“श्रीहंस भगवान”
भागवत की कहानी – 4
सनक ,सनन्दन, सनातन और सनतकुमार – ये चार कुमार हैं और विधाता ब्रह्मा के प्रथम पुत्र हैं ।
एक दिन ये कुछ चिन्तित से ब्रह्मलोक में गये …इनके पिता ब्रह्मा सृष्टिकार्य में व्यस्त थे किन्तु अपने इन श्रेष्ठ और ज्येष्ठ पुत्रों को देखकर ये इनसे बातें करने लगे ….सर्व प्रथम तो इन चार कुमारों ने अपने पिता को प्रणाम किया । फिर हाथ जोड़कर बोले ….पिता जी ! एक जिज्ञासा थी …आप कहें तो आपके सामने हम रखें । ब्रह्मा जी व्यस्त थे किन्तु पुत्रों की जिज्ञासा तो शान्त करनी ही चाहिए….फिर पिता नही तो और कौन करेगा !
वत्स ! पूछो …क्या जिज्ञासा है ? ब्रह्मा जी ने कहा ।
पिता जी ! तीन गुणों से ही सब कुछ चल रहा है ….सत्वगुण , रजोगुण और तमोगुण ….सत्व, शान्त है , रज , क्रोध , प्रतिस्पर्धा आदि है …और तम , घोर आलस्य है । इन चारों कुमारों ने कहना जारी रखा ….पिता जी ! यही तीन गुण कर्म संस्कार को बनाते रहते हैं और बढ़ाते रहते हैं …ये गुण अच्छे बुरे जो हैं , वही चित्त में जाकर बस गए हैं …..चित्त में बसने के कारण चित्त में कर्म संस्कार और दृढ़ होते जा रहे हैं …..और स्थिति ये है पिता जी ! कि चित्त में गुण हैं और गुण में चित्त है ….अब मुक्ति-मोक्ष पाने की कामना वाला जीव करे तो क्या करे ? चित्त को गुणातीत कैसे किया जाए और गुणातीत हुए बिना मुक्ति मिले कैसे ?
मुक्त होने के लिए इन तीनों गुणों के पार जाना होगा ….सत्वगुण रजोगुण , और तमोगुण, यही हमारे कर्म संस्कार बनाते हैं और चित्त में अंकित होते रहते हैं उसी के आधार पर हमारा जन्म होता है हम सुख दुःख भोगते रहते हैं । पर दिक्कत ये है कि चित्त इन सबको लेकर चल रहा है ….कर्म किया और छोड़ दिया इतना ही होता तो दिक्कत नही होती …दिक्कत है संस्कार से …जो हम कर्म करते हैं उसका संस्कार बनता जाता है …वो चित्त में छप जाता है ..रह जाता है ….बड़ी दिक्कत है….ऐसे में मुक्ति कैसे मिले ? जन्म मरण से कैसे छूटें । इन कुमारों ने ये प्रश्न किया ।
किन्तु विधाता ब्रह्मा तो बगलें झाँकने लगे …..उन्हें ये प्रश्न समझ में ही नही आया । अब आप कहोगे ऐसा क्यों ? ये प्रश्न हम समझ गये किन्तु ब्रह्मा जी नही समझे । ये क्या बात हुई ।
अरे भैया ! हम कई कामों में उलझें हुए हों तो उस समय साधारण बात भी हमारी समझ में नही आती । ऐसे ही ब्रह्मा जी स्वयं सृष्टि के विविध कामों में उलझे हुए थे इसलिए उनके ये प्रश्न समझ में नही आया …और इधर उधर देखने लगे । तभी …..अन्तरिक्ष से एक हंस उतरा ….ये हंस बड़ा ही सुन्दर था ….धवल इसका रंग …ये उड़ता हुआ आया और ब्रह्मा और इन कुमारों के सामने आकर खड़ा हो गया ।
सनकादि कुमारों ने अपने पिता ब्रह्मा को आगे करके प्रणाम किया फिर पूछा ….
आप कौन हैं ?
