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November 21, 2024 5:44 pm

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साधकों के लिए….,भक्त नरसी मेहता चरित (01),(02), श्रीमद्भगवद्गीता,प्रेम का चमत्कार… : नीरु आशरा

साधकों के लिए….,भक्त नरसी मेहता चरित (01),(02), श्रीमद्भगवद्गीता,प्रेम का चमत्कार… : नीरु आशरा

Niru Ashra: साधकों के लिए….


“उठ नही सकते , जिस स्थिति में हो उससे उन्नत नही हो सकते कोई बात नही , कम से कम उतने में ही स्थिर तो हो जाओ ना ! जहाँ हो उससे तो नीचे मत गिरो , मेरा इतना ही कहना है “।

ये कुछ युवा हैं ….जिन्हें गुरु बदलने का शौक़ है ….ये मध्यप्रदेश, हरियाणा और पंजाब से हैं ….पहले ये लोग कई गुरु बना चुके हैं , चार सेलिब्रिटी महात्माओं को …..इनको लगता है कि जो अभी ज़्यादा चल रहे हैं उनको गुरु बनाया जाए ….ये सोच इनकी है ….वैसे इन्होंने ये सब कहा नही किन्तु इतना तो हम समझते ही हैं । इनमें से किसी को लगता है जो अभी चल रहे हैं उनको गुरु बनायेंगे तो ठहरने के लिए आश्रम में जगह मिल जाएगी …और भोजन के लिए शिष्य को कौन रोकेगा …इसलिए ये लोग ऐसे गुरुओं को खोजते हैं ….मेरे देखे इन्होंने कई गुरु बदल लिए हैं ….आज आये पूरी भीड़ लेकर ….दोपहर में आये …हमें मिलना है …इन लोगों ने कहा ….मैं मिला ….ये आपसे दीक्षा लेना चाहते हैं …एक ने दूसरे को दिखाया । किन्तु “मेरे पास कोई कमरा नही है ….न मेरे यहाँ ठहरने की व्यवस्था है”…….मैं ये कहते हुए खूब हंसा ।

क्या हम आपके बाबा जी से दीक्षा ले लें ? अब ये लोग गर्म दोपहरी में टाईम पास कर रहे थे ।

मैंने कहा – उनके पास भी कमरा नही है ….रिक्शा चलाना पड़ेगा….बोलो ? उनको बोलने के लिए कुछ नही मिल रहा था तो …”आप बहुत अच्छा लिखते हैं” हम लोग नित्य “आज के विचार” पढ़ते हैं ! उन्हें लग रहा था कि मेरी प्रशंसा मुझे अच्छी लगेगी । किन्तु …आप यहाँ क्यों आए हैं ये बताइये । मैं झुँझला कर बोला । भजन कैसे करें ? एक ने पूछा । दूसरे ने कहा …भक्ति कैसे बढ़े ?

मैं कुछ देर शान्त रहा ….क्या बोलूँ ? सोचता रहा ….सच्चे जिज्ञासु का उत्तर दिया जा सकता है किन्तु जो नाटक कर रहा है साधक बनने का ….उससे क्या कहें ।

“एक अपराध होता है …बहुत बड़ा अपराध ….तुम लोगों को पता है ? मैंने पूछा ।

क्या ? वो लोग बोले ।

मैंने कहा ….साधक ,साधु , सन्त जो हैं ना ….इन लोगों का समय बहुत क़ीमती होता है ……हमारे अमूल्य टाईम को जो अपने टाईमपास का साधन समझते हैं …वो बहुत बड़े अपराधी होते हैं ….हम लोगों से धन ले जाओ …झूठ बोलो …हमारी कोई वस्तु चुरा लो …हमें उसका दुःख नही होगा ……न अपराधी मानेंगे तुम्हें …..किन्तु हमारे क़ीमती समय को तुम इस तरह काल क्षेपण का साधन बना लिए हो……ये अपराध है । हम लोगों का एक एक मिनट अमूल्य होता है …..तुम्हें इस बात को समझना चाहिए ….और तुम लोग कोई नये नही हो ….आते जाते रहते हो …..मेरे पास समय नही होता ……हाँ , तुम्हारी अगर कोई जिज्ञासा हो तो अलग बात है किन्तु इस तरह आकर । मेरी बात सुनकर एक युवक ने क्षमा माँगीं ….और कहा ….हमसे सच में अपराध हुआ है …..हम तो मना कर रहे थे किन्तु ये नही मानें । जो मुखिया बने थे उन्हीं को सबने दोष दिया । बस पाँच मिनट और …..हमारे लिए क्या आदेश है ? हम क्या करें ? ये युवक ठीक था ….इनके साथ दो और थे …ये सच्चे जिज्ञासु लगे ।

क्या हम बाबा जी को गुरु बनायें ? मैंने पूछा – पूर्व में आपने गुरु बनाया है ?

हाँ , बनाया है ……तो फिर क्यों बदल रहे हैं आप गुरु ? क्या आपके गुरु सामर्थ्यवान नही हैं ? वो बोले ….बहुत सामर्थ्यवान हैं …..वो भगवान हैं ….उन्होंने जो मन्त्र दिया है हम उसी का जाप करते हैं ….फिर क्यों बाबा जी को दुःख देने में तुले हो …..मैं सहज बोला ….इससे तुम्हें क्या लाभ होगा ? वो युवक बोला …ये जो हैं यहीं हम पर जोर डाल रहे हैं ……मैंने उसकी ओर देखा ….अभी मात्र दो वर्ष ही हुए होंगे श्रीवृन्दावन आए लेकिन सबका गुरु बदलवा रहा था ये ।

क्या भैया ! क्यों कर रहे हो तुम ऐसा …..मैंने कहा….ये पहले श्रीरामानन्दी था …मैंने बहुत समझाया किन्तु माना नही , अब श्रीराधा वल्लभी हो गया है ……यही सबको भटका रहा है ….मत करो ये सब ….सच्चे साधक बनों …..भजन का मार्ग अच्छा जहाँ से मिले …ले लो……किन्तु गुरु मत बदलो …इससे कोई लाभ नही हानि ही है । अन्य युवकों को मेरी बातें अच्छी लगीं थीं …..वो कहने लगे ये कहता है …..की हमारे गुरु जी सवा लाख नाम जपने के लिए कहते हैं …इससे आध्यात्मिक प्रगति होगी ….इसलिए …वो मुझ से कहने लगा …..बाबा जी सवा लाख नाम जपवाते हैं तभी तो उन्नति होगी ……मैंने उन युवकों से कहा …कितनी माला जपते हो ? वो बोले – नित्य पाँच माला । मैंने कहा ….बस …नियम से इतना ही जीवन पर्यन्त करते रहोगे ना तो भी कल्याण है ….बस ईमानदार रहो , झूठ व्यवहार मत करो …किसी का धन मत हड़पों …और किसी को झूठा आश्वासन मत दो …किसी का दिल मत दुखाओ ……इतना करते हुए पाँच माला भी जपते रहे ना ….तो तुम्हारा काम बन जाएगा …..इधर उधर मत भटको …मत भटको ….कोई लाभ नही है …हाँ , सत्संग सुनो ….संतों के दर्शन करो ….उनकी पद धूलि माथे से लगाओ ….किन्तु गुरु मत बदलो ….इससे लाभ नही है ….मैंने कहा ।

