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November 21, 2024 10:50 pm

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श्रीसीतारामशरणम्मम*(13-3),[] “एक कंजूस ब्राह्मण था”(8), भक्त नरसी मेहता चरित (10) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम*(13-3),[]  “एक कंजूस ब्राह्मण था”(8), भक्त नरसी मेहता चरित (10) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣3️⃣
भाग 3

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#सियजयमालरामउरमेली ……….
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! ……………._

मै भी अपनी भुजाओं को उठाये रही …………………

“”अरे ! आपतो बड़े निर्दयी हो””

ये किसनें बोल दिया था, पीछे से ! ……मैने देखा मेरी सखियों नें अब बोलना शुरू कर दिया था ………….

झुको ! आप झुकिये ……………देख नही रहे ……हमारी किशोरी कितनी कोमलांगी हैं …………इनके हाथ दूख रहे होंगें ………झुकिये !

मेरी इन सखियों को आज क्या हो गया था !

ओह ! अब मै समझी …………….ये रघुवंशी हैं ना ……स्त्रियों के सामनें नही झुकते …………..पर अजी ! हम कहे देती हैं ………..ये मिथिला है यहाँ अच्छे अच्छे ढीले पढ़ जाते हैं …….ये कहकर सारी सखियाँ खूब हँसी ………….।

पर ये भी श्रीराम हैं …………ऐसे कैसे झुक जायेंगें …………..

सुनो ! हम कह रही हैं अकेले झुक जाओ …………..हमारी किशोरी जी के सामनें ……….नही तो ……….तुम्हारा जो दूसरा छोटा रघुवंशी हैं ना ….उसको भी हम झुका देंगीं ………….ये कहकर उर्मिला को उस सखी नें छेड़ा …………उनको क्यों कह रही हो………….धीरे से उर्मिला नें उस सखी को कहा था ……….अच्छा ! छोटा राजकुमार तेरा !

मारूँगी ज्यादा मत बोलो …………उर्मिला शरमा गयी थीं ।

बहुत समय हो गया था …………..न मेरे प्राणनाथ झुकें ……..न मुझ से पहनाई जाए जयमाला ………।

अब क्या करें !

सखियाँ भी थक गयीं गाते गाते ………..बोलते बोलते ।

अब तो मुझे ही कुछ करना था ………..मैने अब इधर उधर देखा …….मुझे दूर खड़े भैया लक्ष्मण दिखाई दिए ………

मैने इशारे में कहा …………….कुछ तो सहायता करो भैया !

उन्होंने भी इशारे में ही पूछा …….मै क्या कर सकता हूँ …..

अब ये बड़े हैं ……छोटे होते तो आदेश दे देता ……पर मै स्वयं इनसे छोटा हूँ ………….।

बात तो सही थी …………….बात सही कहि थी लक्ष्मण भैया नें ।

पर लक्ष्मण भैया समझ गए ……………..उपाय उनको सूझा ।

वो दौड़े श्री राघवेन्द्र की और ……………….

सब लोग देख रहे हैं कि अब क्या होगा ….अब क्या होगा ।

लक्ष्मण भैया दौड़ते आये ………….और अपनें बड़े भाई श्री राघवेन्द्र के चरणों में ही गिर पड़े ………………

मुझे हँसी आरही थी ……………..मै भीतर ही भीतर हँस रही थी ।

अब उठाओ अपनें छोटे भाई को ……..मैने मन ही मन कहा ।

कुछ झुंझलाहट सी हुयी थी मेरे श्रीराम को ………….

मानों कह रहे हों ………लक्ष्मण ! सारी भक्ति ससुराल में ही सूझी थी !

पर लक्ष्मण भैया उठे ही नहीं ………मानों श्री राम के चरणों में ही समाधि लगा ली ।

अब तो झुकना ही था …………श्री राघवेन्द्र सरकार झुके ……अपनें भाई को उठानें के लिए …….सीता जी नें जयमाला ……….

रुको रुको ! मेरी एक सखी फिर आगे आगयी ….और मुझे जयमाला पहनानें से रोक दिया ………….

