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November 22, 2024 11:41 am

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!! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!,श्रीसीतारामशरणम्मम(4-3),श्रीमद्भगवद्गीता & महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (153) : नीरू आशरा

!! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!,श्रीसीतारामशरणम्मम(4-3),श्रीमद्भगवद्गीता & महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (153) : नीरू आशरा

] Niru Ashra: आज के विचार

!! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!

( “सिद्धान्त सुख” – 80 )


गतांक से आगे –

फूल गुलाबी जो यह कह्यौ । सो समुझौ प्रीतम डहडह्यौ ॥
मिलि सब तीय जुगल सनमानें। सोई पहली तीज बखानें ॥
चरन खंभ डांडी कर चार । सुरत रंग हिंडोर-बिहार ।।
सावन श्रावन सुकल सुहावन । एकदसी कही सो पावन ॥
जिहिं सुख में बहु गुन बिसतार। पिय-प्यारी करि राखें हार ।।
रँग्यौ महारस में है जोई। कह्यौ पवित्रा पचरंग सोई ॥
फौंदा जरी कह्यौ है चोज । जा करि ओपैं उर अंभोज ॥
रति-बिहार राखें विरमाय । सोई राखी नाम कहाय ॥
जिहिं सुख करि पुरवें मनकाम। सोई सलून्यों पून्यों नाम ॥
बिन व्रीड़ा क्रीड़ावें, तीजै। तीज पाछिली सो सुनि लीजै ॥
मिलि सब सखी जननगुन गावें। रिझ-रिझ रीझ परसपर पावें ॥
बिपुल पुलक अँग अंग न माई। तिहिं कहियतु हैं रहसि बधाई ॥
घुरि-घुरि अनँग रंग बरसावें । बरसि गाँठि सोई दरसावें ॥

हे रसिकों ! रस में निमग्न होना है …तो जीवन रसमय बनाना होगा ….सब कुछ रसीले प्रियतम के लिए …प्रियतम ही सब कुछ । इस का अनुभव मैंने किया ….मेरे पागलबाबा राखी उत्सव भी मनाते हैं तो युगल को ही राखी बाँधते हैं …विजया दशमी मनाते हैं …तो युगलसरकार को तिलक करके उन्हीं का राज्याभिषेक करते हैं । अनन्यता ऐसे ही नही आती …और बिना अनन्य के प्रेम कहाँ ? प्रेम राज्य की तो पहली शर्त ही यही है …कि सब कुछ अपने प्रियतम , हर उत्सव प्रियतम, हर उत्साह प्रियतम , हर काल प्रियतम , हर वस्तु प्रियतम …..प्रियतम के सिवा और कुछ नही । हाँ , उस दिन रक्षाबन्धन था …पागलबाबा के पास प्रातः मैं गया था तो मुझे देखकर वो बोले ….चलो , पण्डित जी ! युगल सरकार को तुम ही राखी बाँध दो । साधना तब तक सफल नही होगी …जब तक आप अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पित नही होंगे । और एक बात कहूँ ….अनन्यता कहने से नही आती ….ये सहज है ….प्रियतम के प्रति प्रेम होगा तो अनन्यता लानी नही पड़ेगी …अनन्यता की चादर ज़बरदस्ती ओढ़नी नही पड़ेगी ….वो आएगी । क्या आप किसी से प्रेम करते हैं तो नियम पूछते हैं ? क्या आप ये पूछते हैं कि अब प्रेम हो गया ….हम तुम्हारे सिवाय किसी को देखें कि नही ? और वो प्रियतम कह दे …देखो , तुम पूछो औरों को मानें की नहीं ? प्रियतम कहें – औरों को भी मानों ….और तुम कहो …कि मेरे प्रियतम ने कह दिया है हम तो देखेंगे …..और तुम ख़ुशी ख़ुशी देखो , दूसरे से भी बतियाओ …..तो ये प्रेम नही हुआ । चाहे प्रियतम कहे ….तो भी प्रियतम के सिवा औरों से बतियाया ही नही जाएगा ….चाहे प्रियतम लाख कहे …औरों के विषय में भी सोचो ….तुम्हारा प्रेम होगा तो दूसरे के बारे में सोच ही नही पाओगे ।

