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November 21, 2024 10:40 pm

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श्रीसीतारामशरणम्मम(14-1),“राजा प्राचीनबर्हि”(9),श्रीमद्भगवद्गीता & : भक्त नरसी मेहता चरित (11) : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम(14-1),“राजा प्राचीनबर्हि”(9),श्रीमद्भगवद्गीता & : भक्त नरसी मेहता चरित (11) : नीरु आशरा

[] Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣4️⃣
भाग 1

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#तेहिअवसरसुनीशिवधनुभंगा……….._
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! ……………._

ये घटना मुझे लंका की अशोक वाटिका में त्रिजटा नें सुनाई थी …….

सुना जब रावण नें की सिद्धाश्रम में रहनें वाला उसका प्रिय मित्र मारीच लंका में आगया है …………और रावण को सुचना देनें वाले नें ये भी बताया की वो अपनी इच्छा से नही आया …..उसे तो लंका में फेंक दिया गया है …………रावण को आश्चर्य हुआ था ………..ये मारीच कोई साधारण नही था ।

उसी समय चल दिया था रावण समुद्र के किनारे…जहाँ मारीच गिरा था ।

कैसे मारीच ! तुम तो सिद्धाश्रम में अपनें असुर समाज के सहित रह रहे थे …….मैने तुम्हे कितना निमन्त्रण दिया लंका में आनें का ….पर तुम मानें ही नहीं …………..अब कैसे आये हो यहाँ ?

रावण के पूछनें पर वह मारीच रावण को देखनें लगा …………

राम ! राम ! राम !

ये नामोच्चारण करते हुए लम्बी लम्बी साँसें ली उसनें …………

ताड़का को भी मार दिया ………मारीच नें कहा ।

क्या !
ताड़का को मार दिया ? रावण चौंका …….

सुबाहु का भी वध कर दिया ……………….पर मुझे नही मारा ……….मुझे लंका में फेंक दिया ……..मारीच अभी भी काँप रहा था …श्री राम के वाण को अभी तक ये भूला नही था ।

पर किसनें किया ये सब मारीच ! क्या देवराज इंद्र स्वयं आया था …….या कोई कुबेर या यक्ष ……….कौन था वो ?
रावण नें पूछा ।

नही राक्षस राज ! नही ……..वो कोई देव या यक्ष नही है ……….वो तो अयोध्या नरेश दशरथ का पुत्र – राम है …………ऋषि विश्वामित्र उसे लेकर आये थे ……….अपनें सिद्धाश्रम में …….।

पता नही क्या जादू है उस राम में…….मेरी सारी शक्ति ही छीन ली ।

इतना कहकर मारीच मौन हो गया ।

                 तभी - 

धड़ाम् ……..धड़ाम् ………………….

रावण नें अपनें कान बन्द कर लिए ………….मारीच स्वयं अपनें स्थान से नीचे गिर गया …………..आवाज ही इतनी भयानक आयी थी ।

महाराज ! आप ठीक हैं !

……….रावण के अंगरक्षक दौड़े रावण के पास ………..।

हाँ मै ठीक हूँ …………….पर सुनो ! मुझे तुरन्त खबर दो कि ये तेज़ आवाज कहाँ से आई ……..ऐसा क्या हुआ जिसकी ध्वनि इतनी भयानक थी ……जाओ ! और मुझे बताओ ।

रावण नें अपनें अंगरक्षकों को भेज दिया ……उन अंग रक्षकों नें लंका के गुप्तचरों को सूचना दी ………..मात्र दो घड़ी में ही हाजिर थे अंगरक्षक और गुप्तचर रावण के सामनें ।

क्रमशः …..
#शेषचरिञअगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱


[ Niru Ashra: “राजा प्राचीनबर्हि”

भागवत की कहानी – 9

ये चीख कैसी है ? ओह ! कानों में मेरे ये करुण क्रन्दन ! ये रक्त की नदी !

