🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣5️⃣
भाग 3
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#भृगुपतिगएवनहींतपहेतु …..
📙( #रामचरितमानस )📙
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#मैवैदेही ! …………….
तभी मेरी दृष्टि गयी लक्ष्मण भैया की और ………………
गुरुदेव ! आपनें सही व्यक्ति को सही व्यक्ति से नही मिलाया ।
लक्ष्मण भैया की बात सुनकर ऋषि विश्वामित्र जी हँसे ………
क्यों ?
हम दोनों अगर मिलते ……….परसुराम और मै ……तब होती सही मुलाक़ात …………गुरुदेव ! आपही देखिये ना …….कहाँ ये सरल व्यक्तित्व श्री राम …..और कहाँ ये क्रोध का ही साकार रूप ।
फिर हँसते हुए लक्ष्मण भैया बोले …….गुरुदेव ! आपकी आज्ञा हो तो मै जाऊँ ! थोड़ी मुलाक़ात करके आऊँ ?
मुस्कुराते हुए ऋषि विश्वामित्र जी बोले ……जाओ ।
हे राम ! तुम क्या समझते हो ……….ये पिनाक धनुष कोई साधारण धनुष था ………..ये असाधारण धनुष था इस विश्व का …..
हे ऋषि ! मेरी एक बात समझमें नही आरही ………कि आपको क्रोध किस बात का है !
लक्ष्मण जी आगे बढ़कर बोले ……….।
तू कौन है बालक ? परसुराम जी फिर चिल्लाये ।
मै इनका सेवक छोटा भाई ही हूँ ……………और मेरा नाम है लक्ष्मण ।
पर आप को क्रोध क्यों ?
हे ऋषि ! हम बचपन में आपकी कुटिया में भी गए हैं ……..ऐसे ही खेलते खेलते ……..हनुमान जी हमें अपनें कन्धे पर बिठाते थे …..और ले चलते थे …….छोटे तो थे ही ……..।
एक बार आपकी कुटिया में चले गए ………तो हमनें देखा वहाँ ……….हजारों धनुष रखे हुए थे आपनें …………
क्या आप धनुष के विक्रेता हैं ?
और यहाँ भी इतनें सारे शस्त्र लेकर आये हैं ………..लक्ष्मण भैया ताली बजाकर हँसते हुए बोले ……..मैने तो समझा था कि कोई शस्त्र बेचनें वाला व्यापारी आया है ………।
लक्ष्मण ! …………………..क्रोध चरम पर पहुँच गया परसुराम का ।
अरे सुनो ! सुनो ऋषि ! फिर आपकी कुटिया में जाकर मैने, जो जो धनुष आपनें रखे थे …….उन्हें देखा ………बड़े कमजोर धनुष थे ……प्रत्यञ्चा चढानें के लिए जैसे ही धनुष को मै झुकाता, टूट जाता धनुष तो ….ऐसे मैने आपकी कुटिया में रखे हजारों धनुषों को तोड़ दिया था ।
पर आप उस समय तो क्रोध नही किये ……न हमारे अयोध्या में आकर क्रोध को प्रकट किया ……….फिर आज क्या हो गया आपको ?
बालक ! तुझे क्या लगता है …….ये पिनाक …….क्या अन्य साधारण धनुष की तरह है ? मुर्ख बालक ! ये पिनाक है ……….।
देखो ! ऋषि ! हम तो क्षत्रिय हैं ……..हमारे लिए सारे धनुष समान ही हैं ………चाहे पिनाक हो …..या कोई और !
मुर्ख बालक ! तू समझता नही है !
ऋषि ! समझते तो तुम नही हो ।
मुर्ख बालक ! क्या ये साधारण धनुष था ?
ऋषि ! जब धनुष साधारण नही था तो तोड़नें वाला साधारण कैसे हो सकता है !
पूरी सभा सुन रही थी…….लक्ष्मण और परसुराम के इस संवाद को ।
पर मेरी सखियाँ ! …..दुष्ट हैं ……..बहुत बदमाश हैं ।
उर्मिला ! देख………..हम तो आज तक सोच रही थीं तेरा ये लक्ष्मण गूँगा है ……पर बहुत अच्छा बोलता है ये तो ……..
जीजी ! देखो ना ……..इन सबको …………उर्मिला नें धीरे से कहा मेरे कान में ……….