सबने मेरे प्रति श्रद्धा दिखाई और वहाँ से ये कहते हुए चले गये कि हमारे द्वारा हुआ अपराध क्षमा करें । मैंने कहा ……मेरे द्वारा कही बातें मानों …सब क्षम्य है ।
[] Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (01)


(एक भक्त ऐसा भी जिनके कार्य हेतु स्वयं भगवान् को 72 बार प्रकट होकर कार्य पूर्ण हेतु आना पड़ा )

कदा वृन्दारण्ये विमलयमुनातीरपुलिने
चरन्तं गोविन्दं हलधरसुदामादिसहितम्।
अये कृष्ण स्वामिन् मधुरमुरलीवादनविभो
प्रसीदेत्याक्रोशन् निमिषमिव नेष्यामि दिवसान्।।

प्यारे! तुमसे किस मुख से कहूँ, कि मुझे ऐसा जीवन प्रदान करो। चिरकाल से महात्माओं के मुख से सुनता चला आ रहा हूँ, कि तुम निष्कि‌चनों के प्रिय हो, जिन्होंने आभ्यन्तर और ब्राह्य दोनों प्रकार के परिग्रह का परित्याग कर दिया है, जिनके तुम ही एकमात्र आश्रय हो, जो तुमको ही अपना सर्वस्व समझते हों, उन्हीं एकनिष्ठ भक्तों के हृदय में आकर तुम विराजमान होते हो, उन्हीं के जीवन को असली जीवन बना देते हो। उन्हीं के तुम प्यारे हो और वे तुम्हें प्यारे हैं। प्यारे! इस पामर प्राणी से तुम कैसे प्यार कर सकोगे? वंचना नहीं, अत्युक्ति नहीं, नाथ! यह कैसे कहूँ कि बनावट नहीं, किन्तु तुम तो अन्तर्यामी हो, तुमसे कोई बात छिपी थोडे़ ही है, इस अधम का तो तुम्हारे प्रति तनिक भी आकर्षण नहीं।

रोज सुनता हूँ अमुक के ऊपर तुमने कृपा की, अमुक को तुमने दर्शन दिये, इन प्रसंगों को सुनकर मुझे अधीर होना चाहिये, किन्तु कृपालो! अधीर होना तो अलग रहा, मुझे तो विश्वास तक नहीं होता, कि ऐसा हुआ भी होगा या नहीं। बहुत चाहता हूँ, तुम्हारा स्मरण करूँ, मन में तुम्हें छोड़कर दूसरा विचार ही न उठे, कान तुम्हारे गुण-कीर्तनों के अतिरिक्त दूसरी सांसारिक बातें सुनें ही नहीं। जिह्वा निरन्तर तुम्हारे ही नामामृत का पान करती रहे।

नेत्रों के सम्मुख तुम्हारी वही ललित त्रिभंगीयुक्त बाँकी चितवन नृत्य करती रहे। पैरों से तुम्हारी प्रदक्षिणा करूँ। करों से तुम्हारी पूजा-अर्चा करता रहूँ और हृदय में तुम्हारी मनोहर मूर्ति को धारण किये रहूँ, किन्तु नटनागर! ऐसा एक क्षण भी तो होने नहीं पाता। मन न जाने क्या ऊल-तमूल सोचता रहता है जब कभी स्मरण आता है, तो मन को बार-बार धिक्कारता हूँ, ‘अरे नीच! न जाने तू क्या व्यर्थ की बातें सोचता रहता है! अरे, उन मनमोहन की छवि का चिन्तन कर जिसके बाद फिर कोई चिन्तनीय चीज ही शेष नहीं रह जाती, किन्तु नाथ! वह मेरी सीख को सुनता ही नहीं। न जाने कितने दिन से यह इन घटपटादिकों को सोचता आ रहा है। विषयों के चिन्तन से यह ऐसा विषयमय बन गया है, कि तुम्हारी ओर आते ही काँपने लगता है और आगे बढ़ना तो अलग रहा, चार कदम और पीछे हट जाता है। कैसे करूँ नाथ! अनेक उपाय किये, अपने करने योग्य साधन जहाँ तक कर सका सब किये, किन्तु इस पर कुछ भी असर नहीं हुआ। हो भी तो कैसे? इसकी डोरी तो तुम्हारे हाथ में है।

तुमने तो इसकी डोरी ढीली छोड़ दी है, यदि तुम्हारा जरा भी इशारा हो जाता तो फिर इसकी क्या मजाल जो इधर-से-उधर तनिक भी जा सकता। मेरे साधनों से यह वश में हो सकेगा, ऐसी मुझे आशा नहीं। तुम्हीं जब बरजो तब काम चले।


🕉🙇⛳
मोहे आन मिलो श्याम,
बहुत दिन बीत गए राह तकत के हारी अँखिआ,
फिर भी आस लगाए अँखियाँ
जीवन की हो गयी शाम⛳🙇🕉🌸🌿

दादी की महात्मा से याचना🌿🌸

गोविंद भक्त नरसी मेहता कि सम्पूर्ण भक्ति मय कथा सभी श्रवन करें

पुण्यभूमि आर्यावर्त के सौराष्ट्र -प्रांत में जीर्णोदुर्ग नामक एक अत्यंत प्राचीन ऐतिहासिक नगर है , जिसे आजकल जूनागढ कहते है । भक्त प्रवर श्री नरसिंह मेहता का जन्म लगभग संमवत चौदह सौ सतर में इसी जूनागढ में एक प्रतिष्ठित नागर ब्रह्ममण -परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम था कृष्ण दामोदर दास तथा माता का नाम लक्ष्मीगौरी था, उनके एक और बड़े भाई थे , जिनका नाम था वणसीधर या वंशीधर । अभी वंशीधर की उम्र बाईस वर्ष और नरसिंह राम की पाँच वर्ष लगभग थी कि उनके माता -पिता का देहांत हो गया और उसके बाद नरसिंह राम का लालन -पालन बड़े भाई तथा दादी ने किया । दादी का नाम था जयकुँवरी।

नरसिंह राम बचपन से गूँगे थे ; प्रायः आठ वर्ष की उम्र तक उनका कण्ठ नहीं खुला ।इस कारण लोग उन्हें “गूँगा ‘ कहकर पुकारने लगे । इस बात से उनकी दादी जयकुवँरी को बड़ा कलेश ( दुःख ) होता था । वह बराबर इस चिन्ता में रहती थी कि मेरे पौत्र की जबान कैसे खुले । परंतु मूक को वाचाल कौन बनावे, पंगु को गिरिवर लाँघने की शक्ति कौन दे ? जयकुँवरी को पूरा विश्वास था , ऐसी शक्ति केवल एक परम पिता परमेश्वर ही है ; उनकी दया होने पर मेरा पौत्र भी तत्काल वाणी प्राप्त कर सकता है और साथ ही यह भी उसे विश्वास था कि उन दयामय जगन्नाथ की कृपासाधारण मनुष्यों को उनके प्रिय भक्तों के द्वारा ही प्राप्त हुआ करती है । अतएव स्वाभावतः ही उसमें साधु -महात्माओं के प्रति श्रद्धा और आदर का भाव था । जब और जहाँ उसे कोई साधु-महात्मा मिलते , वह उनके दर्शन करती और यथाशक्ति श्रद्धा पूर्वक सेवा भी करती ।