ये बात तो हुयी सामान्य प्रेम की …किन्तु यहाँ तो प्रेम का पारा उच्चतम है …सखी भाव को सर्वोत्तम , सर्वोच्च भाव की संज्ञा दी गयी है …यहाँ तो उत्सव , उत्साह सब कुछ “तुमही” से है ।


श्रीहरिप्रिया सखी जी आनन्दरस में मत्त होकर मुझे काल ( समय ) भी युगल का ही रूप बता रही हैं ….काल भी तो युगल सरकार ही हैं …..बात सावन मास तक पहुँची थी तो हरिप्रिया जी कहती हैं …युगलवर हिंडोरे में झूल रहे हैं ….झूलते झूलते ये एक दूसरे से लिपट जाते हैं ….और झोंटा सखियाँ दे रही हैं ….प्रिया जी जोर से दिए गये झोंटा के कारण डर जाती हैं अपने प्रियतम से लिपट जाती हैं …..उस समय सखियों को ऐसा लगता है ….ये दो नही है एक हैं ….बस…”सावन शुक्ल पवित्रा एकादशी” यही है । मैंने हरिप्रिया जी से कहा …एकादशी का मतलब एक नही होता ग्यारह होता है ….मेरी धृष्टता पर वो हंसीं …..मुझे प्रेम से समझाते हुए बोलीं ….गणित में एक और एक ‘दो’ होते हैं , युद्ध के मैदान में एक और एक ‘ग्यारह’ होते हैं ….किन्तु प्रेम राज्य में एक और एक, ‘एक’ ही होते हैं …..मैंने तुरन्त उनके आगे अपना सिर झुका दिया था । पवित्रा एकादशी जो सावन शुक्ल में पड़ती है …उसमें युगल सरकार पवित्रा धारण करते हैं …ये पवित्रा राखी की तरह होता है …जिसमें रेशम का फुन्दा लगा होता है …..हरिप्रिया जी हंसती हैं ….निरावरण प्रिया जी का वक्ष जो कुच कमल है …वही लाल जी की पवित्रा है । लाल जी अपने बाहों में भर लेते हैं …और रसमग्न हो जाते हैं । इसके बाद पूर्णिमा आती है ….इसी दिन लाल जी की मनोरथ पूर्ण होती है ….राखी , सुरत विहार में अपनी प्रिया को हृदय में रखना ….नयनों में रखना , अंग अंगों में रखना ही ….”राखी” कहलाती है । हरिप्रिया जी रस में डूबी हुयी हैं ….उनकी आँखें मत्त हैं …उनकी बोली मत्त है …..क्यों न हो …ऐसे अगाध रस सिन्धु के डूबन का अनुभव बताना , ये साधारण कार्य तो है नही । प्रिया जी ने अब संकोच त्याग दिया है ….वो प्रियतम को रस पिलाती हैं …इसे ही ‘पिछली तीज’ कहा गया है । हरिप्रिया जी यहाँ मुझे एक रहस्य की बात बताती हैं ….ये जो पिछली तीज है इसमें हम प्रिया जी को नाच गाकर रिझाती हैं तो प्रिया जी हमें उपहार देती हैं । और सुनो …..सुरत विहार के समय अंग अंगों में जो पुलक उदित होता है ….वही बधाई है ….और युगल मिलकर जब प्रेम जन्य काम रंग का उत्साह बढ़ाते हैं तो उसी को ‘वर्ष गाँठ’ कहते हैं …हरिप्रिया जी मधुर स्वर में गाने लगीं थीं …”वर्ष गाँठ मोहन की सजनी सब मिल मंगल गाओ”….बधाई हो …बधाई हो ….ये बधाई पूरे निकुँज में गूंज उठी थी । लाल जी की बधाई ।

शेष अब कल –
[] Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 4️⃣
भाग 3

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#सीतायाचरितम्महत……
📙( #वाल्मीकि_रामायण )📙

🙏🙏👇🏼🙏🙏

आपनें किस से आत्मज्ञान प्राप्त किया ?

