🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣0️⃣
भाग 2
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#सियमुखसमतापावकिमिचन्द्रवापुरोरंक…
📙( #रामचरितमानस )📙
#मैवैदेही ! ……………._
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देवर्षि हँस रहे थे ………देवर्षि आज बहुत प्रसन्न थे ।
देवर्षि ! कहीं मैने प्रतिज्ञा करके कुछ गलत तो नही किया ?
ये प्रश्न मेरे पिता जी नें किया था ।
मैने जोश में आकर प्रतिज्ञा कर तो दी….पर आज तक कितनें राजकुमार और राजा आकर चले गए ……..किसी से पिनाक हिला तक नही ।
देवर्षि कभी भी स्पष्ट बोलते ही नही …..इनको तो पहेली देनें में बड़ा आनन्द आता है …..अब पहेली सुलझाते रहो ।
राजन् ! आप जोश में भला कोई काम कर सकते हो ?
आप ज्ञानी शिरोमणि हो…….फिर ज्ञानी तो सदैव होश में ही रहता है ।
और रही बात आपके द्वारा प्रतिज्ञा करनें की ……तो राजन् ! हम सब तो उस आस्तित्व करों के द्वारा संचालित यन्त्र मात्र हैं ……….
आस्तित्व कभी गलत नही करता …………उससे कभी गलत होता ही नही है ………..राजन् ! मत सोचो कि तुमनें किया है ……….तुमसे करवाया गया है ……इसमें भला है ……सबका भला है ………
निश्चिन्त रहो राजन् ! …….निश्चिन्त रहो ………..
इतना कहकर देवर्षि मेरी और मुड़े …………और मुस्कुराये ।
वैदेही ! एक बात कहूँगा ………पुष्प उद्यान में जाकर अगर वहाँ कोई हमें प्रिय लगनें लगे ……….और हम वहाँ से बेचैनी ले आएं ……..तब समझना ….तुम्हारा जीवन साथी तुम्हे मिल गया है ।
मैने सिर उठाया ……………और इशारे में ही पूछा …….क्या वही अयोध्या के बड़े राजकुमार ?
हाँ …….वही राजकुमार ! इतना कहकर देवर्षि चले गए …….
मुझे इतनी ख़ुशी हो रही थी कि…… उस समय लग रहा था ……….मै नाचूँ , मै उछलूँ ..मै दुनिया को बताऊँ कि मेरे हृदय के “रमण” मुझे मिल गए है ।
एकान्त मिले ……..और मै बस उन्हीं के बारे में सोचती रहूँ ।
माँ सुनयना मेरे लिये भोजन लेकर आयीं थीं ………….पर भूख कहाँ है ………मेरी भूख मिट चुकी थी ……………..
दिन का समय बहुत मुश्किल से गुजरा था ………रात में चन्द्रमा और तपानें लगा था मुझे ……उसकी चाँदनी मुझे छेड़ रही थी ।
क्या ये आग एक तरफ ही लगी है ?
नही नही …………………कोहवर कुञ्ज में मुझे सारी बातें बताई थीं मेरे प्राण प्रियतम नें ……..अपनी हथेलियों में मेरे मुख को सम्भाले प्रियतम नें मुझे वो सारी बातें बताई थीं ………..जब पुष्प वाटिका से गए थे ……अपनें गुरु जी के पास …….उन्हीं नें सुहाग की सेज में ये सारी बातें बताई थीं ………….
उन्होंने मुझे कहा था …………….प्यारी ! पुष्प वाटिका में मैने तुम्हे देखा ……………ओह ! ऐसा सौंदर्य मैनें नही देखा था ……….अद्भुत सौंदर्य था ………….।
लक्ष्मण और हम लौट तो आये …………..और गुरु जी को पुष्प भी दे दिया ………..पर हम दोनों ही अपना अपना हृदय छोड़ आये थे ।
मैने उस कोहवर कुञ्ज में पूछा था ……..आपनें तो मुझे अपना हृदय दिया ….पर लक्ष्मण भैया नें ?
उर्मिला को ……………ये कहते हुए नाथ बहुत हँसे थे ।
क्रमशः ….
#शेषचरिञ_अगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: एक उच्च स्थिति की साधिका से वार्ता…
क्या कहूँ ! कैसे कहूँ !