देवर्षि नारद जी आज पृथ्वी में भ्रमण के लिए ऊपर से उतरे थे ….लेकिन उन्होंने देखा कि पृथ्वी “कुश” से पटी पड़ी है ….चलो ! कोई तो ऐसा राजा हुआ है जो यज्ञ में अपनी ऊर्जा लगा रहा है ….किन्तु देवर्षि ने देखा कि ….वातावरण में चीख है पशुओं की ….जो नारद जी को विचलित कर रहे हैं …वातावरण में क्रन्दन है …पशुओं का क्रन्दन । नारद जी आगे बढ़ते हैं ….तामसिक देवों की उपासना हो रही है ….नारद जी देखते हैं ….यज्ञ का धूम्र वातावरण को शुद्ध तो कर रहा है …किन्तु ये निरपराध पशुओं की बलि । हजारों बकरे लिए लोग जा रहे हैं ….हजारों भैंसा …..वहाँ राजा बैठा है …नारद जी देखते हैं ….राजा के सामने भैरव आदि का विग्रह है ….तलवार लेकर वहाँ एक पुजारी बैठा है ….राजा आहुति दे रहा है । तलवार लेकर बैठा वो पुजारी राजा के द्वारा छुए पशु को लेता है और एक ही झटके में काट देता है । रक्त की छोटी नदी सी बह रही है …..उसका प्रसाद लोग ले जाते हैं …सब राजा की जय जयकार कर रहे हैं ।

नारद जी ने ये सब देखा …ये कौन है ? इस राजा का नाम ? एक ने बताया …”राजा प्राचीनबर्हि” । हाँ , हाँ ….नारद जी कुछ सोचने लगे …..ये तो भगवान नारायण के परम भक्त ध्रुव के वंश का है ना ? हाँ , नारद जी को उत्तर मिला । नारद जी वहीं बैठ गये ….और अपने नेत्रों को बन्द कर लिया था……..


प्रचेता राजकुमार हैं , प्रचेताओं का पिता यही प्राचीनबर्हि है । प्रचेताओं को वैराग्य हो गया अपने पूर्वज श्रीध्रुव जी महाराज की भक्ति सुनकर …..चले गये वन में ….भगवान शंकर की आराधना की …..भगवान शंकर तत्क्षण प्रसन्न हुए और प्रचेताओं को नारायण भगवान की भक्ति दे दी ….ये प्रचेता आनन्द मग्न भगवान नारायण का गुणगान करते हैं ….और इस तरह कर्मबन्धन से मुक्त भी हो गये हैं । किन्तु ये कर्म बन्धन में फँसा है प्राचीनबर्हि …..इसका क्या होगा ?

अब नारद जी ने अपने नेत्रों को खोला …उन्होंने सब कुछ देख लिया था ….मन ही मन सोचने लगे …बेटों ने भक्ति पा ली …किन्तु ये उनका पिता अभी भी इन तुच्छ कर्मकाण्डों में लिप्त है ।

नारद जी को दुःख हो रहा है …जिनके कुल में ध्रुव जैसा भक्त हुआ ….वो क्यों इन बलि जैसे रजोगुण-तमोगुण कर्मों को कर रहा है ! नारद जी ने अब ठान लिया है कि राजा प्राचीनबर्हि को इन सब से मुक्त करके भगवान की भक्ति में लगाना ही है ….फिर नारद जी जो ठान लें….

उठे नारद जी और राजा प्राचीनबर्हि के पास चल दिए ।


हे राजन्! मैं तुमसे एक प्रश्न करने आया हूँ ………

नारद जी जब राजा प्राचीनबर्हि के पास गये तो राजा यज्ञ-पूजन से उठ गया था ….वो फलाहार कर रहा था ….नारद जी को देखते ही आनंदित हो उठा …. उसने स्वागत किया …अर्घ्य पाद्य से नारद जी का पूजन किया …..फिर हाथ जोड़कर बैठ गया ।

नारद जी मुस्कुराये ….और राजा से एक प्रश्न करने लगे ।

राजन्! ये सब कर्मकाण्ड आप क्यों कर रहे हो ? नारद जी का प्रश्न ।

हे देवर्षि नारद जी ! मेरे दुःख समाप्त हों और अखण्ड सुख की प्राप्ति हो इसलिए मैं ये यज्ञ कर्मकाण्ड आदि कर रहा हूँ । प्राचीनबर्हि ने कहा ।

तुम्हें लगता है इन कर्मकाण्डों से तुम्हारे दुःख दूर होंगे और सुख की , वो भी अखण्ड सुख की तुम्हें प्राप्ति होगी ? नारद जी ने फिर प्रश्न कर दिया था ।