कहते है श्रद्धा उत्कट होने पर एक -न एक दिन फलवती होती ही है । आखिर जयकुँवरी की श्रद्धा भी पूरी होने का सुअवसर आया । फाल्गुन शुक्ल पंचमी का दिन था ।ऋतुराज का सुखद साम्राज्य जगत भर में छा रहा था । मन्द-मन्द वसन्त वायु सारे जगत के प्राणियों में नव जीवन का संचार कर रहा था । नगर के नर -नारी प्रायः नित्य ही सायंकाल हाटकेशवर महादेव के दर्शन के लिए एकत्र हुआ करते; स्त्रियाँ मंदिर में एकत्र होकर मनोहर भजन तथा रास के गीत गाया करती । नित्य की तरह उस दिन भी अत्याधिक भीड़ थी । जयकुँवरी भी नाती को साथ लेकर हाटकेशवर महादेव के दर्शन को गयी ।

दर्शन करके लौटते समय उसकी दृष्टि एक महात्मा पर पड़ी , जो मंदिर के एक कोने में व्याघ्राम्बर पर पध्मासन लगाये बैठे थे । उनके मुख से निरन्तर ‘नारायण -नारायण शब्द का प्रवाह चल रहा था । उनका चेहरा एक अपूर्व ज्योति से जगमगा रहा था । देखने से ही ऐसा मालूम होता था जैसे कोई परम सिद्ध योगी हों । उनकी दिव्य तपो पलब्ध प्रतिभा से आकृष्ट होकर जयकुँवरी भी अपने साथ की महिलाओं के संग उनके दर्शन करने के लिए गयी । उसने दूर से बड़े आदर और भक्ति के साथ महात्मा जी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनती की —

महात्मन ! यह बालक मेरा पौत्र है ; इसके माता -पिता का देहांत हो चूका है । प्रायः आठ वर्ष का यह होने चला , पर कुछ भी बोल नहीं सकता । इसका नाम नरसिंह राम है; परंतु सब लोग इसे गूँगा कहकर ही पुकारते है । इससे मुझे बड़ा कलेश होता है । महाराज ! ऐसी कृपा किजीये कि इस बालक की वाणी खुल जाय ।

क्रमशः ………………!


[] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 2
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राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् |
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् || २ ||

राज-विद्या – विद्याओं का राजा; राज-गुह्यम् – गोपनीय ज्ञान का राजा; पवित्रम् – शुद्धतम; इदम् – यह; उत्तमम् – दिव्य; प्रत्यक्ष – प्रत्यक्ष अनुभव से; अवगमम् – समझा गया; धर्म्यम् – धर्म; सु-सुखम् – अत्यन्त सुखी; कर्तुम् – सम्पन्न करने में; अव्ययम् – अविनाशी |

भावार्थ
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यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय है | यह परम शुद्ध है और चूँकि यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है, अतः यह धर्म का सिद्धान्त है | यह अविनाशी है और अत्यन्त सुखपूर्वक सम्पन्न किया जाता है |

तात्पर्य
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भगवद्गीता का यह अध्याय विद्याओं का राजा (राजविद्या) कहलाता है, क्योंकि यह पूर्ववर्ती व्याख्यायित समस्त सिद्धान्तों एवं दर्शनों का सार है | भारत के प्रमुख दार्शनिक गौतम, कणाद, कपिल, याज्ञवल्क्य, शाण्डिल्य तथा वैश्र्वानर हैं | सबसे अन्त में व्यासदेव आते हैं, जो वेदान्तसूत्र के लेखक हैं | अतः दर्शन या दिव्यज्ञान के क्षेत्र में किसी प्रकार का अभाव नहीं है | अब भगवान् कहते हैं कि यह नवम अध्याय ऐसे समस्त ज्ञान का राजा है, यह वेदाध्ययन से प्राप् ज्ञान एवं विभिन्न दर्शनों का सार है | यह गुह्यतम है, क्योंकि गुह्य या दिव्यज्ञान में आत्मा तथा शरीर के अन्तर को जाना जाता है | समस्त गुह्यज्ञान के इस राजा (राजविद्या) की पराकाष्टा है, भक्तियोग |

सामान्यतया लोगों को इस गुह्यज्ञान की शिक्षा नहीं मिलती | उन्हें बाह्य शिक्षा दी जाती है | जहाँ तक सामान्य शिक्षा का सम्बन्ध है उसमें राजनीति, समाजशास्त्र, भौतिकी, रसायनशास्त्र, गणित, ज्योतिर्विज्ञान, इंजीनियरी आदि में मनुष्य व्यस्त रहते हैं | विश्र्वभर में ज्ञान के अनेक विभाग हैं और अनेक बड़े-बड़े विश्र्वविद्यालय हैं, किन्तु दुर्भाग्यवश कोई ऐसा विश्र्वविद्यालय या शैक्षिक संस्थान नहीं है, जहाँ आत्म-विद्या की शिक्षा दी जाती हो | फिर भी आत्मा शरीर का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है, आत्मा के बिना शरीर महत्त्वहीन है | तो भी लोग आत्मा की चिन्ता न करके जीवन की शारीरिक आवश्यकताओं को अधिक महत्त्व प्रदान करते हैं |

भगवद्गीता में द्वितीय अध्याय से ही आत्मा की महत्ता पर बल दिया गया है | प्रारम्भ में ही भगवान् कहते हैं कि यह शरीर नश्र्वर है और आत्मा अविनश्र्वर | (अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः) | यही ज्ञान का गुह्य अंश है-केवल यह जाना लेना कि यह आत्मा शरीर से भिन्न है, यह निर्विकार, अविनाशी और नित्य है | इससे आत्मा के विषय में कोई सकारात्मक सूचना प्राप्त नहीं हो पाती | कभी-कभी लोगों को यह भ्रम रहता है कि आत्मा शरीर से भिन्न है और जब शरीर नहीं रहता या मनुष्य को शरीर से मुक्ति मिल जाती है तो आत्मा शून्य में रहता है और निराकार बन जाता है | किन्तु यह वास्तविकता नहीं है | जो आत्मा शरीर के भीतर इतना सक्रीय रहता है वह शरीर से मुक्त होने के बाद इतना निष्क्रिय कैसे हो सकता है? यह सदैव सक्रीय रहता है | यदि यह शाश्र्वत है, तो यह शाश्र्वत सक्रिय रहता है और वैकुण्ठलोक में इसके कार्यकलाप अध्यात्मज्ञान के गुह्यतम अंश हैं | अतः आत्मा के कार्यों को यहाँ परा समस्त ज्ञान का राजा, समस्त ज्ञान का गुह्यतम अंश कहा गया है |

