Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 20
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त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते |
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्र्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् || २० ||
त्रै-विद्याः – तीन वेदों के ज्ञाता; माम् – मुझको; सोम-पाः – सोम रसपान करने वाले; पूत – पवित्र; पापाः – पापों का; यज्ञैः – यज्ञों के साथ; इष्ट्वा – पूजा करके; स्वः-गतिम् – स्वर्ग की प्राप्ति के लिए; पार्थयन्ते – प्रार्थना करते हैं; ते – वे; पुण्यम् – पवित्र; आसाद्य – प्राप्त करके; सुर-इन्द्र – इन्द्र के; लोकम् – लोक को; अश्नन्ति – भोग करते हैं; दिव्यान् – दैवी; दिवि – स्वर्ग में; देव-भोगान् – देवताओं के आनन्द को |
भावार्थ
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जो वेदों का अध्ययन करते तथा सोमरस का पान करते हैं, वे स्वर्ग प्राप्ति की गवेषणा करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से मेरी पूजा करते हैं | वे पापकर्मों से शुद्ध होकर, इन्द्र के पवित्र स्वर्गिक धाम में जन्म लेते हैं, जहाँ वे देवताओं का सा आनन्द भोगते हैं |
तात्पर्य
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त्रैविद्याः शब्द तीन वेदों – साम, यजुः तथा ऋग्वेद – का सूचक है | जिस ब्राह्मण ने इन तीनों वेदों का अध्ययन किया है वह त्रिवेदी कहलाता है | जो इन तीनों वेदों से प्राप्त ज्ञान के प्रति आसक्त रहता है, इसका समाज में आदर होता है | दुर्भाग्यवश वेदों के ऐसे अनेक पण्डित हैं जो उनके अध्ययन के चरमलक्ष्य को नहीं समझते | इसीलिए कृष्ण अपने को त्रिवेदियों के लिए परमलक्ष्य घोषित करते हैं | वास्तविक त्रिवेदी भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं और भगवान् को प्रसन्न करने के लिए उनकी शुद्धभक्ति करते हैं | भक्ति का सूत्रपात हरे कृष्ण मन्त्र के कीर्तन तथा साथ-साथ कृष्ण को वास्तव में समझने के प्रयास से होता है | दुर्भाग्यवश जो लोग वेदों के नाममात्र के छात्र हैं वे इन्द्र तथा चन्द्र जैसे विभिन्न देवों को आहुति प्रदान करने में रूचि लेते हैं | ऐसे प्रयत्न से विभिन्न देवों के उपासक निश्चित रूप से प्रकृति के निम्न गुणों के कल्मष से शुद्ध हो जाते हैं | फलस्वरूप वे उच्चतर लोकों, यथा महर्लोक, जनलोक, तपलोक आदि को प्राप्त होते हैं | एक बार इन उच्च लोकों में पहुँच कर वहाँ इस लोक की तुलना में लाखों गुणा अच्छी तरह इन्द्रियों की तुष्टि की जा सकती है |
] Niru Ashra: “ऋषि कश्यप – दिति और अदिति”
भागवत की कहानी – 17
देवता और दैत्य …ये हमारे बीच हैं …अच्छे और बुरे । जो सात्विक है ….सबको अपना मानता है …दूसरों के काम आता है …हिंसा में जिसकी ज़्यादा रुचि नही है ….ज्ञान को महत्व देता है …उसे ही कहते हैं देवता । और दैत्य ? जी , दैत्य वो है जो तेरा मेरा करे , अपने को ही बड़ा मानें …दुराग्रह से भरा हुआ हो । इसी से हिंसा का जन्म होता है ..और समाज में अशान्ति फैलती है । अब भागवत कहती है….सृष्टि में ये दोनों रहते ही हैं ..सृष्टि इन दोनों से ही चलती है यानी अच्छे और बुरे लोगों से …पुराण की भाषा में बोलूँ तो …..तीन गुण से ही सृष्टि का संचालन होता है ….सत्व, रज, तम …अच्छे , बुरे, और आलसी ….पुराण का कहना है कि ये तीन नही होंगे तो सृष्टि चलेगी ही नही । बात सही है …विचार करके देख लें ।