वो ऋषि कुमार मेरे पिता जी से पूछनें लगा था ।

महान ऋषि अष्टावक्र से ……………बस इतना ही बोले मेरे पिता ……और कमला नदी के तट में आचुके थे ……….।

दोनों ही बड़े आनन्दित होकर स्नान करनें लगे ।

महाराज ! महाराज ! दो सैनिक आये …….और प्रणाम करके स्नान कर रहे अपनें महाराज विदेह राज से उन्होंने ये कहा था ।

महाराज ! आपका महल जल रहा है …..आग लग गयी उसमें ।

मुस्कुराये थे मेरे पिता जी ………..कोई बात नही ………..ये सब तो मिथ्या है …………..कोई चिन्ता के भाव नही थे मेरे पिता के मुख मण्डल में उस समय ।

पर ये क्या ! वो कुमार ….ऋषि कुमार तो नदी से बाहर आगया …..और भागा …………..

मेरे पिता देखते रहे ……..और हँसते रहे ………कमला नदी में स्नान करते रहे ।


कहाँ गए थे ऋषि कुमार ?

बड़े प्रेम से मेरे पिता जनक जी नें पूछा था उस ऋषि कुमार से ……जो नदी में नहाते हुए भागे थे महल की और !

आपके महल में आग लग गयी थी !

तो ? मेरे पिता नें पूछा था …..तो क्या हुआ महल तो मेरा था ….पर तुम क्यों भागे ……..?

मै वहीँ आपके महल के पास ही अपना वस्त्र सुखा कर आया था …

वस्त्र तुम तो ऋषि कुमार हो …तपश्वी हो ….तुम्हारा क्या वस्त्र ?

नही …..मेरी लँगोटी सूख रही थी ……..मैने अपनी लँगोटी सुखानें के लिए बाहर ही डाल दिया था …वह जल न जाए इसलिये मै भागा था ।

मेरे पिता बहुत हँसे थे ………तुम आत्मज्ञानी हो ?

मुझे देखो कुमार ! मेरा महल जल रहा है ……….पर मै शान्त हूँ ……कोई बात नही ….महल तो मिथ्या है ………है ना ?

फिर तुम्हारी लँगोटी ! मुझे महल की परवाह नही …..तुम्हे अपनी एक लँगोटी !

( सीता जी ये लिखते हुए बच्चों की तरह निश्छल रूप से हँसती रहीं )

ऋषि कुमार ! बातों से कोई आत्मज्ञानी नही बनता ……..बातें बनानें से कोई आत्मज्ञानी नही बनता ……….आत्मज्ञानी बनता है ……जब सत्य का बोध होता है ………तब लगता है …..कि सब कुछ तो मिथ्या है …सत्य एक मात्र आत्मतत्व है …………और पता है ऋषि कुमार !

सत्य का अर्थ क्या है ?

सत्य का अर्थ है ……..जो “है”………….

कल भी , आज भी , और कल भी …………..जिसकी उपस्थिति सदैव है …..उसे ही कहते हैं …सत्य ।

तुम बातें करते हो …….बड़ी बड़ी आत्मतत्व की …….और तुम्हारी दृष्टि टिकी है …..लँगोटी में !

मेरे पिता जी नें उस ऋषि कुमार को बड़े स्नेह से समझाया था ।

अब तो वो मेरे पिता के चरणों में ही था …………

मै समझ गया…….मुझे कुछ नही आता…….अब आप ही मुझे आत्मतत्व का ज्ञान दें ………ऋषि कुमार के अश्रु बह रहे थे , ये कहते हुए ।

मेरे पिता नें उन्हें आत्मज्ञान दिया था ।

ऐसे थे मेरे पिता जनक जी ………..

पर ………………….(.लेखनी रुक गयी थी सीता जी की )

पर मेरे श्रीरघुनाथ जी को देखकर कितनें प्रेमी बन गए थे …..मेरे पिता ।

ज्ञान के सर्वोच्च शिखर को छूनें के बाद भी ………मेरे प्राण श्री रघुनाथ जी को पहली बार जब उन्होंने देखा ……..तो !

ओह ………फिर नेत्रों से अश्रु धार बह चले थे सीता जी के ….