“ना पूछो मोसों हृदय की बतियाँ , तुम क्या जानों प्रेम की गतियाँ”
ये कहते हुए उन साधिका के नेत्रों से अश्रु बह चले थे ….किन्तु मुस्कुराहट बनी ही हुयी थी ।
आप बहुत अच्छा लिखते हैं भैया ! क्या कहूँ !
फिर सात्विक ऊर्जा का मेरे कक्ष में अविरल प्रवाह । क्या करूँ ? कैसे उन्हें पाऊँ ? आप बताइये …आपकी ये बहन पगली है …पूरी पगली …ये कहते हुये उन्होंने फिर अपने अश्रु पोंछे थे ।
“आप भगवान से रिश्ता बनाइये” …मैं यही कहता हूँ …भक्ति साधकों को शुरुआत यहीं से करनी चाहिए, उन्हें अपना बनाओ, अपनत्व के बिना प्रेम कहाँ सम्भव है ? चन्द्रमा भले ही सुन्दर लगे किन्तु चन्द्रमा से प्रेम नही हो सकता । क्यों की वो हमसे दूर है …हम भगवान,परात्पर, जगदीश्वर,अखिल ब्रह्माण्डनायक मान लें, तो “पूजा”हो सकती है, किन्तु “प्यार” नही हो सकता । दास भाव तो हो सकता है ऐसा आप कह सकते हो …किन्तु दास भाव के लिए भी तो मालिक उपलब्ध हो ….मालिक की निज कोठी में हमारी एंट्री हो ….यहाँ तो दूर दूर तक ……वो ब्रह्मादि से सेवित हैं ….फिर हम कहाँ ? इन बातों ने उन साधिका के मोटे मोटे नयनों के अश्रु सुखा दिए थे ….मैं हंसा , बोला – देखा , ये ब्रह्म आदि की बातें हम प्रेमियों को नही करनी चाहिए …हृदय नीरस बना देता है ….आप कितने आनन्द से अश्रु बहा रहीं थीं …..पर ब्रह्म की चर्चा ने ……..
“आप पहले रिश्ता बनाइये”……मैंने फिर अपनी बात दोहराई ।
“मैंने बना लिया है”…….इस बार वो थोड़ा शरमाईं …..मैं समझा नही कि ये शरमा क्यों रहीं हैं ….एक अलग ही नज़ाकत दिखाई दी उनके चेहरे में । जैसे वो कोई दुलहन हों …और उनके नये नवेले पति की चर्चा हमने छेड़ दी हो ….उनकी आयु करीब थी ….47 के लगभग ।
आपके बालक ? मैंने यहाँ से बात शुरू की ।
नही , मेरी सांसारिक शादी नही हुयी । मैंने शादी नही की ….स्पष्ट उन्होंने बताया । मैं कालेज में प्रोफ़ेसर हूँ …..इसके साथ उन्होंने ये भी कहा कि आपने एक बार “आज के विचार” में लिखा था कि अध्यापक आदियों का पशु पक्षी जैसी योनियों में जन्म नही होता ….उसका जन्म होता है मनुष्य योनि में ही ….आपके तर्क भी सटीक लगे थे …कि विद्या दान किया है …तो दूसरे जन्म में हमें भी विद्या मिलेगी …तो घोड़े या कुत्तों को तो विद्या मिलती नही हैं ….वो हंसीं …खुलकर हंसीं ।
आप अकेली रहती हैं ? अकेली क्यों …..मेरे साथ “वो” हैं ना । “वो” कहने में वही नज़ाकत ।
कौन “वो” रहते हैं आपके साथ ? मुझे स्पष्ट जानना था …..मैंने पूछा ।
मैं “कान्हा जी” को अपना पति मानती हूँ । उन्होंने इस बार नज़र झुकाकर कहा ।
इतना शरमा क्यों रहीं हैं ? मैंने पूछा ।
पता नही क्यों ….उनका नाम लेते हुए मुझे एक अलग ही अहसास होता है ….क्या कहती हैं आप उन्हें ? कुछ नाम रखा है ? जो केवल आप ही बुलाती हों ? हाँ , “कन्नु”…..ये कहते हुए उनका मुख लाल हो गया था । उनकी मीठी बोली थी …..मैंने उनसे कहा ….कुछ गाती हो ? अपने कन्नु को गाकर रिझाती हो । मैं लिखती हूँ …..कन्नु कहते हैं ….तुम अच्छा लिखती हो ….वो सुनते हैं ….मैं सुनाती हूँ । फिर उन्होंने सुनाया …….
