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November 23, 2024 8:19 am

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श्रीसीतारामशरणम्मम(10-1), महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (165), श्रीमद्भगवद्गीता & साधक समाज सावधान… : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम(10-1), महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (165), श्रीमद्भगवद्गीता & साधक समाज सावधान…    : नीरु आशरा

🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏साधक समाज सावधान…

#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣0️⃣
भाग 1

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#सियमुखसमतापावकिमिचन्द्रवापुरोरंक…
📙( #रामचरितमानस )📙

#मैवैदेही ! ……………._

🙏🙏👇🏼🙏🙏

क्या हो गया है मुझे …………..जब से पुष्प वाटिका से आई हूँ ……..मन ही नही लग रहा ………लगता है मन को वही अयोध्या के बड़े राजकुमार ले गए हैं ……………।

कभी छोटी छोटी बातों में हँसी आती है तो कभी किसी वस्तु को देखकर ही खो जाती हूँ ………….किसी के पास बैठा नही जाता ।

माँ सुनयना आती थीं ……….उनके आते ही मै ऐसे उठ जाती जैसे मेरी कोई चोरी पकड़ी गयी हो …………..

हाँ उर्मिला जरूर कह रही थी कि जीजी ! आपको क्या हुआ ?

आप क्यों इतनी खोई खोई हो ……………

मै कहाँ खोई हूँ……….मै ठीक तो हूँ……..तू बेकार की बातें करती हैं ……मैने उर्मिला को भी अपनें कक्ष से भगा दिया था ………

क्या करूँ ? कुछ समझ में नही आरहा …………..

हाथों में फूल के दोना पकड़े वो बड़े राजकुमार ! आहा !

अरे ! आज शरद पूर्णिमा है ……………ये पूर्णिमा का चन्द्रमा कितना सुन्दर लग रहा है ……………..पूर्ण चन्द्र ।

मेरे प्राण श्री राम की तरह ……………….

मै स्वयं ही सोचती थी …………और स्वयं ही लजाती थी ।

पिता जी नें ठीक किया क्या प्रतिज्ञा करके ?

नही ……ठीक नही किया …………मेरी सखियाँ कह रही थीं कि फूलों को तोड़नें में भी उनको पसीनें आरहे थे …………तब वह पिनाक कैसे उठा पायेंगें ………..और उठाना ही मात्र तो नही है ना …….उठाकर प्रत्यञ्चा भी तो चढ़ानी है ……….

ओह ! कितनें कोमल हैं वे तो !

वो दिन भी कितना बेकार दिन था ……..जब मै पूजा घर में चली गई थी …..न जाती तो ठीक रहता …….न मै पिनाक उठाती …..और न मेरे पिता जी प्रतिज्ञा ही करते ।

क्या तोड़ नही सकते पिता जी अपनी प्रतिज्ञा ?

नही ………..पिता जी अपनी प्रतिज्ञा नही तोड़ सकते …….चाहे कुछ भी हो जाए ……………..

मै उन दिनों अपनें आपसे ही बातें करनें लगी थी……….क्या करती किसी को बतानें में लाज जो आती थी ।


ओह ! देवर्षि ! आप मेरे अन्तःपुर में ?

विचित्र हैं देवर्षि नारद जी ……इनको कहीं रोक टोक नही है ……

ये परम वीतराग , परोपकारी देवर्षि को भला कौन रोक सकता है ।

ये आगये थे मेरे ही अन्तःपुर में …………………….

मै घबडा कर उठ गयी …………….और देवर्षि को प्रणाम किया ।

तभी मेरे पिता जी और मेरी माता दोनों ही दौड़े मेरे अन्तःपुर की ओर ………उन्होंने भी प्रणाम किया ।

देवर्षि हँस रहे थे ………देवर्षि आज बहुत प्रसन्न थे ।

देवर्षि ! कहीं मैने प्रतिज्ञा करके कुछ गलत तो नही किया ?

