Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (15)
उद्धार करो भगवान तुम्हरी शरण पड़े।
भव पार करो भगवान तुम्हरी शरण पड़े॥
कैसे तेरा नाम धियायें कैसे तुम्हरी लगन लगाये।
हृदय जगा दो ज्ञान तुम्हरी शरण पड़े॥
पंथ मतों की सुन सुन बातें द्वार तेरे तक पहुंच न पाते।
भटके बीच जहान तुम्हरी शरण पड़े॥
तू ही श्यामल कृष्ण मुरारी राम तू ही गणपति त्रिपुरारी।
तुम्ही बने हनुमान तुम्हरी शरण पड़े॥
ऐसी अन्तर ज्योति जगाना हम दीनों को शरण लगाना।
हे प्रभु दया निधान तुम्हरी शरण पड़े॥
अकुर सेठ ने श्रीकृष्ण के आदेशानुसार की संपूर्ण व्यवस्था
दूसरे दिन प्रातःकाल नरसिंह राम तो स्नानादि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर भजन -पूजन में प्रवृत हुए और अक्रूर जी सेठ के वेशभूषा में शहर में जाकर उनका सारा प्रबंध करने लगे । उनहोने एक अत्यंत सुंदर मकान उनके रहने के लिए मोल ले लिया और अन्न,वस्त्र तथा अन्यान्य गृहस्थी की सारी वस्तुएँ खरीदकर उसमें भर दी । सारा प्रबंध हो जाने पर अक्रूर जी ने भक्त राज के पास आकर कहा -‘भक्त राज ! आपकी आज्ञा के अनुसार सभी वस्तुएँ तथा मंदिर तैयार है । आप चलकर देख लीजिए और जैसी राय हो बतलाइये ।’
‘ मेरी राय क्या है ? आप जैसा ठीक समझे वैसा कर दें । आपकी राय में ही मेरी राय है । केवल हजार-पाँच सौ साधुओ की पंगत लग सके और भगवान की सेवा – अर्चना हो सके ,बस ,इतनी व्यवस्था उस मकान में होनी चाहिए ।’ नरसिंह राम ने कहा ।
‘आप चलिये न । सब प्रकार की व्यवस्था हो गयी है । अक्रूर जी ने उतर दिया ।
भक्त राज परिवार सहित उस मकान में आ गये । उनहोने देखा, मकान के अन्दर श्री कृष्ण -मंदिर, कीर्तनशाला, पाठशाला, भण्डार घर, अतिथिशाला,सोने -बैठने की जगह इत्यादि सब बातों की पूर्ण व्व्यवस्था है । भण्डार घर में तीन वर्ष के लिए पर्याप्त अन्नादि सामग्री भर दी गयी है । किसी वस्तु की कमी नहीं है ।
अक्रूर जी ने कहा – “भक्त राज ! श्री कृष्ण जी के आज्ञानुसार मैंने सारी व्यवस्था कर दी हैं । यह पाँच हजार स्वर्ण मुद्रा आपको व्यय के लिए देता हूँ ।” अब आज्ञा दिजीये ,मैं विदा होना चाहता हूँ ।
भगवान के जन भगवत्स्वरूप ही होते हैं ।परम भगवत नरसिंह राम सहसा कैसे अक्रूर जी को विदा कर देते? प्रेमाश्रुओं से उनके नेत्र भर आये, गला रूँध आया । उनहोने किसी तरह कहा- ‘जैसी आपकी मर्जी ‘ कहकर उन्हें ‘ जय श्री कृष्ण ‘किया ।
अक्रूर जी विदा हो गये । मणिकाबाई ने रसोई बनायी ।भक्त परिवार ने भगवान को भोग लगाकर अमृत स्वरूप प्रसाद ग्रहण किया ।
मणिकाबाई ने बड़े सन्तोष और आनंद के साथ कहा-‘ प्राणेश ! आपका वचन तो अक्षरशः सत्य उतरा । आपकी भक्ति के प्रभाव से अपने -आप सारी व्यवस्था हो गयी।’
