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November 21, 2024 10:26 pm

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श्रीसीतारामशरणम्मम(13-2),श्रीमद्भगवद्गीता,भक्त नरसी मेहता चरित (09)& “महाराजा पुरुरवा” : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम(13-2),श्रीमद्भगवद्गीता,भक्त नरसी मेहता चरित (09)&  “महाराजा पुरुरवा” : नीरु आशरा

Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣3️⃣
भाग 2

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#सियजयमालरामउरमेली ……….
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! ……………._

जयमाल – ज्योतिर्मय रत्नों से तैयार यह जयमाला ……….ये तो तभी से बन कर तैयार था ……जब से मेरे पिता जनक जी नें प्रतिज्ञा की थी ।

एक सुन्दर सी सुवर्ण पेटिका में आई जयमाला……..मेरी माता सुनयना नें उस पेटिका को खोला ……..उसमें से जयमाल निकाली गयी ।

( एक माला किशोरी जी के हाथ में ही थी …….पर ये जयमाला है )

मेरे हाथों से फूलों की माला को लेकर मेरी माता नें मेरे हाथों में वो जयमाल पकड़ा दी थी ।

जाओ पुत्री सीता ! अवध नरेश चक्रवर्ती श्री दशरथ के इन बड़े पुत्र नें धनुष को तोड़ दिया है …………..ये बड़ा कठिन कार्य था ।

पर ये कठिन कार्य तो हमारी किशोरी जी पहले ही कर चुकी थीं …….कि एक हाथ से पिनाक को उठाकर रख दिया था ……..

मेरी सखी हँसते हुए बोली थी ।

मेरी माता मुस्कुराईं ………और सखी को चुप रहनें के लिए कहा ।

ना ! अब हम चुप नही रहेंगीं …………..ये कहते हुए सब सखियाँ फिर हँसनें लगीं ………..मुझे डर लगनें लगा था ……..ये अब कुछ भी बोलेंगीं कहीं मेरे श्री राघवेन्द्र को अच्छा न लगे तो !

मेरे हाथों में जयमाला दी गयी …………और मुझे अपनें हृदय से लगाकर माता सुनयना नें कहा ……पुत्री ! ये जयमाला श्री राम को पहना दो …………..ये कहते हुए मेरी माँ सुनयना के नेत्रों से अश्रु बह रहे थे ……आनन्द के अश्रु ………।


मै अपनी सखियों से घिरी हुयी चली ………………..मेरी सखियों नें गीत गानें शुरू कर दिए थे ………….

जब सामनें मंच पर मै आई ………..तब जाकर मिथिला वासी चुप हुये थे …………पर फूलों की वर्षा अभी तक देव कर ही रहे थे ।

श्री राम को ऐसा लग रहा था पता नही मुझे क्यों इस तरह खड़े रखनें का आदेश दिया ऋषि शतानन्द नें ………पर सामनें से मेरे प्राण धन नें मुझे देखा …….मैने उनकी आँखों में अपनें आपको देखा था ।

मै सुन्दर पाटलवर्णी साड़ी , अरुण उत्तरीय, वस्त्रों में झलमलाते रत्नाभूषण …….कोमलांगी मै ……….मृणाल करों में जयमाला थामें मै …..धीरे धीरे चले जा रही थी ………..ये सब मैने अपनें प्राणनाथ के नेत्रों में देखा था ……..वो मुझे देख रहे थे ………मै भी देह सुध भूली, उन्हीं को देखे जा रही थी……मुझे सम्भाली हुयी थीं मेरी सखियाँ ।

मै कब पहुँच गयी थी अपनें प्रियतम के पास…..मुझे पता ही नही चला ।

मै अपनी भुज लताओं में जयमाला उठाये ……अपनें प्राण धन के सामने खड़ी हो गयी …………मेरी भुजाएं जयमाल उठाये ……………

पर ये क्या ! मेरे प्राणजीवन श्रीराघवेन्द्र तो बड़े हैं ………….और ऊपर से ये एक हाथ का मुकुट और हैं ……………..