राजा प्राचीनबर्हि कुछ नही बोला ….वो देवर्षि नारद जी से ही समझना चाह रहा था ।

हे राजन्! एक बात समझो , इन कर्मकाण्डों से कभी दुःख की निवृत्ति नही होती और अखण्ड सुख तो छोड़ो , सुख भी नही मिलता । नारद जी मुस्कुराए और बोले – तुम्हारे कर्म के साधन सीमित हैं …सीमित वस्तु हैं …सीमित कर्ता का अधिकार है ….ऐसे में इन सबसे असीम सुख की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? नारद जी मुस्कुराते हुए राजा से ही पूछ रहे हैं । हे राजन् ! इन सबसे तुम्हें क्या मिलेगा …ज़्यादा से ज़्यादा स्वर्ग , स्वर्ग का सुख ….किन्तु कर्म का फल जैसे ही खतम हुआ वापस यहीं आना पड़ेगा ….ये तो तुम जानते ही हो ना ? प्राचीनबर्हि ने सिर ‘हाँ’ में हिलाया । फिर क्यों ये सब कर रहे हो ? और तुमने इन पशुओं की हत्या की ? कर रहे हो हत्या …क्यों ? राजा इस बात से चकित होकर नारद जी के मुखमण्डल में देखने लगा था …..मानों वो पूछना चाहता है कि ….क्या ये गलत है ? क्या ये पुण्य नही है ?

नारद जी कहते हैं …अपने सुख के लिए जीवों को मारना ये पुण्य कैसे हो सकता है ? अपने दुःख की निवृत्ति के लिए दूसरों की हत्या करना ये तो कहीं से पुण्य नही है ।

राजा प्राचीनबर्हि नारद जी के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखता है ….उसे अब थोड़ा थोड़ा अपराधबोध होने लगा था….किन्तु अभी भी वो इस बात को पूर्णरूप से स्वीकार कर नही रहा ।

“राजन् ! तुरन्त अपनी आँखें बन्द करो”…..नारद जी एकाएक बोल उठे थे ….राजा ने भी नारद जी की बात तुरन्त मान ली और अपने नेत्रों को बन्द कर लिया …..किन्तु ये क्या !


नहीं , नहीं , बचाओ , मुझे बचाओ …..राजा चिल्लाने लगा ।

उसने देखा कि वो नर्क में है ….जाना तो चाहता था स्वर्ग ….लेकिन बीच में यमदूतों ने इसे घेर लिया था और ले गये थे नर्क में । वो बोलता रहा …ये चिल्लाता रहा …मुझे नर्क क्यों …मुझे तो स्वर्ग ले जाओ ….मुझे स्वर्ग जाना है । यमदूत हंस रहे हैं ….तुम्हारे चाहने से क्या होता है …नर्क में तुम्हारी प्रतीक्षा हो रही है ….मेरी प्रतीक्षा ? राजा पूछता है । हाँ , देखो ! और यमदूत राजा को दिखाते हैं …..ये तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं ….राजा ने देखा किन्तु नर्क में वो पहुँच चुका था ….राजा को पटक दिया गया था उन के बीच में ….जो इसकी प्रतीक्षा में थे ….जैसे ही राजा इनके पास आया ….हजारों बकरे इसको मारने के लिए दौड़े ….दूसरी ओर से भैंसा, बड़े बड़े शक्तिशाली भैंसा ….वो उधर से दौड़ रहे हैं ……मारी सींग …राजा के पेट में सींग घुस गयी …राजा चीखा ….मर नही सकता क्यों की ये राजा का “यातना शरीर”है ….इस शरीर में जीव को कष्ट का अनुभव पूरा होगा किन्तु मरेगा नही । लहू लुहान राजा गिरा हुआ है तभी बकरे उधर से आते हैं ….वो सब राजा के घाव में अपने सींग मार रहे हैं …”न..हीं”….राजा चीखता है ……..”तुमने इन सबको मारा था, इन बेचारे निरपराध पशुओं को , दण्ड तो तुम्हें मिलेगा”…..कोई कठोर आवाज़ में बोला ….की तभी एक बलवान भैंसा ….सामने से दौड़ा आया …राजा उसे अपनी ओर आते देखकर इस बार बहुत जोर से चिल्लाया था ……..