यह ज्ञान समस्त कार्यों का शुद्धतुम रूप है, जैसा कि वैदिक साहित्य में बताया गया है | पद्मपुराण में मनुष्य के पापकर्मों का विश्लेषण किया गया है और दिखाया गया है कि ये पापों के फल हैं | जो लोग सकामकर्मों में लगे हुए हैं वे पापपूर्ण कर्मों के विभिन्न रूपों एवं अवस्थाओं में फँसे रहते हैं | उदाहरणार्थ, जब बीज बोया जाता है तो तुरन्त वृक्ष नहीं तैयार हो जाता, इसमें कुछ समय लगता है | पहले एक छोटा सा अंकुर रहता है, फिर यह वृक्ष का रूप धारण करता है, तब इसमें फूल आते हैं, फल लगते हैं और तब बीज बोने वाले व्यक्ति फूल तथा फल का उपभोग कर सकते हैं | इसी प्रकार जब कोई मनुष्य पापकर्म करता है, तो बीज की ही भाँति इसके भी फल मिलने में समय लगता है | इसमें भी कई अवस्थाएँ होती हैं | भले ही व्यक्ति में पापकर्मों का उदय होना बन्द हो चुका को, किन्तु किये गये पापकर्म का फल तब भी मिलता रहता है | कुछ पाप तब भी बीज रूप में बचे रहते हैं, कुछ फलीभूत हो चुके होते हैं, जिन्हें हम दुख तथा वेदना के रूप में अनुभव करते हैं |

जैसा की सातवें अध्याय के अट्ठाइसवें श्लोक में बताया गया है जो व्यक्ति समस्त पापकर्मों के फलों (बन्धनों) का अन्त करके भौतिक जगत् के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है, वह भगवान् कृष्ण की भक्ति में लग जाता है | दुसरे शब्दों में, जो लोग भगवद्भक्ति में लगे हुए हैं, वे समस्त कर्मफलों (बन्धनों) से पहले से मुक्त हुए रहते हैं | इस कथन की पुष्टि पद्मपुराण में हुई है –

अप्रारब्धफलं पापं कूटं बीजं फलोन्मुखम् |
क्रमेणैव प्रलियेत विष्णुभक्तिरतात्मनाम् ||

जो लोग भगवद्भक्ति में रत हैं और उनके सारे पापकर्म चाहे फलीभूत हो चुके हो, सामान्य हों या बीज रूप में हों, क्रमशः नष्ट हो जाते हैं | अतः भक्ति की शुद्धिकारिणी शक्ति अत्यन्त प्रबल है और पवित्रम् उत्तमम् अर्थात् विशुद्धतम कहलाती है | उत्तम का तात्पर्य दिव्य है | तमस् का अर्थ यह भौतिक जगत् या अंधकार है और उत्तम का अर्थ भौतिक कार्यों से परे हुआ | भक्तिमय कार्यों को कभी भी भौतिक नहीं मानना चाहिए यद्यपि कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि भक्त भी सामान्य जनों की भाँति रत रहते हैं | जो व्यक्ति भक्ति से अवगत होता है, वही जान सकता है कि भक्तिमय कार्य भौतिक नहीं होते | वे अध्यात्मिक होते हैं और प्रकृति के गुणों से सर्वथा अदूषित रहते हैं |

कहा जाता है कि भक्ति की सम्पन्नता इतनी पूर्ण होती है कि उसके फलों का प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है | हमने अनुभव किया है कि जो व्यक्ति कृष्ण के पवित्र नाम (हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे) का कीर्तन करता है उसे जप करते समय कुछ दिव्य आनन्द का अनुभव होता है और वह तुरन्त ही समस्त भौतिक कल्मष से शुद्ध हो जाता है | ऐसा सचमुच दिखाई पड़ता है | यही नहीं, यदि कोई श्रवण करने में ही नहीं अपितु भक्तिकार्यों के सन्देश को प्रचारित करने में भी लगा रहता है या कृष्णभावनामृत के प्रचार कार्यों में सहायता करता है, तो उसे क्रमशः आध्यात्मिक उन्नति का अनुभव होता रहता है | आध्यात्मिक जीवन की यह प्रगति किसी पूर्व शिक्षा या योग्यता पर निर्भर नहीं करती | यह विधि स्वयं इतनी शुद्ध है कि इसमें लगे रहने से मनुष्य शुद्ध बन जाता है |

वेदान्तसूत्र में (३.३.३६) भी इसका वर्णन प्रकाशश्र्च कर्मण्यभ्यासात् के रूप में हुआ है, जिसका अर्थ है कि भक्ति इतनी समर्थ है कि भक्तिकार्यों में रत होने मात्र से बिना किसी संदेह के प्रकाश प्राप्त हो जाता है | इसका उदाहरण नारद जी के पूर्वजन्म में देखा जा सकता है, जो पहले दासी के पुत्र थे | वे न तो शिक्षित थे, न ही राजकुल में उत्पन्न हुए थे, किन्तु जब उनकी माता भक्तों की सेवा करती रहती थीं, नारद भी सेवा करते थे और कभी-कभी माता की अनुपस्थिति में भक्तों की सेवा करते रहते थे | नारद स्वयं कहते हैं-
उच्छिष्टलेपाननुमोदितो द्विजैः
सकृत्स्म भुञ्जे तदपास्तकिल्बिषः |
एवं प्रवृत्तस्य विशुद्धचेतस-
स्तद्धर्म एवात्मरुचिः प्रजायते ||

श्रीमद्भागवत के इस श्लोक में (१.५.२५) नारद जी अपने शिष्य व्यासदेव से अपने पूर्वजन्म का वर्णन करते हैं | वे कहते हैं कि पूर्णजन्म में बाल्यकाल में वे चातुर्मास में शुद्धभक्तों (भागवतों) की सेवा किया करते थे जिससे उन्हें संगति प्राप्त हुई | कभी-कभी वे ऋषि अपनी थालियों में उच्छिष्ट भोजन छोड़ देते और यह बालक थालियाँ धोते समय उच्छिष्ट भोजन को चखना चाहता था | अतः उसने उन ऋषियों से अनुमति माँगी और जब उन्होंने अनुमति दे दी तो बालक नारद उच्छिष्ट भोजन को खाता था | फलस्वरूप वह अपने समस्त पापकर्मों से मुक्त हो गया | ज्यों-ज्यों वह उच्छिष्ट खाता रहा त्यों-त्यों वह ऋषियों के समान शुद्ध-हृदय बनता गया | चूँकि वे महाभागवत भगवान् की भक्ति का आस्वाद श्रवण तथा कीर्तन द्वारा करते थे अतः नारद ने भी क्रमशः वैसी रूचि विकसित कर ली | नारद आगे कहते हैं –