“प्यार भरी वाकी तीखे नयन सौं , आह की ज्वाला थमत रहत है ।
मन में प्रश्न उठें प्रियतम , प्यार के रंग में कैसे भिगोओगे ।
हंसकर प्रीतम नयन चलावे , पल में अनहोंनी होवत है ।।
कन्नु कन्नु कन्नु कान्हा , निरमल , प्रेमल , अमृत सागर ।
तुमसे छूटूँ तो जीभ चले , पर मौन धरूँ तो आँख लरत है ।।
ये सुनाते हुए वो बहुत रो रहीं थीं ……
आहा ! भैया ! क्या मैं गलत हूँ ….मेरे परिवार वालों ने मुझे छोड़ दिया …मेरे माता पिता ने भी मेरा साथ नही दिया …मेरे भाईओं को लगा की उनकी सम्पत्ति खाने के लिए मैं शादी नही कर रही …किन्तु मैं किसी को बता नही सकती कि ये क्या है ? फिर मैंने आवेदन दिया तो विश्वविद्यालय में मैं प्रोफ़ेसर के पद पर नियुक्त हो गयी । वो और मैं हम दोनों साथ रहने लगे …..वो मेरे साथ रहता है …हर क्षण , हर पल ….मैं सच कह रहीं हूँ ये बात मैंने किसी से नही की ….आप से कह रही हूँ ।
बहन ! सही नाता तो तुमने जोड़ा है ….सही से जोड़ा है ….लोग कहेंगे , कहते हैं …उनका क्या ? सबको अपना स्वार्थ प्रिय है …जब तक उनके स्वार्थ के लिए तुम हो तब तक वो सब तुम्हारे हितैषी बनेगें ….किन्तु बहन ! जब उन्हें लगेगा कि ये हमारे काम की नही है …काम का नही है …वो छोड़ देंगे चाहे सगा भाई हो या बहन ….इसलिए तुम ये मत पूछो कि तुमने सही किया या नही ? तुमने ही सही कदम उठाया है ……सही मायने में “सनातन साजन” हमारा वही है ….सनातन प्रियतम हमारा वही है ……हमारे श्रीतुलसी बाबा ने मीरा बाई जी को यही तो कहा था ….”जाके प्रिय न राम वैदेही , तजिए ताहीं कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही” । मिथ्या को मिथ्या मानना गलत कैसे हो सकता है ? सत्य की ओर गति करना गलत कैसे हो सकता है ? रही बात – समाज का ताना बाना इस तरह के कार्यों से बिगड़ेगा ? तो तुम ने कौन सा ठेका ले रखा है की तुम समाज को ठीक रखोगी ! तुम ने ही सही कदम उठाए हैं …..किन्तु बहन ! मैं रुक गया ……किन्तु क्या भैया ! उन्होंने मुझ से पूछा । बहन ! ईमानदार रहना अपने कन्नू कान्हा के प्रति …मन में कोई और न बैठे ….नही तो कन्नू टूट जाएगा …ये बहुत भोला है …..भागवत का वो श्लोक तो तुमने सुना ही होगा ना …..”अहो बकीयं स्तन काल कूटं” भोला इतना है की कोई मारने के लिए अपने स्तन में ज़हर भी लगाकर आये तो उसे ये “माता” कह देता है ….भोला इतना है अपनी माता की गति उस राक्षसी पूतना को दे देता है ….बस , बहन ! इसको धोके में मत रखना ….इसको अपना माना है तो जीवन भर मानना …..ये तुम्हें मानने लगा है …..अब मेरे अश्रु बह चले थे ये कहते हुए ….की इस भोले कन्नु को धोखा मत देना …….उन्होंने वादा किया और कहा ….आपने उनकी तर्फदारी बहुत कर ली …मेरी ओर से उसे भी तो कहो …कि वो मुझे धोखा न दे ….आपको अपनी बहन का साथ देना चाहिए …….