लक्ष्मण भैया चरणों में हैं श्रीराघवेन्द्र के ……और श्री राघवेन्द्र झुके हैं अपनें भाई को उठानें के लिए …………।

उस समय मेरी वो सखी आजाती है …..और हँसते हुए कहती है ……देखो ! मैने आपसे कहा था ना राम जी ! कि अकेले झुक जाओ इज्जत बनी रहेगी तुम्हारे रघुवंश की …………पर हमारी बात आपनें मानीं नही ……………अब देखो रघुकुल के दो दो सपूत हमारी श्री सिया जू के चरणों में झुके हुए हैं …………….ये कहते हुए उस सखी ने स्वयं ताली बजाई ……….और मुझे कहा ……आप अब पहना दो जयमाल ।

तभी मैने आनन्दित होते हुए ….वह जयमाला श्री राघवेन्द्र के गले में डाल दी ………….।

चारों ओर से जय जयकार होनें लगे थे ………………..लोग नाचनें और गानें लगे थे …………फूलों की वर्षा तो अभी भी हो ही रही थी ।

चरण छूओ जीजी ! उर्मिला नें मुझ से कहा था ।

पर मैने चरण नही छूए ।


आपनें चरण क्यों नही छूए ?

जयमाला पहनानें के बाद अपनें स्थान पर आकर जब मै बैठ गई …….

तब उर्मिला नें मुझ से पूछा था ।

तूनें छूए क्या ? मुझे भी मजाक सूझा ।

मै क्यों छुऊँ ? उर्मिला नें मुझ से कहा ।

नही मै तो लक्ष्मण भैया की बात कर रही थी …………..

जीजी ! तुम भी इन सबकी तरह मुझे छेड़ती रहती हो ।

अच्छा ! अच्छा मै अपनी बहना को कुछ नही कहूँगी ।

मैने उर्मिला को प्यार किया ………………फिर उर्मिला नें मुझ से पूछा ….जीजी ! बताओ ना …………आपनें क्यों चरण नही छूए ।

तब मैने अपनें कँगन दिखाए थे उर्मिला को ……….पाषाण को छूआ इन चरणों नें, तो नारी प्रकट हो गयी …….और मेरे इन कँगन में अगर इनके चरण छु जाते …..तो कहीं…….इतना कहकर मैने अपना मुख छुपा लिया था ।

मेरी बातें सुनकर सब हँसी थीं…..

#शेषचरिञअगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱


[] Niru Ashra: “एक कंजूस ब्राह्मण था”

भागवत की कहानी – 8

“आपका मन ही आपके सुख दुःख का कारण है” आपने अगर अपने मन को तैयार कर लिया कि “हर समय आनन्द है”…..तो फिर किसी की हिम्मत नही कि आपको दुःख दे सके ।

ना , आपके सुख दुःख का कारण आपका परिवार नही है …कुटुम्ब नही है …आपके सुख दुःख का कारण कोई देवता पितर या ग्रह कर्म या काल भी नही है । ना जी ! किसी शनि राहु केतु में हिम्मत नही कि आपको दुःख दे जाये , ..न आपके पितरों में हैं …आपके सुख दुःख का कारण आपका अपना – मन ही है । सिर्फ मन । ये बात आपके समझ में आरही है ? अगर आरही है तो आप निहाल हो गये…क्यों की सत्य यही है …आपका मन ही आपको सुख दुःख देता है …इसलिए मन को तैयार करो …मन को सकारात्मक शिक्षा दो …भक्ति की शिक्षा सबसे श्रेष्ठ है ….”भगवान जो करते हैं अच्छा ही करते हैं”….ये बात अपने मन को बारम्बार बताओ …तो फिर आपके जीवन में आनन्द ही आनन्द रहेगा ।