तो क्या देवता और दैत्य , ये इनके स्वर्ग आदि लोक , पाताल , इनकी भिन्न भिन्न प्रजातियों का वर्णन ….ब्रह्मा इन्द्र , कुबेर …ये सब प्रतीक हैं ? ये एक युवक ने पूछा है । और ये भी पूछा है कि पुराणों में लिखी बात की संगति नही बैठती । मैंने कहा ..कैसे ? तो उनका कहना था कि देवि भागवत भी शुकदेव ने परीक्षित को सुनाई ….और श्रीमदभागवत भी ……और उद्धार किससे हुआ ? देविभागवत कुछ कह रही है और श्रीमदभागवत कुछ ।
पुराण को समझने के लिए बड़ी गम्भीरता चाहिए और इसको समझाने वाला भी तत्वचिन्तक और पुराण का मर्मज्ञ होना चाहिए । पुराण का आध्यात्मिक अर्थ मात्र नही है …..ये घटनायें घटी हैं ….देवता दैत्य ये अच्छे बुरे का प्रतीक हैं किन्तु ये ऊपर के लोक में भी हैं । देखो ! आज से पन्द्रह सौ वर्ष पहले तक देवता लोग जन समूह को भी , पृथ्वी में आकर दर्शन देते थे …इसके प्रमाण हैं ….किन्तु अब नही …अब प्राणप्रतिष्ठा हो तब मूर्ति में आकर बैठेंगे …या कोई साधक हो तो व्यक्तिगत दर्शन दे देना ..ये तो है …..किन्तु पहले की तरह अब हजारों लोगों के मध्य प्रकट देवता या भगवान भी प्रकट होते …वो नही है …अकेले साधक को दर्शन हो जाएँगे , अकेले को दर्शन दे देंगे । कारण ? कारण ये है की जीव का मन गन्दा हो गया है ….रजोगुण और तमोगुण हावी है …सत्वगुण की मात्रा ना के बराबर है । आपने एक बात विचार करी ? पुराण की बातें इतिहास तो हैं …बनी घटनाएँ हैं …किन्तु किस कल्प की हैं …ये कहना बड़ा मुश्किल है …..स्वामी अखण्डानन्द जी कहते थे कि ….हर कल्प में शुकदेव परीक्षित संवाद होता है ….किसी कल्प में वो देविभागवत सुनाकर परीक्षित का उद्धार करते हैं तो किसी कल्प में श्रीमद्भागवत । कल्प भेद को समझे बिना पुराण समझमें नही आएगा । परिवर्तन चक्र प्रकृति में घूम ही रहा है , इसमें कितनी जातियाँ प्रजातियाँ विलुप्त हो गयीं कहना मुश्किल है ….सतयुग को छोड़ दें क्यों कि ….देवता और दैत्य तो इसमें थे …( दैत्य , राक्षस , दानव ये सब अलग अलग जातियाँ हैं )। अब त्रेतायुग का वर्णन हम सुनते हैं तो उसमें राक्षस बहुत हैं और मात्र राक्षस प्रजाति ही नहीं थी पृथ्वी में , वानर जाति भी थी …अब वानर जाति के लोग कोई बन्दर नही थे इनकी पूँछ थी …किन्तु मनुष्य की तरह चलते थे …सुन्दर मानवाकार थे …अरे ! सन्ध्या गायत्री जाप आदि बालि सुग्रीव करते थे इसका तो वर्णन वाल्मीकि रामायण में आया है । इनकी पत्नियाँ सुन्दर थीं ।
नाग जाति का भी उल्लेख है …ये जाति महाभारतकाल तक थी । उत्तरी ध्रुव के आस पास वैज्ञानिकों ने ये पाया है कि वहाँ ऐसी मछलियाँ पायी जाती थीं पाँच सौ वर्ष पहले तक कि जो रात में जंगलों में घूमने निकलती थीं , वो बहुत सुन्दर थीं ।
त्रेतायुग से द्वापर के आते आते ये राक्षस जाति …वैसे त्रेतायुग में ही इन्हें भगवानश्रीराम ने समाप्त कर दिया था …किन्तु थोड़ी बहुत बची भी थी तो वो परिवर्तन चक्र प्रकृति का उसी में पिस कर ये भी समाप्त हो गयी …रीछ जाति भी थी ….द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण को जामबंत रीछ फिर मिले थे ….ये और इनके कुछ लोग बच गये थे …इन्हीं की बेटी के साथ तो श्रीकृष्ण का विवाह हुआ था …महारानी बनीं जामबंत की पुत्री तो मानवाकार ही होंगी ….सुन्दर थीं । अब कलियुग आते आते ये सब जातियाँ हैं नहीं , इसका मतलब ये तो नही कि ये सब थे ही नहीं ।
चलिए भागवत की एक कथा सुनिए ….
