Explore

Search

November 21, 2024 10:52 pm

लेटेस्ट न्यूज़

श्रीसीतारामशरणम्मम(14-2),: “सम्राट भरत”(10),भक्त नरसी मेहता चरित (12)& श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम(14-2),: “सम्राट भरत”(10),भक्त नरसी मेहता चरित (12)& श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

[ Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣4️⃣
भाग 2

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#तेहिअवसरसुनीशिवधनुभंगा……….._
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! ……………._

हाँ मै ठीक हूँ …………….पर सुनो ! मुझे तुरन्त खबर दो कि ये तेज़ आवाज कहाँ से आई ……..ऐसा क्या हुआ जिसकी ध्वनि इतनी भयानक थी ……जाओ ! और मुझे बताओ ।

रावण नें अपनें अंगरक्षकों को भेज दिया ……उन अंग रक्षकों नें लंका के गुप्तचरों को सूचना दी ………..मात्र दो घड़ी में ही हाजिर थे अंगरक्षक और गुप्तचर रावण के सामनें ।

महाराज ! जनकपुर में जो पिनाक धनुष था वह टूट गया …..उसी की ये आवाज थी ।

पिनाक को तो मै भी नही उठा पाया था ………….फिर किस वीर नें उसे तोड़ दिया ? रावण मन ही मन विचार करनें लगा ।

अच्छा बताओ उस पिनाक को किसनें तोडा ?

महाराज ! हमनें ये भी पता लगा लिया है ……अयोध्या के दो राजकुमार हैं ……जो ऋषि विश्वामित्र के साथ आये हैं ………..उनमें से जो बड़े हैं उनका नाम है …..राम …..उन्होनें तोडा है पिनाक को ।

राम ! राम ! ………….मै इस राम को ही तोड़ दूँगा …………..

एकाएक क्रोध में भर गया था रावण …………………

मारीच नें कहा ……….मुझे तो लगता है ……राम कोई साधारण नही है !

मारीच ! तो तुम्हे क्या लगता है रावण साधारण है ?

मै उस राम को छोड़ूंगा नही….

……..अपनें पैर पटकता हुआ रावण वहाँ से चला गया था ।


मुझे अशोक वाटिका में त्रिजटा नें ये बात बताई थी ………….

रावण बुद्धिमान था ………साम, दाम, दण्ड , भेद राजनीति कूटनीति…सबका ज्ञाता था रावण ……पर अहंकार बहुत था उसमें ।

ओह ! यहीं पर तो भगवान ब्रह्मर्षि परसुराम तप कर रहे हैं ……….

और वो क्षत्रिय से द्रोह भी करते हैं ……..राम क्षत्रिय है ………

और उसनें शिव धनुष तोडा है ………अवसर बहुत अच्छा है रावण ! इसी समय परशुराम जी को ये सुचना दे दे …………बस बाकी काम स्वयं परसुराम जी ही कर देंगें …………..हा हा हा हा हा हा ……..

रावण चल पड़ा लंका पार करके …………..

क्रमशः …..
#शेषचरिञअगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱


[] Niru Ashra: “सम्राट भरत”

भागवत की कहानी – 10

महान सम्राट भरत , चक्रवर्ती सम्राट राजा भरत । ये राजा भरत इतने महान थे कि इनके नाम से “भारत वर्ष” पड़ा । इनका राज्य पूरी पृथ्वी पर था …इनके राज्य में पृथ्वी अति प्रसन्न थी इसलिए चारों ओर समृद्धि ही दिखाई देती थी …इतने बड़े साम्राज्य के सम्राट महाराज भरत । सुन्दर अनुकूल पतिपरायणा रानियाँ , अनेक सुन्दर सुयोग्य पुत्र …..लेकिन वैराग्य ? इतने बड़े राजा होने के बाद भी वैराग्य इनके अन्दर इतना था कि एक झटके में सम्पूर्ण साम्राज्य त्याग दिया ….इतने बड़े भारत वर्ष की सत्ता को त्याग कर अकेले निकल गये तप करने …..तप करने भी गये तो सुदूर हिम क्षेत्र में जहाँ पवित्र गण्डकी नदी बहती रहती है ।