एक ब्राह्मण था …..बड़ा श्रीमंत था …बहुत धनी-मानी था वो ब्राह्मण …..किन्तु था अत्यन्त कृपण ….कंजूस…..अतिथि का कभी सत्कार नही किया उसने …..घर में किसी को बुलाता ही नही था ….कोई घर आए तो मुश्किल से जल पिला देता था …बस । कोई भिक्षुक आया तो भिक्षा न देकर वो डाँट देता था कि “हाथ पैर तो ठीक हैं फिर मेहनत करके क्यों नही खाते”…मैंने मेहनत से ये धन कमाया है मैं ऐसे ही किसी को क्यों दूँ । यहाँ तक तो चलो ठीक था …किन्तु ये ब्राह्मण अपने नाते रिश्तेदारों को भी कभी कुछ नही देता था । बेटी का विवाह किया …बस बेटी ही दी , उसके साथ कुछ नही दिया ….”बेटी दे रहे हैं यही क्या कम है”…..ये कहकर उसने अपनी बेटी विदा की । अपने पुत्रों को भी उसने कभी कुछ नही दिया …..इसके भाई थे , वो जब सम्पत्ति माँगने लगे तो ये मरने मारने पर उतारू हो गया …..भाइयों ने भी अपने भाग की सम्पत्ति आखिर छोड़ ही दी …करते क्या ? इसकी पत्नी ने एक बार थोड़ा धन छुपाकर अपनी बेटी को क्या दे दी …बस इसने तो अपनी पत्नी को दो दिनों तक भोजन ही नही दिया । विशेष पर्व आदि में भी इनके यहाँ कभी मिष्ठान्न नही बने …इनके बालकों ने कभी मिठाई नही खाई …क्यों की ये ब्राह्मण कभी धन खर्च करता ही नही था ….इसकी छाती जलती थी ….जब इसे किसी को भी कुछ देना पड़ता था तब । इस तरह से इस ब्राह्मण ने अपने जीवन को बिताया ..लेकिन – अर्थशास्त्र का नियम है धन खर्च होना चाहिए तभी वो आता है …नही तो धन अपने आप खतम हो जाएगा । अध्यात्म कहती है ..दान करो ….सही जगह अपने धन को लगाओ उससे धन में और वृद्धि होगी और वो धन तुम्हारा मंगल करेगा ….किन्तु धन अगर सही जगह नही लगा तो वही धन तुम्हारा विनाश करेगा । पर इस ब्राह्मण ने तो कभी खर्च ही नही किया धन …सही जगह तो छोड़ो गलत जगह भी नही किया …..बस कमाया कमाया और जोड़ता चला गया ।

आज ये रात्रि में अपने धन का हिसाब करने बैठा ……कोई देखे नही इसलिए रात्रि ही इसने चुनीं …..सब घर वाले जब सो गए तो इसने अपना बक्सा खोला …जो इसने धरती के भीतर छिपा रखा था ….जिसमें सोना चाँदी भर रखे थे ….किन्तु ये क्या ? कुछ नही है इसमें तो ? इसके पसीने छूट गये …दूसरा बक्सा खोला ….उसमें भी धन नही था …..इस तरह उसके जितने बक्से थे …उसने सब खोल खोल कर देखे , किसी में कुछ नही है ……अब वो रोने लगा ….घर वाले जाग गये …क्या हुआ उससे पूछा …तो वो रोते हुए बोला …मेरा धन सब खतम हो गया …मैंने यहाँ रखा था …लेकिन । अब तो पत्नी को अवसर मिला वो फटकारने लगी …..कंजूस का धन ऐसे ही जाता है ….तुम महालोभी हो …हम लोगों को तुमने पेट भरकर भी खाने नही दिया पैसा जोड़ते रहे …धिक्कार है तुम्हें । वो ब्राह्मण सुनता रहा , अब पुत्र आए …उन्होंने देखा तो वो भी लगे अपने बाप को गाली देने …ये ब्राह्मण चकित था ….कि मेरे पुत्र मेरी पत्नी ये सब बोल रहे हैं …मुझे गाली दे रहे हैं ! अब तो भाई भी आगये इन्होंने तो इसे धक्के मारकर बाहर निकाल दिया ….ये ब्राह्मण अपनी पत्नी को देख रहा था कि शायद ये मुझे बचा लेगी या पुत्रों को देख रहा था ….पर पत्नी और पुत्र ही लग गये थे इसको घर से निकालने में …..ये अब घर से बाहर फेंक दिया गया था …..इसने अपने समाज को देखा तो वो भी इसे गालियाँ ही दे रहे हैं…धिक्कार रहे थे । ये अपने गाँव से बाहर आगया और एक वृक्ष के नीचे बैठा ही था कि कुछ लोग जो इसके गाँव के थे इसको पत्थरों से मारने लगे । ये वहाँ से भी चला गया । कुछ दूरी पर जाकर बैठा …नदी थी सामने , वहाँ गया ….जल पीया …फिर इधर उधर देखा ….वृक्षों में फल लगे थे …इसने पके केले तोड़े , केले के पत्ते में उन केलों को रखकर खा रहा था कि कुछ बालकों ने उस में थूक दिया और हंसने लगे ….ब्राह्मण ने देखा उन बालकों को ….वो हंस रहे हैं ….फिर वो एकाएक कुछ सोचने लगा …..वहाँ से उठ गया ….इसके पास अब कुछ नही है ….ये नदी पार करके आगे गया …पीपल का वृक्ष इसने देखा ….वहीं बैठ गया और आँखें बन्द कर लीं । अब गाँव वाले उधर से गुजरे …तो हंसने लगे इसे देखकर …कि देखो ..ढोंगी है …कल तक धन था तो अपने आपको कुबेर समझता था …आज धन नही है तो ढोंगी बनकर यहाँ बैठा है …गाँव के बड़े लोग ऐसा कहते …किन्तु युवा और बालक तो इस पर पत्थर बरसाते और हंसते …कोई कोई इसके ऊपर मल मूत्र कर देता …..किन्तु ब्राह्मण उसी मुद्रा में बैठा रहता वो उठता नही ..आज किसी युवक ने इसके ऊपर अग्नि जलाकर फेंक दी …अब तो ये उठा ..इसने चारों ओर देखा ….फिर हंसा …खूब हंसा ..इसकी हंसी से पूरा वन गूंज रहा था ।