इसके बाद हम दोनों बहुत हंसे ……वो कुछ देर रुकीं और चली गयीं ।
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (166)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रासलीला का अन्तरंग-4
अब प्रश्न यह है कि जब श्रीकृष्ण ने द्वापर में अवतार ले लिया, उसके बाद ये उपनिषद बने, कि उपनिषद पहले से हैं और अवतार बाद में हुआ? तो आजकल के ऐतिहासिक लोग जो हैं, ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने वाले- वे कहेंगे कि कृष्ण पहले हुए और उपनिषद बाद में बने। और मीमांसा की पद्धति से विचार करने वाले जो लोग हैं वे कहेंगे कि श्रीकृष्ण नित्य हैं और उनका वर्णन भी नित्य है, राधा नित्य हैं और उनका वर्णन भी नित्य है, तभी ‘गोपीजनवल्लभ’ की संगति लगेगी।
जहाँ धर्मशास्त्र में यह विचार आता है कि माघ शुक्ला अष्टमी के दिन भीष्म पितामह को तर्पण करने का विधान है, वहाँ धर्मशास्त्रियों में प्रश्न उठा कि भीष्म के मरने के बाद भीष्माष्टमी के दिन तर्पण करने का विधान बनाया गया होगा। हमारे मीमांसक लोग कहते हैं- बिलकुल नहीं, चाहे भीष्म पैदा हुए हों, चाहें न हुए हों, द्वापरयुग आया हो, चाहे न आया हो; त्रेता में जब रामचंद्र थे, सतयुग में जब हरिश्चंद्र आदि राजा थे, वे भी माघशुक्ला अष्टमी को भीष्म के लिए तर्पण करते थे, क्योंकि शास्त्र में उसका विधान है। कहा- क्यों? बोले- भीष्म तो हर द्वापर में होते हैं, अपने पहले वाले द्वापर के भीष्म के लिए जैसे हम आज तर्पण करते हैं वैसे उसके पहले वाले द्वापर के भीष्म के लिए जैसे हम आज तर्पण करते हैं वैसे उसके पहले वाले द्वापर के भीष्म के लिए उसके पहले लोग तर्पण करते थे। इसलिए शास्त्र में जो विधान होता है वह इतिहास को देख करके नहीं होता है।
शास्त्र में वर्णित विधान के अनुसार इतिहास को मानना पड़ता है। यह शास्त्र की संगति है। हम यह बात क्यों कर रहे हैं? इसलिए कह रहे हैं कि जब गोपीजनवल्लभाय नमः यह मंत्र विद्यमान है, तो भगवान श्रीकृष्ण अनादिकाल से ‘गोपीजनवल्लभ’ हैं और अनन्तकाल तक ‘गोपीजनवल्लभ’ हैं। वेद का यह मंत्र बताता है कि कृष्ण की जो रासलीला है, जो गोपी हैं, जो गोपीजनप्रिय भगवान श्रीकृष्ण हैं, जो गोपीजनवल्लभ भगवान गोविन्द हैं, ये सब अनादिकाल से हैं और अनन्त हैं। ऐसा नहीं है कि ये कभी बीच में पैदा हो जाते हैं और तब इनकी लीला लिखी जाती है।+
वेदों में, शास्त्रों में, पुराणों में, इतिहासों में इनकी लीला हमेशा से वर्णित है और सृष्टि में यह एक ऐसा स्तर है, एक मनोमय कोश का स्तर है, एक विज्ञानमय कोश का स्तर है, एक आनन्दमय कोश का स्तर है, एक ब्राह्मी स्थिति में सच्चिदानन्दघन दृश्य का स्तर है जिसमें यह रासलीला हमेशा होती रहती है। इसलिए हमारे जो लीला के प्रेमी हैं; श्री सूरदासजी महाराज वह वर्णन करते हैं-
सदा एक रस एक अखण्डित आदि अनादि अनूप ।
कोटि कलप बीतत नहि जानत बिहरत युगल सरूप ।।
राधा-कृष्ण युगल-सरकार का विहार अपने स्तर में होता रहता है। लौकिक देश में नहीं, लौकिक काल में नहीं, लौकिक पञ्चभूत में नहीं, अपने सच्चिदानन्दघन में जहाँ स्फुरण है और चिन्मात्र अधिष्ठान है, उस स्तर में जहाँ चिन्मात्र अधिष्ठान श्रीकृष्ण हैं तो स्फुरणा राधा है, वहाँ यह अनादि अनन्त रासलीला होती रहती है