मुझे चिन्ता हो गयी ………………मै क्या करूँ ?

मुझ से जयमाला पहनाई नही जा रही थी …….क्यों की मै छोटी थी और मेरे प्राण जीवन मुझ से बड़े थे ………झुकना उन्हें अच्छा नही लग रहा था …….हाँ क्यों झुकें अपनी दासी के सामनें ………..मै तो इन रघुवर के चरणों की दासी ही तो थी ।

मै भी अपनी भुजाओं को उठाये रही …………………

“”अरे ! आपतो बड़े निर्दयी हो””

ये किसनें बोल दिया था, पीछे से ! ……मैने देखा मेरी सखियों नें अब बोलना शुरू कर दिया था ………….

झुको ! आप झुकिये ……………देख नही रहे ……हमारी किशोरी कितनी कोमलांगी हैं …………इनके हाथ दूख रहे होंगें ………झुकिये !

मेरी इन सखियों को आज क्या हो गया था !

ओह ! अब मै समझी …………….ये रघुवंशी हैं ना ……स्त्रियों के सामनें नही झुकते …………..पर अजी ! हम कहे देती हैं ………..ये मिथिला है यहाँ अच्छे अच्छे ढीले पढ़ जाते हैं …….ये कहकर सारी सखियाँ खूब हँसी ………….।

पर ये भी श्रीराम हैं …………ऐसे कैसे झुक जायेंगें …………..

क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱

] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 10
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मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् |
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते || १० ||

मया – मेरे द्वारा; अध्यक्षेण – अध्यक्षता के कारण; प्रकृतिः – प्रकृति; सूयते – प्रकट होती है; स – सहित; चर-अचरम् – जड़ तथा जंगम; हेतुना – कारण से; अनेन – इस; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; जगत् – दृश्य जगत; विपरिवर्तते – क्रियाशील है |

भावार्थ
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हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चार तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं | इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है |

तात्पर्य
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यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि यद्यपि परमेश्र्वर इस जगत् के समस्त कार्यों से पृथक् रहते हैं, किन्तु इसके परम अध्यक्ष (निर्देशक) वही बने रहते हैं | परमेश्र्वर परम इच्छामय हैं और इस भौतिक जगत् के आधारभूमिस्वरूप हैं, किन्तु इसकी सभी व्यवस्था प्रकृति द्वारा की जताई है | भगवद्गीता में भी कृष्ण यह कहते हैं – “मैं विभिन्न योनियों और रूपों वाले जीवों का पिता हूँ |” जिस प्रकार पिता बालक उत्पन्न करने के लिए माता के गर्भ में वीर्य स्थापित करता है, उसी प्रकार परमेश्र्वर अपनी चितवन मात्र से प्रकति के गर्भ में जीवों को प्रविष्ट करते हैं और वे अपनी अन्तिम इच्छाओं तथा कर्मों के अनुसार विभिन्न रूपों तथा योनियों में प्रकट होते हैं | अतः भगवान् इस जगत् से प्रत्यक्ष रूप में आसक्त नहीं होते | वे प्रकृति पर दृष्टिपात करते हैं, इस तरह प्रकृति क्रियाशील हो उठती है और तुरन्त ही सारी वस्तुएँ उत्पन्न हो जाती हैं | चूँकि वे प्रकृति पर दृष्टिपात करते हैं, इसलिए परमेश्र्वर की ओर से तो निःसन्देह क्रिया होती है, किन्तु भौतिक जगत् के प्राकट्य से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं रहता | स्मृति में एक उदाहरण मिला है जो इस प्रकार है – जब किसी व्यक्ति के समक्ष फूल होता है तो उसे उसकी सुगन्धि मिलती रहती है, किन्तु फूल और सुगन्धि एक दुसरे से विलग रहते हैं | ऐसा ही सम्बन्ध भौतिक जगत् तथा भगवान् के बीच भी है | वस्तुतः भगवान् को इस जगत् से कोई प्रयोजन नहीं रहता, किन्तु वे ही इसे अपनी दृष्टिपात से उत्पन्न करते तथा व्यवस्थित करते हैं | सारांश के रूप में हम कह सकते हैं कि परमेश्र्वर की अध्यक्षता के बिना प्रकृति कुछ भी नहीं कर सकती | तो भी भगवान् समस्त कार्यों से पृथक् रहते हैं |

[Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (09)


👏🏵नरसी भक्त द्वारकापुरी पहुच श्रीकृष्ण शरणम् भगवान शंकर वृषभ पर सवार होकर भक्तराज नरसिंह मेहता के साथ बात की – बात में भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र के परम धाम द्वारिका में पहुँच गये । उस दिव्य पुरी की अलौकिक शोभा देखकर भक्त राज नरसीजी मुग्ध हो गये । उनहोने उस धाम के विषय में कहा है किवहाँ की भूमि सोने की है ।

वहाँ के महलों में वैदूर्य मणि के स्तम्भ लगे हुए है और छत रत्नों से जुडी हुई है । वह दिव्य पुरी नित्य नये श्रृँगार से सुसज्जित रहती है । वहाँ सदा दिव्य प्रकाश फैला रहता है, जिसका तेज यहाँ के प्रकाश से करोड़ गुना दीखता है । वहीं के प्रकाश से सूर्य और चन्द्र को ज्योति प्राप्त होती है । वहाँ के प्रकाश से बेचारे सूर्य -चन्द्र की क्या तुलना की जाय, करोड़ों सूर्य के समान ज्योति तो केवल श्री भगवान की एक नखमणि से निकला करती है ।

ऐसे परम धाम की दिव्य शोभा देखते हुए भगवान शंकर द्वारिकाधीश के राजमहल में पहुँचे । उस समय वहाँ भगवान की धर्म सभा बैठी हुई थी । राजराजेशवर देवकी नन्दन श्री कृष्ण राज सिंहासन पर विराजमान थे । उनकी सभा के सभासद परम भागवत उग्रसेन , बलराम, अक्रूर, विदुर, अर्जुन आदि यथास्थान बैठे हुए थे तथा भगवान की सोलह हजार एक सौ आठ पटरानियाँ भी विधमान थी । भगवान शंकर को देख सभी सभासद उठ खड़े हुए । स्वयं भगवान तुरंत आसन छोड़ कर शीघ्रता से शंकर का स्वागत करने के लिए दौड़ पड़े । उनहोने हाथ जोड़कर शंकर का स्वागत किया और उन्हें एक दिव्य आसन पर बैठाया । तत्पश्चात उनकी विधिवत पूजा करके आगमन का कारण पूछा ।

सदा शिव ने उतर दिया -भगवन यह जूनागढ का उच्च ब्राह्मण कुलोत्पन्न वैष्णव भक्त है । इसने सात दिन तक कठोर तप करके मुझे प्रसन्न किया और मैंने इसको वरदान में अपनी प्रिय वस्तु देने का वचन दिया है । इसलिए आज मैं इस वैष्णव भक्त को आपके पुनीत चरण कमलों में समर्पण करने के लिये आया हूँ । आप भक्त वत्सल है, सदा भक्तों के अधीन रहते हैं । अतएव आशा है मेरी प्रार्थना आप अवश्य स्वीकार करेंगे ।

इतना सुनते ही भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्नता पूर्वक भक्तराज नरसिंह राम के सिर पर हाथ रखकर उन्हें स्वीकार कर लिया और भगवान शंकर वहाँ से विदा हो गये । भक्त राज प्रेम से गदगद होकर श्री प्रभु के चरणों में लोट गये और अश्रुधारा से उनहोने श्री चरणों को पखार दिया । भगवान ने भक्तराज को सम्बोधित करके कहा -“वत्स ! मेरे और महेश्वर के स्वरूप में किंचिन्मात्र भी अन्तर नहीं है । मैं शंकर को अपना आराध्य देव समझता हूँ और शंकर मुझको । इस प्रकार हम दोनों के अभिन्न होने के कारण तुमने जो शंकर की पूजा की है, वह वास्तव में मेरी ही पूजा है ।

