Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣6️⃣
भाग 1
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐
#दूतअवधपुरपठएजाई ………_
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏
#मैवैदेही ! ……………._
श्रीराम अद्भुत हैं , श्रीराम अनुपम हैं , श्रीराम अकल्पित अचिन्त्य शौर्य और महपराक्रमशाली हैं…………उस रंगभूमि में से जब प्रणाम करके महर्षि परसुराम चले गए तब मेरे पिता जनक जी नें हाथ जोड़कर गदगद्कण्ठ से ऋषि विश्वामित्र से ये बात कही थी ।
हे ऋषि ! मै कृतकृत्य हो गया …………और आप तो जानते ही हैं कि कृतकृत्य का अभिप्राय ही ये होता है कि करनें के लिए अब कुछ शेष नही रह गया ………उस रंगभूमि में मेरे पिता जी कितनें भावुक हो उठे थे …….उनके नेत्रों से धन्यता के अश्रु बहते ही जा रहे थे ।
मुझे और क्या चाहिये अब ? मुझे अब करनें के लिए कुछ बचा ही नही है ………..आहा ! राम जैसे जामाता मिले ………….इस विश्व ब्रह्माण्ड में जनक जैसा भाग्य किसका होगा भगवन् !
मै कन्या दान करूँगा ………….मै जामाता के रूप में राम के चरण धोऊंगा ……….साथ में मेरी कन्या जानकी वाम भाग में सुशोभित होगी ………हे भगवन् विश्वामित्र जी ! जनक आज धन्य धन्य हो गया है ……….जनक को अब कुछ नही चाहिए ।
इतना कहकर मेरे पिता जी मौन हो गए थे ।
हे विदेह राज ! अब हम चलते हैं यहाँ से………सीता को सौंप दो राम को ….. अब हम अयोध्या के लिए प्रस्थान करते हैं…….ऋषि विश्वामित्र नें कहा था ।
क्या !
ये सुनते ही रंगभूमि में मेरे पिता समेत माता मेरी सखियाँ और तो और समस्त जनकपुर वासी बिलख उठे थे ………….
ये आप क्या कह रहे हैं हे भगवन् ! ये कैसे हो सकता है ……..मुझे कन्या दान करना है …………मुझे चरण धोनें हैं अपनें दामाद और अपनी लाड़ली कन्या के ………..इन नेत्रों से अश्वारूढ़ दूल्हा राम के दर्शन करनें हैं …….अपनी पुत्री जानकी को दुलहिन के रूप में विदा करनें की आस लिए ये जनक और समस्त जनकपुर वासी बैठे हैं ….
हे भगवन् ! आप हमारी इच्छा पूरी करेंगें ऐसा हमारा विश्वास है ।
मेरे पिता जी सजल नयन से हाथ जोड़े ऋषि विश्वामित्र से बोले जा रहे थे ।
देखो ! विदेहराज ! ये जो स्वयंवर था ये प्रतिज्ञा के पूर्ण होनें के बाद ही सम्पन्न होनें वाला स्वयंवर था ………. इसमें वर को अपनी वरीयता सिद्ध करनी थी ……….वह राम नें कर दी है ………इसलिये हमें आप बाध्य नही कर सकते …..कि विवाह की विधि यहीं करनी ही पड़ेगी । ऋषि विश्वामित्र नें अपनी बात स्पष्ट कर दी थी ।
मै मानता हूँ आप सही बोल रहे हैं……….पर एक कन्या का पिता होनें के नाते मै आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ कि विवाह की सम्पूर्ण विधि यहीं पूरी की जाय ……ये कन्या के पिता की और से आपसे विनती है …….
मेरे पिता नें हाथ जोड़ते हुए ऋषि के चरणों में अपना मस्तक रख दिया था ………। अरे ! नही राजन् ! आप ये क्या कर रहे हैं …….!
ये विनती अब आपको चढ़ानी होगी …..चक्रवर्ती सम्राट महराज दशरथ को…….ऋषि नें समझाया मेरे पिता जी को ……क्यों की मेरे पिता इस समय मात्र एक कन्या के पिता की भूमिका में ही थे ।
आप आज्ञा तो दें ………मै क्या करूँ ?