कोटि कलप बीतत नहि जानत बिहरत युगल सरूप ।
कोटिकल्प कब बीत गया, इस बात को नहीं जानते हैं। ‘बिहरत युगल सरूप’- यह युगल सरकार का विहार, जहाँ आनन्द स्वयं श्रीकृष्ण हैं, जहाँ आनन्द की स्फुरणा राधा हैं, जहाँ स्फुरणा में भासमान अनेकता गोपी है।
न आदि न अन्त विलास करैं दोऊ, लाल प्रिया में भई न चिन्हारी ।
अनादि और अनन्तकाल तक ये दोनों विलास करते रहते हैं, और हरक्षण नवीन रहता है, राधा और कृष्ण एक-दूसरे को पहचानते ही नहीं।
प्रथमसमागमलज्जितया पटुचाटुशतैरनुकूलम् ++
श्रीजयदेवी ने गाया है कि हरक्षण में जब राधाकृष्ण मिलते हैं, तो श्रीकृष्ण के मन में वेग होता है कि राधा से मिलें, परंतु मन में ऐसा वेग होता है वहाँ स्थूल शरीर तो है नहीं, लौकिक द्रव्य तो है नहीं- तो मन में संकल्प हुआ कि राधा से मिलें, तो स्वयं राधाकार हो जाते हैं। वहाँ का मिलन राधाकार हो जाना है। श्रीराधा के मन में आया कि हम श्रीकृष्ण से मिलें, वह श्रीकृष्णाकार हो गयीं। राधा कृष्ण हो गयी और कृष्ण राधा हो गये; और फिर राधाकृष्ण, राधाकृष्ण और हर क्षण में मिलते हैं तो नवीन-नवीन मिलते हैं- कृष्ण पूछते हैं कि तुम कहाँ रहती हो, तुम कहाँ से आयी हो?
म किसकी बेटी हो, तुम कौन हो? राधा पूछती हैं कि तुम कौन हो? कहाँ से आये हो? हरक्षण में एक दूसरे को देखकर के नया-नया प्रेम होता है। लालजी की और श्री राधारानी की, स्वामिनीजी की, किशोरीजी की, यह जो पहचान है, जो प्रीति है, जो चिन्मय आकार हैं, इनमें किसी प्रकार का विकार नहीं है। चिन्मयक्षण, चिन्मयरेत, चिन्मय आकार चिन्मयप्रेम, चिन्मयमिलन। इस प्रकार- ‘रसौ वै सः ह्येवायं लध्वा आनन्दी भवति’- श्रुति भगवती में जिसका रस के नाम से वर्णन किया है, जिसका आनन्द के नाम से वर्णन किया है- ‘आनन्दो ब्रह्म इति व्यजानात्’ आनन्द ही ब्रह्म है यह ज्ञान हुआ तथा आनन्द ब्रह्मणो विद्वान न बिभेति कुतश्चन जिसने ब्रह्म को आनन्द जान लिया उसको अब भय नहीं रहा, उसी रसब्रह्म की यह रासलीला है, मधुर, आनन्दरूप, रसरूप।
अब देखो, जो लोग जबरदस्ती संसार से वैराग्य करने लगते हैं उसमें दोष है। क्या? ऐसे लोगों का दिमाग थोड़ा ऊँचा हो जाता है। दोषदृष्टि मूलक जो वैराग्य होता है उसमें भीतर द्वंद्व होने के कारण ऐसा होता है। पहले की तो है वासना, पहले का तो है राग, और अब वहाँ से मन को लौटाना चाहते हैं, तो मन में जो संघर्ष हुआ, द्वंद्व हुआ, उस द्वंद्व के कारण विक्षिप्तता आ जाती है। फिर तो साधु गाली देने लगता है, फिर तो मुँह फेर लेता है, ढेला मारने लगता है, बाल बढ़ा लेता है- किंभूत किमाकार हो जाता है। कई लोग महाराज, राख पोतते हैं, कई लोग जटा बढ़ाते हैं, कई लोग मूत्रेन्द्रिय कटवा देते हैं, कई लोग मूत्रेन्द्रिय में पीतल का छल्ला पहन लेते हैं, और कई तो पीतल की, लोहे की लँगोटी बनाकर के पहनते हैं, सिकड़िया बाबा बन जाते हैं।+++