प्रभो ! मैं किस योग्य हूँ ? मैं तो भगवान सदा शिव की कृपा से ‘श्रीकृष्णम् शरणम् मम्शब्द भर जान सका हूँ । ‘इस प्रकार नरसिंह राम ने नम्रता पूर्वक निवेदन किया ।


Niru Ashra: “महाराजा पुरुरवा”

भागवत की कहानी – 7

यह बात आपके समझ में आती है …कि शरीर से बाहर किसी भी वस्तु से आप प्रेम करोगे तो मन को जोर ज़बरदस्ती से वहाँ लगाना पड़ेगा ….क्यों कि वो बाहर है …और मन शरीर के भीतर है । शुरू में नही भी तो बाद में आपका मन ऊब जाएगा …आपको उसे छोड़ना ही पड़ेगा …..जैसे – रात्रि में आप सोते हो …..तो कितना भी प्यारा कोई क्यों न हो उसका चिन्तन छोड़कर ही आपको सोना पड़ेगा …नही तो आप पगला जाओगे ….बिना नींद के …कब तक रह सकते हो बिना सोये ।

“प्रेम अपनी आत्मा से ही होता है”…..ये बात तो आपकी समझ में आरही है ?

आपके भीतर जो विराजमान है ..जो सदैव विराजमान है ..शरीर के साथ भी शरीर के बाद भी …उसी से आपका प्रेम होता है …बाकी तो आते जाते हैं …इनका कोई महत्व नही है ।


बात है सतयुग की …उस काल में कोई जाति व्यवस्था नही थी …न कोई ब्राह्मण था न कोई अन्य जाति । बस एक ही जाति थी …हंस । यानि सब उज्ज्वल थे ..शुद्ध थे । उस काल में स्वर्ग से अच्छा नाता था हमारा …आना जाना था । चन्द्रमा का पुत्र हुआ बुध और बुध का विवाह मानवी कन्या इला से हुआ तो इससे अत्यधिक सुन्दर पुत्र प्रकट हुआ जिसका नाम था – “पुरुरवा”।

ये पुरुरवा सुन्दर अधिक होने के साथ साथ बुद्धिमान थे और प्रतापी भी थे ।

ये एक बार स्वर्ग गये ……तो देवराज इन्द्र ने इनको विशेष स्थान देकर अपने साथ बिठाया । उसी सभा में नृत्य कर रही थी उर्वशी । अप्सरा उर्वशी ने जब एक भूपति को इतना सुन्दर देखा तो ये अपना होश हवास खो बैठी ……पुरुरवा इस उर्वशी को देख रहे थे …..उर्वशी नज़रें बचाकर राजा को देख लेती थी ….पवन देव ने सहयोग किया तो उर्वशी की चुनरी उड़ गयी …..बस , पुरूरवा उर्वशी के सौन्दर्य पर मुग्ध हो गये । रात्रि में छुपकर दोनों मिले ……उर्वशी का आलिंगन , स्वर्ग की सर्वश्रेष्ठ अप्सरा के प्रगाढ़ आलिंगन से पुरुरवा का मन विचलित हो उठा…..एक रात उर्वशी का हाथ पकड़ कर पुरुरवा ने कहा ….मेरे साथ पृथ्वी लोक चलो । नही , मैं नही जा सकती । उर्वशी ने मना कर दिया । राजा ने कहा …मैं अब तुम्हारे बिना रह नही सकता …तुम्हें मेरे साथ चलना ही होगा । चाहती उर्वशी भी थी पुरुरवा को । किन्तु क्या करे उर्वशी ! पुरुरवा ने आज तो पैर ही पकड़ लिए उर्वशी के …और कहा …इस सेवक की इतनी बात मान लो । पृथ्वी का प्रेम उर्वशी को भा गया था …और पृथ्वी का ये नरेश भी । उर्वशी ने कहा …मैं चलूँगी तो सही किन्तु मेरी तीन शर्तें हैं । क्या बोलो ? उर्वशी ने कहा …पहली शर्त ये कि …..ये मेरे प्यारे भेंड़ें हैं ….ये मुझे बड़े प्यारे हैं ….इनकी तुम्हें रक्षा करनी होगी । दूसरी शर्त …..मैं स्वर्ग की अप्सरा हूँ …..अन्न खा नही सकती ….अमृत पीती हूँ इसलिए मुझे पृथ्वी का अमृत घी देना होगा , मैं वही पीऊँगीं । और तीसरी शर्त ? राजा ने पूछा …..तो उर्वशी बोली ….मैं तुम्हें सहवास के अलावा कभी नग्न नही देखूँगी । राजा ने ये तीन शर्तें सहर्ष स्वीकार कर ली थी ……किन्तु उर्वशी ये भी बोली …अगर एक भी शर्त टूटी तो मैं वापस स्वर्ग में लौट आऊँगी । पुरुरवा ने अति प्रसन्न होकर आलिंगन किया उर्वशी को और कहा – तुम्हारे लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ ये तीन शर्तें क्या हैं । पुरूरवा उर्वशी को लेकर चला आया पृथ्वी में ….और दोनों भोग विलास में लिप्त रहने लगे ।