मेरी माँ सुनयना नें भी आगे बढ़कर ऋषि के चरणों में प्रणाम निवेदित किया था ……………।
हे विदेहराज ! आप जितनी जल्दी हो सके अपनें विशेष दूत को अयोध्या भेजें …….और पत्र में चक्रवर्ती महाराज से निवेदन करें ।
आपको क्या लगता है भगवन् ! कहीं आनें से मना तो नही कर देंगें अवध नरेश ? मेरे पिता जी नें पूछा था ।
नही विदेहराज ! अवध नरेश बहुत अच्छे हैं ………..वो आपकी प्रार्थना को सुनते ही आयेंगें …….और उनके लाडले पुत्र का विवाह भी तो सम्पन्न हो रहा है ……..आपके सन्देश से अवध झूम उठेगा मिथिलेश ।
और मै भी तो यही चाहता हूँ कि ….अवध और मिथिला का सम्बन्ध पक्का हो ………….प्रेम के सूत्र में आप दोनों बंध जाएँ ……….।
आप शीघ्रातिशीघ्र दूत को भेजनें की व्यवस्था करें ………बाकी तो आप सब जानते ही हैं …….मार्ग में जहाँ जहाँ नदी पड़ेगी ……वहाँ सुन्दर सेतु का निर्माण कराना आवश्यक होगा …………और मार्ग में विश्राम के लिए शिविर लगाई जाए …………ऋषि विश्वामित्र की बातें सुनकर प्रसन्नता से भर गए थे मेरे पिता जी ………और बड़ी नम्रता से ऋषि विश्वामित्र और श्रीराम और लक्ष्मण को रँगभूमि से आवास की और स्वयं लेगये थे ।
क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
[ Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (17)
गोविन्द बोलो हरी गोपाल बोलो,
राधा रमण हरी गोविन्द बोलो,
गोविन्द बोलो हरी गोपाल बोलो,
राधा रमण हरी गोविन्द बोलो,
गोविन्द बोलो हरी गोपाल बोलो,
राधा रमण हरी गोविन्द बोलो,
गोविन्द बोलो हरी गोपाल बोलो,
राधा रमण हरी गोविन्द बोलो,
गोविन्द बोलो हरी गोपाल बोलो,
राधा रमण हरी गोविन्द बोलो,
गोविन्द बोलो हरी गोपाल बोलो,
राधा रमण हरी गोविन्द बोलो,
गोविन्द बोलो हरी गोपाल बोलो,
राधा रमण हरी गोविन्द बोलो,
माया का जाल रूप मैं, मेरा – तेरा
अक्रूर जी तो नहीं आ गये ? मेहता जी ने हँसते हुए कहा ।
नहीं कुँवरबाई को लिवा जाने के लिये श्रीरंगधर मेहता के पुरोहित आये है । मैं तो इसी चिंता में पड़ी हूँ कि पुत्री को विदा करने तथा दहेज आदि के लिए कम से कम इस समय सौ रूपये चाहिए । परंतु जहाँ एक भी नहीं , वहाँ सौ की बात भी कैसे की जाय ? इतना कहते हुए माणिकबाई ने एक दीर्घ निःश्वास।छोड़ा ।
भक्त राज पत्नी को चिन्ताकुल देख बड़ी शान्ति से समझाने लगे -” साध्वी ! मेरा- मेरा करती हुई तू चिंता क्यों करती है ? इन पुत्र-पुत्री के हम तो नाम के माता-पिता है, वास्तविक पिता तो हम सबके वह श्रीपति भगवान ही है और वह सब तरह से समर्थ है । फिर हम व्यर्थ क्यों चिंता करें ? उनको तो स्वयं ही चिंता होगी और जैसी रूचि होगी, वैसा वह ठीक समय पर अपने ही प्रबंध कर देंगे।