ये प्रश्न मेरे पिता जी नें किया था ।

मैने जोश में आकर प्रतिज्ञा कर तो दी….पर आज तक कितनें राजकुमार और राजा आकर चले गए ……..किसी से पिनाक हिला तक नही ।

देवर्षि कभी भी स्पष्ट बोलते ही नही …..इनको तो पहेली देनें में बड़ा आनन्द आता है …..अब पहेली सुलझाते रहो ।

राजन् ! आप जोश में भला कोई काम कर सकते हो ?

आप ज्ञानी शिरोमणि हो…….फिर ज्ञानी तो सदैव होश में ही रहता है ।

और रही बात आपके द्वारा प्रतिज्ञा करनें की ……तो राजन् ! हम सब तो उस आस्तित्व करों के द्वारा संचालित यन्त्र मात्र हैं ……….

आस्तित्व कभी गलत नही करता …………उससे कभी गलत होता ही नही है ………..राजन् ! मत सोचो कि तुमनें किया है ……….तुमसे करवाया गया है ……इसमें भला है ……सबका भला है ………

क्रमशः …
#शेषचरिञ_अगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱

[] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
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श्लोक 8 . 28
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वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् |
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् || २८ ||

वेदेषु – वेदाध्ययन में; यज्ञेषु – यज्ञ सम्पन्न करने में; तपःसु – विभिन्न प्रकार की तपस्याएँ करने में; च – भी; एव – निश्चय ही; दानेषु – दान देने में; यत् – जो; पुण्य-फलम् – पुण्यकर्म का फल; प्रदिष्टम् – सूचित; अत्येति – लाँघ जाता है; तत् सर्वम् – वे सब; इदम् – यह; विदित्वा – जानकर; योगी – योगी; परम् – परम; स्थानम् – धाम को; उपैति – प्राप्त करता है; च – भी; आद्यम् – मूल, आदि |
भावार्थ
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जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है, वह वेदाध्ययन, तपस्या, दान, दार्शनिक तथा सकाम कर्म करने से प्राप्त होने वाले फलों से वंचित नहीं होता | वह मात्र भक्ति सम्पन्न करके इन समस्त फलों की प्राप्ति करता है और अन्त में परम नित्यधाम को प्राप्त होता है |
तात्पर्य
🪷🪷🪷
यह श्लोक सातवें तथा आठवें अध्यायों का उपसंहार है, जिनमे कृष्णभावनामृत तथा भक्ति का विशेष वर्णन है | मनुष्य को अपने गुरु के निर्देशन में वेदाध्ययन करना होता है, उन्हीं के आश्रम में रहते हुए तपस्या करनी होती है | ब्रह्मचारी को गुरु के घर में एक दास की भाँति रहना पड़ता है और द्वार-द्वार भिक्षा माँगकर गुरु के पास लाना होता है | उसे गुरु के उपदेश पर ही भोजन करना होता है और यदि किसी दिन गुरु शिष्य को भोजन करने के लिए बुलाना भूल जाय तो शिष्य को उपवास करना होता है | ब्रह्मचर्य पालन के ये कुछ वैदिक नियम हैं |

अपने गुरु के आश्रम में जब छात्र पाँच से बीस वर्ष तक वेदों का अध्ययन कर लेता है तो वह परम चरित्रवान बन जाता है | वेदों का अध्ययन मनोधर्मियों के मनोरंजन के लिए नहीं, अपितु चरित्र-निर्माण के लिए है | इस प्रशिक्षण के बाद ब्रह्मचारी को गृहस्थ जीवन में प्रवेश करके विवाह करने की अनुमति दी जाती है | गृहस्थ के रूप में उसे अनेक यज्ञ करने होते हैं, जिससे वह आगे उन्नति कर सके | उसे देश, काल तथा पात्र के अनुसार तथा सात्त्विक, राजसिक तथा तामसिक दान में अन्तर करते हुए दान देना होता है, जैसा कि भगवद्गीता में वर्णित है | गृहस्थ जीवन के बाद वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करना पड़ता है, जिसमें उसे जंगल में रहते हुए वृक्ष की छाल पहन कर और क्षौर कर्म आदि किये बिना कठिन तपस्या करनी होती है इस प्रकार मनुष्य ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा अन्त में संन्यास आश्रम का पालन करते हुए जीवन की सिद्धावस्था को प्राप्त होता है | तब इनमें से कुछ स्वर्गलोक को जाते हैं और यदि वे और अधिक उन्नति करते हैं तो अधिक उच्च्लोकों को या तो निर्विशेष ब्रह्मज्योति, या वैकुण्ठलोक या कृष्णलोक को जाते हैं | वैदिक ग्रंथों में इसी मार्ग की रूपरेखा प्राप्त होती है |