हमारे गाँव के पास एक महात्मा थे, उनका नाम था, सिकड़िया बाबा था। यह जो इतना संघर्ष, इतना द्वंद्व जीवन में आता है, क्यों? कहा- वह जो दोषदृष्टिमूलक वैराग्य है उसको जो अपने जीवन में लाते हैं कि यह बुरा है- यह बुरा है- उधर तो मन कहता है चलो, और इधर कहते हैं बुरा-बुरा, तो हो जाता है द्वंद्व और आ जाता है पागलपन! और जो लोग महाराज, राधाकृष्ण की इस रसमयी, रसीली रासलीला का प्रसंग अपने मन में सोचते हैं, उनके मन में इसका भाव करने से, इसका ध्यान करने से, स्वाभाविक ही मन के साथ बलात्कार करके नहीं, मन स्वयं स्वरस से, निसर्ग से अंतर्मुख हो जाता है। जैसे- अचिन्त्य होने पर भी चिन्मात्र का चिन्तन किया ही जाता है; जैसे निर्विशेष सतता बुद्धि का विषय न होने पर भी उसका बुद्धि के द्वारा चिन्तन करते हैं, इसी प्रकार यह जो आनन्द है, रस से परिपूर्ण आनन्द है, आनन्द ब्रह्म है, इसका जब चिन्तन करते हैं, तो हमारे मनकी स्वाभाविक वृत्ति भगवान की ओर प्रवाहित होने लगती है-
मद्गुश्रुतिमात्रेण मयि सर्वगुहाशये ।
मनोगतिरविच्छिन्ना यथा गंगाम्भसोऽम्बुधौ ।।
लक्षणं भक्तियोगस्य निर्गुणस्य उदाहृतम् ।।
भगवान के गुणों के श्रवणमात्र से हमारी मनोवृत्ति भगवान की ओर प्रवाहित होने लगती है और मन की स्वारसिकी वृत्ति जब भगवान की ओर प्रवाहित होती है तो संसार से बिना किसी संघर्ष के, बिना वैमनस्य के, बिना किसी प्रकार के द्वंद्व के, बिना दुनिया में लड़ाई लड़े, हमारा मन भगवान के पक्ष में हो जाता है और संसार का पक्षपात छोड़ देता है। इसीलिए रासलीला के अंत में यह बात कही गयी कि-
श्रद्धान्वितोऽनुश्रुणुयाद् अथ वर्णयेद् यः- उसमें बताया-
भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं हृदरोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः ।। ++++
यह जो हृदरोग काम है, इस पर विजय का उपाय है कि भगवान की रासलीला का चिन्तन, इसका श्रवण, इसका पाठ किया जाय। रासलीला को ऐसा नहीं समझना कि एक दिन भगवान ने शरद् पूर्णिमा को की होगी या वैशाखी पूर्णिमा को या वासन्ती पूर्णिमा में की होगी। यह जो भगवान की रासलीला है इसमें जो भगवान का पाँव ताल से पड़ता है उस ताल से काल बनता है। और भगवान के पाँव की जो लम्बाई-चौड़ाई, उससे देश बनता है और भगवान के चरणारविन्द से जो पराग के कण छिटकते हैं उनसे ये अनन्तकोटि ब्रह्मण्ड बनते हैं। भगवान के चरणारविन्द के नूपुर की जो ध्वनि है, उससे यह वेदवाणी प्रकट होती है।
भगवान के चरणारविन्द की ध्वनि का नाम नूपुर है। उसकी ध्वनि वेद हैं; उनके चरणारविन्द के पराग का नाम अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड है। उनके पाँव के स्थान का नाम देश है। उनके पाँव में जो ताल है, उससे निकलता है काल। इस प्रकार राधाकृष्ण की अनादि अनन्त रासलीला होती रहती है। वह तो हमारे हृदय में प्रेम आवे, भगवान की कृपा होवे, वह कृपा करके अपनी रासलीला में जिसके मन को खींच ले, जिस जीव को खींच ले, आकृष्ट कर ले, वही इसी समय यहीं बैठे-बैठे उस लीला में प्रवेश करके परमानन्द का अनुभव प्राप्त कर सकता है! तो भाई! आप लोग बड़े प्रेम से वर्षा सहकर, घर का काम बिगाड़कर, नीचे बैठकर, बड़ी तकलीफ सहकर, इतने प्रेम से भगवान की चर्चा सुनते हैं, कथा सुनते हैं। वैसे तो यदि हम गृहस्थ ब्राह्मण होते तो चातुर्मासभर यहीं रहते, परंतु अब तो नारायण, चोटी नहीं, जनेऊ नहीं, तो ब्राह्मणता तो पीछे पड़ गयी।