नरसिंह राम ने कहा -‘प्रिये ! इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है । मनुष्य की रक्षा मनुष्य के द्वारा कभी नही हो सकती
, *जगत भर का पोषक स्वयं परम पिता परमेश्वर ही है । जो मनुष्य उसका अनन्य -आश्रय ग्रहण कर लेता है, शोक-चिंता उसके पास तक नहीं फटकती फिर मुझे तो भगवान श्रीकृष्ण ने वचन दिया है कि ‘अनन्यभाव मेरा चिन्तन करता हुआ जो मनुष्य मेरी उपासना करता है, उस नित्य युक्त मनुष्य का योग क्षेम मैं वहन करता हूँ ।’ प्रिये ! हमारा कार्य तो बस इतना ही है कि हम अनन्याश्रय होकर उसका भजन -पूजन करते रहे ।’
नाम जपत कुष्ठी भलो, चुइ-चुइ गिरै जो चाम।
कंचन देह किस कामकी, जिहि मुख नाहीं राम।।
—कबीरद
Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣5️⃣
भाग 2
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#भृगुपतिगएवनहींतपहेतु …..
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏
#मैवैदेही ! …………….
हे भगवान परसुराम ! ये जनक आपको प्रणाम करता है !
“प्रसन्न रहो” …………ये आशीर्वाद भी क्रोध में ही दिया था ।
मेरी ये पुत्री सीता है ………..इसे भी आशीर्वाद दीजिये …… आज ही इसका स्वयंवर हुआ है ब्रह्मर्षि !
सौभाग्यवती भवः ।
मेरे पिता जी इस आशीर्वाद से बहुत प्रसन्न हुए …..तब मै समझीं कि मुझे क्यों आशीर्वाद दिलाना चाहते हैं मेरे पिता …………ताकि मेरे सुहाग की और ये देखें भी न ……………पर अब जो आगे हुआ –
हे ब्रह्मर्षि परसुराम ! मै विश्वामित्र आपको प्रणाम करता हूँ ।
अब आगे आये थे ऋषि विश्वामित्र ……………
कैसे हैं आप ऋषि ? ऋषि विश्वामित्र को देखते ही कुछ शान्त हुए …………..श्री राघवेन्द्र नें और लक्ष्मण भैया नें भी प्रणाम किया ।
जनक ! ए जनक !
इतनें सारे क्षत्रिय एक साथ ……….कैसे इकट्ठे हुए हैं ?
मेरे पिता जी आगे आये …….और हाथ जोड़कर बोले………..मुझे पिनाक मिला था …….भगवान शंकर से …………..
इससे आगे मेरे पिता बोलनें जा रहे थे कि ऋषि परसुराम नें हाथों के इशारे से उन्हें रोक दिया ……….
और तेनें भगवान शंकर के द्वारा दिए गए पिनाक को तुड़वा दिया ।
ये मेरी पुत्री है ……….इसका विवाह उसी से होगा जो पिनाक तोड़ेगा ….मैने ऐसी प्रतिज्ञा कर ली थी हे भगवन् !
जनक !
लाल अंगार जैसी आँखें परसुराम की ..............वो मेरे पिता का नाम लेकर चीखे ............।
अब तो ये बता कि राम कौन है ?
बताओ ! इस सभा में राम कौन है ?
पूरी सभा चुप ।
पूरी सभा में घूमनें लगे परसुराम ……………….
देखो ! जो राम है ……..वो आगे आजाये ………नही तो उस राम के चलते सब मारे जायेंगें !
सभा चुप रही ।
पिनाक “राम” नामक राजकुमार नें ही तोडा है ना जनक !
मेरे पिता के पास आकर फिर चिल्लाये थे परसुराम ।
“हाँ “
…………केवल इतना ही बोलकर चुप हो गए मेरे पिता जी ।
अबकी निगाहें श्री राम पर टिकी हैं ………..