किन्तु कृष्णभावनामृत की विशेषता यह है कि मनुष्य एक ही झटके में भक्ति करने के कारण मनुष्य जीवन के विभिन्न आश्रमों के अनुष्ठानों को पार कर जाता है |

इदं विदित्वा शब्द सूचित करते हैं कि मनुष्य को भगवद्गीता के इस अध्याय में तथा सातवें अध्याय में दिये हुए कृष्ण के उपदेशों को समझना चाहिए | उसे विद्वता या मनोधर्म से इस दोनों अध्यायों को समझने का प्रयास नहीं करना चाहिए, अपितु भक्तों की संगति से श्रवण करके समझना चाहिए | सातवें से लेकर बारहवें तक के अध्याय भगवद्गीता के सार रूप हैं | प्रथम छह अध्याय तथा अन्तिम छह अध्याय इन मध्यवर्ती छहों अध्यायों के लिए आवरण पात्र हैं जिनकी सुरक्षा भगवान् करते हैं | यदि कोई गीता के इन छह अध्यायों को भक्त की संगति में भलीभाँति समझ लेता है तो उसका जीवन समस्त तपस्याओं, यज्ञों, दानों, चिन्तनों को पार करके महिमा-मण्डित हो उठेगा, क्योंकि केवल कृष्णभावनामृत के द्वारा उसे इतने कर्मों का फल प्राप्त हो जाता है |

जिसे भगवद्गीता में तनिक भी श्रद्धा नहीं है, उसे किसी भक्त से भगवद्गीता समझनी चाहिए, क्योंकि चौथे अध्याय के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि केवल भक्तगण ही गीता को समझ सकते हैं, अन्य कोई भी भगवद्गीता के अभिप्राय को नहीं समझ सकता | अतः मनुष्य को चाहिए कि वह किसी भक्त से भगवद्गीता पढ़े; मनोधर्मियों से नहीं | यह श्रद्धा का सूचक है | जब भक्त की खोज की जाती है और अन्ततः भक्त की संगति प्राप्त हो जाती है, उसी क्षण से भगवद्गीता का वास्तविक अध्ययन तथा उसका ज्ञान प्रारम्भ हो जाता है | भक्त की संगति से भक्ति आती है और भक्ति के कारण कृष्ण या ईश्र्वर तथा कृष्ण के कार्यकलापों, उनके रूप, नाम, लीलाओं आदि से संबंधित सारे भ्रम दूर हो जाते हैं | इस प्रकार भ्रमों के दूर हो जाने पर वह अपने अध्ययन में स्थिर हो जाता है | तब उसे भगवद्गीता के अध्ययन में रस आने लगता है और कृष्णभावनाभावित होने की अनुभूति होने लगती है | आगे बढ़ने पर वह कृष्ण के प्रेम में पूर्णतया अनुरक्त हो जाता है | यह जीवन की सर्वोच्च सिद्ध अवस्था है, जिससे भक्त कृष्ण के धाम गोलोक वृन्दावन को प्राप्त होता है, जहाँ वह नित्य सुखी रहता है |

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय “भगवत्प्राप्ति” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ |
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Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (165)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

रासलीला का अन्तरंग-3

अंगनामंगनामन्तरे माधवो, माधवं माधवं चान्तरेणांगना।
इत्थमाकल्पिते मण्डले मध्यगः सञ्जगौ वेणुना देवकीनन्दनः ।।