“मेरे सुख दुःख का कारण ये लोग नही हैं ….मेरे सुख दुःख का कारण मेरी पत्नी या मेरे परिजन नही हैं …मेरे सुख दुःख का कारण देवता भी नहीं हैं ….ब्राह्मण हंसते हुए कहता है – मेरे सुख दुःख का कारण ग्रह ( शनि , राहु , केतु आदि ) भी नही हैं ….न मेरे कर्म हैं …न समय है”।

फिर तेरे सुख दुःख का कारण कौन है ? गाँव के लोग चिल्लाकर उससे पूछते हैं ।

तब वो हंसते हुए कहता है …”मेरा मन”। क्या अपने मन को मैं इस तरह तैयार कर लूँ …कि जो हो रहा है वो मेरे भले के लिए ही हो रहा है , तो ? अगर मैं अपने मन को इस तरह तैयार कर लूँ कि ईश्वर मेरे रोगों का ईलाज कर रहा है , तो ? अगर मैं अपने मन को इस तरह तैयार कर लूँ कि जो होता है अच्छे के लिए ही होता है , तो ? ब्राह्मण आगे कहता है – लोभ गलत है ..जो मैंने किया । सुन्दर देह है उसमें एक कोढ़ भी हो जाये तो उस सुन्दर देह को वो कुरूप बना देता है …इसी तरह कितना भी सुन्दर जीवन हो …सत्य तप शौच दया आदि सब हो …किन्तु अगर लोभ आजाए तो सब मिट्टी में मिल जाते हैं ….यही मेरे साथ हुआ । मैंने क्या सोचा था कि मरने के बाद धन अपने साथ ले जाऊँगा ? ब्राह्मण फिर ऊपर देखता है ….फिर अपने गाँव वालों को देखता है …फिर कहता है …भगवान ने मुझे सम्भाल लिया ….अब वो मुझे अपनी भक्ति के लिए तैयार कर रहे हैं ….ये मेरे लिए दुःख नही सुख है …आनन्द है …मेरे सारे बन्धन एक झटके में खतम हो गये ….हंसता है ब्राह्मण , कहता है …..बड़े बड़े ज्ञानियों को भी सांसारिक बन्धन छोड़ने में कितना कष्ट होता है …कठिन है …लेकिन मेरे लिए …..कुछ नही लगा …ये कृपा है मेरे ऊपर मेरे भगवान की । ये कहते हुए ब्राह्मण आगे चल देता है ….और वो यही कहता जाता है …कि सब कृपा है …..उनकी कृपा बरस रही है ….समझो इस बात को । और अन्तिम में ये ब्राह्मण भगवान को प्राप्त कर ही लेता है ।

Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (10)


🏵🙏श्रीकृष्ण ने कहा कि भक्तराज नरसी को मेरे ही समान जानो🙏🏵

वत्स ! जो मनुष्य मुझे अपना स्वामी समझता है, मैं उसका दास बन जाता हूँ । तुम्हारी नैष्ठिक भक्ति देखकर आज मैं अत्यंत प्रसन्न हुआ हूँ ।’ इतना कहकर भगवान नरसिंह राम को अपने अन्तःपुर में ले गये और उनहोने अपना सारा वैभव नरसिंह राम को दिखाया ।

उस समय से नरसिंह राम स्वयं श्री भगवान की सेवा में रहने लगे । उन्हीं दिनों शरत -पूर्णिमा का समय आ गया और श्रीधाम में उसकी तैयारी हुई ।