सन्ध्या का समय है …ऋषि कश्यप गायत्री जाप करने के लिए तैयार बैठे हैं । इन्होंने अभी अभी स्नान किया है …वातावरण शान्त है ।
ऋषि कश्यप की दो पत्नियाँ हैं …एक का नाम दिति है तो दूसरी का नाम अदिति । दिति सुन्दर है …किन्तु वो भेद करती है ….जहाँ भेद होता है वहीं कलह है और कलह से हिंसा का जन्म है । इसके विपरीत है अदिति । ये शान्त है , ये मर्यादा में है ..अतिसुन्दर नही है किन्तु सौम्यता इनको सुन्दर बनाती है । दिति से सुन्दर ।
कई दिनों से दिति परेशान है ….क्यों परेशान है ? क्यों की अदिति का गर्भाधान हो गया …किन्तु मेरा ? मैं तो अदिति से भी सुन्दर हूँ …दक्ष की कन्या हूँ ।
वो अपने केशों को सुखा रही है …ये भी स्नान करके आयी है । सामने ऋषि कश्यप …..उन्होंने दिति को देखा …मुस्कुराए और अपने नेत्रों को बन्दकर गायत्री का जाप करने लगे । ओह ! ये क्या गोद में आकर बैठ गयी थी दिति तो । मुझे भी पुत्र चाहिए । दिति ने कहा । किन्तु ये काल उचित नही है …क्यों कि सूर्य भी जा रहा है और चन्द्रमा अभी आया नही है ….मन और बुद्धि दोनों कमजोर होते हैं इस सन्ध्याकाल में …इसलिए भजन करो , मन्त्र जाप करो , आराधना करो …किन्तु इस काल में …सोना वर्जित है ..और काम भोग आदि तो बिलकुल नही । अजी ! रहने दो …ऋषि का अधोवस्त्र दिति ने खींच दिया …फिर क्या ! वासना से पीड़ित दिति का भी गर्भाधान हुआ ….दोनों से जो पुत्र हुए वो दैत्य कहलाये । शुकदेव कहते हैं ।
अदिति के पुत्र हो गये हैं …ये शान्त हैं ….ये अपनों से बडों की बातें सुनते हैं …गुनते भी हैं …ऋषि कश्यप इन्हें वेदाध्ययन कराते हैं …ये करते हैं । किन्तु ये क्या ! इनका तेज नष्ट हो रहा है …इनमें जो ऊर्जा वेद आदि के अध्ययन से आनी चाहिए वो नही आ रही , ऋषि कश्यप ने विचार किया कि इनका तेज खा कौन रहा है । तब समझ में आया कि दैत्य आगये हैं दिति के गर्भ में …और तो और वो देवों को नष्ट करने का उपाय भी सोच रहे हैं । अभी तो मात्र दो बालक हैं गर्भ में ….इन दो ने आने से पहले ही सत्व को कमजोर करना आरम्भ कर दिया , और ये बाहर आए तो न जाने क्या क्या होगा ! शुकदेव कहते हैं ….कश्यप ऋषि को कुछ देर के लिए चिन्ता हुई किन्तु ये फिर सहज हो गये और भगवान का भजन करने में इन्होंने अपना मन लगाया क्यों कि ये समझ गये थे ये सृष्टि है यहाँ अच्छे बुरे का होना ही इसमें संगति है …इनके बिना सृष्टि चलेगी नही …सृष्टि द्वन्द से चलती है …भेद से चलती है …ऋषि कश्यप अब भगवान का भजन करने लगे थे । ये भगवान की लीला है ये इनके समझ में आगयी थी ।