तत्रान्वहं कृष्णकथाः प्रगायताम्
अनुग्रहेणाशृणवं मनोहराः |
ताः श्रद्धया मेSनुपदं विशृण्वतः
प्रियश्रवस्यंग ममाभवद् रूचि: ||

ऋषियों की संगति करने से नारद में भी भगवान् की महिमा के श्रवण तथा कीर्तन की रूचि उत्पन्न हुई और उन्होंने भक्ति की तीव्र इच्छा विकसित की | अतः जैसा कि वेदान्तसूत्र में कहा गया है – प्रकाशश्र्च कर्मण्यभ्यासात् – जो भगवद्भक्ति के कार्यों में केवल लगा रहता है उसे स्वतः सारी अनुभूति हो जाती है और वह सब समझने लगता है | इसी का नाम प्रत्यक्ष अनुभूति है |

धर्म्यम् शब्द का अर्थ है “धर्म का पथ” | नारद वास्तव में दासी के पुत्र थे | उन्हें किसी पाठशाला में जाने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ था | वे केवल माता के कार्यों में सहायता करते थे और सौभाग्यवश उनकी माता को भक्तों की सेवा का सुयोग प्राप्त हुआ था | बालक नारद को भी यह सुअवसर उपलब्ध हो सका कि वे भक्तों की संगति करने से ही समस्त धर्म के परमलक्ष्य को प्राप्त हो सके | यह लक्ष्य है – भक्ति, जैसा कि श्रीमद्भागवत में कहा गया है (स वै पुंसां परो धमों यतो भक्तिरधोक्षजे) | सामान्यतः धार्मिक व्यक्ति यह नहीं जानते कि धर्म का परमलक्ष्य भक्ति की प्राप्ति है जैसा कि हम पहले ही आठवें अध्याय के अन्तिम श्लोक की व्याख्या करते हुए कः चुके हैं (वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव) सामान्यतया आत्म-साक्षात्कार के लिए वैदिक ज्ञान आवश्यक है | किन्तु यहाँ पर नारद न तो किसी गुरु के पास पाठशाला में गये थे, न ही उन्हें वैदिक नियमों की शिक्षा मिली थी, तो भी उन्हें वैदिक अध्ययन के सर्वोच्च फल प्राप्त हो सके | यह विधि इतनी सशक्त है कि धार्मिक कृत्य किये बिना भी मनुष्य सिद्धि-पद को प्राप्त होता है | यह कैसे सम्भव होता है? इसकी भी पुष्टि वैदिक साहित्य में मिलती है- आचार्यवान् पुरुषो वेद | महान आचार्यों के संसर्ग में रहकर मनुष्य आत्म-साक्षात्कार के लिए आवश्यक समस्त ज्ञान से अवगत हो जाता है, भले ही वह अशिक्षित हो या उसने वेदों का अध्ययन न किया हो |
भक्तियोग अत्यन्त सुखकर (सुसुखम्) होता है | ऐसा क्यों? क्योंकि भक्ति में श्रवणं कीर्तनं विष्णोः रहता है, जिससे मनुष्य भगवान् की महिमा के कीर्तन को सुन सकता है, या प्रामाणिक आचार्यों द्वारा दिये गये दिव्यज्ञान के दार्शनिक भाषण सुन सकता है | मनुष्य केवल बैठे रहकर सीख सकता है, ईश्र्वर को अर्पित अच्छे स्वादिष्ट भोजन का उच्छिष्ट खा सकता है | प्रत्येक दशा में भक्ति सुखमय है | मनुष्य गरीबी की हालत में भी भक्ति कर सकता है | भगवान् कहते हैं – पत्रं पुष्पं फलं तोयं – वे भक्त से हर प्रकार की भेंट लेने को तैयार रहते हैं | चाहे पात्र हो, पुष्प हो, फल हो या थोडा सा जल, जो कुछ भी संसार के किसी भी कोने में उपलब्ध हो, या किसी व्यक्ति द्वारा, उसकी सामाजिक स्थिति पर विचार किये बिना, अर्पित किये जाने पर भगवान् को वह स्वीकार है, यदि उसे प्रेमपूर्वक चढ़ाया जाय | इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण प्राप्त हैं | भगवान् के चरणकमलों पर चढ़े तुलसीदल का आस्वादन करके सनत्कुमार जैसे मुनि महान भक्त बन गये | अतः भक्तियोग अति उत्तम है और इसे प्रसन्न मुद्रा में सम्पन्न किया जा सकता है | भगवान् को तो वह प्रेम प्रिय है, जिससे उन्हें वस्तुएँ अर्पित की जाती हैं |

यहाँ कहा गया है कि भक्ति शाश्र्वत है | यह वैसी नहीं है, जैसा कि मायावादी चिन्तक साधिकार कहते हैं | यद्यपि वे कभी-कभी भक्ति करते हैं, किन्तु उनकी यह भावना रहती है कि जब तक मुक्ति न मिल जाये, तब तक उन्हें भक्ति करते रहना चाहिए, किन्तु अन्त में जब वे मुक्त हो जाएँगे तो ईश्र्वर से उनका तादात्म्य हो जाएगा | इस प्रकार की अस्थायी सीमित स्वार्थमय भक्ति शुद्ध भक्ति नहीं मानी जा सकती | वास्तविक भक्ति तो मुक्ति के बाद भी बनी रहती है | जब भक्त भगवद्धाम को जाता है तो वहाँ भी वह भगवान् की सेवा में रत हो जाता है | वह भगवान् से तदाकार नहीं होना चाहता |

जैसा कि भगवद्गीता में देखा जाएगा, वास्तविक भक्ति मुक्ति के बाद प्रारम्भ होती है | मुक्त होने पर जब मनुष्य ब्रह्मपद पर स्थिर होता है (ब्रह्मभूत) तो उसकी भक्ति प्रारम्भ होती है (समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्) | कोई भी मनुष्य कर्मयोग, ज्ञानयोग, अष्टांगयोग या अन्य योग करके भगवान् को नहीं समझ सकता | इन योग-विधियों से भक्तियोग की दिशा किंचित प्रगति हो सकती है, किन्तु भक्ति अवस्था को प्राप्त हुए बिना कोई भगवान् को समझ नहीं पाता | श्रीमद्भागवत में इसकी भी पुष्टि हुई है कि जब मनुष्य भक्तियोग सम्पन्न करके विशेष रूप से किसी महात्मा से श्रीमद्भागवत या भगवद्गीता सुनकर शुद्ध हो जाता है, तो वह समझ सकता है कि ईश्र्वर क्या है | इस प्रकार भक्तियोग या कृष्णभावनामृत समस्त विद्याओं का राजा और समस्त गुह्यज्ञान का राजा है | यह धर्म का शुद्धतम रूप है और इसे बिना कठिनाई के सुखपूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है | अतः मनुष्य को चाहिए कि इसे ग्रहण करे |
[ Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (02)


🕉🙇⛳संत हृदय नवनीत समाना कहा कबिन्ह परि कहै न जाना निज परिताप द्रवइ नवनीता पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता⛳🙇🕉