गोपी है, कृष्ण हैं, गोपी है कृष्ण हैं, कृष्ण है गोपी है, कृष्ण है गोपी है! एक गोपी एक कृष्ण, एक गोपी एक कृष्ण, एक गोपी एक कृष्ण! दूसरा कोई नहीं; केवल संपूर्ण सृष्टि में कृष्ण और गोपी है। वृत्ति है और आत्मा है, स्फुरण है और चैतन्य है, आनन्द का समुद्र है और तरंग है। और जैसे तरंग के द्वारा गंगाजी विहार करती हैं, जैसे तरंग के द्वारा समुद्र विहार करता है, ऐसे यह परमात्मा का, परमेश्वर का, स्फुरणात्मक विहार होता है।

तो उत्तम्भयन रतिपतिं रमयाञ्चकार- यह रतिपति कौन है? यह वृत्तिपति कौन है? अच्छा, शरीरपति कौन है? मालूम है? जो शरीरपति है परमात्मा, जो वृत्तिपति है परमात्मा, वही रतिपति है। चेतन की दृष्टि से वृत्तिपति बोलते हैं, उसी को आनन्द की दृष्टि से रतिपति बोलते हैं। और सत की दृष्टि से उसे ही शरीरपति बोलते हैं। रति माने जहाँ मन रम जाय। मन के रम जाने को रति बोलते हैं। मन कहाँ रमता है? आनन्द में। वृत्ति कहाँ से उठती है? चेतन में से। यह आकार कहाँ से बनात है? सत में से। ये सृष्टि के सारे आकार, अहं और इदं दोनों, सत का आकार है। ये वृत्ति में विषय और विषयी कौन है? चेतन का आकार हैं। ये भोक्ता और भोग्य, गोपी और कृष्ण कौन है? आनन्द के आकार है! अच्छा, अब कल तो आपको और सुनाना है इसलिए थोड़ा सा कल के लिए रख लेते हैं।+

रासलीला का अन्तरंग-4

रासलीला की नित्यता और उसके चिन्तन का फल

रासलीला का प्रसंग केवल द्वापरयुग में जब भगवान श्रीकृष्ण का आविर्भाव होता है, उसी समय का नहीं है। जो वस्तु एक स्थान में, एक काल में, एक रूप में प्रकट होती है और मिट जाती है, उसको तो संसार बोलते हैं। परंतु यह जो रासलीला का वर्णन है, वह नित्य रास का वर्णन है, जो मूल तत्त्वरूप में हो रहा है। ऋग्वेद में कई ऐसे मंत्र आते हैं जिनमें कहा गया है कि परमात्मा गोप है। ठीक यही शब्द है ‘गोपा’-
विष्णुर्गोपा अदाभ्यः गोप माने जो गाय की रक्षा करे सो गोप; जो इंद्रियों की रक्षा करे सो गोप; जो मनोवृत्तियों की रक्षा करे सो गोप। जो गायों के पीछे-पीछे रहकर के उनको चरावे, इन्द्रियों के पीछे रहे, मनोवृत्तियों के पीछे रहे, साक्षी रहे, द्रष्टा रहे, ब्रह्म रहे, अधिष्ठान रहे, उसको गोप बोलते हैं। एक मंत्र हैं ऋक् परिशिष्ट में-

राधया माधवो देवो माधवेन च राधिका ।
बिभ्राजन्ते जने स्वा……………………….।।

राधा से माधव की और माधव से राधा की शोभा होती है। अब यह प्रश्न उठा कि जब राधा माधव केवल द्वापर के अंत में प्रकट हुए, तो वेद में जो अपौरुषेय वाणी है, ईश्वरीय वाणी है, अनादि नित्य वाणी है, राधा का, माधव का, गोपा-रूप में विष्णु का, कैसे वर्णन आता है? यहाँ तक कि वेद में व्रज का भी वर्णन आता है; यत्र गावो भूरि श्रृंगा अयासः ऋग्वेद का इस मंत्र में व्रज शब्द का प्रयोग किया गया है। जहाँ बड़ी-बड़ी सींगोंवाली गौयें चलती हैं, आती हैं, जाती हैं अर्थात वह व्रज गोलोक है। उसके भीतर भगवान विहार करते हैं। फिर ये जो उपनिषद हैं, जैसे गोपालतापिनी उपनिषद है, राधिकोपनिषद है, श्रीकृष्णोपनिषद् है, क्या ये प्रामाणिक हैं? तो देखो, हम सब उपनिषदों को प्रमाण मानते हैं। जो लोग कहते हैं कि केवल दसही उपनिषद प्रमाण हैं वे सनातनधर्म की बात को नहीं जानते। हमारे मत में तो कम से कम ग्यारह सौ इकतीस उपनिषद होने चाहिए, अभी तो दो सौ से ज्यादा मिलते ही नहीं है। और प्रत्येक उपनिषद को हम वेदरूप वैसे ही अस्मर्यमाण कर्तृक, सम्प्रदायाविच्छेदनप्राप्त अपौरुषेय मानते हैं, सबको प्रमाण मानते हैं, भला!++