भयानक स्थिति थी जब दिति ने हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु को जन्म दिया । ये भयानक थे …इनका देह विशाल था …ये चीखते थे …तो नभ के तारे टूट कर बिखरने लगते थे ।
चिन्ता हुई सृष्टि कर्ता ब्रह्मा को …वो चिन्तित थे कि तभी उन्हें छींक आगयी और उनके नाक से एक बालक प्रकट हुआ जिसने ब्रह्माण्ड में फैलते हुए वाराह का रूप धारण किया ….ब्रह्मा ने इनकी स्तुति की …..ये नारायण के अवतार थे । इनके द्वारा ही हिरण्याक्ष का उद्धार हुआ था ।
शुकदेव कहते हैं …”असंयमित” जीवन ही दैत्यों के प्रकट होने का माध्यम बनता है …और “संयम”देवों के प्रकट होने का । दिति में संयम नही था …इसने भोग को प्रधानता दी ..इसलिए उसके दैत्य हुए और अदिति ने संयम को प्रधानता दी तो उसके देवता हुए । ये बात समझ में आती है आप लोगों के ?
Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣6️⃣
भाग 2
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#दूतअवधपुरपठएजाई ………_
📙( #रामचरितमानस )📙
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#मैवैदेही ! ……………._
आपको क्या लगता है भगवन् ! कहीं आनें से मना तो नही कर देंगें अवध नरेश ? मेरे पिता जी नें पूछा था ।
नही विदेहराज ! अवध नरेश बहुत अच्छे हैं ………..वो आपकी प्रार्थना को सुनते ही आयेंगें …….और उनके लाडले पुत्र का विवाह भी तो सम्पन्न हो रहा है ……..आपके सन्देश से अवध झूम उठेगा मिथिलेश ।
और मै भी तो यही चाहता हूँ कि ….अवध और मिथिला का सम्बन्ध पक्का हो ………….प्रेम के सूत्र में आप दोनों बंध जाएँ ……….।
आप शीघ्रातिशीघ्र दूत को भेजनें की व्यवस्था करें ………बाकी तो आप सब जानते ही हैं …….मार्ग में जहाँ जहाँ नदी पड़ेगी ……वहाँ सुन्दर सेतु का निर्माण कराना आवश्यक होगा …………और मार्ग में विश्राम के लिए शिविर लगाई जाए …………ऋषि विश्वामित्र की बातें सुनकर प्रसन्नता से भर गए थे मेरे पिता जी ………और बड़ी नम्रता से ऋषि विश्वामित्र और श्रीराम और लक्ष्मण को रँगभूमि से आवास की और स्वयं लेगये थे ।
मेरी जनकपुर तो सजनें के लिए मचल उठी थी ………..