कुछ दिनों से आनन्द नही आरहा स्वर्ग में …..देवराज इन्द्र ने कहा । फिर कुछ सोचकर बोले ….उर्वशी कहाँ गयी ? वरुण ने उत्तर दिया …वो तो पुरुरवा के साथ चली गयी । इन्द्र उदास रहने लगा …इन्द्र उदास तो उसके देव भी उदास …पूरा स्वर्ग उदास । इन्द्र ने कुछ गंधर्वों को बुला कर कहा ….तुम्हें स्वर्ग का एक काम करना है ……काम क्या है वो देवराज ने बता दिया …..गन्धर्व प्रसन्न हो कर चल दिये थे पृथ्वी की ओर ………


गन्धर्व आये और रात्रि के समय उर्वशी के प्रिय भेंड़ें चुराकर ले गये ……चुराकर ले जाते समय भेंड़े चिल्लाने लगे थे ….उनकी आवाज़ पुरुरवा की बाहों में पड़ी उर्वशी ने सुन ली …..वो उठी और चिल्लाती हुई बोली ….मैंने तो तुम्हें वीर ठाना था ….पर तुम तो कायर निकले….मेरे भेंड़े भी तुमसे नही सम्भाले गये……इतना सुनते ही नग्न पुरुरवा तलवार लेकर ही बाहर भागा …..गंधर्वों को चुराना तो था नही उन्हें तो उर्वशी को वापस ले जाना था स्वर्ग …इन्द्र के कहने से ये सब किया था ….भेंड़े वहीं छोड़कर गन्धर्व भाग गये …..पुरुरवा भेंड़े लेकर आ रहा था …बाहर उर्वशी भी चली गयी थी ….तभी ऊपर से देवताओं ने बिजली चमका दी …..बिजली के चमकते ही उर्वशी को पुरुरवा का नग्नपन दिखाई दे गया । बस …शर्तें टूट गयीं थीं …..उर्वशी ने अपने भेंडों को लिया और राजा को उसके वचन याद दिलाते हुए स्वर्ग के लिए वो चली गयी ।