“लो जल पीयो” नारद जी ने जल दिया ….राजा ने नेत्र खोले …..वो पसीने से नहा गया था ….वो अत्यन्त डरा हुआ था ….अभी भी डर रहा था ।

ये क्या था देवर्षि ? प्राचीनबर्हि ने हाथ जोड़ लिए …वो अभी भी काँप रहा है ।

“कर्म का फल”…….नारद जी बोले ।

तुमने इन पशुओं की बलि दी उसका फल तो तुमको मिलेगा ही ना ?
नारद जी इस बात पर गम्भीर रहे ।

हिलकियों से रो उठा था प्राचीनबर्हि …उसने नारद जी के चरण पकड़ लिए …मैं संसार में फँसा एक जीव हूँ ….मुझे नही पता कल्याण का मार्ग क्या है ? यज्ञ करना , देवताओं का यजन करना , देवों को प्रसन्न किए बिना सुख नही मिलता , ऐसी बात मेरे मन में भर गयी थी…..इसलिए मैंने ये सब किया ….रोते हुए राजा बोला ….मैं पत्नी ,पुत्र, घर , कुटुम्ब इनके मोह दल दल में फँसा हूँ …आप ही यहाँ से मुझे निकालिए । हे दयालु देवर्षि! मुझे सुख चाहिए था , जो एक सामान्य संसारी चाहता है ….तो मेरे पुरोहितों ने कहा ..यज्ञ करो …देवों को प्रसन्न करो , बलि प्रदान करो । मैंने वही किया …सुख की चाह बढ़ती गयी , स्वर्ग का लोभ मन में छा गया ….लाखों पशुओं की बलि चढ़ा दी …कामना थी सुख की ….किन्तु क्या पता था ये तो पाप हो गया ।

प्राचीनबर्हि अब कुछ शान्त था….नारद जी ने उसे सम्भाला है …..

“मैं मेरे” के कारण ही जीव दुखी होता है”….नारद जी अब प्राचीनबर्हि को ज्ञान देने लगे थे ।

मैं मेरापन त्यागो , तुम सिर्फ “आत्मतत्व” हो …शरीर मानने के कारण ही तुम सुखी और दुखी होते रहते हो ….अपने मूल स्वरूप को जब जान लोगे तब न दुःख है न सुख है ।

हे राजन्! आत्मा का स्वरूप एक ही है …वो अपरिवर्तनशील है ….वो शरीर की तरह नही है …वो एक रस है …एक समान है …और एक ही है …सबकी आत्मा एक है ….इसलिए जो ये कहता है ..मैं विद्वान हूँ , मैं ज्ञानी हूँ , या मैं मूर्ख हूँ ये सब मिथ्या हैं …क्यों की आत्मा तो न ज्ञानी है न मूर्ख …वो तो इन सबसे परे …शाश्वत सनातन है । याद रहे राजन्! प्राण , इन्द्रिय , मन बुद्धि आदि ये हमारे स्वरूप नही हैं इसको तुमने अपना मान लिया है इसलिए तुम सुख दुःख की तलाश में घूम रहे हो …नारद जी ने अद्भुत तत्व ज्ञान दिया था प्राचीनबर्हि को । जो है वो तो सदैव तुम्हारे साथ ही है …..उसको पाना भी नही है …बस मिथ्यात्व को छोड़ना है ..मिथ्या के हटते ही जो है वो सत्य तुम्हारे सामने प्रकट हो जाएगा । नारद जी हंसे ….मिथ्या तो मिथ्या है …सत्य सत्य है ….”मिथ्या का अस्तित्व नही है और सत्य का अभाव नही है”। हे राजन्! इन कर्म के बन्धनों को तोड़ दो ….और अपने आत्म स्वरूप श्रीहरि की भक्ति में लीन हो जाओ …इसी से कल्याण होगा …बाकी इन कर्मकाण्डों में उलझ कर तो तुम्हें स्वर्ग नर्क की भटकन ही मिलने वाली है ।

नारद जी इतना कहकर उठ गये थे …..प्राचीनबर्हि ने नारद जी का पूजन किया , वन्दन किया ..फिर नारद जी के ही बताये मार्ग में चलकर इस राजा ने भगवान नारायण की भक्ति की , और अन्तिम में वैकुण्ठ को प्राप्त किया था ।

Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 12
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मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः |
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः || १२ ||