ये जो लोग सबको प्रमाण मानने में डरते हैं वे अपनी बुद्धि की हीनता दिखाते हैं, शास्त्र की अप्रमाणिकता नहीं दिखाते हैं। मानो वे शास्त्रों में लिखी हुई बात को जब संगत नहीं बना सकते, समन्वित नहीं कर सकते, युक्तियुक्त सिद्ध नहीं कर सकते, उसको सत्य नहीं बता सकते, तो कहते हैं हम इसको प्रमाण मानते ही नहीं है। एक पंडित था- उसने अखबार में छपा दिया कि अगर हमको इस बात में हरा दें तो हम अपनी पत्नी को हार जायेंगे, दे देंगे। अब महाराज! अखबार में छपी बात जब पत्नी के पास पहुँची और जब पंडितजी घर लौटे तो श्रीमती जी तो बहुत नाराज थीं। बोली- तुमने हमको बाजी पर लगा दिया? कहीं कोई बड़ा पंडित आया और हार गये तो? पंडित जी बोले कि पंडितानी, तुम नाराज मत होओ, जब हम मानेंगे कि हार गये तब न हार होगी, हम तो अपनी हार कभी मानेंगे ही नहीं, कैसे कोई हरायेगा? तो महाराज, जो लोग शास्त्र की संगति नहीं लगा पाते कि इसका क्या अभिप्राय है तो उसको प्रामाणिक मानने से ही इन्कार कर देते हैं। देखो, द्रव्य की भूमिका में स्थित होकर यह निर्णय होता है कि हमको क्या करना चाहिए। तथा विषय भोग में संयम होना चाहिए या दान होना चाहिए? तथा क्या संग्रह करना चाहिए और क्या दान करना चाहिए? ये निर्णय द्रव्य की भूमिका में स्थित होकर होता है।

क्या कर्म करना चाहिए और क्या कर्म नहीं करना चाहिए- यह कर्मेन्द्रियों की बात है। हमारी आँखों से क्या देखें न देखें- यह ज्ञानेंद्रियों की बात हुई। मन में क्या संकल्प आवें, क्या न आवें, बुद्दि में क्या निश्चित विचार होना चाहिए। आत्मा का स्वरूप कैसा है? ये भूमिका भेद से विचार होते हैं और ये शास्त्र जितने हैं वे सब किसी न किसी भूमिका में- द्रव्यभूमिका में, कर्मभूमिका में, इंद्रिय- भूमिका में, मनोभूमिका में बुद्धि भूमिका में, संगत होते हैं, उनका अभिप्राय होता है, उनका तात्पर्य होता है। शास्त्र का एक वचन भी ऐसा नहीं है जिसको कोई असंगत, असमन्वित सिद्ध कर सके; सबका सब युक्तिपूर्ण है और अनुभव से पूर्ण है। तो ये उपनिषदें हैं- गोपालतापिनी आदि इनमें वर्णन आता है, गोपीजनवल्लभ मंत्र का, राधाजनवल्लभ का वर्णन आता है- कृष्णाय गोविन्दाय, गोपीजनवल्लभाय।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
[] Niru Ashra: साधक समाज सावधान….