हंस ने उत्तर दिया …..ये प्रश्न किसके लिए है ? मेरे शरीर के लिए या आत्मा के लिए ।
कुमार कुछ बोल न सके ….तो हंस ने स्वयं उत्तर दिया ….शरीर के लिए पूछ रहे हो तो जो शरीर तुम्हारा है वही मेरा है , और बात आत्मा की हो रही है तो आत्मा तो सबकी एक ही है । ये कहकर वो हंस मुस्कुराया था ।
जन्म मरण का हेतु तो गुणों में आसक्त ये चित्त ही है …राग द्वेष चित्त में ही रहते हैं ।
अब मनुष्य सोचता है ये अच्छा व्यक्ति है इससे जुड़ें ….ये हुआ राग , ये मेरा बेटा है …प्यारा है ….इसका कुछ बुरा होना नही चाहिए …ये मेरी बेटी है ये अच्छी रहे ….इसको दुःख न मिले ….ये है राग ….और ये मेरा दुश्मन , इसका भला नही होना चाहिए ….इसने मेरा बहुत बुरा किया है इसका नाश ही होना आवश्यक है ….ये आपके चित्त में बस गया है द्वेष बनकर । यही आपके कर्म संस्कारों को बढ़ाते रहते हैं । आप अच्छा सोच रहे हैं किसी के लिए , उसके लिए अच्छा कर दे रहे हैं …चित्त में राग के संस्कार बन गये ….दुश्मन के लिए बुरा सोच रहे हैं उसके बुरे के लिए बुरा कर्म कर दे रहे हैं …चित्त में द्वेष के संस्कार बन गये । यही हमारे जन्म बन्धन के हेतु हैं …जब तक चित्त से ये सब खतम नही होंगे तब तक आपको जन्म मरण के चक्र में पिसना ही पड़ेगा । इसलिए मुक्ति के लिए चित्त से राग द्वेष को मिटाना आवश्यक है …….सब कुछ चित्त से ही होता है ….ये बात आप समझ रहे हैं ? चित्त त्रिगुणात्मक है …सत्व, रज तम ये चित्त में हैं ….चित्त में ही ये गुण , कभी कोई बढ़ते हैं कभी कोई…….किन्तु कभी चित्त खाली नही होता …खाली हो जाए तो चित्त ही खतम है …और चित्त के खतम होते ही …मुक्ति मिल ही गयी । किन्तु ये इतना सरल नही है ।
अब ध्यान दीजिए …..चित्त कभी शान्त होता है …मन्दिर गए , सत्संग में गये …साधु सन्तों की कुटिया में गये …धाम में गये …चित्त सत्वगुण से भर गया यानि शान्त हो गया , प्रसन्न हो गया । अब इसके बाद आप गये होटेल , सिनेमा , बड़े बड़े विशाल मॉल ….वहाँ सुन्दर स्त्रियाँ देखीं , या सुन्दर पुरुष देखे …चित्त रजोगुण से भर गया ….फिर आपने मदिरा आदि का सेवन किया ….प्याज़ लहसुन माँस आदि का भक्षण किया …आलस्य से आप भर गये ….जागृत नही हैं , आप नशे में हैं तो आपका चित्त तमोगुणी हो गया है । इस तरह आप तीनों गुणों में ही भटकते रहते हैं …कभी अच्छा , कभी बुरा …कभी दोनों ही एक साथ । मुक्ति के लिए इन तीनों गुणों को छोड़ना आवश्यक है ।
एकाएक दिव्य प्रकाश छा गया …….हंस के रूप में अब भगवान प्रकट हो गये थे …..सुन्दर साँवला रूप , चार भुजा , शंख , चक्र , गदा और पद्म लिए मुस्कुराते हुए श्रीहंस भगवान प्रकट हो गये । सनकादि कुमारों ने पूजन किया ब्रह्मा जी ने अपने चारों मुख से दिव्य स्तुति की ………
हे ब्रह्मा के मानस पुत्रों !
तुमने जो प्रश्न किया है उसका उत्तर सुनो ….हंस भगवान की मधुर वाणी उस ब्रह्म लोक में गूँजने लगी थी । “चित्त जीव नही है , न गुण जीव है …जीव तो मेरा स्वरूप है ….बुरा और अच्छा ये जीव नही है …जीव तो चैतन्य है , अमल है , और आनन्द सुख की राशि है ……फिर ये प्रश्न क्यों ? हंस भगवान ने स्पष्ट कह दिया था । देह के विषय में प्रश्न क्यों ? देह मात्र ये नही है जो हमें दिखाई दे रहा है …भीतर जो है जिसे “चित्त” कहते हैं यही सूक्ष्म देह है ….जब ये बाहरी देह मिथ्या है तो ये सूक्ष्म देह को सत्य मानकर क्यों इतने परेशान हो रहे हो …इस चित्त रूपी सूक्ष्म देह का अस्तित्व है ही नही ….मात्र तुम्हारे मानने से सब हो रहा है …..एक काम करो …हंस भगवान ने मुस्कुराते हुए कहा ……”मद्रूपं उभयं त्यजेत्” । मेरे रूप का चिन्तन करते हुए दोनों को …चित्त को भी और गुण को भी – त्याग दो ।
हम आप अच्छे बुरे के रूप में संसार को ही बसाते हैं अपने चित्त में …संसार को बसाना छोड़िये ….आप चिन्तन कीजिए …भगवान के रूप का….बसाइये चित्त में भगवान का रूप, बसाइये चित्त में भगवान का नाम , बसाइये चित्त में भगवान की लीला …इससे क्या होगा ? भगवान के रूप , नाम , लीला ये चैतन्य हैं …स्वयं भगवान हैं ….भगवान के चित्त में बैठते ही चित्त समाप्त हो जाएगा …और चित्त भगवदाकार हो उठेगा …चित्त रहेगा ही नही …चित्त अब भगवान हो गया ।
इतना कहकर हंस भगवान अन्तर्ध्यान हो गये थे ।
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