मेरे श्री राम आगे आये ……………..और हाथ जोड़ते हुए ही ऋषि परसुराम के पास गए ………आहा ! उस समय क्या छवि थी मेरे राम की …….गम्भीर थे …..शान्त थे ……..हल्की मुस्कुराहट अधरों में थी ।
जैसे हाथी अपनी मत्तता में चलता है ऐसे ही चलते हुए गए थे परसुराम के पास ….मेरे श्री राम जी ।
हे ब्रह्मर्षि ! पिनाक तोड़नें वाला आपका कोई सेवक ही होगा ।
तू कौन है ? बोल तू कौन है ?
परसुराम नें फरसा श्री राम को दिखाते हुए कहा ……बता तू कौन है ?
मै राम हूँ …….अवध नरेश श्री चक्रवर्ति सम्राट दशरथ पुत्र राम ।
ये धनुष किसनें तोडा ……………….?
प्रभु ! धनुष तोड़नें वाला आपका कोई सेवक ही हो सकता है ।
कितनी मधुर वाणी थी मेरे श्री राम की ।
सेवक ? सेवक का काम होता है सेवा करना…….ये सेवा है मेरी ?
क्रोध से परसुराम जी की साँसे तेज़ तेज़ चल रही थीं …………..।
तभी मेरी दृष्टि गयी लक्ष्मण भैया की और ………………
गुरुदेव ! आपनें सही व्यक्ति को सही व्यक्ति से नही मिलाया ।
लक्ष्मण भैया की बात सुनकर ऋषि विश्वामित्र जी हँसे ………
क्यों ?
हम दोनों अगर मिलते ……….परसुराम और मै ……तब होती सही मुलाक़ात …………गुरुदेव ! आपही देखिये ना …….कहाँ ये सरल व्यक्तित्व श्री राम …..और कहाँ ये क्रोध का ही साकार रूप ।
फिर हँसते हुए लक्ष्मण भैया बोले …….गुरुदेव ! आपकी आज्ञा हो तो मै जाऊँ ! थोड़ी मुलाक़ात करके आऊँ ?
मुस्कुराते हुए ऋषि विश्वामित्र जी बोले ……जाओ ।
क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: “लोकाराधन तत्पर श्रीराम”
भागवत की कहानी – 14
शुकदेव गदगद हैं क्यों कि अब भगवान राम की कथा गाई जानी है ।
परीक्षित की ओर देखकर बोले ….श्रुतं हि वर्णितं त्वया सीतापतेर्मुहुर्मुहु : । क्या सुनाऊँ श्रीराम के विषय में ….हे परीक्षित ! तुमने भी तो कई बार सीता पति के पावन चरित्र को सुना ही होगा । ये हैं हीं ऐसे ….ये हैं हीं लोकाराधन तत्पर । नेत्रों से अश्रु झरने लगे शुकदेव के ….उनका मस्तक झुक गया क्यों की हृदय में भगवान राम के चरणाविंद प्रकट हो गये थे ।
ओह ! क्या चरण हैं ….दंडक वन के काँटे गढ़े हैं चरणों में …रक्त बह रहा है ….किन्तु चले जा रहे हैं …इन्हें कहाँ काँटों की परवाह ! इन्हें तो परवाह है मर्यादा की , इनको परवाह है धर्म की ..इनको परवाह है सत्य की ..और इनको परवाह है अपने लोगों की …प्रजा की …शुकदेव के नेत्रों से अविरल अश्रु बह रहे हैं ….ये भगवान हैं …पूर्ण भगवान …किन्तु भगवान होने के बाद भी ये अपने को भगवान नही मानते …आराधक मानते हैं …अपने को उपासक मानते हैं ….