महात्मा जी की कृपा🙏🏵
(गूँगे नरसीभक्त के मुख से पहला शब्द उच्चारण “राधेकृष्णा” )

गोस्वामी तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा है कि–
संत हृदय नवनीत समाना
कहा कबिन्ह परि कहै न जाना ।।*
निज परिताप द्रवइ नवनीता ।
पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता ।।

महात्माओं का हृदय मक्खन के समान होता है । इतना ही नहीं, माखन तो केवल अपने ही ताप से द्रवित होता है और सत्पुरूष दूसरों के ताप से द्रवीभूत हो जाते है । फिर ये महात्मा तो देवी शक्ति से सम्पन्न थे और मानो उस वृद्धा की मनःकामना पूरी करने के लिए ईशवर द्वारा प्रेरित होकर वहाँ आये थे । उनहोने बालक को अपने पास बिठाया और उसे एक बार ध्यान पूर्वक देखकर कहा -‘यह बालक तो भगवान का बड़ा भारी भक्त होगा ।’ इतना कहकर उनहोने अपने कमण्डल से जल लेकर मार्जन किया और बालक के कान में फूँक देकर कहा -‘बच्चा ! कहो –
राधे कृष्ण, राधे कृष्ण !

बस, महात्मा की कृपा से जन्म का गूँगा बालक ‘राधे कृष्ण, राधे कृष्ण ‘कहने लगा । उपस्थित सभी मनुष्य आश्चर्य चकित हो गये और महात्माजी की जय-जयकार पुकारने लगे ।

वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।
लोकोत्तराणां चेतांसि को हि विज्ञातुमीश्वर:।।

इन महात्माओं के हृदय वज्र से भी अधिक कठोर और पुष्पों से भी अधिक कोमल होते हैं, ऐसे इन असाधारण लोकोत्तर महापुरुषों के चरितों को जानने में कौन पुरुष समर्थ हो सकता है। उत्तररामच. तृतीयांक 2/7/23

गूँगें पौत्र के मुख भगवान नामोच्चार सुनकर वृद्धा जयकुँवरी को कितनी प्रसन्नता हुई होगी , इसे कौन बता सकता है ? उसने महात्मा जी को बार-बार प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बड़ी दीनता के साथ प्रार्थना की-” महाराज ! आपकी ही कृपा से मेरा पौत्र अब बोलने लगा । मेरा बड़ा पौत्र राज्य में थानेदार के पद पर है । आप मेरे घर पर पधारने की कृपा करें और मुझे भी यथा शक्ति सेवा करने का सुअवसर प्रदान करे । आपकी चरण रज से मेरा घर पवित्र हो जायेगा।

परंतु सच्चे महात्मा सेवा या पुरस्कार के भूखे नहीं होते । वे तो सदा स्वभाव से लोक- कल्याण चेष्टा करते रहते हैं । महात्मा जी ने प्रसन्नता पूर्वक उतर दिया -” माता ! मुझे कोई योगबल या तपोबल नहीं प्राप्त है । इस संसार में जो कुछ होता है , सब केवल प्रभु की कृपा से होता है । उन महामहिम परमात्मा की माया ‘अघटन-घटना पटीयसी ‘कहलाती है । अतः मेरा उपकार भूलकर उन परमात्मा के प्रति कृतज्ञता प्रकट करो और उनका नाम स्मरण ,भजन -पूजन करो । मैं इस तरह अकारण अथवा प्रतिष्ठा के लिए किसी गृहस्थ के घर पर नही जाता । तुम घर पर जाकर प्रभु का भजन करों, तुम्हारा कल्याण होगा । मैं तो अब गिरनार पर जाता हूँ और तुम्हारे इच्छानुसार यह कह जाता हूँ कि थोड़े ही दिनों में एक कुलवती सुरूपा कन्या से इसका विवाह भी हो जायेगा ।”

जयकुँवरी को महात्मा जी के सामने विशेष आग्रह करने का साहस न हुआ । पौत्र के साथ प्रसन्न वंदन अपने घर चली आयी और उसने बड़े पौत्र वंशीधर से महात्मा जी का चमत्कार कह सुनाया । वंशीधर ने महात्मा जी के दर्शन करने की लालसा से सिपाहियों द्वारा बड़ी खोज करायी ; परंतु कहीं उनका पता न लगा । लोगों का विश्वास है कि अपने भावी भक्त नरसिंह मेहता को इष्ट मंत्र तथा वाचा देने वाला सिद्ध पुरूष स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही थे ।

कालान्नष्टं भक्तियोगं निजं यः
प्रादुष्कर्तुं कृष्णचैतन्यनामा।
आविर्भूतस्तस्य पादारविन्दे
गाढं गाढं लीयतां चित्तभृंगः।।

श्रीमद्भागवत तथा गीता में भगवान ने बार-बार श्रीमुख से जोर देकर कहा है कि मेरे पाने का एकमात्र उपाय भक्ति ही है। मैं योग से, ज्ञान से, जप से, तप से, समाधि से तथा यज्ञ-यागादि अन्य वैदिक कर्मों से इतना तुष्ट नहीं होता जितना कि भक्ति से प्रसन्न होता हूँ, केवल अनन्य भक्ति के ही द्वारा मेरा यथार्थ ज्ञान होता है कि मैं कैसा हूँ और मेरा प्रभाव कितना है। जिस भक्ति की इतनी महिमा है, वह भक्ति जिसके हृदय में हो उस भाग्यवान भक्त के महत्त्व का वर्णन भला कौन कर सकता है। वास्तव में भगवान और भक्त नाममात्र के ही लिये दो हैं, भक्त भगवान के साकार विग्रह का ही नाम है। भगवान स्वयं ही कहते हैं- ‘मैं तो भक्तों के अधीन हूँ, कोई मेरा अपराध कर दे तो उसे तो मैं क्षमा कर भी सकता हूँ, किन्तु भक्तद्रोही के अपराध को मैं क्षमा करने में असमर्थ हूँ।’ भगवान भक्तों की महिमा को बतलाते हैं कि मैं भक्तों के पीछे-पीछे सदा इसलिये घूमा करता हूँ कि उनके चरणों की धूलि उड़कर मेरे ऊपर पड़ जाय तो मैं पावन हो जाऊँ। यहीं तक नहीं, भगवान स्वयं भक्तों का भजन करते हैं।

क्रमशः ………………!