मैने पीछे मुड़कर देखा ……….और आँखे दिखाकर कहा …….परसुराम हैं ………..चुप रहो !
पीछे से मेरी सखी बोली ……..हमारा क्या कर लेंगें ।
मुझे हँसी भी आरही थी इनकी बातों से ………..पर सभा में दृश्य तो विचित्र दीख रहा था ………लक्ष्मण उलझ गए थे …परसुराम से …..।
राम ! बचा ले अपनें छोटे भाई को …….अन्यथा ये मेरे हाथों मारा जाएगा ……..फिर मत कहना कि एक बालक की हत्या मैने कर दी ।
आप इतनें अस्त्र शस्त्र लेकर चलते क्यों हो ? हे ऋषि ! आपको क्या जरूरत इतनें शस्त्रों की ……….
अरे ! ऋषि ! आपकी तो वाणी ही इतनी कठोर और तीखी है …..कि शस्त्र फेल ।
लक्ष्मण भैया फिर शुरू हो गए थे …………..मेरी सखियाँ मेरे पीछे से कह रही थीं …….लक्ष्मण की बातों में हम तालियाँ बजाएं ? ….आनन्द आरहा है ……….मैने हाथ जोड़े ……हे मेरी दुष्ट सखियों चुप रहो …कुछ मत करना …..ये परसुराम हैं ।
देखो ! देखो ! मेरे श्री राघवेन्द्र ……….अब आगे आरहे हैं …..और लक्ष्मण भैया पीछे गए ……..मैने सखियों से कहा ।
हे ऋषि ! ये मेरा छोटा भाई है ……….बालक है ……और वैसे भी हम बड़े लोगों को बालक की बातों का बुरा नही मानना चाहिए …….क्षमा कर देना चाहिए …….मेरी आपके चरणों में विनती है हे ऋषि वर ! आप इसे क्षमा कर दें ।
आहा ! राम ! तुम कितना मीठा बोलते हो …………आनन्द आगया तुम्हारी वाणी सुनकर ……….पर विधाता नें इसके साथ तुम्हारी जोड़ी ठीक नही बनाई ………..ये तुम्हारे लायक नही है राम !
परसुराम जी नें कहा था ।
हाँ ऋषि ! इनकी और मेरी जोड़ी ठीक नही है ……पर तुम्हारे साथ मेरी जोड़ी ठीक है …………ऐसा कहते हुये लक्ष्मण भैया आगे आगये थे ।
तू फिर आगया …………मै तुझे मार दूँगा …………ये कहते हुए परसुराम आगे बढ़े ………..
ए ऋषि ! ये बार बार हमें फरसा न दिखाओ …….हम कोई छुई मुई का पौधा नही हैं जो मुरझा जाएँ ………..।
अगर हिम्मत है …..तो आओ जनेऊ तोड़कर आओ ……..माथे का त्रिपुण्ड्र मिटाकर आओ ………..क्यों की हमें सिखाया गया है ऋषि के ऊपर हाथ नही उठाना ……..आओ अपनें ऋषिओं के चिन्हों को मिटाकर……फिर मै बताता हूँ कि क्या ताकत है सुमित्रा के दूध में ।
बस इतना सुनते ही परसुराम का क्रोध आसमान पर चढ़ गया ।
तभी श्री राघवेन्द्र आगे आये …………….हे ऋषि ! मै हूँ आपका दोषी ….आपके पिनाक को मैने तोडा है ……इसलिये आप मुझे जो दण्ड देना चाहें …..दें ।
चलो राम ! मै तुम्हे अवसर देता हूँ …लडो मेरे साथ ।
नही ऋषि ! मेरे छोटे भाई नें जो अभी कहा …..मै भी वही कहूँगा ……हम क्षत्रिय लोग ऋषियों के ऊपर हाथ नही उठाते …..ये हमें शिक्षा दी गयी है …..इसलिये आप अपना फरसा लें …….और मेरे सिर को काट दें ………ये राम अपना सिर आपके सामनें झुकाता है ।
इतना कहकर श्री राघवेन्द्र नें अपना शीश झुका दिया था ।
राम ! ए राम ! ये क्या ?
अपना उत्तरीय हटाओ तो ! परसुराम जी नें कहा ।
ये तुम्हारे वक्ष में क्या है ? भृगु पद चिन्ह ?
