श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “जे तो जूठो खावे” – भक्तिवश्य भगवान् !!
भाग 3
मनसुख ! ओ रे मनसुख ! तू नाय लाओ अपनें घर ते कछु खायवे कुँ ?
वनभोज में सब ग्वाल सखा कुछ न कुछ अपनें घर से लाये थे ……पर मनसुख कुछ नही लाया था …….लाता भी कहाँ से ……इसकी माँ “तपश्विनी पौर्णमासी” वो स्वयं फलाहार करती हैं……वो भी सप्ताह में एक बार…..मनसुख नन्द भवन में ही खाता है ……ये कहाँ से लाये !
इतना सब है तो ! कितना खायेगा तू ?
मनसुख नें सामनें रखे भोज्य पदार्थों को दिखाते हुए कहा ।
“पर हम तो तेरे घर का खाएंगे”………….प्यारा सखा है मनसुख ……..कन्हैया इसे बहुत प्रेम करते हैं ।
कुछ भी खिला दे अपनें घर का यार ! अजीब जिद्द है सखा की ।
मैं ? मनसुख कुछ सोचनें लगा ………….
अरे भाई ! इतना क्यों सोचते हो………जो भी हो ले आओ !
भद्र नें भी कहा ।
मनसुख कुछ सोच रहा है…….माता की कुटिया में मैने गुड़ देखा था ।
गुड़ खायेगा ? मनसुख नें एकाएक पूछा कन्हैया से…….
सारे सखा हँसनें लगे…….गुड़ खिलायेगा कन्हैया को !
ऐसा वैसा गुड़ नही है………बहुत स्वादिष्ट गुड़ है …….तुम लोगों नें खाया नही होगा…….मनसुख बोल रहा है ।
अब बोलता ही रहेगा या ला कर खिलायेगा भी ?
कन्हैया नें मनसुख को “शीघ्र जा” कहकर धक्का दिया ।
अच्छा ! अच्छा ! अभी गया ……बस गया और गुड़ लेकर आता हूँ । मनसुख अपनें घर की ओर दौड़ा ।
क्रमशः…
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