फिर ये उपासना किसकी करते हैं ? ये आराधना किसकी करते हैं ? परीक्षित का प्रश्न है ।
“लोक , जन , इनकी प्रजा” यही इनके आराध्य हैं इन्हीं की उपासना में श्रीराम लगे रहते हैं ।
इनके लिए कोई महत्वपूर्ण नही है …न राज्य , न धन , न जन , यहाँ तक कि इनकी प्रिया भी इनके लिए महत्वपूर्ण नही हैं …लोक । इनके लिए इनका लोकाराधन ही महत्वपूर्ण है …ओह ! श्रीशुकदेव सिर झुका देते हैं और कहते हैं ….”ऐसे रघुपति के चरणों की मैं शरण लेता हूँ”।
भगवान श्रीराम अपने पिता की आज्ञा का पालन कर वन गए ….राज्य का परित्याग कर दिया …कोई चिन्ता नही थी श्रीराम को …कि मुझे ऐसा महान राज्य छोड़ना पड़ रहा है । अकेले नही गये अपनी प्राण बल्लभा सीता को भी ले गये ……ये चलते थे कंटक भरे मग में तो चरण छिल जाते ….सीता जी बैठातीं और अपने साड़ी के पल्लू से चरण पोंछतीं ….फिर थके जान उन कोमल चरणों को दबातीं ….जब दबातीं तब सीता जी को बड़ा सावधान रहना पड़ता था कि मेरे प्राणनाथ के चरण कोमल हैं और मेरे हाथ कठोर । श्रीराम ने आगे जाकर सुर्पनखा को विरूप किया इसका परिणाम ये हुआ कि राक्षस राज रावण इनकी प्रिया को ही हर कर ले गया था । उफ़ ! कितना रोए उस समय प्रभु राम ….मानवी लीला अद्भुत दिखाई इन्होंने ….ये सीता की याद में रोते रोते कभी कभी अपने को भी भूल जाते थे ….ये लक्ष्मण से पूछते …भाई ! मैं कौन हूँ …तब लक्ष्मण कहते …आप श्रीराम हैं । मैं यहाँ वन में क्यों आया हूँ ? तब लक्ष्मण कहते …प्रभु ! पिता जी की आज्ञा का पालन करने के लिए आप-हम यहाँ आए हैं । किन्तु …मैं रो क्यों रहा हूँ ? इस तरह के प्रश्न से लक्ष्मण विचलित हो उठते उनसे उत्तर देते नही बनता था । वो बड़ी कठिनाई पूर्वक कहते ….प्रभु ! सीता भाभी की खोज में हम आए हैं । सीता कौन ? तब हिलकियाँ छूट जातीं लक्ष्मण की …और वो कहते …जनकदुलारी , जिनके साथ आपने पाणिग्रहण जनकपुर में किया था …ये सुनते ही …”हा हा प्रिये जानकी” कहते हुए धरती में मूर्छित हो जाते । ऐसे प्रभु श्रीराम । शुकदेव भावनिमग्न होकर ये प्रसंग सुना रहे हैं ।
क्रोधित हो उठे थे प्रभु राम , रावण द्वारा सीता हरण की घटना से ….इनके क्रोध से समुद्र काँप उठा था ….वो हाथ जोड़ता हुआ आया और भगवान ने उसके ऊपर सेतु का निर्माण किया । ऐसे कोसलेन्द्र हमारी रक्षा करें । शुकदेव की वाणी भाव के कारण अवरुद्ध हो रही है ।
“उपासितलोकाय”……..शुकदेव कहते हैं ….भगवान श्रीराम ही ऐसे हैं …जिनके द्वारा लोक की उपासना होती है …..रावण वध करके भगवान श्रीराम जब अवध आये और उनका राज्याभिषेक हुआ , इसके बाद तो उन्होंने चारों ओर से अपना मुंह ही मोड़ लिया था….और अपनी लोक उपासना में ही लग गये । जैसे कोई सन्यास ले लेता है तो सब कुछ उसकी अपनी आत्मा ही हो जाती है …वो सन्यासी चारों ओर से अपनी वृत्तियों को समेट कर अपने आत्मतत्व के चिन्तन में अपने को लगा देता है …ऐसे ही भगवान श्रीराम ने किया । जैसे ही ये राजा बनें ….