जनकपुर के लोग इतनें उत्साहित थे कि उनके उत्साह को मै नही लिख पाऊंगीं ……………….कोई अपनें घर को सजानें में लगा था ……कोई अपनें लिये नए नए वस्त्र खरीद रहा था ……..कोई सुन्दर सुन्दर बन्दनवार अपनें द्वार पर लगा रहा था ………..किसी नें तो अपनें ही घर में शहनाई बजवानी शुरू भी कर दी थी ………..कोई अगर उनसे पूछता तो जनकपुर के वासी कह देते …….हमारी बेटी सिया का विवाह है ……पर राजकुमारी के विवाह में तुम क्यों इतना उछल रहे हो ……तो मेरे जनकपुर वासी उत्तर देते …….नही, सिया मात्र हमारे राजा जनक की पुत्री ही नही है ……..हम सबकी लाड़ली बेटी भी है सिया ………।
कितना उत्साह था …..कितना उमंग था उस समय ………मेरी जनकपुरी में ……….मेरे जनकपुर के लोगों में …………..।
मेरा ध्यान अब उस विशेष दूत पर था ………जो अयोध्या गया था ।
मेरी सखी चन्द्रकला नें ये व्यवस्था बना दी थी कि अयोध्या की सूचना भी हम तक पहुँच जाए ……………कि वहाँ क्या हुआ …..और वहाँ के लोग क्या कह रहे हैं ……………मेरी सखी चन्द्रकला कहती है……..जहाँ प्रेम होता है ………..वहाँ आशंका ज्यादा ही रहती है ………।
मेरी दशा ऐसी ही थी ……..कहीं अवध नरेश मना कर दें तो …बरात लेकर आनें के लिये ……?
सखी चन्द्रकला कहती ………तुम भी ना सिया जू ! कुछ भी सोचती रहती हो ……………क्यों मना करेंगे अवध नरेश ?
उनके बेटे का विवाह हो रहा है ……………अयोध्या वासियों के तो लड्डू फूट रहे होंगें मन में …………..ये बात उर्मिला नें कही थी ।
क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (18)
नरसीजी की द्वारिकधीस पर श्रद्धा- विश्वास
सामने श्रीहरि मेल ममता परी जोने विचारी मूल तारूँ ।
……………..
भक्त राज ने तुरंत यह पद बनाकर सुना दिया । माणिकबाई की चिंता एक बार दूर हो गयी और भगवान में श्रद्धा बढ जाने से उनका चित प्रसन्न हो गया । फिर उन्होंने अतिथि और पति के लिये आसन लगाकर भोजन परोसा । मेहता जी पुरोहित जी के साथ बैठकर भोजन करने लगे।
भोजन करते -करते पुरोहित जी ने वार्तालाप शुरू किया – ‘ मेहता जी ! श्रीरंगधरजी मेहता ने मुझे कुँवरबाई को लाने के लिये भेजा है । मैं उनका कुल पुरोहित हूँ । मैं कल ही यहाँ से विदा हो जाना चाहता हूँ । आप कृपा कर शीघ्रता करें ।’
गुरु महाराज ! इतनी जल्दी करने से काम कैसे चलेगा ? अभी तक तो पुत्री के लिये एक नया वस्त्र भी तैयार नहीं किया है । आपको दो-चार दिन ठहरना पड़ेगा ।’ माणिकाबाई ने चट उतर दे दिया ।
‘आपको जो-जो वस्तुएँ तैयार करनी हो , उन्हें आज ही कर लीजिए । कल तो कृपा करके मुझे विदा कर ही दीजिए ।’ पुरोहित जी ने आग्रह प्रकट किया ।
‘ महाराज ! हमें कोई वस्तु तैयार करने की चिंता नहीं ; जो कुछ करना है ,उसे मेरे भगवान करेंगे । परंतु जब तक मेरी कुल -मर्यादा के अनुसार दहेज का प्रबंध परमात्मा की ओर से नहीं हो जाता तब तक तो आपको ठहरना ही होगा ।’ भक्त राज ने हँसते -हँसते कहा ।