ताल पत्र भींग रहा था ……..तालपत्र में टप् टप् आँसू गिरनें लगे थे ।

( कुछ देर अपनें आपको सम्भाला था सीता जी नें )

हाँ …….मुझे उस दिन देवर्षि मिले वाटिका में …….तब मैने अपनी सखियों के सहित उनको प्रणाम किया था ………….।

#शेषचरिञअगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
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श्लोक 8 . 11
🌹🌹🌹🌹

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः |
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये || ११ ||

यत् – जिस; अक्षरम् – अक्षर ॐ को; वेद-विदः – वेदों के ज्ञाता; वदन्ति – कहते हैं; विशन्ति – प्रवेश करते हैं; यत् – जिसमें; यतयः – बड़े-बड़े मुनि; वीत-रागाः – संन्यास-आश्रम में रहने वाले संन्यासी; यत् – जो; इच्छन्तः – इच्छा करने वाले; ब्रह्मचर्यम् – ब्रह्मचर्य का; चरन्ति – अभ्यास करते हैं; तत् – उस; ते – तुमको; पदम् – पद को; सङग्रहेण – संक्षेप में; प्रवक्ष्ये – मैं बतलाउँगा |

भावार्थ
🌹🌹🌹
जो वेदों के ज्ञाता हैं, जो ओंकार का उच्चारण करते हैं और जो संन्यास आश्रम के बड़े-बड़े मुनि हैं, वे ब्रह्म में प्रवेश करते हैं | ऐसी सिद्धि की इच्छा करने वाले ब्रह्मचर्यव्रत का अभ्यास करते हैं | अब मैं तुम्हें वह विधि बताऊँगा, जिससे कोई भी व्यक्ति मुक्ति-लाभ कर सकता है |

तात्पर्य
🌹🌹🌹

श्रीकृष्ण अर्जुन के लिए षट्चक्रयोग की विधि का अनुमोदन कर चुके हैं, जिसमें प्राण को भौहों के मध्य स्थिर करना होता है | यह मानकर कि हो सकता है अर्जुन को षट्चक्रयोग अभ्यास न आता हो, कृष्ण अगले श्लोकों में इसकी विधि बताते हैं | भगवान् कहते हैं कि ब्रह्म यद्यपि अद्वितीय है, किन्तु उसके अनेक स्वरूप होते हैं | विशेषतया निर्विशेषवादियों के लिए अक्षर या ओंकार ब्रह्म है | कृष्ण यहाँ पर निर्विशेष ब्रह्म के विषय में बता रहे हैं जिसमें संन्यासी प्रवेश करते हैं |

ज्ञान की वैदिक पद्धति में छात्रों को प्रारम्भ से गुरु के पास रहने से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए ओंकार का उच्चारण तथा परमनिर्विशेष ब्रह्म की शिक्षा दी जाती है | इस प्रकार वे ब्रह्म के दो स्वरूपों से परिचित होते हैं | यह प्रथा छात्रों के आध्यात्मिक जीवन के विकास के लिए आवश्यक है, किन्तु इस समय ऐसा ब्रह्मचर्य जीवन (अविवाहित जीवन) बिता पाना बिलकुल सम्भव नहीं है | विश्र्व का सामाजिक ढाँचा इतना बदल चुका है कि छात्र जीवन के प्रारम्भ से ब्रह्मचर्य जीवन बिताना संभव नहीं है | यद्यपि विश्र्व में ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के लिए अनेक संस्थाएँ हैं, किन्तु ऐसी मान्यता प्राप्त एक भी संस्था नहीं है जहाँ ब्रह्मचर्य के सिद्धान्तों में शिक्षा प्रदान की जा सके | ब्रह्मचर्य के बिना आध्यात्मिक जीवन में उन्नति कर पाना अत्यन्त कठिन है | अतः इस कलियुग के लिए शास्त्रों के आदेशानुसार भगवान् चैतन्य ने घोषणा की है कि भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम – हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे | हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – के जप के अतिरिक्त परमेश्र्वर के साक्षात्कार का कोई अन्य उपाय नहीं है |
[

Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (153)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

रासलीला का अन्तरंग-1

राधा और कृष्ण ये आकार दो हैं और रस एक है। अब इसके आगे महाप्रभु कुछ नहीं बोले तब रामानन्दराय ने कहा- और कुछ सुनावें? तो महाप्रभु ने उनके मुख पर हाथ रख दिया- कि चुप, इसके आगे की बात वाणी का विषय नहीं।