--प्रस्तुति      

🌼🌻मीरा माधव 🌻🌼


[ Niru Ashra: प्रेम का चमत्कार


प्रेम का चमत्कार देखना है ! देखा होगा …जिसने जीवन में प्रेम किया है , प्रेम को जीया है उन्हें ये चमत्कार पता होगा …उनको अनुभव होगा । प्रेम जब होता है तब कुछ भी अच्छा नही लगता ….बस प्रीतम के सिवाय । उस समय कोई तुम्हारी बातें करे …तुम्हारी प्रशंसा करें ….तुम्हें बिल्कुल अच्छा नही लगेगा ….हाँ , तुम्हारे प्रीतम के विषय में वो कुछ भी बोले ..तुम्हारे कान दो नही उस समय सहस्त्र हो जाएँगे । कोई तुम्हारे प्रीतम का नाम ले …वो व्यक्ति तुम्हें बहुत अच्छा लगेगा । लगेगा कि इसे अपना सर्वस्व दे दें ।

अजी ! तुम्हारा स्वभाव बदल देगा प्रेम । किसी में ताकत है जो स्वभाव बदल दे ….स्वभाव संस्कारों से बनते हैं …संस्कार, कर्म से बनते हैं ….इस जन्म के कर्म संस्कार के साथ साथ पूर्व जन्म के संस्कार भी मिले होते हैं …..उन्हीं से स्वभाव बनता है ….मैं कई बार कह चुका हूँ ….न ज्ञान में ताकत है …स्वभाव को एक झटके में बदल देने का …न योग में ….बस ये ताकत प्रेम में ही है ….ये चमत्कार प्रेम में ही आप देख पाओगे । हमारे यहाँ अनेक उदाहरण हैं कि अपने प्रेम को दिशा देकर साधक सिद्ध बन गये ….किसी का प्रेम था पत्नी में …किसी का प्रेम था गणिका में ….बस उसे दिशा दे दी ….वो तड़फ जो प्रेयसी के लिए थी वो श्रीकृष्ण में लग गयी….जो तड़फ प्रेयसी के प्रति था वो झटके में ही घूम गया । देखो ! एक बात समझो ….प्रेम बहुत ऊँची वस्तु है …वो चाहे किसी के प्रति हो …प्रेम सदैव उच्च स्थिति में ही रहा है ….अब वो प्रेम दिखाई नही देता ….देता भी है तो उसकी संख्या नगण्य रह गयी है । प्रेम का वो पागलपन …प्रेम का वो दीवानापन ….जहाँ प्रेमी न धूप की परवाह करे …न वर्षा की ….बस पागल बने चले जा रहे हैं ….आपको बदल दिया है प्रेम ने …आप बदल गये हो प्रेम के छूने से ।

प्रेम में अनेक विघ्न आते हैं ….विघ्न ही विघ्न हैं …अपने लोग ही नाक भौं सिकोड़ने लगते हैं हमें देखकर …और की कौन कहे ….अपने माता पिता ही दूर हो जाते हैं ….किन्तु सच कहना …परवाह होती है ? ना , कोई परवाह नही । चाहे कोई कुछ भी कहे …न कहे …छोड़ दे ….घर से निकाल दे …..कोई बात नही …..प्रेमी का मन इन सबसे व्यथित नही होता …व्यथित कह रहे हो …इस तरफ उसका ध्यान ही नही होता ….उसका ध्यान, मन ,बुद्धि , सब कुछ प्रीतम में लगा है …उसे ही पाने के लिए वो चल पड़ा है …कुल , ख़ानदान , वंश , गोत्र ….इन सबकी तिलांजलि देकर वो चल देता है ….अपने देह तक की उसे सुध नही और तुम चले हो उसे नैतिकता की शिक्षा देने ….नैतिकता तो बहुत पीछे छोड़ चुका है ये पागल । तुम कुछ भी करो …इसे दुःख नही दे सकते …न सुख दे सकते हो …..ये तुम्हारे हाथों से बहुत दूर जा चुका है …अब इसकी बाग डोर इसके प्रीतम के हाथों में है ….वही दुःख देगा वही सुख देगा …..प्रेम ने कैसा बदल दिया इस जीव को ….सारे संस्कारों को एक ही झटके में जला का ख़ाक कर दिया …ये चमत्कार कितना बड़ा है …है ना ?


मेरे पागलबाबा ने प्रेम को एक नाम दिया है …”कृष्णाकर्षिणी”….वो कहते हैं …ज्ञान श्रीकृष्ण को अपनी ओर आकर्षित नही कर सकती …न योग में ये ताकत है ….ये शक्ति केवल प्रेम में है …ये परब्रह्म श्रीकृष्ण को अपनी खींच सकती है । जैसे एक सुन्दर जवाँ युवती में शक्ति होती है ना कि वो बड़े से बड़े आदमियों को भी अपनी ओर खींच लेती है …ऐसे ही ये प्रेम है ..ये सुन्दर युवती है ….भगवान कहीं भी हों या सर्वत्र हों …प्रेम जो चाहेगा वही होगा ….प्रेम कहे…आकार लो …तो वो ब्रह्म आकार ले लेगा ….प्रेम कहे ….ये ड्रेस पहनों …मोर मुकुट बाँसुरी लो …तो वो ले लेगा …प्रेम कहे …आज धनुष बाण लो ….सिर में छत्र धारण करके चलो …आज राजसी बनो …ये बनेगा …भले ही ब्रह्म हो …उससे क्या है …प्रेम तो सबको रिझाना जानता ही है …स्वयं पहले गुलाम बनता है फिर अपने प्रीतम को गुलाम बना लेता है …ये चमत्कार केवल प्रेम में ही है ।

प्रेम यही तो चाहता है …मैं भी नाचूँ और तू भी नाचे ….मैं ही नाचूँ …अकेले नाचे तो रास नही हुआ ना ! रास तो तब है जब प्रेमी भी नाचे प्रीतम भी नाचे …ये भी चाकरी करे और वो भी …ये भी पाँव दबाये और वो भी ….कोई भेद रह ही न जाए …भेद रहा तो प्रेम पूर्ण नही हुआ । अब देखो …प्रेम कैसे अपने प्रीतम को वश में करता है …..ये प्रेम में पड़ गया है …ये नाम लेता है …और रोता है ….किन्तु प्रीतम की झलक नही मिली ….अब इसकी बेचैनी बढ़ी ….इसे कुछ अच्छा नही लगता …इसे तथाकथित अपने कहे जाने वाले लोग तो बिल्कुल नही रुचते । घर अन्ध कूप सा लगता है …किसी की सीख बहुत बुरी लगती है ….हाँ कोई यार के विषय में बोले …कोई यार के बारे में बताये ….कुछ नही तो यार का नाम ही सुना दे …बस वही अपना लगता है ।