ये तो भगवान नारायण के अलावा और किसी के वक्ष में नही होता ।
ओह ! तो क्या ? तुम नारायण हो ?
परसुराम हाथ जोड़कर खड़े थे अब मेरे श्रीराम के आगे ।
ये धनुष लो राम ! इसको चढ़ाओ ।
मेरे श्री राम नें उसी समय परसुराम के धनुष को लिया ………और जैसे ही उसे चढानें लगे …………..
पता नही अब हँसी आती है …….मुझे …….मै दौड़ी थी अपनें श्री राघवेन्द्र के पास ………मेरी सखियाँ मुझे देखती रह गयीं थीं ।
पर मै दौड़ी ……बहुत तेज़ दौड़ी ……..और श्री राघवेन्द्र के चरण पकड़ लिये ……..नाथ ! अब नही ……..एक पिनाक को चढाया तो मेरे साथ आपका विवाह हो रहा है ……….अब कहीं इस दूसरे धनुष को आपनें चढ़ा लिया ……तो कहीं दूसरी राजकुमारी आपको वरमाला पहनानें न आजाये ……।
तब मेरे नाथ नें अपनें दोनों हाथों को उठाकर प्रतिज्ञा की थी …..
हे सीते ! मै समस्त लोकों को साक्षी मानकर ये प्रतिज्ञा करता हूँ कि ये राम एक पत्नीव्रत धर्म का ही पालन करेगा……………..एक ही विवाह करेगा राम …….राम के लिए वैदेही को छोड़कर अन्य सब माँ और भगिनी हैं ………..बस ।
इतना कहकर जैसे ही मेरे प्रभु नें अपनें दोनों हाथों को उठाया था …….तभी फूल बरस पड़े ………..जयजयकार होनें लगा ।
परसुराम नें अपनें दोनों हाथों को जोड़ लिया था ….मेरे श्री राम के सामनें ……….इससे ज्यादा झुकना इनके स्वभाव में था भी नही ।
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: “महामुनि ऋचीक”
भागवत की कहानी – 15
आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व , हमारा विज्ञान बहुत उन्नत था , विज्ञान , जीव विज्ञान , भौतिक विज्ञान , रसायन विज्ञान, समाज विज्ञान और तो और अध्यात्म विज्ञान का तो कोई तोड़ ही नही था …हमने विश्व को दिया है – “अध्यात्म विज्ञान”। हाँ , यही बात लोग पकड़ लेते हैं और कहते हैं …अध्यात्म ही आपकी देन है …बाकी तो आपके पास कुछ है नही । हम कहते हैं ….छोड़ो और बातें ….जीव विज्ञान , भौतिक विज्ञान समाज विज्ञान ये सब तो हमारे पास थे ही । लाखों वर्षों की समृद्ध संस्कृति है हमारी …जीव विज्ञान में – “राजा युवनाश्व के पेट में हमने मांधाता को नौ महीने तक रखा है” ( भागवत का एक प्रसंग ) ये कथा मात्र नही है …ये सत्य है ।
अब सुनो – समाज विज्ञान के चलते हमने विवाह जैसी संस्था विश्व को दी …..सुनो हमारी …और रसायन विज्ञान हमारा तुमसे ज़्यादा उन्नत था । कैसे ? उस युवक ने प्रश्न किया ….फिर ये भी साथ साथ में पूछा …जाति व्यवस्था आपकी जन्म से है ? मैं हंसा …मैंने कहा ..बाहर की बातें सुनकर मात्र कुछ नही होता …पहले अध्ययन करो …अपने पुराणों का । पुराणों में कुछ नही है खाली कपोल कल्पना है ….उस युवक का ये भी कहना था । क्या जानते हो पुराणों के विषय में ? वो इधर उधर देखने लगा …तो मैंने कहा …विज्ञान कहता है ….जब तक किसी विषय को पूर्णता से न समझो तब तक उसकी आलोचना उचित नही है । वैज्ञानिक ऐसा नही करता ।
वो अपने को विज्ञान का छात्र बता रहा था ।
तुमने जाति यानि वर्ण व्यवस्था के सम्बन्ध में पूछा …तो सुनो एक भागवत की कथा सुनाता हूँ ।
मैंने उससे कहा …और उसे कथा सुनाने लगा था ।
