Explore

Search

November 22, 2024 11:31 am

लेटेस्ट न्यूज़

श्रीसीतारामशरणम्मम (5-2),: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!,महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (155) & श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

श्रीसीतारामशरणम्मम (5-2),: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!,महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (155) & श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

] Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 5️⃣
भाग 2

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#शुकसारिकाजानकील्याये।_
#कनकपिंजरहिंराखीपठाये ।।…_
📙( #श्रीरामचरितमानस )📙

#मैवैदेही ! ……………._

गंगा जी बह रही हैं ……….महर्षि वाल्मीकि का आश्रम है ……….

और सिया जू बैठी हैं …..अकेली ! मेरे नेत्रों से अश्रु बह चले थे ।

तभी मैने देखा …………एक तोता बहुत सुन्दर तोता उड़ता हुआ सिया जू के पास आया …………..सीता जी तो लिख रही थीं ………ताल पत्र में ……..अपनी आत्मकथा ।

आत्मकथा क्यों लिखेंगी सीता जी ! …..पर इस आत्मकथा के बहानें से वो अपनें प्राण धन श्री रघुनाथ जी का ही तो चिन्तन कर रही थीं ।

तभी मैने देखा हरि जी ! एक तोता उड़ता हुआ आया ……..और सिया जू के चरणों में गिर गया ………………।

कौन ? चौंक कर उन्होंने अपने चरणों की ओर देखा………..

शुक ! तू !

और वो शुक अकेले नही आया था ……उसके साथ सारिका ( मैना )

भी आई थी …….पर वो दूर बैठी रही ………..अपनी सर्वेश्वरी की यह स्थिति देखकर वो भी अपनें आँसू बहा रही थी ।

पर तू यहाँ क्यों आया ? जा ना मिथिला ! क्यों आया है तू यहाँ ।

तोता कुछ नही बोला …………………

वो चाह रहा था कि पहले की तरह ही सिया जू मुझे अपनें हाथों में लें ….और अपनें निकट ले जाकर …………प्यार से कुछ बोलें ।

ये वही तोता तो था ………जब श्री किशोरी जी की विदाई हो रही थी विवाह के बाद में ……………जनक जी तक अपनें आपको सम्भाल नही पाये थे …….रोते ही जा रहे थे ……इतने बड़े ज्ञानी जनक …..पर आज इन्हें क्या हो गया था …….सुनयना माँ तो मूर्छित ही हो गयी थीं ।

तभी इसी तोते नें ……..चिल्लाना शुरू किया था ……सीते ! सीते !

ओह ! विदेह राज और विचलित हो गए …………उन्होंने कहा ……….ये तोता अगर यहाँ रहा ……तो हमें जीनें नही देगा ………

ये हर समय ….सीते ! सीते ! का रट लगाएगा …………और हम कैसे रहेंगें ……………..

नही ………..इस तोता और मैना को ……सीता के साथ ही भेज दो ……अवध ……………….।

सुवर्ण का पिंजरा ही सीता जी की डोली में रख दिया था ………

अपनें हाथों में ही लेकर चलीं थीं श्री किशोरी जी ।

कितनें प्यार से पाला था इसे ……………फिर उस वात्सल्यमयी सीता जी को ये तोता कैसे भूल जाता ………..।

अवध में भी साथ ही रहता था ये तोता …………..

विचित्र निष्ठा थी इसकी …..किशोरी जी के प्रति ……..

राम भद्र कुछ अपनें हाथों से खिलाते…….तो ये नही खाता ……ये तो अपनी स्वामिनी सिया जू के हाथों से ही खाता और पीता था ।

पर घटना घट गयी थी अवध में ……….की वनवास जाना पड़ेगा अब प्रभु श्री राम को ……..तब तो श्री किशोरी जी भी जाएँगी ।

उस समय जब चलनें लगीं सीता जी राम जी के साथ …….

फिर इस तोते नें करुण क्रन्दन किया ……सीते ! सीते ! सीते !

दौड़कर उस तोते को अपनें वक्ष से लगा लिया किशोरी जी नें ।

शुक ! तू जा ……….मिथिला में जा ……..वहीँ जाकर रह ……..

पर आप मिथिला में नही हो ……तोता बोलता था ।

क्रमशः …..
शेष चरिञ अगले भाग में……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱


] Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!