‘नाथ ! कल तो पुत्री को भेजना होगा और आज तक उसे देने के लिए एक वस्त्र का ठिकाना नही । परमात्मा कहाँ रहते हैं जो ऐन मौके पर कल आकर उसे सारी वस्तुएँ दे जाएँगे । जिसका नाम-ठाम-नही ,उसका विश्वास ही क्या । चिंता के मारे माणिकबाई की आँखों में अश्रुधारा बहने लगी।
‘ प्रिये ! ‘मैं और मेरा ‘ ये दोनो शब्द ही माया के रचे हुए जालरूप है, दुःख के कारण है ।सन्त -वैरागी, योगी -यती सती और राजा से लेकर रंक तक प्रायः संसार के सभी प्राणी उसी जाल से बँधकर चौरासी का चक्कर भोग रहे हैं । अतएव अहंता-ममता का त्याग ही संसार का सच्चा त्याग है सुनो —
( प्रभात )
सामने श्रीहरि मेल ममता परी जोने विचारी मूल तारूँ ।
तुं अल्या कोण ने कोने वलगी रह्यों ,वगर समजे कहे म्हारूँ।।
देह तारी नथी जो तूँ जुगते करी ,राखतां नव रहे निश्चे जाये ।
देह संबंध तजे अवनबा बहु थशे ,पुत्र कलत्र परिवार व्याहे।।
धन तणूं ध्यान तूं अहोनिश आदरे,एज तारे अंतराय मोटी।
पासे छे पीयु अल्ला तेने नव परखियो , * हाथ थी बाजी गयी थयोरे खोटी ।।
भरनिद्रा भर्यो रोंधि धेर्यो घणो ,संतान शब्द सुणी कां न जागे ।
न जागतां तरसैया लाज छे अति घणी ,
जन्मोत्सव तारी खांत भागे।।
भावार्थ :
हे मन ! ममता को दूर कर परमात्मा का भजन कर; इस संसार में तेरी कौन वस्तु है, इसका विचार कर । अरे मूर्ख ! तंदुल कौन हैं ? तूँ बिना समझें ‘ मेरा -मेरा ‘ क्यों बक रहा है ।
जिस देह का तू अनेक युक्तियों से जतन कर रहा है, वह कदपि स्थिर रहने वाला नहीं है । तू अहर्निश जो धन का ध्यान कर रहा है वह तेरे अन्तःकरण में बाधास्वरूप है । समीप के पति ( परमात्मा ) को तू क्यों भल गया । अहंकार के नशे कर होकर तू मोह – निद्रा में सो रहा है । अतः हे मन ! तू जाग जा, नरसी राम को तेरी बड़ी भारी आशा है ( कि तू अच्छी भक्ति करेगा ) ।
क्रमशः ………………!
[ Niru Ashra: “महान राजा रन्तिदेव”
भागवत की कहानी – 16
“रन्तिदेव इवोदार : “
ये भागवत में शुकदेव के वाक्य हैं ….राजा रन्तिदेव जैसा उदार राजा कोई हुआ नही । ये एक महान राजा थे ….राज सत्ता इनके लिए भोग की वस्तु नही थी ….राजसत्ता इनके लिए सेवा का माध्यम था …किसकी सेवा ? प्रजा की सेवा । ये प्रजा में ही अपने भगवान का दर्शन करते थे ….उनकी समस्या सुनते , उनके यहाँ जाते …छुप कर , भेष बदलकर प्रजा से संवाद करते । और एक बात अद्भुत थी राजा रन्तिदेव में ….कि ये अपने लिए राजकोष को कभी छूते भी नही थे …नही नही …शुकदेव कहते हैं …बात स्वयं की नही है ….इनकी रानी इनके पुत्र इनका अन्य परिवारीय सदस्य भी राजकोष को छूता नही था ….राजकर और दण्ड से लिया गया जो धन है उस पर मेरा अधिकार नही है …ये सब मेरी प्रजा का है । ये नियम स्वयं रन्तिदेव महाराज ने ही बनाये थे …हाँ , परिवार चलाने के लिए महाराज कुछ धन लेते थे ..वो भी अपना पारिश्रमिक । वो भी प्रजा को बताकर , उसी से राज परिवार चलता था । कभी कभी अकाल जैसी स्थिति में तो महाराज रन्तिदेव वो धन भी छोड़ देते और उसको प्रजा में ही लगा देते । इनके लिए प्रजा ही मुख्य थी ।