तत्काल वृन्दावन की तरह सुरम्य रासमण्डल तैयार हो गया और सोलह सहस्त्र गोपियाँ और इतने ही भगवान के स्वरूप प्रकट हो गये । उसी समय भक्त राज ने भी गोपी -वेष में अपना राग छेड़ दिया । वह भगवदगुणगान में एकदम तल्लीन हो गये । उनके इस भाव को देखकर गोपाल अत्यंत प्रसन्न हो गये और उनहोने पुरस्कार में भक्त राज को अपना पीताम्बर ओढा दिया ।

उसके बाद श्री भगवान ने शंखध्वनि की और रास शुरू हो गया ।

भगवान ने नरसिंह राम के हाथ में दीपक देकर रास मण्डल के बीच में खड़ा कर दिया । भक्त राज रास देखने में तन्मय हो गये । अकस्मात दीपक की जलती हुई शिखा उनके हाथ के वस्त्र में लग गयी , बस,उनका सारा हाथ दीपक की भाँति जलने लगा । हाथ ही मशाल बन गया, परंतु भक्त राज को इसकी तनिक भी सुधि न रही । उनका मन तो श्री प्रभु के साथ एक हो रहा था, शरीर के साथ उसका कोई सम्बन्ध ही नहीं था । अतएव वह एक भाव से अन्त तक रास दर्शन करते रहे, उनका चित एक क्षण के लिए भी विचलित न हुआ ।

अन्त में रासलीला समाप्त होने पर स्वयं भगवान की दृष्टि नरसिंह राम के जलते हुए हाथ पर पड़ी । तुरंत उनहोने आगे बढ़कर हाथ की आग को बुझा दिया और प्रेम से हाथ फेरकर उसकी सारी पीड़ा दूर कर दी ,भक्तराज की इस तन्मयता को देखकर रूकिमणी आदि महादेवियों को बड़ा आश्चर्य हुआ । माता रूकिमणी तो प्रसन्न होकर अपना हार ही उतार कर भक्त राज को पहना दिया ।

भगवान ने भी भक्त राज की भूरि-भूरि प्रशंसा की और ‘भक्त नरसिंह को मेरे समान जानो ‘ऐसा कहकर उन्हें अत्यंत सम्मान प्रदान किया ।

इस प्रकार आनन्दोत्सव भगवद दर्शन और भगवत्सेवा में नरसिंह राम को प्रायः एक मास बीत गया ; परंतु उन्हें यह समय एक निमेष से अधिक नहीं मालूम हुआ । एक दिन वह बैठे -बैठे भगवान की चरण सेवा कर रहे थे कि अचानक उनका ध्यान अपने सौभाग्य पर गया और वह सोचने लगे ‘अह्य, मैं धन्य हूँ जो मुझे साक्षात लक्ष्मी तथा देव-मुनियों को भी।दुर्लभ भगवान की चरण सेवा करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है ।

परंतु ऐसा सौभाग्य मुझे अपनी भौजाई की ही कृपा से प्राप्त हुआ ; अतएव मुझे उन्ही का उपकार मानना चाहिए ।
भक्त राज इसी विचार में डूबे हुए थे कि एकाएक उन्हें भगवान की वाणी सुनायी पड़ी ।उनहोने कहा–“वत्स ! तुम्हारी सेवा और एकांत भक्ति से मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ ! कहो तुम क्या चाहते हो ?’

नरसिंह राम ने निवेदन किया –“भगवन ! यदि दास की धृष्टता न समझी जाय तो इससे पहले मेरा एक प्रश्न है ।

यदि किसी दरिद्र मनुष्य को चिन्तामणि मिल जाय और वह फिर भी सामान्य धन के लिये लालच करे तो उसे क्या कहा जायेगा ?’

भगवान ने उत्तर दिया ‘-‘ असन्तोषी °°°°° मूर्ख ! ‘

तब स्वामिन ! आप मुझे मूर्ख क्यों बनाना चाहते है ? चिन्तामणि के समान अपने चरणकमलों की प्राप्ति कराकर फिर आज मुझसे अन्य माँग की आशा रखते हैं ? नाथ ! मुझे भुलावे में न डालिये । मैं अब और कुछ नहीं चाहता , “मैं अब सदा आपकी चरण-सेवा में ही रहना चाहता हूँ ।’नरसिंह राम ने नम्रता पूर्वक कहा.