हे साधकों ! मन कहाँ जीव को ले जाकर पछाड़ता है कोई नही जानता, इसलिए मन को लेकर सदैव सावधान रहना चाहिए ।

महान सम्राट भरत की कहानी यही तो बताती है ।

ये भजन करते थे गण्डकी नदी में कण्ठ भर जल में खड़े होकर । यही इनका तप था ।

लेकिन एक दिन ……….

एक हिरणी घूमती हुयी नदी के किनारे आयी ….भरत तप कर रहे हैं …….जल पीने लगी …भरत के नेत्र खुल गए जल पीने की आवाज से ….वो देख रहे हैं हिरणी जल पी रही है ….ओह ! ये गर्भवती है ……भरत का ध्यान उसके गर्भ में गया ……हाँ , बहुत प्यासी लगती है ….भरत बस उसी हिरणी को देख रहे हैं ……तभी …..पीछे से एक सिंह आया …..और उसने हिरणी के ऊपर आक्रमण किया किन्तु हिरणी नदी में कूद गयी ….सिंह भी कूदा …पर धार तेज होने के कारण वो वापस किनारे में आगया । भरत ये सब देख रहे हैं ….सिंह के भय के कारण हिरणी का गर्भ नदी में ही गिर गया था …..हिरणी तेज धार में बह गयी थी …..किन्तु वो गर्भ …वो बहता हुआ भरत के देह में आकर अटक गया ….भरत ने देखा ….नवजात हिरण का बालक ….भरत ने हाथ की माला अपने गले में लपेट ली । उस हिरण के बालक की आँखें …..जो देख रहा था भरत को ….और आर्त दृष्टि से देख रहा था कि ….मुझे बचा लो । भरत के मन में दया आगयी …..उन्होंने उस बालक को उठाया और किनारे आकर बैठ गये ….हिरण के बालक को छोड़ दिया । वो बालक थोड़ा चलता हुआ आगे गया किन्तु उसी समय दूर से किसी सिंह की दहाड़ सुनकर वो फिर दौड़ा और भरत की गोद में आकर बैठ गया । भरत मुस्कुराए , उस बालक को देखा …उसके सिर में हाथ फेरा …अब तो वो अपनी जीभ से भरत को चाटने लगा ….भरत उसे दूर फेंक देते हैं …हट्ट ! पर वो फिर आजाता है …..भरत हंसते हैं …उससे खेलते हैं …..हिरण का वो बालक भी अब उछल उछल कर खेल रहा है ….भरत जी उसे कोमल दूब चरने के लिए संकेत करते हैं …वो दूब चर रहा है ….सन्ध्या हो गयी है …भरत जी स्नान करते हैं नदी में ….फिर माला लेकर कण्ठ भर जल में …अन्धकार हो रहा है ….तभी सिंह की दहाड़ …भरत ने देखा ….उन्हें लगा , कहीं हिरण के बालक को तो सिंह ने नही खाया …ये विचार आते ही भरत ने माला फिर गले में लपेटी और नदी से बाहर भागे । बाहर जैसे ही आये उधर से वो हिरण का बालक भरत के गले से आकर चिपक गया था । ओह ! कोई नही तू डर मत , मैं हूँ ना ! भरत अब इससे बोलने भी लगे थे । इसी हिरण के बच्चे के लिए भरत ने अब एक कुटिया भी बना ली ….उस कुटिया में कोई न आए ….इसके लिए काँटों का बाड़ भी लगा दिया ….अरे ! आज मेरा भजन नही हुआ ? भरत सोचते हैं ….हिरण का वो बालक आया है और अपनी छोटी छोटी सींग से भरत की पीठ खुजाता है …भरत हंसते हैं उसे तुरन्त अपनी गोद में ले लेते हैं …..फिर चूमते हैं …..”ये भी भजन है”…..भरत ने अपने मोह को ये सुन्दर जामा पहनाना शुरू कर दिया है । जीव सेवा भी तो भजन है …. ये बेचारा जीव ….क्या इसमें भगवान नहीं हैं ?