( “सिद्धान्त सुख”- 82 )


गतांक से आगे –

रत्नकला सो रामकली पुनि। ललितानना ललित रागनि गुनि ॥
विस्वाभा विभास कहिये कल। अरु बिलास आवलि जु बिलावल ॥
आनन्दा आसावरि जानहु । सुरंग अंग सारंगहि मानहु ॥
गौरमुखी गौरी को जान। केलिकौमुदी कहि कल्यान ॥
कर्नकांतिका सो कान्हरौ । ओर कहूँ जोजिय उर में धरौ ॥
अलबेलि केलि अड़ानो कहिये। विचित्र सोभा बिहागरौ लहिये ॥
कंद्रपकामा कहि केदारौ । खंजनाक्षि खंभायचि धारौ ॥
सुष्टसुंदरी सोरठ सोई। बैजयंति बसंत है जोई ॥
किसोर सुंदरी काफी सोहै। धनिभागा जु धनासिरी जोहै ॥
जयति सोभना जयति सिरी पुनि। आनँद सिंधुन आसासिंधुनि ॥
चित्रमुखी सो गौरी चैती। मुक्त-माल मलार समझती ॥

*हे रसिकों ! श्रीमहावाणी का सिद्धान्त है द्वैताद्वैत । द्वैत और अद्वैत ये दोनों वाद हैं …और दोनों वाद ही मान्य हैं …प्रामाणिक हैं । द्वैत को वेद ने भी स्वीकार किया है और अद्वैत को भी वेद ने मान्यता दी है ….किन्तु एक एक आचार्यों ने एक वाद को ही पकड़ कर अपना सिद्धान्त रखा….किसी ने द्वैतवाद को पकड़ा तो किसी ने अद्वैत को । मेरा एक बड़ा सुखद अनुभव रहा कि इस रसोपासना को द्वैतवादी तो मानते ही हैं ….क्यों की द्वैत यहाँ श्रीराधा कृष्ण हैं ….किन्तु अद्वैतवादी भी इसका बड़ा आदर करते हैं ….उनका कहना है कि निभृत निकुँज में दो कहाँ हैं …वहाँ तो एक ही हैं ….वहाँ ना श्रीराधा हैं न श्रीकृष्ण – बस रस तत्व है । स्वामी श्रीकरपात्री जी महाराज श्रीवृन्दावन में जब आते थे …तब वो श्रीमहावाणी जी के पद विशेष सुनते थे । सिद्धान्त है श्रीमहावाणी का …द्वैताद्वैत । श्रीराधा और श्रीकृष्ण दो हुए ….फिर उन्हीं का विस्तार होता है लीला रस के लिए ….सखियाँ आदि । किन्तु अद्वैत घट जाता है निभृत निकुँज में ….जहाँ श्रीराधा विलीन हो जातीं हैं श्रीकृष्ण में और श्रीकृष्ण विलीन हो जाते हैं श्रीराधा में ..इन दोनों में विलीन हो जाती हैं समस्त सखियाँ ….फिर रह क्या जाता है ? मैंने कहा …बस – रस । रस का ही सारा खेल है जी ! सब कुछ रस ही है ।


श्रीहरिप्रिया जी कहती हैं ….यहाँ काल ही नही …काल में भिन्न भिन्न रसाभिव्यक्ति के लिए जिन जिन रागों का प्रयोग किया जाता है …वो राग युगल सरकार ही हैं …हाँ – सखियाँ के कण्ठ में बस जाते हैं युगल सरकार ही ….फिर रस की अभिव्यक्ति होती है । श्रीहरिप्रिया जी कहती हैं …जब आनन्द आता है तो व्यक्ति गाता है ….गायन आनन्द की अभिव्यक्ति ही तो है । अब गायन में विशेष काल है …तो उस विशेष काल में विशेष राग है ….हर काल के अपने राग हैं ….वो राग , वो स्वर भी युगल सरकार ही हैं….हरिप्रिया जी बताती हैं । सुभरव , जो अनुराग को भरकर कण्ठ से प्रकट होता है …उसी को राग भैरव कहते हैं । दिवि गन्धा , जो कण्ठ से प्रकट स्वर से एक सुगन्ध सी कान में प्रवेश करती है …उसे ही कहते हैं ….राग देव गंधार । रत्नकला को रामकली राग के नाम से जाना जाता है …तथा ललितमाधुर्य जब फैलता है सखियों के कण्ठ से तो वही युगल सरकार ललित राग बनकर निकुँज में फैल जाते हैं । विश्वाभा को ही विभास राग जानना …आनन्द भी जब मत्त हो जाता है …तब उसे आसावरी राग कहा जाता है । गौरमुखी सखी के मुख से जब आनन्द की एक विशेष दशा में जो स्वर प्रकट होते हैं उसे राग गौरी कहा गया है ।