अब तो चातुर्मास का नियम तोड़ना भी धर्म है, उसका भी विधान है, उसमें किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है! और फिर हम तो एक बहुत बढ़िया स्थान में, दिव्य देश में (वृन्दावन) जा रहे हैं; वहाँ जाकर विहारीजी का झूला देखेंगे, वहाँ के आनन्द लेंगे, कुछ दिन वहाँ के जलवायु में रहेंगे और फिर वहाँ से और भी रस लेकर, और भी आनन्द लेकर, और प्रेम लेकर, बहुत जल्दी आप लोगों के बीच में फिर आवेंगे; सो अब आज यहीं पूरा करते हैं। हम आप लोगों के प्रति बहुत कृतज्ञ् नहीं है नारायण, और न तो कोई आभार ही मानते हैं; और आप लोग भी कुछ कृतज्ञ मत होओ, आभार मत मानो। क्योंकि सब अपना स्वरूप ही है। और कभी आगे मान लेंगे, अभी फिर कभी मौका मिलेगा तो उसमें कृतज्ञता प्रकट कर लेगें, आभार मान लेंगे।
ऊँ शांतिः शांतिः शांतिः।
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
(अब इस लेख माला को यहीं विराम देते हैं )
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Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 1
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श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यसूयवे |
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेSश्रुभात् || १ ||
श्रीभगवान् उवाच –
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श्रीभगवान् ने कहा; इदम् – इस; तु – लेकिन; ते – तुम्हारे लिए; गुह्य-तमम् – अत्यन्त गुह्य; प्रवक्ष्यामि – कह रहा हूँ; अनसूयवे – ईर्ष्या न करने वाले को; ज्ञानम् – ज्ञान को; विज्ञान – अनुभूत ज्ञान; सहितम् – सहित; यत् – जिसे; ज्ञात्वा – जानकर; मोक्ष्यसे – मुक्त हो सकोगे; अशुभात् – इस कष्टमय संसार से |
भावार्थ
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श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! चूँकि तुम मुझसे कभी ईर्ष्या नहीं करते, इसीलिए मैं तुम्हें यह परम गुह्यज्ञान तथा अनुभूति बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम संसार के सारे क्लेशों से मुक्त हो जाओगे |
तात्पर्य
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ज्यों-ज्यों भक्त भगवान् के विषयों में अधिकाधिक सुनता है, त्यों-त्यों वह आत्मप्रकाशित होता जाता है | यह श्रवण विधि श्रीमद्भागवत में इस प्रकार अनुमोदित है – “भगवान् के संदेश शक्तियों से पूरित हैं जिनकी अनुभूति तभी होती है, जब भक्त जन भगवान् सम्बन्धी कथाओं की परस्पर चर्चा करते हैं | इसे मनोधर्मियों या विद्यालयीन विद्वानों के सान्निध्य से नहीं प्राप्त किया जा सकता, क्योंकि यह अनुभूत ज्ञान (विज्ञान) है |”
भक्तगण परमेश्र्वर की सेवा में निरन्तर लगे रहते हैं | भगवान् उस जीव विशेष की मानसिकता तथा निष्ठा से अवगत रहते हैं, जो कृष्णभावनाभावित होता है और उसे ही वे भक्तों के सान्निध्य में कृष्णविद्या को समझने की बुद्धि प्रदान करते हैं | कृष्ण की चर्चा अत्यन्त शक्तिशाली है और यदि सौभाग्यवश किसी की ऐसी संगति प्राप्त हो जाये और वह इस ज्ञान को आत्मसात् करे तो वह आत्म-साक्षात्कार की दिशा में अवश्य प्रगति करेगा | कृष्ण अर्जुन को अपनी अलौकिक सेवा में उच्च से उच्चतर स्तर तक उत्साहित करने के उद्देश्य से इस नवें अध्याय में उसे परं गुह्य बातें बताते हैं जिन्हें इसके पूर्व उन्होंने अन्य किसी से प्रकट नहीं किया था |