आज इनके राज्य में अकाल पड़ा ….अकाल तो पूर्व में भी पड़ता रहा है लेकिन इस बार दुर्भिक्ष ने भयानक रूप ले लिया था …प्रजा में हाहाकार मच गया । आकाश से जल नही गिरेगा तो पृथ्वी अन्न कहाँ से दे ? प्रजा भूख से कराह उठी ….जिसे रन्तिदेव देख न सके थे …राज्य का ख़ज़ाना खोल दिया …प्रजा को उसमें से अन्न दिया जाने लगा ….लेकिन कब तक ? पशुओं को चारा नही …तो पशु मरने की हालत में आगये थे …..किन्तु रन्तिदेव के राज्य में भूख से कोई मर नही सकता ….अगर एक पशु भी मरा तो मुझे धिक्कार है ….राजा ने स्वयं अन्न का त्याग कर दिया …उनके परिवार ने कहा …ऐसे कैसे चलेगा । राजा का उत्तर था ….मेरा परिवार जितना खाएगा उससे तो सैकड़ों परिवार पेट भर लेंगे । रन्तिदेव का परिवार भी अनुकूल था …राजा रन्तिदेव की हर बात मानता था …राजा के शुद्ध हृदय को सब समझते थे इसलिए मरने के लिए भी ये परिवार तैयार था । ओह ! अकाल तो बढ़ता ही जा रहा है …पहले मास अब तो बरस होने को आये …किन्तु वर्षा नही है …..बारिश नही हो रही ।
आज अड़तालीस दिन हो गये ….राजा ने और उनके परिवार ने कुछ नही खाया है । राजा रन्तिदेव के पुत्र भूख से तड़फ उठे …किन्तु राजा ने राजकोष का उपयोग नही किया उसमें से प्रजा को अन्न दे रहे थे लेकिन स्वयं के लिए कुछ नही । आज राजा कहीं गये थे ….जब वापस आये तो उनके सामने उनकी पत्नी ने घी , खीर और फल रख दिये और कहा ये मुझे एक परिवार ने दिया है …..और बड़े आग्रह से कहा है कि आप महाराज को और आप सब इसको खायें । महारानी ने कहा …उस व्यक्ति ने ये भी कहा कि मैं आपकी प्रजा हूँ अगर महाराज हमारा इतना ध्यान रखते हैं तो हमारा भी कर्तव्य है कि हम अपने परम उदार राजा का ध्यान रखें । रन्तिदेव ने कुछ सोचा …तो उनकी महारानी ने कहा …ये किसने दिया है पता नही …वो कौन था पता नही …अज्ञात भगवान का रूप होता है इसे प्रसाद समझ कर हम लोगों को पा लेना चाहिए । रन्तिदेव सोचते हैं फिर ऊपर देखते हैं नभ की ओर …”तेरा प्रसाद है”…….ये कहते हैं और अपनी पत्नी अपने बालकों को बिठा लेते हैं …..पाँच पात्र लगाते हैं ….फिर उसमें खीर रखते हैं खीर में घी ..फिर फल । आचमन करते हैं ….और जैसे ही पाने के लिए तैयार …तभी – सामने से एक ब्राह्मण अपने बालक और पत्नी के साथ वहीं आपहुँचता है ….राजा रुक जाते हैं …महारानी भी रुक जाती हैं और बालक भी ।
कहिये विप्रदेव ! कैसे पधारे ? रन्तिदेव उठकर खड़े हो गये …हाथ जोड़कर पूछा ।
हे राजन् ! क्या कहूँ ….हम लोग दो दिनों से भूखे हैं …कुछ खाया नही है ….