तड़फ शुरू होगी ….रोना आएगा ..अकारण रोना आयेगा …लोग समझेंगे नही ….सब कुछ अन्धकार लगेगा …..नींद ख़त्म हो जाएगी ….करवट बदल कर रात बीतेगी ….तुम्हारे नित्य कर्म भी अपने आप छूट जायेंगे …..अब तो प्राण भी पुकार उठेंगे …..आह भरोगे ! कोई क्या कह रहा है उसकी बातें सुनाई नहीं देंगी …..बस बस …यही प्रेम की तड़फ चुम्बक बनकर श्रीकृष्ण को खींचना आरम्भ कर देगा …….श्रीकृष्ण खिंचने लगेंगे तुम्हारी ओर , इधर प्रेम की चुम्बकीय शक्ति बढ़ती जाएगी और उधर लौह की तरह श्रीकृष्ण आयेंगे ….और आकर वो देखेंगे कि ये क्या चाहता है ….हृदय में बैठ जाएँगे …..फिर उस पागल प्रेमी के नयनों में समा जाएँगे ….फिर वो देखेगा …कि अरे ! ये तो मेरे प्रेमी हैं….वो त्रिभंगी बन गया है …वो मोर मुकुट धारण करके मंद मंद मुस्कुरा रहा है ….अब ये प्रेमी अपने प्रीतम की ओर दौड़ पड़ता है ….फिर गिर जाता है ….किन्तु वो जहाँ गिरता है वो श्याम सुन्दर के चरण ही होते हैं …..उसे उन्माद हो जाता है ….तब श्रीकृष्ण उसे उठाकर अपने बाहों के प्रगाढ़ आलिंगन में भर लेते हैं …..ये है प्रेम का चमत्कार ……जी , ये है अद्भुत चमत्कार ।

तो चलिए इस अद्भुत प्रेम मार्ग में ….चलेंगे ना ? अच्छा , बताइये …कब चल रहे हैं ?
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 3
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अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप |
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि || ३ ||

अश्रद्यधानाः – श्रद्धाविहीन; पुरुषाः – पुरुष; धर्मस्य – धर्म के प्रति; अस्य – इस; परन्तप – हे शत्रुहन्ता; अप्राप्य – बिना प्राप्त किये; माम् – मुझको; निवर्तन्ते – लौटते हैं; मृत्युः – मृत्यु के; संसार – संसार में; वर्त्मनि – पथ में |

भावार्थ
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हे परन्तप! जो लोग भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते | अतः वे इस भौतिक जगत् में जन्म-मृत्यु के मार्ग पर वापस आते रहते हैं |

तात्पर्य
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श्रद्धाविहीन के लिए भक्तियोग पाना कठिन है, यही इस श्लोक का तातपर्य है | श्रद्धा तो भक्तों की संगति से उत्पन्न की जाती है | महापुरुषों से वैदिक प्रमाणों को सुनकर भी अभागे लोग ईश्र्वर में श्रद्धा नहीं रखते | वे झिझकते रहते हैं और भगवद्भक्ति में दृढ़ नहीं रहते | इस प्रकार कृष्णभावनामृत की प्रगति में श्रद्धा मुख्य है | चैतन्यचरितामृत में कहा गया है कि श्रद्धा तो वह पूर्ण विश्र्वास है कि परमेश्र्वर श्रीकृष्ण की ही सेवा द्वारा आरी सिद्धि प्राप्त की जा सकती है | यही वास्तविक श्रद्धा है | श्रीमद्भागवत में (४.३१.१४) कहा गया है:-

यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कंधभुजोपशाखाः |
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथेव सर्वार्हणमच्युतेज्या ||

“वृक्ष की जड़ को सींचने से उसकी डालें, टहनियाँ तथा पत्तियाँ तुष्ट होती हैं और आमाशय को भोजन प्रदान करने से शरीर की सारी इन्द्रियाँ तृप्त होती हैं | इसी तरह भगवान् की दिव्यसेवा करने से सारे देवता तथा अन्य समस्त जीव स्वतः प्रसन्न होते हैं |” अतः गीता पढ़ने के बाद मनुष्य को चाहिए कि वह गीता के इस निष्कर्ष को प्राप्त हो-मनुष्य को अन्य सारे कार्य छोड़कर भगवान् कृष्ण की सेवा करनी चाहिए | यदि वह इस जीवन-दर्शन से विश्र्वस्त हो जाता है, तो यही श्रद्धा हैं |

इस श्रद्धा का विकास कृष्णभावनामृत की विधि है | कृष्णभावनाभावित व्यक्तियों की तीन कोटियाँ हैं | तीसरी कोटि में वे लोग आते हैं जो श्रद्धाविहीन हैं | यदि ऐसे लोग ऊपर-ऊपर भक्ति में लगे रहें तो भी उन्हें सिद्द अवस्था प्राप्त नहीं हो पाती | सम्भावना यही है कि वे लोग कुछ काल के बाद नीचे गिर जाएँ | वे भले ही भक्ति में लगे रहें, किन्तु पूर्ण विश्र्वास तथा श्रद्धा के अभाव में कृष्णभावनामृत में उनका लगा रह पाना कठिन है | अपने प्रचार कार्यों के दौरान हमें इसका प्रत्यक्ष अनुभव है कि कुछ लोग आते हैं और किन्हीं गुप्त उद्देश्यों से कृष्णभावनामृत को ग्रहण करते हैं | किन्तु जैसे ही उनकी आर्थिक दशा कुछ सुधर जाती है कि वे इस विधि को त्यागकर पुनः पुराने ढरें पर लग जाते हैं | कृष्णभावनामृत में केवल श्रद्धा के द्वारा ही प्रगति की जा सकती है | जहाँ तक श्रद्धा की बात है, जो व्यक्ति भक्ति-साहित्य में निपुण है और जिसने दृढ़ श्रद्धा की अवस्था प्राप्त कर ली है, वह कृष्णभावनामृत का प्रथम कोटि का व्यक्ति कहलाता है | दूसरी कोटि में वे व्यक्ति आते हैं जिन्हें भक्ति-शास्त्रों का ज्ञान नहीं है, किन्तु स्वतः ही उनकीदृढ़ श्रद्धा है कि कृष्णभक्ति सर्वश्रेष्ठ मार्ग है, अतः वे इसे ग्रहण करते हैं | तृतीय कोटि के व्यक्ति को यह श्रद्धा तो रहती है कि कृष्ण की भक्ति उत्तम होती है, किन्तु भागवत तथा गीता जैसे शास्त्रों से उसे कृष्ण का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त नहीं हो पता | कभी-कभी तृतीय कोटि के व्यक्तियों की प्रवृत्ति कर्मयोग तथा ज्ञानयोग की ओर रहती है और कभी-कभी वे विचलित होते रहते हैं, किन्तु ज्योंही उनसे ज्ञान तथा कर्मयोग का संदूषण निकल जाता है, वे कृष्णभावनामिट की द्वितीय कोटि या प्रथम कोटि में प्रविष्ट होते हैं | कृष्ण के प्रति श्रद्धा भी तीन अवस्थाओं में विभाजित है और श्रीमद्भागवत में इनका वर्णन है | भागवत के ग्यारहवें स्वंध में प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय कोटि की आस्तिकता का भी वर्णन हुआ है | जो लोग कृष्ण के विषय में तथा भक्ति की श्रेष्ठता को सुनकर भी श्रद्धा नहीं रखते और यह सोचते हैं कि यह मात्र प्रशंसा है, उन्हें यह मार्ग अत्यधिक कठिन जान पड़ता है, भले ही वे ऊपर से भक्ति में रत क्यों न हों | उन्हें सिद्धि प्राप्त होने की बहुत कम आशा है | इस प्रकार भक्ति करने के लिए श्रद्धा परमावश्यक है |

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