[] Niru Ashra: “एक कंजूस ब्राह्मण था” Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
🌈🌈🌈🌈🌈🌈🌈
श्लोक 9 . 11
🌈🌈🌈🌈

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् |
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्र्वरम् || ११ ||

अवजानन्ति – उपहास करते हैं; माम् – मुझको; मूढाः – मुर्ख व्यक्ति; मानुषीम् – मनुष्य रूप में; तनुम् – शरीर; अश्रितम् – मानते हुए; परम् – दिव्य; भावम् – स्वभाव को; अजानन्तः – न जानते हुए; मम – मेरा; भूत – प्रत्येक वस्तु का; महा-ईश्र्वरम् – परम स्वामी |

भावार्थ
🌈🌈🌈

जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं | वे मुझ परमेश्र्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते |

तात्पर्य
🌈🌈🌈
इस अध्याय के पूर्ववर्ती श्लोकों से यह स्पष्ट है कि यद्यपि भगवान् मनुष्य रूप में प्रकट होते हैं, किन्तु वे सामान्य व्यक्ति नहीं होते | जो भगवान् सारे विराट जगत का सृजन, पालन तथा संहार करता हो वह मनुष्य नहीं हो सकता | तो भी अनेक मुर्ख हैं, जो कृष्ण को शक्तिशाली पुरुष के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते | वस्तुतः वे आदि परमपुरुष हैं, जैसा कि ब्रह्मसंहिता में प्रमाण स्वरूप कहा गया है – ईश्र्वरः परमः कृष्णः – वे परम ईश्र्वर हैं |

ईश्र्वर या नियन्ता अनेक हैं और वे एक दुसरे से बढ़कर प्रतीत होते हैं | भौतिक जगत् में सामान्य प्रबन्धकार्यों का कोई न कोई निर्देशक होता है, जिसके ऊपर एक सचिव होता है, फिर उसके ऊपर मन्त्री तथा अन्य उससे भी ऊपर राष्ट्रपति होता है | इनमें से हर एक नियन्त्रक होता है, किन्तु एक दूसरे के द्वारा नियन्त्रित होता है | ब्रह्मसंहिता में कहा गया है कि कृष्ण परम नियन्ता हैं | निस्सन्देह भौतिक जगत् तथा वैकुण्ठलोक दोनों में ही कई-कई निर्देशक होते हैं, किन्तु कृष्ण परम नियन्ता हैं (ईश्र्वरः परमः कृष्णः) तथा उनका शरीर सच्चिदानन्द रूप अर्थात् अभौतिक होता है |

पिछले श्लोकों में जिन अद्भुत कार्यकलापों का वर्णन हुआ है, वे भौतिक शरीर द्वारा सम्पन्न नहीं हो सकते | कृष्ण का शरीर सच्चिदानन्द रूप है | यद्यपि वे सामान्य व्यक्ति नहीं हैं, किन्तु मुर्ख लोग उनका उपहास करते हैं और उन्हें मनुष्य मानते हैं | उनका शरीर यहाँ मानुषीम् कहा गया है, क्योंकि वे कुरुक्षेत्र युद्ध में एक राजनीतिज्ञ और अर्जुन के मित्र की भाँति सामान्य व्यक्ति बनकर कर्म करते हैं | वे अनेक प्रकार से सामान्य पुरुष की भाँति कर्म करते हैं, किन्तु उनका शरीर सच्चिदानन्द विग्रह रूप है | इसकी पुष्टि वैदिक साहित्य में भी हुई है | सच्चिदानन्द रूपाय कृष्णाय – मैं भगवान् कृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो सच्चिदान्नद रूप हैं (गोपाल तापनी उपनिषद् १.१) | वेदों में ऐसे अन्य वर्णन भी हैं | तमेकं गोविन्दम् – आप इन्द्रियों तथा गायों के आनन्दस्वरूप गोविन्द हैं | सच्चिदान्नदविग्रहम् – तथा आपका रूप सच्चिदान्नद स्वरूप है (गोपाल तापनी उपनिषद् १.३५) |