मोघ-आशाः – निष्फल आशा; मोघ-कर्माणः – निष्फल सकाम कर्म; मोघ-ज्ञानाः – विफल ज्ञान; विचेतसः – मोहग्रस्त; राक्षसीम् – राक्षसी; आसुरीम् – आसुरी; च – तथा; एव – निश्चय ही; प्रकृतिम् – स्वभाव को; मोहिनीम् – मोहने वाली; श्रिताः – शरण ग्रहण किये हुए |

भावार्थ
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जो लोग इस प्रकार मोहग्रस्त होते हैं, वे आसुरी तथा नास्तिक विचारों के प्रति आकृष्ट रहते हैं | इस मोहग्रस्त अवस्था में उनकी मुक्ति-आशा, उनके सकाम कर्म तथा ज्ञान का अनुशीलन सभी निष्फल हो जाते हैं |

तात्पर्य
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ऐसे अनेक भक्त हैं जो अपने को कृष्णभावनामृत तथा भक्ति में रत दिखलाते हैं, किन्तु अन्तः-करण से वे भगवान् कृष्ण को परब्रह्म नहीं मानते | ऐसे लोगों को कभी भी भक्ति-फल—भगवद्धाम गमन-प्राप्त नहीं होता | इसी प्रकार जो पुण्यकर्मों में लगे रहकर अन्ततोगत्वा इस भवबन्धन से मुक्त होना चाहते हैं, वे भी सफल नहीं हो पाते, क्योंकि वे कृष्ण का उपहास करते हैं | दूसरे शब्दों में, जो लोग कृष्ण पर हँसते हैं, उन्हें आसुरी या नास्तिक समझना चाहिए | जैसा कि सातवें अध्याय में बताया जा चुका है, ऐसे आसुरी दुष्ट कभी भी कृष्ण की शरण में नहीं जाते | अतः परमसत्य तक पहुँचने के उनके मानसिक चिन्तन उन्हें इस मिथ्या परिणाम को प्राप्त कराते हैं कि सामान्य जीव तथा कृष्ण एक समान हैं | ऐसी मिथ्या धारणा के कारण वे सोचते हैं कि अभी तो वह शरीर प्रकृति द्वारा केवल आच्छादित है और ज्योंही व्यक्ति मुक्त होगा, तो उसमें तथा ईश्र्वर में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा | कृष्ण से समता का यह प्रयास भ्रम के कारण निष्फल हो जाता है | इस प्रकार का आसुरी तथा नास्तिक ज्ञान-अनुशीलन सदैव व्यर्थ रहता है, यही इस श्लोक का संकेत है | ऐसे व्यक्तियों के लिए वेदान्त सूत्र तथा उपनिषदों जैसे वैदिक वाङ्मय के ज्ञान का अनुशीलन सदा निष्फल होता है |
अतः भगवान् कृष्ण को सामान्य व्यक्ति मानना घोर अपराध है | जो ऐसा करते हैं वे निश्चित रूप से मोहग्रस्त रहते हैं, क्योंकि वे कृष्ण के शाश्र्वत रूप को नहीं समझ पाते | बृहद्विष्णु स्मृति का कथन है –

यो वेति भौतिकं देहं कृष्णस्य परमात्मनः |
स सर्वस्माद् बहिष्कार्यः श्रौतस्मार्तविधानतः |
मुखं तस्यावलोक्यापि सचेलं स्नानमाचरेत् ||

“जो कृष्ण के शरीर को भौतिक मानता है उसे श्रुति तथा स्मृति के समस्त अनुष्ठानों से वंचित कर देना चाहिए | यदि कोई भूल से उसका मुँह देख ले तो उसे तुरन्त गंगा स्नान करना चाहिए , जिसे छूत दूर हो सके |” लोग कृष्ण की हँसी उड़ाते हैं क्योंकि वे भगवान् से ईर्ष्या करते हैं | उनके भाग्य में जन्म-जन्मान्तर नास्तिक तथा असुर योनियों में रहे आना लिखा है | उनका वास्तविक ज्ञान सदैव के लिए भ्रम में रहेगा और धीरे-धीरे वे सृष्टि के गहनतम अन्धकार में गिरते जायेंगे |”
[

] Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (11)