राजा रन्तिदेव मुस्कुराए ….ये आपका ही भाग है भगवन्! अपना भाग उन ब्राह्मण को दे दिया …पत्नी का भाग ब्राह्मण पत्नी को और अपने पुत्र का भाग उन ब्राह्मण पुत्र को ।
अपना आसन भी दिया …बैठाया और पंखा झलते हुए अतिप्रसन्न हैं राजा …ब्राह्मण का परिवार अब उस भोजन को पा रहा है । भोजन पाने के बाद ब्राह्मण चले गये । राजा ने महारानी की ओर देखा वो भी प्रसन्न ही थीं …किन्तु राजा का पुत्र तो भूख से । महारानी ने कहा …फल हैं चलिए हम लोग अब फल ही खाते हैं …रन्तिदेव अति प्रसन्न हुए ….चलो , अब आनन्द से फल खायेंगे ….ये कहते हुए अपने पुत्र के सिर में हाथ रखा । फल खाने के लिए भी तैयार ही थे कि ….उसी समय वहाँ एक मजदूर और उसकी पत्नी उसका भी बालक , ये तीन फिर आगये ….राजा रन्तिदेव ने पूछा ….कहिए ? आज पाँच दिन से हमने कुछ नही खाया ….वो मजदूर बोला …..राजा मुस्कुराए ….अपने भाग का अपनी पत्नी और पुत्र के भाग का फल भी उस मजदूर को दे दिया । ये फल लेकर चले गये ….राजा ने अब देखा …क्या करें ? खाने के लिए अब कुछ नही है ।
कैसे कुछ नही है …..जल तो है ना …एक लोटा जल …इसी को आनन्द से पियेंगे आनन्द आएगा …है ना ? रन्तिदेव अपने पुत्र से कहते हैं …वो बेचारा क्या कहे । जल पीने के लिए ये सब तैयार ही थे कि तभी – एक चाण्डाल और आ गया ….उसके साथ एक कुत्ता भी था । वो चाण्डाल कहता है ….महाराज ! ये मेरा कुत्ता है बहुत दिनों से प्यासा है , मर जाएगा इसे जल दे दो । उस चाण्डाल को देखकर रन्तिदेव के नेत्रों से आनन्द के अश्रु बहने लगे …..वो पास में गये ….हाथ जोड़कर बोले आप मेरे नारायण हैं …ये आपका कुत्ता नही , ये भी नारायण है ….मेरे ऊपर कृपा करने के लिए आप आए हैं …ये लीजिए भगवन् ! कहते हुए जैसे ही रन्तिदेव ने कुत्ते को जल पिलाया …उसी कुत्ते और चाण्डाल से भगवान नारायण प्रकट हो गये ….और मुस्कुराकर बोले …वाह ! हे परमोदार रन्तिदेव ! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ …माँगो तुम्हें क्या चाहिये ! रिद्धि , सिद्धि , परम गति , कोई देवों की पदवी या कोई दिव्य लोक , माँगों क्या चाहिए ? ये सुनते ही रन्तिदेव तो भगवान के चरणों में गिर गये….उनके नेत्रों से अश्रु बहने लगे थे । वो कुछ देर तो बोल ही न सके …फिर भाव से अवरुद्ध कण्ठ से ही वो बोले ….”सब सुखी हों मुझे ये दे दो”। हे नाथ ! सबका दुःख मुझे मिल जाये और सुखी हो जायें ये लोग ….कोई भूखा न रहे …कोई कष्ट में न रहे । रन्तिदेव की बात सुनकर भगवान नारायण हंसे …बोले – राजन्! सबको अपना कर्म भोगना पड़ता है …यही नियम है । रन्तिदेव रोने लगे ….सबके , सम्पूर्ण मनुष्य के बुरे कर्मों का भोग भी मुझे ही दे दो …मुझे दुःख भोगने में आनन्द आएगा …क्यों कि सब सुखी रहेंगे ना ! इन्हें सुखी देखकर ही मुझे सुख मिलेगा । भगवान नारायण राजा के दिव्य भाव को देखकर बोले …तुम करुणा से भरे हो …बड़े बड़े योगियों की स्थिति तुमने पा ली है ….क्यों की सर्वत्र तुम मुझे ही देख रहे हो ….हे राजन् ! कर्म का फल तो सबको को भोगना ही पड़ेगा …इसलिए तुम जो कह रहे हो …वो सम्भव नही है ….तुम मुझे ही प्राप्त करोगे …..तुमने मुझे प्राप्त कर ही लिया है …..ये कहकर भगवान नारायण अन्तर्ध्यान हो गये थे । तभी आकाश से घनघोर वर्षा आरम्भ हो गयी ….रन्तिदेव प्रसन्नता से नाच उठे …पूरी प्रजा में आनन्द की लहर फैल गयी थी ।