इधर राजा पुरुरवा पागल हो गया …..उर्वशी के मोह में वो रोता हुआ पृथ्वी में भ्रमण करने लगा ….उसे कुछ भी नही सूझ रहा था ……वो क्या करे ! उसे उर्वशी के साथ बिताए पल याद आते तो वो बिलख उठता । इस तरह उसने कई शताब्दियाँ बिता दीं । एक दिन ये हिमालय से उतरा नीचे तो कुरुक्षेत्र की भूमि में पहुँचा ….वहाँ के सरोवर में ये बैठा हुआ था …रात्रि की वेला थी कि तभी …..स्वर्ग से उर्वशी उतरी ….उसके साथ उसकी सखियाँ भी थीं । राजा ने जैसे ही उर्वशी को देखा वो दौड़ा और जाकर उसने पैर पकड़ लिए ….इस दास को अपना बना लो …मत त्यागो इसे …हे देवि ! तुम जो कहोगी मैं वही करूँगा । उर्वशी ने समझाना चाहा …की देखो ! तुम पृथ्वी के एक महान राजा हो मेरे पीछे मत पड़ो ….कोई लाभ नही है …उर्वशी ने समझाया …हे राजन् ! मैं तुमसे प्रेम करती थी ….किन्तु देखो ! अब तुम मुझे याद भी नही हो ….क्यों की हम स्त्रियाँ साहसिक बहुत होती हैं …हम किसी के बिना भी रह लेती हैं लेकिन तुम पुरुष लोग नही रह पाते ….इसलिए हमारे ऊपर विश्वास मत करो …तुम अपने पौरुष पर ध्यान दो …पृथ्वी का दायित्व तुम्हारे हाथों में है …इसे सुन्दर बनाओ । मेरी बात मानों । उर्वशी ने समझाया किन्तु पुरुरवा नही समझा । उसने हाथ जोड़ते हुए कहा …एक बार मिल लो ….मैं तुमसे कुछ नही कहूँगा …बस एक बार । उर्वशी भी इससे प्रेम करती ही थी तो इसने साल भर बाद का समय दिया …और कहा ..यहीं पर मिलेंगे ।

पुरुरवा बहुत प्रसन्न हुआ ….उसने उर्वशी की प्रतीक्षा में साल ऐसे ही गुजार दिए ….साल भर बाद उर्वशी फिर आयी ….ये दोनों मिले …..भोग विलास में एक रात कैसे बीता पता ही नही ।

अब तो पागलों जैसा हो गया था ये राजा , जब उर्वशी जाने लगी स्वर्ग को । बहुत रोया अपना सिर पटकने लगा ….मर जाऊँगा मैं तुम्हारे बिना …मुझे कुछ नही चाहिए , बस तू , उर्वशी , मेरी प्यारी । उर्वशी को दया आगयी उसने कहा ….एक काम करो ….तुम यज्ञ करो और अग्निदेवता से माँगों कि “गन्धर्व लोक” मुझे मिले । फिर हम लोग कभी अलग नही होंगे …हे राजा ! ये उर्वशी भी ये चाहती है कि तुम मेरे पास आओ …और मेरे ही बाहों में रहो । ये कहकर उर्वशी चली गयी …और जाते जाते ये भी बोल गयी कि – मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ , तुम शीघ्र आओ ।


इधर पुरुरवा ने अग्नि कि उपासना आरम्भ कर दी थी ….इसने दो लकड़ी ली ..जिसे अरणी कहा गया …एक लकड़ी को स्वयं माना और दूसरी को उर्वशी मान कर अपनी भावना को उसी में पूर्ण लगा दिया ….और आँखें बन्द करके दोनों लकड़ी को रगड़ने लगा ….उसी में से अग्निदेव प्रकट हो गये ….क्या चाहिए ? अग्नि देवता ने कहा । “उर्वशी का गन्धर्व लोक” पुरुरवा के ये कहने पर अग्नि देवता ने कहा ..इसके लिए तुम्हें त्रेतायुग तक तप करना होगा …क़रीब दस हजार वर्ष तक ।

पुरुरवा ने उर्वशी के लिए वो भी स्वीकार किया और दस हजार वर्ष तक तप करता रहा ….सतयुग बीत चुका था ……त्रेतायुग जैसे ही आया ….अग्निदेवता ने प्रसन्न होकर कहा ….अब तुम उर्वशी के पास जा सकते हो । पुरुरवा बहुत प्रसन्न हुआ ….वो चल पड़ा था उर्वशी के लोक में …इधर उर्वशी भी बहुत प्रसन्न थी …..उसके लोक में उतरा पुरुरवा …उर्वशी ने उसका स्वागत अपनी गोरी सुन्दर बाहें फैलाकर की …….फिर तो दोनों ।