मन कितना चतुर है ……वो अपने तर्क गढ़ लेता है ।

भरत का भजन अब पूरी तरह से छूट चुका है …..वो अब मोह ग्रस्त हो गये हैं ….नही नही अगर आप सोचते हैं की पुत्रों और पत्नी में , या घर परिवार से ही मोह हो सकता है तो आप गलत हैं …मन बड़ा धूर्त है …ये आपका मोह किसी कुत्ते में भी लगा सकता है …और आपके पास तर्क हैं हीं …”क्या ये भगवान का जीव नही है , और जीव सेवा ही तो भजन है”…..मन को समझना सामान्य कहाँ है ।

अब मोहग्रस्त भरत की झाँकी देखिये …..कोमल दूब काट कर गट्ठर बनाकर लेकर आते हैं ….और बड़े प्रेम से हिरण को खिलाते हैं ….अब ये हिरण बड़ा हो गया है और भरत बूढ़े । ये लापरवाह है ….इसे भरत की क्या चिंता ! पशु है । ये जाता है तो कभी कभी दो दो दिनों तक लौटकर नही आता …और इधर भरत ! इनकी अपनी चिंता है ….कहीं सिंह ने न खा लिया हो …समझता नही है …जंगल है , हिंसक प्राणी रहते हैं ….कोई खा जायेगा तो । हिरण लौट आया है ….भरत उसे पकड़ कर डाँटते हैं ….कहते हैं तू कहाँ गया था ? तुझे पता नही तेरे बिना मेरी क्या स्थिति होती है ….सुन ! तू मुझे नही चाहता ना ! बस मैं ही तेरे पीछे पड़ा रहता हूँ । उसको इतना सब कहने के बाद भी हिरण आज फिर गया ….कोई हिरणी आयी थी उसी के पीछे लगके गया ….बड़ा हो गया है …हंसे भरत । किन्तु इस बार वो हिरण बहुत दिन तक लौटके नही आया ….भरत के दिन बीते प्रतीक्षा में ….फिर वर्ष बीतने लगे …..भरत बहुत वृद्ध हो गये हैं….एक दिन वो अस्वस्थ पड़े थे कि तभी वो हिरण आगया …भरत ने देखा तो वो बहुत ख़ुश हुए ….उसे बुलाया ….किन्तु वो नही आया ….भरत उसे देखते रहे देखते रहे …और इस तरह भरत ने अपने प्राण त्याग दिये ।

दूसरे जन्म में …………..

भरत हिरण बने …उसी गण्डकी किनारे का हिरण । किन्तु इस बार सावधान हैं ….भजन का प्रभाव तो रहता ही है ….भरत ने भजन पहले खूब किया था …इसलिए वो शान्त हैं …अन्य हिरणों के साथ घूमते भी नही हैं ….अकेले ही रहते हैं । उन्हें हिरण की योनि में भी उस नदी में किए भजन का स्मरण होता है । एक दिन हिरण बने भरत दूर शान्त भाव से बैठे थे ….कि तभी एक हिरणी जल पीने आई …..पीछे से एक सिंह ने आकर उसे दबोच लिया ….ये सब हिरण बने भरत देख रहे हैं …..अब तो पूर्वजन्म की सारी स्मृतियाँ जाग गयीं …..अपने आपको भरत धिक्कारते हैं …..गण्डकी में प्रवेश करते हैं …..और भगवान का नाम लेते हुये अपने आपको उस नदी की प्रबल धारा में छोड़ देते हैं ।