नटवर नागर नंदा, भजो रे मन गोविंदा।

सब देवोँ में देव बड़े हैं,
श्याम बिहारी नंदा, भजो रे मन गोविंदा॥

सब सखिओं में राधा बड़ी हैं,
जैसे तारों में चन्दा, भजो रे मन गोविंदा॥

सब देवोँ में राम बड़े हैं,
जिन के सीता संगा, भजो रे मन गोविंदा॥

सब सखिओं में सीता बड़ी हैं,
जैसे तारोँ में चंदा, भजो रे मन गोविंदा॥

सब देवोँ में शिव जी बड़े हैं,
जिन की जटा में गंगा, भजो रे मन गोविंदा॥

सब देविओं में गौरा बड़ी हैं,
जैसे तारोँ में चंदा, भजो रे मन गोविंदा॥🚩🙇‍♀🕉🏵🙏

भगवान् श्रीकृष्ण ने करताल देकर गृहस्थऋण मुक्ति हेतु वापसी

भगवान ने कहा – वत्स ! तुम्हारी निष्ठा धन्य है । परंतु जगत मँ प्रत्येक गृहस्थ के ऊपर तीन प्रकार के ऋण होते हैं —
पहला ऋण है स्त्री -पुत्रादि का
दूसरा पितरों का ।
तीसरा देवों का ।

मनुष्य गृहस्थाश्रम को स्वीकार करके जबतक उन ऋणों से मुक्त नहीं हो जाता तब तक उसे पुर्नजन्म धारण करना पड़ता है । अतः मेरी आज्ञा से मृत्यु लोक में जाकर तुम इन तीनों ऋणों से मुक्त हो जाओ ।’

नरसिंह राम को यह सुनकर बड़ा दुःख हुआ । भगवान से अलग होना उनके लिये असहनीय था । अतः उन्होंने सजल नेत्रों से कहा –‘प्रभो ! आपके चरणों की धूली प्राप्त होने पर भी क्या कोई ऋण शेष रहता है ? नाथ ! ऐसी आज्ञा देकर आप पुनः मुझे संसार में न फँसाइये । मैं संसार से त्रसित होकर आपके चरणों में आया हूँ । आपके चरणों से विमुख होकर मैं पुनः संसार के व्यावहारिक कार्यों में नहीं फँसूँगा।

भगवान ने कहा -”भक्त राज ! सत्य है, मेरी शरण प्राप्त होने पर जीव तमाम ऋणानुबन्ध से मुक्त हो जाता हैं । तुम भी अपने ऊपर कोई ऋण न समझों –पर लोक संग्रह के लिए तो ऋणों से मुक्त होना ही चाहिए । तुम जाओ और सब काम मेरी पूजा समझ कर करो , साथ ही मेरे विग्रह की भी अर्चना करो । तुम्हारे जैसे ऐकान्तिक भक्त के लिये यधपि मूर्ति – अर्चना करने और ध्यान करने से तुम्हारी भक्ति और भी।दृढ़ हो जायेगी।

साथ ही यह करताल भी मैं देता हूँ । इस करताल के द्वारा जब तुम मेरा कीर्तन करोगे तभी मैं तुम्हारे पास उपस्थित हो जाऊँगा और तुम्हारे गृहस्थाश्रम के सभी कार्यों को सिद्ध कर दूँगा । मेरा यह प्रण है कि —-

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।9.22।।

जो अनन्यभाव से मुझमें स्थित भक्त मुझ परमेश्वर को निरंतर चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते है, उन नित्य
एकीभाव से मुझमें स्थित पुरुषों का योग क्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ । जो मनुष्य मेरे इस प्रण को स्मरण रखकर तदनुकुल आचरण करता है वह गृहस्थ श्रमी होने पर भी कभी दुर्गति को नहीं प्राप्त होता । अतः तुम जूनागढ में जाकर अन्य भाव से मेरी भक्ति करो ।

भगवान के इस प्रकार आश्वासन देने पर नरसिंह राम राजी हो गये । भगवान ने उन्हें अपनी प्रतिमा और करताल सौंप दी एवं पीताम्बर और मयूरपुच्छका मुकुट पहना दिया । नरसिंह राम ने भगवान के चरणों पर गिरकर बार-बार प्रणाम किया और फिर भागवती प्रेरणा से तुरंत जूनागढ जा पहुँचे।

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