथ्य रूप में यहाँ वर्णित है | पहली बात तो यह है कि भगवान् पुरुष हैं – हम राम तथा कृष्ण को पुरुष रूप में सोचते हैं | चाहे कोई राम का चिन्तन करे या कृष्ण का, वे जिस तरह के हैं उसका वर्णन भगवद्गीता के इस श्लोक में किया गया है | भगवान् कवि हैं अर्थात् वे भूत, वर्तमान तथा भविष्य के ज्ञाता हैं, अतः वे सब कुछ जानने वाले हैं | वे प्राचीनतम पुरुष हैं क्योंकि वे समस्त वस्तुओं के उद्गम हैं, प्रत्येक वस्तु उन्हीं से उत्पन्न है | वे ब्रह्माण्ड के परम नियन्ता भी हैं | वे मनुष्यों के पालक तथा शिक्षक हैं | वे अणु से भी सूक्ष्म हैं | जीवात्मा बाल के अग्र भाग के दस हजारवें अंश के बराबर है, किन्तु भगवान् अचिन्त्य रूप से इतने लघु हैं कि वे इस अणु के भी हृदय में प्रविष्ट रहते हैं | इसलिए वे लघुतम से भी लघुतर कहलाते हैं | परमेश्र्वर के रूप में वे परमाणु में तथा लघुतम के भी हृदय में प्रवेश कर सकते हैं और परमात्मा रूप में उसका नियन्त्रण करते हैं | इतना लघु होते हुए भी वे सर्वव्यापी हैं और सबों का पालन करने वाले हैं | उनके द्वारा इन लोकों का धारण होता है | प्रायः हम आश्चर्य करते हैं कि ये विशाल लोक किस प्रकार वायु में तैर रहे हैं | यहाँ यह बताया गया है कि परमेश्र्वर अपनी अचिन्त्य शक्ति द्वारा इन समस्त विशाल लोकों तथा आकाशगंगाओं को धारण किए हुए हैं | इस प्रसंग में अचिन्त्य शब्द अत्यन्त सार्थक है | ईश्र्वर की शक्ति हमारी कल्पना या विचार शक्ति के परे है, इसीलिए अचिन्त्य कहलाती है | इस बात का खंडन कौन कर सकता है? वे भौतिक जगत् में व्याप्त हैं फिर भी इससे परे हैं | हम इसी भौतिक जगत् को ठीक-ठीक नहीं समझ पाते जो आध्यात्मिक जगत् की तुलना में नगण्य है तो फिर हम कैसे जान सकते हैं कि इसके परे क्या है? अचिन्त्य का अर्थ है इस भौतिक जगत् से परे जिसे हमारा तर्क, नीतिशास्त्र तथा दार्शनिक चिन्तन छू नहीं पाता और जो अकल्पनीय है | अतः बुद्धिमान मनुष्यों को चाहिए कि व्यर्थ के तर्कों तथा चिन्तन से दूर रहकर वेदों, भगवद्गीता तथा भागवत जैसे शास्त्रों में जो कुछ कहा गया है, उसे स्वीकार कर लें और उनके द्वारा सुनिश्चित किए गए नियमों का पालन करें | इससे ज्ञान प्राप्त हो सकेगा |
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877