राजा गाधि महान थे ….उनका जन्म चन्द्र वंश में हुआ था ….इनकी पुत्री अतिसुन्दरी थीं …सत्यवती ….यही नाम था इनका । एक बार अपने पिता के साथ सत्यवती रथ में बैठकर कहीं जा रहीं थीं कि उधर से महामुनि ऋचीक आगये ….ये बड़े तपशील मुनि थे ….ये प्रथम बार ही गाधि राजा के राज्य में आए थे …..सामने से रथ में बैठे राजा को देखा तो रुक गये ….राजा ने संकेत किया कि महाराज ! आप मेरे महल में पधारें ….यहाँ मैं क्या बात करूँ ? मुनि ऋचीक की दृष्टि उस समय राजा के साथ खड़ी उसकी सुन्दर कन्या पर पड़ी….बस , फिर क्या था महामुनि का हृदय सत्यवती पर आगया । वो राजा के पास गये …..राजा ने कहा …आप आज्ञा करें , ये सेवक आपकी क्या सेवा करे । ये सुनते ही महामुनि ने राजा से कहा ….आप अपनी पुत्री हमें दे दो । क्या ! राजा को बुरा लगा …क्रोध भी आया कि देखो इस बाबा जी की इतनी हिम्मत …राजकुमारी से ब्याह करेगा ये बाबा ! किन्तु अपने क्रोध को प्रकट होने नही दिया ।
हे मुनि ! मेरा कहना इतना ही है कि …..हमारे यहाँ एक प्रथा है ….राजा ने तुरन्त बहाना बना दिया …..कहा – जल के देवता वरुण के पास काले कान के सफेद घोड़े हैं ….वो घोड़े एक हजार अगर कोई ला देगा तो हम अपनी बेटी उसे दे देंगे । राजा ने सोचा था ये ला नही पायेंगे और बेटी मुझे देनी नही है । किन्तु ये मुनि ऋचीक भी कोई सामान्य तो थे नही ….राजा की बात सुनते ही वो वरुण लोक पहुँच गये और वहाँ से वरुण को कहकर एक हजार काले कान वाले सफेद घोड़े ले आये । सोचा भी नही था राजा ने तो …..अब तो पुत्री देनी पड़ेगी ….और राजा के कोई बेटा भी अभी नही था …महारानी ने मना कर दिया और कहा ….मैं अपनी बेटी नही दूँगी ।
देखो महारानी ! जो महात्मा वरुण लोक से हजार घोड़े ला सकता है …वो तो कुछ भी कर सकता है …इसलिये ऐसे महान प्रतापी मुनि को अपनी पुत्री देने से हित ही है …हित ही होगा । ये कहकर राजा ने अपनी कन्या को सारी बात बताई …कन्या भी प्रसन्न थी क्यों की महामुनि ओजवान थे । विवाह हुआ ….सत्यवती और मुनि ऋचीक का । समय बीता अब सत्यवती ने प्रार्थना की कि हे प्रभो ! विवाह संस्कार का उद्देश्य ही वंश चलाना है …इसलिए मेरे मन में सन्तान की इच्छा है …पत्नी सत्यवती ने अपने पति मुनि ऋचीक से कहा । महामुनि बोले …ठीक है मैं एक रसायन तैयार करता हूँ तुम उसे पी लेना तो हमारा पुत्र ब्रह्मतेज सम्पन्न पैदा होगा । सत्यवती प्रसन्न हुई ….तभी सत्यवती की माता यानि राजा गाधि की पत्नी भी वहाँ आगयीं । उन्होंने पूछा …बेटी ! हमारे जामाता क्या कर रहे हैं ? माता ! वो रसायन तैयार कर रहे हैं जिससे मुझे सुयोग्य पुत्र हो ….माता तुरन्त बोलीं …बेटी ! भाई तो तुझे भी चाहिए ना ! इसलिए एक रसायन मेरे लिए भी बनवा दे । माता के कहने से सत्यवती ने अपने पति मुनि ऋचीक से कहा । ऋचीक मान गये और अपनी सास के लिए भी एक रसायन तैयार कर दिया ।