भगवद्गीता का प्रथम अध्याय शेष ग्रंथ की भूमिका जैसा है, द्वितीय तथा तृतीय अध्याय में जिस आध्यात्मिक ज्ञान का वर्णन हुआ है वह गुह्य कहा गया है, सातवें तथा आठवें अध्याय में जिन विषयों की विवेचना हुई है वे भक्ति से सम्बन्धित हैं और कृष्णभावनामृत पर प्रकाश डालने के कारण गुह्यतर कहे गये हैं | किन्तु नवें अध्याय में तो अनन्य शुद्ध भक्ति का ही वर्णन हुआ है | फलस्वरूप यह परमगुह्य कहा गया है | जिसे कृष्ण का यह परमगुह्य ज्ञान प्राप्त है, वह दिव्य पुरुष है, अतः इस संसार में रहते हुए भी उसे भौतिक क्लेश नहीं सताते | भक्तिरसामृत सिन्धु में कहा गया है कि जिसमें भगवान् की प्रेमाभक्ति करने की उत्कृष्ट इच्छा होती है, वह भले ही इस जगत् में बद्ध अवस्था में रहता हो, किन्तु उसे मुक्त मानना चाहिए | इसी प्रकार भगवद्गीता के दसवें अध्याय में हम देखेंगे कि जो भी इस प्रकार लगा रहता है, वह मुक्त पुरुष है |
इस प्रथम श्लोक का विशिष्ट महत्त्व है | इदं ज्ञानम् (यह ज्ञान) शब्द शुद्धभक्ति के द्योतक हैं, जो नौ प्रकार की होती है – श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य तथा आत्म-समर्पण | भक्ति के इन नौ तत्त्वों का अभ्यास करने से मनुष्य आध्यात्मिक चेतना अथवा कृष्णभावनामृत तक उठ पाता है | इस प्रकार, जब मनुष्य का हृदय भौतिक कल्मष से शुद्ध हो जाता है तो वह कृष्णविद्या को समझ सकता है | केवल यह जान लेना कि जीव भौतिक नहीं है, पर्याप्त नहीं होता | यह तो आत्मानुभूति का शुभारम्भ हो सकता है, किन्तु उस मनुष्य को शरीर के कार्यों तथा उस भक्त के आध्यात्मिक कार्यों के अन्तर को समझना होगा, जो यह जानता है कि वह शरीर नहीं है |
सातवें अध्याय में भगवान् की ऐश्र्वर्यमयी शक्ति, उनकी विभिन्न शक्तियों – परा तथा अपरा – तथा इस भौतिक जगत् का वर्णन किया जा चुका है | अब नवें अध्याय में भगवान् की महिमा का वर्णन किया जायेगा |
इस श्लोक का अनसूयवे शब्द भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है | सामान्यतया बड़े से बड़े विद्वान् भाष्यकार भी भगवान् कृष्ण से ईर्ष्या करते हैं | यहाँ तक कि बहुश्रुत विद्वान भी भगवद्गीता के विषय में अशुद्ध व्याख्या करते हैं | चूँकि वे कृष्ण के प्रति ईर्ष्या रखते हैं, अतः उनकी टीकाएँ व्यर्थ होती हैं | केवल कृष्णभक्तों द्वारा की गई टीकाएँ ही प्रामाणिक हैं | कोई भी ऐसा व्यक्ति, जो कृष्ण के प्रति ईर्ष्यालु है, न तो भगवद्गीता की व्याख्या कर सकता है, न पूर्णज्ञान प्रदान कर सकता है | जो व्यक्ति कृष्ण को जाने बिना उनके चरित्र की आलोचना करता है, वह मुर्ख है | अतः ऐसी टीकाओं से सावधान रहना चाहिए | जो व्यक्ति यह समझते हैं कि कृष्ण भगवान् हैं और शुद्ध तथा दिव्य पुरुष हैं, उनके लिए ये अध्याय लाभप्रद होंगे |
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