हरिप्रिया जी ने जब मुझे देखा कि ये समझ नही पा रही है …तो उन्होंने मुझे समझाया । जहाँ उत्सव ही धर्म है …आनन्द ही जहाँ की जाति है …..सखी भाव ही जहाँ का उत्साह है ….वहाँ तो स्वर होंगे ही ….स्वर हैं तो राग है …..बिना स्वर-राग के उत्सव आनन्द सम्भव नही है । ये बात अब मुझे सच्ची लगी …..कि जब कोई आनन्द की एक विशेष स्थिति में होता है तब उसके कण्ठ से गुनगुनाहट निकलती ही है । वही सुरीले कण्ठ से निकले , वही गुनगुनाहट फिर राग के रूप में बाहर आती है । प्रेम में संगीत का अपना स्थान है ….प्रेम हो तो स्वर अपने आप प्रकट होते हैं …प्रेम गायन सिखा देता है …..गायन क्या प्रेम सब कुछ सिखा देता है ।

इसके बाद हरिप्रिया जी एक एक राग का नाम लेकर उसे सखी नाम से जोड़ते हुए बताने लगीं थीं ।

अब शेष कल –
[] Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (155)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

रासलीला का अन्तरंग-1

अरे! कहेंगी कि हमारे अन्दर मान कहाँ? इनको तो दिखता ही कहाँ है? तो भगवान् ने थोड़ा और मान मिला दिया। अहा-हा, क्या सुन्दरी हो, क्या मधुर हो, हम तो तुम्हारे ऊपर लट्टू हैं, अपना प्राण देने को तैयार हैं तुम्हारे लिए। मान देना क्या है?

बाहुप्रसारपरिरम्भकरालकोरुनीवीस्तनालभननर्मनखाग्रपातैः ।
क्ष्वेल्यावलोकहसितैर्व्रजसुन्दरीणां उत्तम्भयन् रतिपतिं रमयाञ्चकार ।।

एवं भगवता कृष्णाल्लब्धमाना महात्मानः दोनों हाथ फैलाकर भगवान् खड़े हैं कि आओ गोपियों आओ, हमारे हृदय से लग जाओ, मैं आदिकाल से दोनों हाथ फैलाकर तुम्हारे लिए खड़ा हूँ कि एक दिन गोपी आवेगी, हमारे हृदय से लगेगी! बाहुप्रसार है न! अब जो गोपी पास आयी, उसको लेकर हृदय से लगा लिया-

परिरम्भकरालकोरुनीवीस्तन- किसी का हाथ पकड़ लिया, किसी की चोटी पकड़कर खींच ली, किसी के पाँव पर एक हाथ लगाया, किसी के हृदय को छू लिया। यह क्या है? बोले- यह सम्मान है, उनका। यह काहे के लिए किया? इसलिए किया कि जिस दोष को लेकर के वह आयी थी, उसको थोड़ा बढ़ाकर, दोष को जाहिर कर दें जिससे दोष जाहिर कर देने पर बिल्कुल छूट जाये। इस तरह हम देखते हैं कि- ‘कर्तुं अकर्तुं अन्यथा कर्त्तुं’ समर्थन ने जिसके ऊपर इतना प्रेम नहीं करना चाहिए, उसके ऊपर भी प्रेम किया। ‘मुख्यं तु तस्य कारुण्यम्’ उनके हृदय में प्रेम है, संसार को अपनी ओर खींचने के लिए अनुपम वातसल्य है, महान करुणा श्रीकृष्ण के हृदय में है।

तो पहले अध्याय में जो बाहुप्रसारपरिरम्भकरालकोरु है- यह रूपरमण है, उनके मानरूप दोष के निवारण के लिए। यह लेकिन जब मानरूप दोष आ गया- ‘तासां तत्सौभगमदं वीक्ष्य मानं च केशवः’ तब रूप-रमण की योग्यता पर पर्दा पड़ गया, आवरण आ गया; इसी से भगवान् अन्तर्धान हो गये- तत्रैवान्तरधीयत। कहा- अभी रूपरमण की योग्यता इनमें नहीं है, फिर कहाँ रमण करें ये? बोले नामरमण की योग्या है तो ढूँढ़ो उनको जगल में- हे तुलसीजी! तुमको छूते हुए गये हैं, हे मालती, देखा है तुमने? हे अश्वत्थ, हे कपित्थ, हे वट, हे पीपल। तुमने देखा है? हे धरती! तुम्हारे ऊपर पाँव रखा है। देखो- दूसरे अध्याय में यह बात आयी है। यह भगवान् के यश का वर्णन है। रूप के साथ तो विहार किया भगवान् ने शुरू में, लेकिन जब उनको मान आ गया तो बोले- ये सामने रहने लायक नहीं हैं। अभी अकेले में बैठकर थोड़े दिन ध्यान करें, थोड़े दिन माला फेरें, थोड़े दिन पूजा करें; जब इनका प्रेम बढ़ेगा तब फिर हमारे पास आकर हमसे मिलने लायक होंगी।+