भगवान् कृष्ण के सच्चिदानन्दस्वरूप होने पर भी ऐसे अनेक तथाकथित विद्वान तथा भगवद्गीता के टीकाकार हैं जो कृष्ण को सामान्य पुरुष कहकर उनका उपहास करते हैं | भले ही अपने पूर्व पुण्यों के कारण विद्वान असाधारण व्यक्ति के रूप में पैदा हुआ हो, किन्तु श्रीकृष्ण के बारे में ऐसी धारणा उसकी अल्पज्ञता के कारण होती है | इसीलिए वह मूढ कहलाता है, क्योंकि मुर्ख पुरुष ही कृष्ण को सामान्य पुरुष मानते हैं | ऐसे मुर्ख पुरुष कृष्ण को सामान्य पुरुष इसीलिए मानते हैं, क्योंकि वे कृष्ण के गुह्य कार्यों तथा उनकी विभिन्न शक्तियों से अपरिचित होते हैं | वे यह नहीं जानते कि कृष्ण का शरीर पूर्णज्ञान तथा आनन्द का प्रतिक है, वे प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं और किसी को भी मुक्ति प्रदान करने वाले हैं | चूँकि वे कृष्ण के इतने सारे दिव्य गुणों को नहीं जानते, इसीलिए उनका उपहास करते हैं |

ये मूढ यह भी नहीं जानते कि इस जगत् में भगवान् का अवतरण उनकी अन्तरंगा शक्ति का प्राकट्य है | वे भौतिक शक्ति (माया) के स्वामी हैं | जैसा कि अनेक स्थलों पर कहा जा चुका है (मम माया दुरत्यया), भगवान् का दावा है कि यद्यपि भौतिक शक्ति अत्यन्त प्रबल है, किन्तु वह उनके वश में रहती है और जो भी उनकी शरण ग्रहण कर लेता है, वह इस माया के वश से बाहर निकल आता है | यदि कृष्ण का शरणागत जीव माया के प्रभाव से बाहर निकल सकता है, तो भला परमेश्र्वर जो सम्पूर्ण विराट जगत् का सृजन, पालन तथा संहारकर्ता है, हम लोगों जैसा शरीर कैसे धारण कर सकता है? अतः कृष्ण विषयक ऐसी धारणा मूर्खतापूर्ण है | फिर भी मुर्ख व्यक्ति यह नहीं समझ सकते कि सामान्य व्यक्ति के रूप में प्रकट होने वाले भगवान् समस्त परमाणुओं तथा इस विराट ब्रह्माण्ड के नियन्ता किस तरह हो सकते हैं | बृहत्तम तथा सूक्ष्मतम तो उनकी विचार शक्ति से परे होते हैं, अतः वे यह सोच भी नहीं सकते कि मनुष्य-जैसा रूप कैसे एक साथ विशाल को तथा अणु को वश में कर सकता है | यद्यपि कृष्ण असीम तथा ससीम को नियन्त्रित करते हैं, किन्तु वे इस जगत् से विलग रहते हैं | उनके योगमैश्र्वरम् या अचिन्त्य दिव्य शक्ति के विषय में कहा गया है कि वे एकसाथ ससीम तथा असीम को वश में रख सकते हैं, किन्तु जो शुद्ध भक्त हैं वे इसे स्वीकार करते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि कृष्ण भगवान् हैं | अतः वे पूर्णतया उनकी शरण में जाते हैं और कृष्णभावनामृत में रहकर कृष्ण की भक्ति में अपने को रत रखते हैं |
सगुणवादियों तथा निर्गुणवादियों में भगवान् के मनुष्य रूप में प्रकट होने को लेकर काफी मतभेद है | किन्तु यदि हम भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत जैसे प्रामाणिक ग्रंथों का अनुशीलन कृष्णतत्त्व समझने के लिए करें तो हम समझ सकते हैं कि कृष्ण श्रीभगवान् हैं | यद्यपि वे इस धराधाम में सामान्य व्यक्ति की भाँति प्रकट हुए थे, किन्तु वे सामान्य व्यक्ति हैं नहीं | श्रीमद्भागवत में (१.१.२०) जब शौनक आदि मुनियों ने सूत गोस्वामी से कृष्ण के कार्यकलापों के विषय में पूछा तो उन्होंने कहा –