“आप शिष्य क्यों बनना चाहते हैं …आप साधक क्यों नही बनते”

ये बात मैं अपने लोगों से कहता रहता हूँ । लेकिन लोगों की रुचि शिष्य बनने में ज़्यादा दिखाई देती है ….मैंने कई बार कहा है …मुझे शिष्य प्रिय नहीं हैं ….मुझे साधक प्रिय हैं …जो गम्भीरता के साथ अध्यात्म मार्ग में चले ….चलने के लिए कटि बद्ध हो …जिसमें एक बैचेनी हो भगवत्प्राप्ति की । मुझे वो प्रिय हैं । साधकों ! मेरी अभी रुचि नही थी ये सब लिखने की …..मैं तो युगल चरणों की किंकरी बनकर आनन्द सर में गोता लगा रहा था । किन्तु ये दम्पति जो पंजाब से आए …मेरे सम्पर्क में पाँच छ वर्षों से हैं …..आयु ज़्यादा नही है इनकी …साधना के विषय में बहुत जागरुक हैं ….फिर दम्पति की ही रुचि एक हो …दोनों ही साधक हों …तो इससे श्रेष्ठ और क्या होगा । ये मैं इसलिए लिख रहा हूँ ताकि साधक समाज इस तरह की घटनाओं से सावधान रहे ।

मेरी प्रार्थना है इन तथाकथित गुरुओं से …..कि ऐसा काम न करें ….किसी की श्रद्धा को तोड़ना ये बहुत बड़ा पाप है ….इसका कोई प्रायश्चित भी नही है ……धन तो आज है कल नही ….धन कोई भी कमा सकता है ………..


हम मध्यम वर्गीय परिवार से आते हैं ….साठ हजार की सरकारी नौकरी है बस मेरी …पत्नी हाउस वाइफ है ….एक बालक है एक बालिका है , और माता जी हैं …परिवार सुखी है…माता जी श्रीबाँके बिहारी जी की भक्त हैं …इसलिए हम भी जुड़ गए श्रीवृन्दावन से …अपने अश्रु पोंछते हुये वो बता रहे थे अपनी आप बीती । गुरु जी की आवश्यकता लगने लगी …लगा कि गुरु होना आवश्यक है ….तो उन्हीं दिनों एक बाबा हमारे सम्पर्क में आए …..आयु उनकी ज़्यादा नही थी …सुन्दर केश बिखरे हुए …सुन्दर मुखमण्डल …..भजन मीठा गाते थे …..बस उनसे हम लोगों ने दीक्षा ले ली और उनको गुरु बना लिया । मैं उनसे बहुत जुड़ा था …पति ने कहा ….पूर्ण रूप से समर्पित । वो जो कहते हम मानते …..अब पत्नी ने बताना शुरू किया ….गुरुपूर्णिमा में हम उनकी कुटिया जाते ….और खूब नाचते गाते ….एक दिन उन्होंने हम से कहा …..पति ने बताया ….सुनो ! मैं जो कहूँ तुम मानोगे ? मैंने हाथ जोड़ कर कहा …गुरु जी ! जान माँग लो दे देंगे ….जान नही ….हमको इधर उधर जाने में दिक्कत होती है …..एक कार दे दो । मैं चुप हो गया ….मैं मध्यम वर्गीय परिवार वाला हम स्वयं कभी कार में नही चढ़े ….गुरु जी को कहाँ से कार देते । फिर ? मैंने पूछा । उन्होंने तो पूरी तैयारी कर रखी थी …..कार भी दस पन्द्रह लाख की….तुम चिन्ता मत करो ….साठ हजार कमाते हो उसमें से पन्द्रह हजार कार के लिए महीने महीने में निकाल लो …..और चार लाख पहले जमा कर दो । मैं कुछ कहता …गुरु जी बोले ….अब मना मत करना ….गुरु के वाक्यों को काटना अपराध होता है । मैंने उनको बीच में रोककर पूछा ….तुमने दिया ? क्या करता , आप बताओ ? फिर ? मैंने आगे की बात जाननी चाही । तो वो बोले ….हमने उनको जैसे तैसे चार लाख रुपए भी दिए और पन्द्रह हजार हर महीने देने का विधान भी बना दिया । मैंने कहा – इससे तुम टूटे हो ? कोई बात नही …अब मत सोचो …मैंने उन्हें समझाया । उन्होंने कहा ….इस बात का दुःख नही है हमें ….दुःख इस बात का है , कि उन्होंने इसके एक वर्ष बाद ही हमें ब्लॉक कर दिया अपने फ़ोन से …और हमारे द्वारा दी गयी गाड़ी को बेच भी दिया और हमसे सम्पर्क तोड़ लिया ।