इन्होंने अपनी निज जीवन का महत्व ही समाप्त कर दिया ….ये पूर्ण रूप से अपनी प्रजा के हो गए थे …लोक , जन …ही इनके सब कुछ थे …..इसलिए तो ये रात्रि में भेष बदल कर घूमने जाते अपने राज्य में …और सुनते छुपकर की लोग क्या कह रहे हैं अपने राजा के विषय में । “हे परीक्षित ! वहीं कोई कह रहा था अपनी पत्नी को , कि मैं राम नही हूँ जो तुझे रख लूँगा …राम तो स्त्री लंपट है”। कैसे सुन लेते श्रीराम अपने आराध्य के मुख से अपने विषय में ये सब । ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में अपनी प्रिया को छुड़वाया दिया और स्वयं अपने लोकाराधन में तल्लीन हो गये ….इनकी यही साधना थी ….लोक का ही ध्यान । कोई कमी नही रहनी चाहिए प्रजा में ….प्रजा दुखी न हो …भले ही स्वयं को कितना भी दुःख मिले । प्रजा के लिए …अपने लोक की प्रसन्नता के लिए भगवान श्रीराम ने अपनी प्रसन्नता त्याग दी , अपना सुख …और अपनी आत्मा सीता सब कुछ लोकाराधन में लगा कर अन्त में अपने धाम में चले गये । ऐसे हैं मेरे राम ! श्रीशुकदेव अब कुछ देर के लिए यहाँ मौन हो जाते हैं ।
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 16
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अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् |
मन्त्रोSहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् || १६ ||
अहम् – मैं; क्रतुः – वैदिक अनुष्ठान, कर्मकाण्ड; अहम् – मैं; यज्ञः – स्मार्त यज्ञ; स्वधा – तर्पण; अहम् – मैं; अहम् – मैं; औषधम् – जड़ीबूटी; मन्त्रः – दिव्य ध्वनि; अहम् – मैं; एव – निश्चय ही; आज्यम् – घृत; अहम् – मैं; अग्निः – अग्नि; अहम् – मैं; हुतम् – आहुति, भेंट |
भावार्थ
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किन्तु मैं ही कर्मकाण्ड, मैं ही यज्ञ, पितरों को दिया जाने वाला अर्पण, औषधि, दिव्य ध्वनि (मन्त्र), घी, अग्नि तथा आहुति हूँ |
तात्पर्य
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ज्योतिष्टोम नामक वैदिक यज्ञ भी कृष्ण है | स्मृति में वर्णित महायज्ञ भी वही हैं | पितृलोक को अर्पित तर्पण या पितृलोक को प्रसन्न करने के लिए किया गया यज्ञ, जिसे घृत रूप में एक प्रकार की औषधि माना जाता है, वह भी कृष्ण ही है | इस सम्बन्ध में जिन मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है, वे भी कृष्ण हैं | यज्ञों में आहुति के लिए प्रयुक्त होने वाली दुग्ध से बनी अनेक वस्तुएँ भी कृष्ण हैं | अग्नि भी कृष्ण है, क्योंकि यह अग्नि पाँच तत्त्वों में से एक है, अतः वह कृष्ण की भिन्ना शक्ति कही जाती है | दूसरे शब्दों में, वेदों में कर्मकाण्ड भाग में प्रतिपादित वैदिक यज्ञ भी पूर्णरूप से कृष्ण हैं | अथवा यह कह सकते है कि जो लोग कृष्ण की भक्ति में लगे हुए हैं उनके लिए यह समझना चाहिए कि उन्होंने सारे वेदविहित यज्ञ सम्पन्न कर लिए हैं..
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877