तो रासपञ्चाध्यायी का यह दूसरा अध्याय जो है न- यह भगवान के लायक होंगी। तो रासपञ्चाध्यायी का यह दूसरा अध्याय जो है न- यह भगवान के यश का वर्णन है। इसमें गोपी ऐसा भी वर्णन करती है- किं ते वराहवपुषःपरिरम्भणेन, अरि पृथ्वी। वाराह अवतार उन्होंने ही लिया था और तुमने कितना प्रेम किया था। आपको यह भगवत्प्रेम की बात सुनाता हूँ- भगवान गोपियों से कितना प्रेम करते हैं! वराहपुषः परिरम्भणेन, प्रेमी का अगर कोई उदाहरण है पृथ्वी में, तो वाराह के बराबर का दूसरा है नहीं! वराह माने सूअर। तो वराह का सबसे बड़ा प्रेम क्या है? देखो, जब पानी में धरती डूब गयी थी, तो खुद पानी में डूबकर उसको निकाला, मुँह पर लेकर निकाला। और जल पर स्थापित किया। वराह का मुँह आप देखना, धरती पर लगा ही रहता है अर्थात् पृथ्वी का निरन्तर चुम्बन करना वराह का धर्म है और नारायण पृथ्वी की जो सबसे गन्दी से गन्दी चीज भी, गन्दी से गंदी स्थिति भी प्रेमी को प्यारी लगती है। इस बात का उदाहरण कहीं सृष्टि में है तो वराह के जीवन में है; यह भी तो भगवद्रूप है न। गोपी ने यह यश का गान किया कि तुम तो इतने प्रेमी हो, पृथ्वी की गन्दगी को अपना भोग्य बनाते हो, पृथ्वी की गन्दगी को तुम खाते हो, पृथ्वी से तुम्हारा इतना प्रेम और हमको छोड़कर चले गये? समग्र यश का वर्णन है। इसमें एक वर्णन और बहुत विलक्षण है।

भगवान की वीर्यवत्ता का वर्णन है, समग्र वीर्य का वर्णन है। वह क्या वर्णन है। अन्तर्धान होने के बाद भी भगवान तो परमानन्द में ही मग्न हैं, भगवान दुःखी नहीं है, गोपियाँ दुःखी हैं लेकिन भगवान दुःखी नहीं हैं; क्योंकि जिसके हृदय में प्रेम है वहाँ भी परमानन्द है। अच्छा, अब गोपी-गीत का जो प्रसंग है तीसरे अध्याय में, भगवान के समग्र ज्ञान का वर्णन है। उसमें भगवान के प्रेम का वर्णन तो है ही, भगवान के तत्त्व का भी वर्णन है- न खलु गोपिकानन्दनों भगवान तथा विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते, इत्यादि। चौथे अध्याय में भगवान प्रकट हुए उनका क्या सौन्दर्य वर्णन है- “पीताम्बरधरः स्नग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः” कामदेव के मन को भी मन्थन करने वाला भगवान का सौन्दर्य! मन्मथमन्मथ होकर श्रीकृष्ण प्रकट हुए। अब उसमें देखो भगवान के प्रेम का वर्णन! क्या? गोपियों ने पूछा कि एक ऐसा होता है कि प्रेम करने पर प्रेम करता है, एक प्रेम न करने पर भी प्रेम करता है और एक प्रेम करने वाले से प्रेम नहीं करता है- तीनों में श्रेष्ठ कौन? यह गोपियों का प्रश्न है।++

अब देखो- श्रीकृष्ण कितना प्रेम करते हैं! इस प्रसंग में वे कहते हैं-

न पारेयेऽहं निरवद्यसंयुजां स्वसाधुकृत्य विबुधायुषापि वः ।
या माभजन् दुर्जरगेहश्रृंखलाः सवृश्च्य तद्वः प्रतियातु साधुना ।।