सत्यवती ! ये रसायन तुम्हारा है और ये तुम्हारी माता का है । सन्ध्या का समय हो गया था इसलिए वो स्नान भजन आदि के लिए गये । इधर सत्यवती का पात्र और दूसरा पात्र उसकी माता का …किन्तु सत्यवती की माता ने विचार किया ….अपनी पत्नी के लिए अच्छा वाला रसायन बनाया होगा जिससे सुन्दर पुत्र हो और मेरे लिए तो कहने से बनाया है इसलिए मेरा वाला ज़्यादा अच्छा नही होगा , ऐसा सोचकर “अपनी पुत्री सत्यवती वाला रसायन स्वयं ने पी लिया और अपना वाला रसायन अपनी पुत्री को पिला दिया “। ये बात जब महामुनि लौटे तो उन्हें पता चला ….अपना माथा पीटकर मुनि बोले …..अरे ! ये क्या किया तुम लोगों ने ….सत्यवती ! मैंने तुम्हारे लिए जो रसायन तैयार किया था उससे ब्राह्मण पुत्र होता …और तुम्हारी माता के लिए जो रसायन बनाया था …उसमें क्षत्रिय के अंश वाला रसायन बनाया था यहाँ तो सब उल्टा हो गया ऐसा कहकर मुनि ऋचीक ने अपना माथा पकड़ लिया । सत्यवती चरणों में गिर गयी आप ब्राह्मण हैं तो हमारा पुत्र भी ब्राह्मण ही होना चाहिए ….रोने लगीं सत्यवती ….तो मुनि ऋचीक बोले …ठीक है एक जन्म के लिए तो तुम्हारे उदर में गये बीज को मैं दबा दूँगा किन्तु बीज तो निकलेगा ही ….चलो ! तुम्हारा पुत्र तो ब्राह्मण होगा …किन्तु स्मरण रहे …तुम्हारा पौत्र क्षत्रिय स्वभाव का होगा …मुनि इतना ही बोले । मेरा पुत्र ? सास ने अब पूछा ….तो मुनि ऋचीक अपनी सासु माँ से बोले ….आपका पुत्र तो क्षत्रिय होने के बाद भी ब्राह्मण ही होगा …इसके लिए मैं कुछ नही कर सकता ।
भागवत कहती है – एक जन्म रोक लिया मुनि ऋचीक ने इसलिए इनके पुत्र हुए ऋषि जमदग्नि किन्तु जमदग्नि के पुत्र जो हुये उसमें रसायन का पूरा बीज प्रकट हुआ था ..वो थे “परशुराम”। पूरे क्षत्रिय स्वभाव के थे । और गाधि राजा के जो पुत्र हुये उनका नाम था “विश्वामित्र” ये क्षत्रिय गर्भ से जन्मने के बाद भी पूरे ब्राह्मण स्वभाव के थे…रसायन का प्रभाव ।
शुकदेव जी कहते हैं ….ये जाति-वर्ण स्वभाव है परीक्षित ! जो शान्त है …विशेष महत्वाकांक्षा जिसके मन में नही …अपने आत्मतत्व का ही चिन्तन करता है वो “ब्राह्मण स्वभाव” है ….दूसरे को जीतना , बदला लेना , अपनी समृद्धि का विस्तार करना …ये “क्षत्रिय स्वभाव” है ….और जो विशेष व्यापार में चतुर है ..और हर व्यवहार को हानि लाभ से तोलता हो ….वो “वैश्य स्वभाव” का है …और जिसे अपने देह से ही मतलब है ….जिसका ध्यान अपने देह से आगे जाता ही नही है …..वो “शूद्र स्वभाव” का है । परीक्षित मुस्कुराये …गुरुदेव ! आपने ने तो अद्भुत समाधान कर दिया …..परीक्षित शुकदेव को प्रणाम करते हैं ।
मुझे अब क्या कुछ कहने की आवश्यकता है ? इस कथा में “रसायन विज्ञान” है ….रसायन ऐसा तैयार किया मुनि ऋचीक ने जिसमें जन्म लेने वाले बालक में क्या गुण क्या स्वभाव चाहिए …वो सब था । क्या आज का विज्ञान ऐसा कुछ कर सकता है ? मैंने उन युवकों से पूछा । वो बोले …आने वाले समय में ये भी होगा …उनका कहना था । आने वाले समय में ना ? किन्तु मैं जो कह रहा हूँ ये तो हजारों वर्ष पूर्व की बात है । वो कुछ नही बोले ..मैंने कहा ..जाति-वर्ण व्यवस्था जन्मना नही थी ….ये तो स्वभाव था । पुराणों को समझना होगा । पुराण हमारी बुद्धि में नही बैठते तो हम उसे कपोल कल्पना तो नही कह सकते ना ? इसको समझो ! वो लोग कुछ देर बैठे फिर चल गये थे ।
Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (16)
प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर प्रभु को नियम बदलते देखा .