तीसरा जन्म ………

ब्राह्मण कुल में भरत का होता है ……इस जन्म में भी इनका नाम भरत ही है । किन्तु किसी से कुछ नही बोलते ….इन्हें पूर्वजन्म की पूर्ण स्मृति है …..ये समझ गए हैं कि मोह ही जन्म-मरण का कारण है …एक हिरण के बालक में आसक्त होने से मेरे दो जन्म हुये ….अब नही । अब इसी जन्म को मैं अन्तिम जन्म बनाऊँगा । ऐसा ठान कर भरत जी अपने माता पिता से भी नही बोलते ….लोग इन्हें “जड़भरत” कहने लगे हैं । कब तक रखेंगे परिवार वाले भी …कोई काम नही , कुछ कमाना नही ….किसी के काम के नही …..तो निकाल दिया घर से जड़भरत को ….किन्तु इन्हें कोई परवाह नही है …ये समझ चुके हैं ….इनकी समझ …जिसे विवेक कहते हैं वो पूर्ण जागृत है …कोई गाली दे ,इन्हें दुःख नही होता और कोई प्रशंसा करे तो इन्हें ख़ुशी नही होती । ये देह से परे जा चुके हैं ..कामना कुछ है नही तो बन्धन ही नही है …बन्धन नही है तो मुक्त स्वतः ही हैं …..इस तरह से जड़भरत जीवन्मुक्त हो जाते हैं ……और हम सबको यही शिक्षा देते हैं कि …मन विश्वास करने योग्य नही है …..मन का कभी विश्वास मत करो …भरत ने मन पर विश्वास किया तो तीन जन्मों का कष्ट सहना पड़ा ।

जड़भरत ने ये ज्ञान एक राजा रहूगण को दिया है भागवत में ……..

Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (12)


घनश्याम तुम्हे ढूँढने जाए कहाँ कहाँ !
अपने विरह की आग बुझाए कहाँ कहाँ !!
तेरी नजर में जुल्फों में मुस्कान में !
उलझा है दिल तो छुडाये कहाँ कहाँ !!
घनश्याम तुम्हे ढूँढने……… ……….
चरणों की खाकसारी में खुद ख़ाक बन गये !
अब ख़ाक पे ख़ाक रमाये कहाँ कहाँ !!
घनश्याम तुम्हे ढूँढने……… ……….
जिनकी नजर देखकर खुद बन गये मरीज !
ऐसे मरीज मर्ज दिखाए कहाँ कहाँ !!
घनश्याम तुम्हे ढूँढने……… ……….
दिन रात अश्रु बिंदु बरसते तो है मगर !
सब तन में लगी जो आग बुझाए कहाँ कहाँ !!
घनश्याम तुम्हे ढूँढने जाए कहाँ कहाँ !
अपने विरह की आग बुझाए कहाँ कहाँ !!
!!जय जय श्री राधे!!

नरसी भक्त की भाई वंशीधर के घर वापस आना

पुण्यतीर्थे कृतं येन तपः क्वाप्यतिदुष्करम्।
तस्य पुत्रो भवेद्वश्यः समृद्धो धार्मिकः सुधीः।।[1]

जिन्होंने किसी पुण्य-तीर्थों में रहकर किसी प्रकार का घोर और दुष्कर तप किया है, उन्हीं के यहाँ इन्द्रियों को वश में करने वाला, समृद्धिशाली धार्मिक अथवा विद्वान पुत्र उत्पन्न होता है। फिर चाहे वह तप किसी भी जन्म में क्यों न किया हो। बिना पूर्व जन्म के सुकृतों से गुणी अथवा धार्मिक पुत्र नहीं हो सकता। सु. र. भां. 94/6