इन्होंने अपनी प्रजा की बहुत सेवा की और अन्त में इनको लेने के लिए स्वयं नारायण भगवान आये और ये भगवान के धाम में गये । शुकदेव ये कथा सुनाते हुए भाव में डूब गये हैं ।
] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 8 . 18 – 19
🌹🌹🌹🌹🌹
अव्यक्ताद्वयक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे |
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके || १८ ||
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते |
रात्र्यागमेSवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे || १९ ||
अव्यक्तात् – अव्यक्त से; व्यक्तयः – जीव; सर्वाः – सारे; प्रभवन्ति – प्रकट होते हैं; अहः-आगमे – दिन होने पर; रात्रि-आगमे – रात्रि आने पर; प्रलीयन्ते – विनष्ट हो जाते हैं; तत्र – उसमें; एव – निश्चय ही; अव्यक्त – अप्रकट; संज्ञके – नामक, कहे जाने वाले |
भूत-ग्रामः – समस्त जीवों का समूह; सः – वही; एव – निश्चय ही; अयम् – यह; भूत्वा भूत्वा – बारम्बार जन्म लेकर; प्रलीयते – विनष्ट हो जाता है; रात्रि – रात्रि के; आगमे – आने पर; अवशः – स्वतः; पार्थ – हे पृथापुत्र; प्रभवति – प्रकट होता है; अहः – दिन; आगमे – आने पर |
भावार्थ
🌹🌹🌹
ब्रह्मा के दिन के शुभारम्भ में सारे जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और फिर जब रात्रि आती है तो वे पुनः अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं |
जब-जब ब्रह्मा का दिन आता है तो सारे जीव प्रकट होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे असहायवत् विलीन हो जाते हैं |
तात्पर्य
🌹🌹🌹
अल्पज्ञानी पुरुष, जो इस भौतिक जगत् में बने रहना चाहते हैं, उच्चतर लोकों को प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु उन्हें पुनः इस धरालोक पर आना होता है | वे ब्रह्मा का दिन होने पर इस जगत् के उच्चतर तथा निम्नतर लोकों में अपने कार्यों का प्रदर्शन करते हैं, किन्तु ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे विनष्ट हो जाते हैं | दिन में उन्हें भौतिक कार्यों के लिए नाना शरीर प्राप्त होते रहते हैं, किन्तु रात्रि के होते ही उनके शरीर विष्णु के शरीर में विलीन हो जाते हैं | वे पुनः ब्रह्मा का दिन आने पर प्रकट होते हैं | भूत्वा-भूत्वा प्रलीयते – दिन के समय वे प्रकट होते हैं और रात्रि के समय पुनः विनष्ट हो जाते हैं | अन्ततोगत्वा जब ब्रह्मा का जीवन समाप्त होता है, तो उन सबका संहार हो जाता है और वे करोड़ो वर्षों तक अप्रकट रहते हैं | अन्य कल्प में ब्रह्मा का पुनर्जन्म होने पर वे पुनः प्रकट होते हैं | इस प्रकार वे भौतिक जगत् के जादू से मोहित होते रहते हैं | किन्तु जो बुद्धिमान व्यक्ति कृष्णभावनामृत स्वीकार करते हैं, वे इस मनुष्य जीवन का उपयोग भगवान् की भक्ति करने में तथा हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन में विताते हैं | इस प्रकार वे इस जीवन में कृष्णलोक को प्राप्त होते हैं और वहाँ पर पुनर्जन्म के चक्कर से मुक्त होकर सतत आनन्द का अनुभव करते हैं |
Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877