अपना मान भले टल जाये भक्त मान नहीं टलते देखा ..
जिसकी केवल कृपा दृष्टि से सकल विश्व को पलते देखा .
उसको गोकुल में माखन पर सौ सौ बार मचलते देखा ..
जिस्के चरण कमल कमला के करतल से न निकलते देखा .
उसको ब्रज की कुंज गलिन में कंटक पथ पर चलते देखा ..
जिसका ध्यान विरंचि शंभु सनकादिक से न सम्भलते देखा .
उसको ग्वाल सखा मंडल में लेकर गेंद उछलते देखा ..
जिसकी वक्र भृकुटि के डर से सागर सप्त उछलते देखा .
उसको माँ यशोदा के भय से अश्रु बिंदु दृग ढ़लते देखा ..
माणिकबाई ( नरसी की पत्नी ) को पुत्री विदाई की चिंता
भक्त राज नरसिंह राम का जीवन एकान्त भजन में बीतने लगा । साधु-संतो के अखाड़े में जाना, सत्संग करना ,भजन गाना यही उनके नित्य का कार्य था । यदि कोई भगवदभक्त उनको अपने घर भजन करने का आमंत्रण दे जाता तो वह बड़े उल्लास के साथ रात भर उसके घर जाकर भजन करते रहते । इसके अतिरिक्त उनके घर पर सदा साधु -सन्तों का जमघट लगा रहता और वह मुक्त हस्त होकर उनकी हर तरह से सेवा किया करते । भगवदभजन और साधु सेवा के अतिरिक्त उनके जिम्मे दूसरा कोई कार्य नहीं था ।
हरिकीर्तनशीलो वा तद्भक्तानां प्रियोऽपि वा।
शुश्रूषुर्वापि महतां स वन्द्योऽस्माभिरूत्तमः।।[1]
देवता कहते हैं- जो भगवान के सुमधुर नामों का संकीर्तन करता है अथवा जो हरिभक्तों का प्रिय ही है और जो देवता, ब्राह्मण, गुरु और श्रेष्ठ विद्वानों की सदा सेवा-शुश्रूषा करता है, ऐसा श्रेष्ठ भक्त हम लोगों का भी वन्दनीय है। अर्थात हम देवता त्रिलोकी के वन्द्य हैं, किंतु ऐसा भक्त हमारा भी श्रद्धेय है।
बाहर से आमदनी का कोई जरिया हो नहीं और खर्च खुले हाथों किया जाय तो दूसरे की तो बात ही क्या, कुबेर के भण्डार का भी अन्त होते देर न लगे । यही कारण था कि भक्त नरसिंह राम को जो द्रव्य और अन्नादि सामग्री अक्रूर जी दे गये थे, वह सब तीन वर्ष की जगह छः महीने में ही साफ हो गयी ।
यहाँ तक नौबत आ गयी कि घर की एक -एक चीज बेचकर भगवान का भोग लगाया जाता और साधु-सन्तों को सन्तुषट करने की चेष्टा की जाती । परंतु यह अवस्था भी कब तक चलती । थोड़े दिनों में ही जो इनी-गिनी एक परिवार के काम के योग्य चीजें थी ; वे भी प्रायः समाप्त हो चली ।
अब परिवार का काम बड़े संकोच से चलने लगा । परंतु इतना होने पर भी भक्तराज एकदम निश्चित थे । स्वप्न में भी यह चिंता उनके शान्त मन को स्पर्श नहीं करती थी कि कल क्या होगा । बस , जैसे चलता था वैसे चलता था और वह अपने नित्य के भजन -कीर्तन में मस्त थे।
उन्हीं दिनों एक नयी आफत उनके सिर आ गयी । ऊना से श्रीरंगधर मेहता के कुल पुरोहित कुँवरबाई को विदा करा ले जाने के लिए आ पहुँचे । उस दिन प्रातःकाल से ही भक्त राज किसी स्थान पर भजन करने के लिए गये हुए थे ।
पुरोहित जी ने आकर प्रश्न किया-‘ मेहता जी कहाँ गये है ? कहीं बाहर गये है ; पथारिये महाराज । रसोई करती हुई माणिकबाई ने उत्तर दिया ।
पुरोहित जी ने भीतर आकर अपना नाम, ठाम तथा आने का कारण विस्तार पूर्वक सुनाया । मणिकबाई ने आसन बिछा दिया और यथोचित आदर- सत्कार किया । पुरोहित जी आसन पर बैठ गये ।
माणिकबाई पुत्री की विदाई सुनकर मन ही मन सोचने लगी-‘ अब कया होगा ? भक्त राज तो दिन -रात भक्ति में लीन रहते हैं, कोई काम-काज करते नहीं । जहाँ नित्य भोजन की चिंता लगी रहती,वहाँ कुँवरबाई के दहेज का क्या प्रबंध होगा ? यदि बिना दहेज पुत्री को विदा कर दूँ तो नात- जात में बड़ी निन्दा होगी ।
थोड़ी देर बाद मेहता जी घर लौट आये । तब तक रसोई भी तैयार हो चूँकि थी , केवल उनके आने की ही देर थी । आते ही उन्होंने प्रश्न किया -‘ सती ! भोग में अब क्या विल्मब है ?