श्रीकृष्ण का जो सौन्दर्य है, उनकी जो श्री है, वह पराकाष्ठा को प्राप्त हो गयी! ये कपड़े की सुन्दरता से सुन्दरता नहीं होती, चमड़ी की सुन्दरता का नाम सुन्दरता नहीं है। तुलसीदासजी ने इस पर व्यंग्य किया है- विषरस भरा कनक घट जैसे। हृदय के सौन्दर्य का नाम सौन्दर्य होता है। गोपी ने कहा- तुम प्रेम करने पर भी प्रेम नहीं करते, कृतघ्न हो! गोपियों के मुँह से यह शब्द निकला कृतघ्न हो। श्रीकृष्ण ने कहा- कि मैं जानता हूँ कि तुमलोगों ने मेरे लिए कितना त्याग-वैराग्य किया- मदर्थोज्झित लोकवेदस्वानां- मेरे लिए तुमने लोक छोड़ा, मेरे लिए वेद छोड़ा, मेरे लिए शरीर छोड़ा, मैं तुम्हारे प्रेम को पहचानता हूँ। गोपियो! इतना प्रेम होने पर भी जो तुम्हारे अन्दर गर्व है उस दोष को धोने के लिए मैंने यह साबुन का काम किया है; तुम्हारे हृदय में और चिकनाई, और स्नेह, और प्रेम लाने के लिए मैं अन्तर्धान हुआ था। मैं तो कभी तुमसे उऋण नहीं हो सकता। न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां- ब्रह्म की आयु लेकर भी हम तुम्हारी सेवा करें तो हम तुमसे उऋण नहीं हो सकते! यह श्रीकृष्ण के प्रेम का वर्णन है। श्रीकृष्ण प्रेम करते हैं। यह हुई प्रेम- सौन्दर्य की बात। श्रीकृष्ण का सौन्दर्य जो है वह हृदय का सौन्दर्य है। प्रेमी के प्रति कृतज्ञता का सौन्दर्य है।

अब उसके बाद रासपञ्चाध्यायी के अंतिम अध्याय में धर्म का वर्णन है; यह भगवद् धर्म है। यह धर्म के प्राकट्य से धर्मी का प्राकट्य है-

पादन्यासैः भुजविधुतिभिः सस्मितैर्भ्रूविलासैः
भज्यन्मध्यैः चलकुचपटैः कुण्डलैर्गण्डलोलैः ।

यह भगवद् धर्म का प्रकाश है। जैसे सूर्य की प्रभा जब धरती में छा जाती है तो यह जहाँ से आती है उस सूर्य का पता लगता है- सूर्य धर्मी है और प्रभा उसका धर्म है; इसी प्रकार जब भगवान् रास-विलास करते हैं; रस का विस्तार करते हैं तब ये रसेश्वर हैं, रसिकतत्त्वचूड़ामणि हैं, रसिकेन्द्रचक्रवर्ती हैं, धर्मी का यह रस-स्वरूप प्रकट होता है! और अन्त में वैराग्य देखो- हे भगवान्!

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
[] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 8 . 13
🌹🌹🌹🌹
ॐ इत्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् || १३ ||

ॐ – ओंकार; इति – इस तरह; एक-अक्षरम् – एक अक्षर; ब्रह्म – परब्रह्म का; व्याहरन् – उच्चारण करते हुए; माम् – मुझको (कृष्ण को); अनुस्मरन् – स्मरण करते हुए; यः – जो; प्रयाति – जाता है; त्यजन् – छोड़ते हुए; देहम् – इस शरीर को; सः – वह; याति – प्राप्त करता है; परमाम् – परं; गतिम् – गन्तव्य, लक्ष्य |

भावार्थ
🌹🌹🌹
इस योगाभ्यास में स्थित होकर तथा अक्षरों के परं संयोग यानी ओंकार का उच्चारण करते हुए यदि कोई भगवान् का चिन्तन करता है और अपने शरीर का त्याग करता है, तो वह निश्चित रूप से आध्यात्मिक लोकों को जाता है |
तात्पर्य
🌹🌹
यहाँ स्पष्ट उल्लेख हुआ है कि ओम्, ब्रह्म तथा भगवान् कृष्ण परस्पर भिन्न नहीं हैं | ओम्, कृष्ण की निर्विशेष ध्वनि है, लेकिन हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे | हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – इस मन्त्र का जप करते हुए शरीर त्यागता है तो वह अपने अभ्यास के गुणानुसार आध्यात्मिक लोकों में से किसी एक लोक को जाता है | कृष्ण के भक्त कृष्णलोक या गोलोक वृन्दावन को जाते हैं | सगुणवादियों के लिए आध्यात्मिक आकाश में अन्य लोक हैं, जिन्हें वैकुण्ठ लोक कहते हैं, किन्तु निर्विशेषवादी तो ब्रह्मज्योति में ही रह जाते हैं |

admin
Author: admin

Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

Leave a Comment

Advertisement
लाइव क्रिकेट स्कोर
कोरोना अपडेट
पंचांग