कृतवान् किल कर्माणि सह रामेण केशवः |
अतिमर्त्यानि भगवान् गूढः कपटमानुषः ||

“भगवान् श्रीकृष्ण ने बलराम के साथ-साथ मनुष्य की भाँति क्रीड़ा की और इस तरह प्रच्छन्न रूप में उन्होंने अनेक अतिमानवीय कार्य किये |” मनुष्य के रूप में भगवान् का प्राकट्य मुर्ख को मोहित बना देता है | कोई भी मनुष्य उन अलौकिक कार्यों को सम्पन्न नहीं कर सकता जिन्हें उन्होंने इस धरा पर करके दिखा दिया था | जब कृष्ण अपने पिता तथा माता (वासुदेव तथा देवकी) के समक्ष प्रकट हुए तो वे चार भुजाओं से युक्त थे | किन्तु माता-पिता की प्रार्थना पर उन्होंने एक सामान्य शिशु का रूप धारण कर लिया – बभूव प्राकृतः शिशुः (भागवत १०.३.४६) | वे एक सामान्य शिशु, एक सामान्य मानव बन गये | यहाँ पर भी यह इंगित होता है कि सामान्य व्यक्ति के रूप में प्रकट होना उनके दिव्य शरीर का एक गुण है | भगवद्गीता के ग्याहरवें अध्याय में भी कहा गया है कि अर्जुन ने कृष्ण से अपना चतुर्भुज रूप दिखलाने के लिए प्रार्थना की (तैनेव रूपेण चतुर्भुजेन) | इस रूप को प्रकट करने के बाद अर्जुन के प्रार्थना करने पर उन्होंने पूर्व मनुष्य रूप धारण कर लिया (मानुषं रूपम्) | भगवान् के ये विभिन्न गुण निश्चय ही सामान्य मनुष्य जैसे नहीं हैं |

कतिपय लोग, जो कृष्ण का उपहास करते हैं और मायावादी दर्शन से प्रभावित होते हैं, श्रीमद्भागवत के निम्नलिखित श्लोक (३.२१-२९) को यह सिद्ध करने के लिए उद्धृत करते हैं कि कृष्ण एक सामान्य व्यक्ति थे | अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा – परमेश्र्वर समस्त जीवों में विद्यमान हैं | अच्छा हो कि इस श्लोक को हम जीव गोस्वामी तथा विश्र्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जैसे वैष्णव आचार्यों से ग्रहण करें, न की कृष्ण का उपहास करने वाले अनधिकारी व्यक्तियों की व्याख्याओं से | जीव गोस्वामी इस श्लोक की टीका करते हुए कहते हैं कि कृष्ण समस्त चराचारों में अपने अंश विस्तार परमात्मा के रूप में स्थित हैं | अतः कोई भी नवदीक्षित भक्त जो मन्दिर में भगवान् की अर्चामूर्ति पर ही ध्यान देता है और अन्य जीवों का सम्मान नहीं करता वह वृथा ही मन्दिर में भगवान् की पूजा में लगा रहता है | भगवद्भक्तों के तीन प्रकार हैं, जिनमें से नवदीक्षित सबसे निम्न श्रेणी के हैं | नवदीक्षित भक्त अन्य भक्तों की अपेक्षा मन्दिर के अर्चविग्रह पर अधिक ध्यान देते हैं, अतः विश्र्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर चेतावनी देते हैं कि इस प्रकार की मानसिकता को सुधारना चाहिए | भक्त को समझना चाहिए कि चूँकि कृष्ण परमात्मा रूप में प्रत्येक जीव के कहृदय में विद्यमान हैं, अतः प्रत्येक व्यक्ति परमेश्र्वर का निवास या मन्दिर है, इसीलिए जिस तरह कोई भक्त भगवान् के मन्दिर का सम्मान करता है, वैसे ही उसे प्रत्येक व्यक्ति का समुचित सम्मान करना चाहिए, कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए |

ऐसे अनेक निर्विशेष वादी है जो मन्दिरपूजा का उपहास करते हैं | वे कहते हैं कि चूँकि भगवान् सर्वत्र हैं तो फिर अपने को हम मन्दिरपूजा तक ही सीमित क्यों रखें? यदि ईश्र्वर सर्वत्र हैं तो क्या वे मन्दिर या अर्चविग्रह में नहीं होंगे? यद्यपि सगुणवादी तथा निर्विशेषवादी निरन्तर लड़ते रहेंगे, किन्तु कृष्णभावनामृत में पूर्ण भक्त यह जानता है कि यद्यपि कृष्ण भगवान् हैं, किन्तु इसके साथ वे सर्वव्यापी भी हैं, जिसकी पुष्टि ब्रह्मसंहिता में हुई है | यद्यपि उनका निजी धाम गोलोक वृन्दावन है और वे वहीँ निरन्तर वास करते हैं , किन्तु वे अपनी शक्ति की विभिन्न अभिव्यक्तियों द्वारा तथा अपने स्वांश द्वारा भौतिक तथा आध्यात्मिक जगत् में सर्वत्र विद्यमान रहते हैं |

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