पृथ्वी में सवा लाख वर्ष बीत गये …..पुरुरवा उर्वशी की बाहों में ही खेल रहा है ।

आज उठा …..बाहर देखा ….उर्वशी सोई हुई है….उसके हाथों को अलग किया पुरुरवा ने ….उसे देखा …फिर बाहर आया तो उसे ऊपर सप्तऋषियों का लोक दिखाई दिया जहाँ ऋषि गण भगवान का भजन कर रहे थे ….ये देखकर उसका मन प्रसन्न हुआ …..उसने हाथ जोड़कर प्रणाम किया उन ऋषियों को …किन्तु उसका प्रणाम भी ऋषियों ने स्वीकार नही किया ….ये उधर इधर देखता हुआ फिर अपने महल में आया तो उर्वशी सो रही है …..उर्वशी को देखता रहा ये ….उसकी लटें बिखरी हुयी थीं …..उनकी साड़ी खुली हुयी थी …..आज इसे कोई आकर्षण नही दीख रहा उर्वशी में । तभी उर्वशी ने अपने नेत्र खोले …राजा को देखा तो वासना से भर कर उसने अपने पाँव राजा पुरुरवा के वक्षस्थल में रख दिये …..पुरुरवा कुछ नही बोला …वो उठकर बाहर चला आया …उर्वशी को लगा क्या हुआ पुरुरवा को …वो दौड़ी, बाहर जैसे ही आयी …..राजा तो उस लोक को छोड़ने की तैयारी कर रहा था । उर्वशी ने अपना हाथ उसके कन्धे में रखते हुए पूछा …क्या हुआ ? पुरुरवा ने उसका हाथ हटा दिया और बोला ….धिक्कार है मुझे …मैंने अपना जीवन ऐसे ही बिता दिया ! पुरुरवा के मुख से ये सुनकर उर्वशी चौंकी ।

मैंने अपने कर्तव्य का पालन नही किया ..मैंने भक्ति नही की …मैं अपने आत्म स्वरूप को पहचानने की दिशा में नही बढ़ा । मैं उस ओर बढा जहाँ मेरा विनाश था ….जहाँ मेरी दुर्गति थी । ओह ! मेरे मोह का विस्तार ! एक स्त्री देह के पीछे पागल होकर मैंने हजारों वर्ष तप किए अगर वही तप मैंने भगवान श्रीहरि को पाने के लिए किया होता तो आज मेरे सामने श्रीहरि होते । उर्वशी की ओर देखकर पुरुरवा कहता है …..जो अपने से बाहर है ….जो अपने से दूर है उससे प्रेम करोगे तो दुःख ही मिलेगा ….प्रेम करो जो हमसे निकट है …हममें ही हैं …जिसका कभी वियोग नही होता …..जिससे कभी बोर नही होते …क्यों की वो हमारे भीतर है …हममें ही है ।

उर्वशी न पुरुरवा के पैर पकड़े …..और कहा ….आप मत जाइये ….मुझे छोड़कर मत जाइये ….किन्तु पुरुरवा हंसा ….और बोला ….जो सबसे कुरूप है उसे ही मैंने सुन्दर समझा । उर्वशी ! मैं सोचता था कि मेरी उर्वशी की नाक कितनी अच्छी है …किन्तु नाक से तो गन्दगी निकलती है ना ? मैं सोचता था मेरी उर्वशी की आँखें अच्छी हैं मैंने देखा उसे न धोओ तो मैल जम जाता है …फिर काहे की सुन्दरता ? यह देह किसकी उर्वशी ? उर्वशी रोती रही ..पुरुरवा चला गया ….और ये कहते हुए गया …उर्वशी ! मल मूत्र के कीड़े में और इस पुरुरवा में अन्तर क्या है ?

पुरुरवा गन्धर्व लोक को छोड़कर पृथ्वी में आता है …और वैराग्य की अग्नि में जलते हुये वो भगवान नारायण की भक्ति करता है और अन्तिम में वैकुण्ठ लोक की प्राप्ति उसे हो जाती है ।

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