प्रांतः काल का समय था; भगवान भुवन भास्कर ने अपने उषःकालीन प्रकाश से दसों दिशाओं को सुवर्णमयी बना रखा था । इसी समय भक्त प्रवर नरसिंह राम जूनागढ के समीप गरूड़ासन से उत्तर पड़े । उन्होंने एक समीपवर्ती तालाब पर स्नानादि नित्य -क्रियाओं से छुट्टी पा कुछ देर भगवद भजन किया । उसके बाद उन्होंने सोचा -” मैं किसके पास चलूँ ? भाई ‘भौजाई ने तो उसी दिन घर से निकाल दिया था ; वे लोग क्यों मेरा स्वागत करेंगे ? परंतु उनके सिवा अपना दूसरा है भी कौन ? पहले तो उन्हीं के पास चलना चाहिए, चाहे वे मेरा अपमान ही क्यों न करें ‘।

उनके पास भगवान की दी हुई प्रतिमा, करताल , मोरपुछ्छका मुकुट और पीताम्बर के सिवा और कुछ तो था नहीं । इन्हीं वस्तुओं के साथ वैष्णव -वेष में वह अपने घर आये । उन्होंने बड़ी नम्रता के साथ अपने भाई -भौजाई को प्रणाम किया । उनके इस वेष को देखकर वंशीधर को बड़ा आश्चर्य और साथ ही क्रोध हुआ । उन्होंने कहा -” अरे मुर्ख ! तैने यह क्या बाना धारण किया है ? मस्तक पर तिलक, गले में तुलसी की माला ,हाथ में करताल , सिर पर मोरपुच्छका मुकुट और कमर में पीताम्बर–यह सब किसने तुझे पहनाया है ! उतार फेंक इस वेष को ।’

नरसिंह राम ने बड़ी विनय के साथ कहा -” भाईजी ! यह आप क्या कह रहे हैं ? यह वेष स्वयं वैकुण्ठवासी भगवान श्रीकृष्ण जी का दिया हुआ है । मेरे लिये यही उनका परम पवित्र प्रसाद है । भगवान के प्रसाद की आज्ञा स्वयं भगवान की आज्ञा है ।

वंशीधर ने तिरस्कार पूर्ण शब्दों में कहा –‘अरे मुर्ख ! क्यों पागलपन की बातें करता है, नादानी छोड़, अब तू लड़का नहीं रहा, दो बालकों का पिता है । यह भिखारियों का सा वेष छोड़ कर दो पैसा पैदा करने का उपाय कर । नात -जात में क्यों मेरी हेठी कराता है ? ये सब चाल छोड़ कर ठीक रास्ते पर आ जाय तो अब भी राजा से कह-सुनकर तुझे दस-पाँच की कोई नौकरी दिला दूँ । इस पागलपन में कया रखा है ? भूखों मरना पड़ेगा ।’

भाई ! आप मेरे बड़े भाई होने के नाते पितातुल्य पुज्य है। आपकी बातें मानना ही मेरा धर्म है । परंतु मैं लाचार हूँ । यह वेष मेरे प्रियतम परमात्मा का दिया हुआ है । यह मूर्ति, करताल ,मुकुट पीताम्बर आदि सभी वस्तुएँ उन्हीं से प्रसाद स्वरूप प्राप्त हुई है । अतः ये मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है । इन वस्तुओं का और इस वेष का त्याग मुझसे जीते जी नहीं हो सकता ।

अवश्य ही संसार की दृष्टि में यह मेरा पागलपन ही है । दुनिया का चश्मा ही न्यारा है; दुनिया को सयाने मनुष्य दीवाने से प्रतीत होते हैं , यह इतिहास प्रसिद्ध बात है । क्या प्रहलाद को हिरण्यकशिपु ने पागल नहीं समझा था ? विभीषण को रावण ने मूर्ख नहीं समझा था ? जहाँ ऐसी बात है वहाँ तो दिवाना बनकर रहना ही श्रेयस्कर है । आशा है, इस ढिठाई के लिए आप क्षमा करेंगे ।”नरसिंह राम ने निर्भीकता पूर्वक उत्तर दिया ।