वो बहुत रो रहे थे …..क्यों किया उन्होंने ऐसा ?

मैंने उनसे अब शान्ति से कहा …..आप ईमानदार हैं …ठाकुर जी के भक्त हैं इसलिए ठाकुर जी ने आपको बचा लिया ……कुछ देर चुप रहने के बाद मैंने उनसे कहा ….हम लोग जब व्यक्ति पूजक बनते हैं तब ये दिक्कतें आती ही हैं ….आप तो तीन चार लाख से ही बच गये …ठाकुर जी ने बचा लिया ….आप लोग साधक क्यों नही बनते …शिष्य बनने में आपकी रुचि क्यों ? आपको भगवत्प्राप्ति करनी है ना ? फिर क्यों आप देह के पीछे भागते हैं …मन्त्र दीक्षा आदि लेकर अपना जीवन साधनामय न बनाकर आप क्यों इस मिथ्या देह पर आसक्त होते हैं । क्या गुरु को मानना नही चाहिए ? उन्होंने मुझ से पूछा । मैंने कहा ….मैं कई बार कह चुका हूँ गुरु तत्व हैं….और तत्व सर्वत्र है…..आप अगर उनकी महत्वाक़ाक्षा को पूरी नही करते , कार आवश्यकता नही है …वासना है …..आप शिष्य बनें हैं गुरु के वासनाओं की पूर्ति के लिए नही …आप शिष्य बने हैं भगवान को पाने के लिए …शाश्वत शान्ति , शाश्वत आनन्द की प्राप्ति के लिए ….क्या ऐसा नही है ? वो कुछ नही बोले ।

आप हमारे गुरु बनिये ! उनकी पत्नी का कहना था ।

मैंने कहा …मैं शिष्य नही बनाता , मैं साधक बनाता हूँ …और साधक वो है जो सावधानी पूर्वक कल्याणकारी मार्ग में चलता रहे …न किसी व्यक्ति में उलझे , न किसी मत वाद में ….भगवान को पाने की दिशा में बढ़ता रहे बढ़ता रहे बढ़ता रहे । उसे जहाँ से अच्छे सच्चे अध्यात्म के सूत्र मिलें ले ले….भजन में ध्यान दे …अपने आप में ध्यान केंद्रित करे ….महत्वाकांक्षा में उलझे इन लोगों के संग में न चले ….बड़े बड़े आश्रम धारियों से अपने सम्पर्क न बनाये । जिन साधु में सांसारिक महत्वाकांक्षा दिखाई दे उनसे दूरी बनाये …बड़े बड़े नाम धारियों से मिलने की कोशिश न करे …..सच्चे भजन प्रिय साधुओं की संगति में रहे । अपने आपको सम्भाले ।

उन्होंने मुझे प्रणाम किया ……और वो कुछ देर मौन बैठकर चले गये थे ।


हे साधकों ! ये सब लिखने की मेरी आज कल इच्छा होती नही है …किन्तु इन अच्छे सच्चे साधकों के साथ बनी इस दुर्घटना से मैं व्यथित हो गया इसलिए मैंने ये लिखा । इसमें इन तथाकथित गुरुओं की भी गलती नही है ….ये अति महत्वाकांक्षी लोग हैं जो अब गुरु के भेष में आगये हैं …और अपना धन्धा चला रहे हैं , बचना हमें है….अपने आपको बचाना है ….नही तो कहीं के नही रहेंगे हम । ये स्मरण रहे । और एक बात स्पष्ट कर दूँ ……”ये लेख सिर्फ साधकों के लिए है”……….


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