‘ कुछ देर नहीं, ला रही हूँ ‘ यह कहते हुए मणिकबाई भोग की सारी सामग्री एक थाल में परोसकर ले आयी । भक्त राज ने भक्ति पूर्वक भगवान को नैवेद सम॔पित किया । तत्पश्चात स्वयं प्रसाद पाने की तैयारी करने लगे ।
उन्होंने पूछा –‘ आज कोई साधु-सन्त आये है या नहीं ?
माणिकबाई ने उत्तर दिया –‘ आज कोई साधु-सन्त तो नहीं है; एक अतिथि आये है ।’
क्रमशः ………………!
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 17
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पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः |
वेद्यं पवित्रम् ॐकार ऋक् साम यजुरेव च || १७ ||
पिता – पिता; अहम् – मैं; अस्य – इस; जगतः – ब्रह्माण्ड का; माता – माता; धाता – आश्रयदाता; पितामहः – बाबा; वेद्यम् – जानने योग्य; पवित्रम् – शुद्ध करने वाला; ॐकारः – ॐ अक्षर; ऋक् – ऋग्वेद; साम – सामवेद; यजुः – यजुर्वेद; एव – निश्चय ही; च – तथा |
भावार्थ
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मैं इस ब्रह्माण्ड का पिता, माता, आश्रय तथा पितामह हूँ | मैं ज्ञेय (जानने योग्य), शुद्धिकर्ता तथा ओंकार हूँ | मैं ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी हूँ |
तात्पर्य
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सारे चराचर विराट जगत की अभिव्यक्ति कृष्ण की शक्ति के विभिन्न कार्यकलापों से होती है | इस भौतिक जगत् में हम विभिन्न जीवों के साथ तरह-तरह के सम्बन्ध स्थापित करते हैं, जो कृष्ण की शक्ति के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हैं | प्रकृति की सृष्टि में उनमें से कुछ हमारे माता, पिता के रूप में उत्पन्न होते हैं वे कृष्ण के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं | इस श्लोक में आए धाता शब्द का अर्थ स्त्रष्टा है | न केवल हमारे माता पिता कृष्ण के अंश रूप हैं, अपितु इनके स्त्रष्टा दादी तथा दादा कृष्ण हैं | वस्तुतः कोई भी जीव कृष्ण का अंश होने के कारण कृष्ण है | अतः सारे वेदों के लक्ष्य कृष्ण ही हैं | हम वेदों से जो भी जानना चाहते हैं वह कृष्ण को जानने की दिशा में होता है | जिस विषय से हमारी स्वाभाविक स्थिति शुद्ध होती है, वह कृष्ण है | इसी प्रकार जो जीव वैदिक नियमों को जानने के लिए जिज्ञासु रहता है, वह भी कृष्ण का अंश, अतः कृष्ण भी है | समस्त वैदिक मन्त्रों में ॐ शब्द, जिसे प्रणव कहा जाता है, एक दिव्य ध्वनि-कम्पन है और यह कृष्ण भी है | चूँकि चारों वेदों – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद में प्रणव या ओंकार प्रधान है, अतः इसे कृष्ण समझना चाहिए |
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