‘बेवकूफ ! क्यों व्यर्थ मुझे समझने की चेष्टा कर रहा है ? भगवान कहाँ तेरे लिये रास्ता देख रहे थे कि तू उनसे मिल आया ? तेरे-जैसे अक्लमन्दों को यदि वह दर्शन देने लगें तब तो संसार ही सूना हो जाय, वैकुण्ठ में फिर घुसने को जगह भी न मिले । अरे, कोई धूर्त मिल गया होगा धूर्त-

जैसे को तैसा मिला इसमें कौन नयाई ।
मूरख को मूरख मिला आओ मूरख भाई ।।

-‘नरसिंह ! अब इस बेवकूफी को छोड़, नहीं तो बहुत पछताना पड़ेगा । नात -गोत, सम्बन्धी कोई साथ न देगा । लड़की का विवाह तो हो गया, परंतु लड़के का विवाह होना मुश्किल हो जायगा ।’ वंशीधर ने पुनः समझाने की चेष्टा की।


] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷
श्लोक 9 . 13
🪷🪷🪷🪷🪷
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः |
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् || १३ ||

महा-आत्मनः – महापुरुष; तु – लेकिन; माम् – मुझको; पार्थ – हे पृथापुत्र; देवीम् – दैवी; प्रकृतिम् – प्रकृति के; आश्रिताः – शरणागत; भजन्ति – सेवा करते हैं; अनन्य-मनसः – अविचलित मन से; ज्ञात्वा – जानकर; भूत – सृष्टि का; आदिम् – उद्गम; अव्ययम् – अविनाशी |

भावार्थ
🪷🪷
हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं | वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि तथा अविनाशी भगवान् के रूप में जानते हैं |

तात्पर्य
🪷🪷🪷
इस श्लोक में महात्मा का वर्णन हुआ है | महात्मा का सबसे पहला लक्षण यह है कि वह दैवी प्रकृति में स्थित रहता है | वह भौतिक प्रकृति के अधीन नहीं होता और यह होता कैसे है? इसकी व्याख्या सातवें अध्याय में की गई है – जो भगवान् श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करता है वह तुरन्त भौतिक प्रकृति के वश से मुक्त हो जाता है | यही वह पात्रता है | ज्योंही कोई भगवान् का शरणागत हो जाता है वह भौतिक प्रकृति के वश से मुक्त हो जाता है | यही मूलभूत सूत्र है | तटस्था शक्ति होने के कारण जीव ज्योंही भौतिक प्रकृति के वश से मुक्त होता है त्योंही वह आध्यात्मिक प्रकृति के निर्देशन में चला जाता है | आध्यात्मिक प्रकृति का निर्देशन ही दैवी प्रकृति कहलाती है | इस प्रकार से जब कोई भगवान् के शरणागत होता है तो उसे महात्मा पद की प्राप्ति होती है |

महात्मा अपने ध्यान को कृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी ओर नहीं ले जाता, क्योंकि वह भलीभाँति जानता है कि कृष्ण ही आदि परं पुरुष, समस्त कारणों के कारण हैं | इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है | ऐसा महात्मा अन्य महात्माओं या शुद्धभक्तों की संगति से प्रगति करता है | शुद्धभक्त तो कृष्ण के अन्य स्वरूपों, यथा चतुर्भुज महाविष्णु रूप से भी आकृष्ट नहीं होते | वे न तो कृष्ण के अन्य किसी रूप से आकृष्ट होते हैं, न ही वे देवताओं या मनुष्यों के किसी रूप की परवाह करते हैं | वे कृष्णभावनामृत में केवल कृष्ण का ध्यान करते हैं | वे कृष्णभावनामृत में निरन्तर भगवान् की अविचल सेवा में लगे रहते हैं |

admin
Author: admin

Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

Leave a Comment

Advertisement
लाइव क्रिकेट स्कोर
कोरोना अपडेट
पंचांग