तो प्रेम का परिपाक ही इसकी उत्तरोत्तर भूमिकाओं में प्रकट होता है। इसलिए जिस हृदय में प्रेम नही हैं वह हृदय नहीं श्मशान है।

जा घट प्रेम न संचरै सौ घट जान मसान ।

इस श्लोक में ऐश्वर्य पक्ष और दर्शनपक्ष दोनों है। पहले ऐश्वर्यपक्ष लेते हैं। ये कहते हैं कि भक्त जितना भलामानुष होता है न- साधनसंपन्न, सिद्धांत पक्का, वृत्ति सात्त्विक, उसको उठाने के लिए भगवान् को अपना सौन्दर्य, माधुर्य, प्रेम यह सब प्रकट नहीं करना पड़ता। अब श्रीवल्लभाचार्य के सिद्धांत की भूमिका आपको सुनाते हैं। जैसे- सनकादि को अपनी तरफ आकृष्ट करना हो तो भगवान् को कुछ नहीं करना होगा। भगवान् के चरणों में जो तुलसी लगी है न, उसकी गन्ध सनकादिकी नाक में जहाँ पहुँची और वे तो मगन हो गये, छोड़ दिया ब्रह्म को- यह श्रीमद्भावगत में आया है-

तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्द-किञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायुः ।
अंतर्गतः स्वविरेण चकार तेषां, संक्षोभमक्षरजुघामपि चित्ततन्वोः ।।

सनकादिका जो चित्त है, वह अक्षरयुत है- माने ब्रह्म के साथ जुड़ा हुआ है, ब्रह्मज्योति से एक है। लेकिन जब भगवान् के चरणारविन्द, चरणकमल और तुलसी, दोनों की गन्ध मिलकर वायु के द्वारा उनकी नाक में पहुँची तो यद्यपि भगवान् ने संकल्प भी नहीं किया था कि सनकादिका उद्धार कर दें क्योंकि भगवान् जानते हैं कि सनकादि तो ब्रह्मस्वरूप हैं, उनका तो उद्धार हुआ ही है, अब उसमें क्या संकल्प करना था, फिर भी हवा ने स्वाभाविक रीति से जैसे ही भगवान् के चरणों की गन्ध सनकादिकी नासिका में पहुँचायी, वैसे ही वे ब्रह्मध्यान से, ब्रह्माकारवृत्ति से, उपराम होकर ‘श्रीकृष्णः शरणं मम’, ‘श्रीहरिश्शरणम्’ ‘श्रीहरिश्शरणम्’ कहकर नाचने लगे। जनकजी को हम मोहित कर लें, यह संकल्प भी भगवान् राम ने नहीं किया।+

अब महाराज सफेद दाढ़ी जनकजी की और इतने बड़ा राजा, परं वैराग्यवान् और ज्ञानी, रामचंद्र उनको आकृष्ट करके क्या करते, यही न कहते कि अपनी बेटी हमको ब्याह दो! श्रीरामचंद्र के मन में यह बात बिल्कुल नहीं उठी कि हम जनक जी को मोहित कर लें, लेकिन जनकजी का क्या हाल हुआ? बोले-

सहज विराग रूप मन मोरा ।
थकित होत जिमि चन्द्र चकोरा ।।
इनन्हि बिलोकति अति अनुरागा ।
बरबस ब्रह्म सुखहिं मन त्यागा ।।

तो सनकादि को या जनकादि को आकृष्ट करने में भगवान् को कोई संकल्प, कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता। परंतु महाराज कहीं-कहीं विचित्र भक्तं से काम पड़ता है- बोले भाई जादू तो वह है जो सिरपर चढ़कर बोले। ये गाँव की गोपी- श्रीमद्भागवत में एक ऐसा शब्द है- ‘क्वेमाः स्त्रियो वनचरीः व्यभिचारदुष्टाः’ गोपी की कोई जात है भला? किस ब्रह्मऋषि गर्ग, गौतम शाडिल्य के गोत्र में हैं? नारायण, कोई तीन में न तेरह में हैं! कोई जात अच्छी नहीं। अच्छा, कोई वेदान्त सीखा था उन्होंने? प्रेमकुटीर में उन्होंने वेदान्त सुना था, कि हरिद्वार- हिमालय में जाकर उन्होंने वेदान्त सीखा था? कोई तात्विक ज्ञान नहीं उनको। तब बोले- भाई, काशी में जाकर या गंगा और यमुना के दुआबे में जाकर सदाचार की कहीं शिक्षा पायी थी?

गंगा और यमुना का जो मध्यवर्ती भाग है उसको ‘दुआबा’ बोलते हैं, उसको सदाचार का प्रवेश बोलते हैं। गोपियों में क्या था? ठन-ठनपाल तो थीं। लेकिन अगले की भी तो मर्जी है न, अगले से पसन्द कर ली, खुश हो गया! बोले- हमको तो गोपी चाहिए। अरे भाई, गोपी तो एकदम मस्त बैठी हुई है, उसको तो गाय दुहने से, दही जमाने, मक्खन बनाने से, गोबर पाथने से छुट्टी नहीं, वह प्रेम बेचारी क्या करेगी? तो कृष्ण ने कहा- अच्छा, हम इनके सामने अपना असीम सौन्दर्य, असीम माधुर्य, असीम प्रेम, असीम वात्सल्य, असीम सख्य, असीम सौकुमार्य प्रकट करेंगे। अपना संपूर्ण सौस्वर्य बाँसुरी में भकर अपना समूचा अधरामृत इनतक पहुँचायेंगे।++

गोपी के पीछे-पीछे चल दिये। नारायण, गोपी मुँह फेर लेती है, बोली नहीं। तो फिर बाँसुरी बजाना और नचाना शुरु किया। तो गोपी के मन में आया कि जरा देख लें! देखने में क्या लगता है? कोई धर्म थोड़े ही बिगड़ता है देखने में! देख लिया। बाँसुरी बन्द हुई तो मन में आया थोड़ी बात कर लें। इसमें क्या धर्म बिगड़ता है? जब बाँसुरी बन्द हुई तो बात कर ली! फिर मन में आया- जरा छू लें, कैसा लगता है, देखने में बड़ा सुकुमार है। तो भगवान ने अपना सौस्वर्य प्रकट क्यों किया? बाँसुरी क्यों बजायी? अपना सौन्दर्य उनके सामने क्यों प्रकट किया?अपना सौकुमार्य, अपना प्रेम क्यों बताया? उनको खींच लेने के लिए, अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए। तो अब आओ, पूरी रासपञ्चाध्यायी के अंतरंग में प्रवेश करते हैं।

यह पहले अध्याय का प्रवचन तो चल ही रहा है। इस पहले अध्याय का अर्थ क्या है कि साधन करने में असमर्थ जो गोपियाँ थीं, जो घर के काम-धन्धे में व्यस्त थीं, कोई पति को भोजन करा रही थी, कोई हलुआ गरम कर रही थी या बना रही थी, कोई आँख में अञ्जन लगा रही थी, कपड़े पहन रही थी, ऐसी घर-गृहस्थी में अत्यंत आसक्त स्थिति में जो गोपियाँ थीं, उनको भगवान ने केवल ध्वनि से, केवल ध्वनि के संकेत से, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सारे संसार से छुड़ा करके एक परमहंस परिव्राजक जैसा परित्याग कर सकता है, जैसा वैराग्य कर सकता है, वैसा त्याग और वैराग्य का सामर्थ्य उनके अंदर भर दिया।

भागवत सुनाकर नहीं, उपनिषद् का अर्थ श्रवण कराकर नहीं, केवल ध्वनिमात्र से उनको अपने पास बुला लिया। अब ध्वनि से तो बुलाया और फिर वाक्य से मना कर दिया- आने पर कह दिया ‘लौट जाओ’। अरे, ये क्या मजाक है? तो बोले कि भगवान की कोई बात न माने तो उसको पाप लगता है। आप जानते हैं भगवान की आज्ञा अप्रतिहत होती है। वे किसी के लिए संकल्प कर लें कि यह हमारे पास आये तो उसको आना पड़ेगा; आज्ञा दे दें कि इसको करो, तो करना पड़ेगा।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

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