भक्त राज की यह बात पुरोहित जी की समझ में बिलकुल नहीं आयी । उन्होने आश्चर्य के साथ कहा -‘मेहता जी ! आप क्या कहना चाहते है, कुछ समझ में नहीं आता । आपके परमात्मा कब तक आकर आपकी पुत्री के दहेज के लिए सामग्री पहुँचा जायँगे ? ऐसी बातें तो न कही सुनी गयी ,न देखी गयीं । मालूम नहीं क्यों आप इस तरह की अनहोनी बात मुँह से निकाल रहे हैं ।’
भक्त राजराम ने पूर्ण विश्वास से कहा – ‘पूरोहित महाराज ! घबड़ाइये नही , भगवान की माया तो ‘अघटनघटनापटीयसी’ कहलाती ही है, उसके लिये कुछ भी अनहोनी नहीं । श्रद्धा रखिये , द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण बड़े भक्तवत्सल और दयालु है ; जो कुछ करेंगे, अच्छा ही करेंगे ।”
बनवारी रे’ बनवारी रे
जीने का सहारा तेरा नाम रे
मुझे दुनिया वालों से क्या काम रे
झूठी दुनिया झूठे बंधन, झूठी है ये माया
झूठा साँस का आना जाना, झूठी है ये काया
ओ, यहाँ साँचा तेरा नाम रे
बनवारी रे …
रंग में तेरे रंग गये गिरिधर, छोड़ दिया जग सारा
बन गये तेरे प्रेम के जोगी, ले के मन एकतारा
ओ, मुझे प्यारा तेरा धाम रे
बनवारी रे …
दर्शन तेरा जिस दिन पाऊँ, हर चिन्ता मिट जाये
जीवन मेरा इन चरणों में, आस की ज्योत जगाये
ओ, मेरी बाँहें पकड़ लो श्याम रे
बनवारी रे …
भक्त राज की इसी विचित्र बात भला पुरोहित जी के कैसे समझ में आती ? परंतु वह कर भी क्या सकते थे । आखिर नरसिंह राम उनके प्रिय यजमान श्रीरंगधर मेहता के सम्बन्धी थे ; सहसा उनके विरुद्ध कड़ा व्यवहार कैसे करते । उन्होंने चुप रहना ही उचित समझा ।
दो-तीन दिन पुरोहित जी चुपचाप पड़े रहे । परंतु उन्होंने फिर भी कोई विशेष तैयारी नहीं देखी । भक्त राज निश्चिन्त अपने भजन -पूजन में लगे हुए थे ,मानों दूसरा कोई कार्य ही सामने न हो । अन्त में पुरोहित जी ने झुझलाकर कहा – ‘ मेहता जी ! आज तीन -चार दिन मुझे आपके घर बैठे हुए हो गये ; परंतु आप तो बिल्कुल निश्चित होकर भजन -पूजन में लगे है। मैं अब अधिक दिन नहीं ठहर सकता । दहेज का प्रबंध हो या न हो , कल कुँवरबाई को लेकर मैं अवश्य विदा हो जाऊँगा ।’
‘पुरोहित जी ठीक ही कह रहे हैं । पीछे आप सुखपूर्वक भजन करते रहियेगा । पुत्री के लिए आज ही वस्त्रादि दहेज की पूरी तैयारी करा दीजिए । माणिकाबाई ने भी कहा ।
नरसीराम भक्त जी सहज भाव से बोले – ‘ अच्छा जब तुम्हारी भी ऐसी इच्छा है तो आज अपने नाथ का आवाहन करूँगा ; देखें, उनकी कैसी कृपा होती है ।’
वाग्भि: स्तुवंतो मनसा स्मरंत-
स्तन्वा नमन्तोअप्यनिशं न तृप्ता:।
भक्ता: स्त्रवन्नेत्रजला: समग्र-
मायुर्हरेरेव समर्पयन्ति।।[1]
उन प्रभु के प्यारे भक्तों का जीवन कैसा होता है? वे आयु को कैसे बिताते हैं उसी का वर्णन है- ‘प्रभु के प्यारे भक्त अपनी वाणी से निरंतर सुमधुर हरि नाम का उच्चारण करते रहते हैं अथवा स्तोत्रों से बांकेविहारी की विरूदावली गाते रहते हैं, मन से उस मुरली-मनोहर के सुदंर रूप का चिंतन करते रहते हैं और शरीर से उनके लिये सदा दण्ड-प्रणाम करते रहते हैं। वे सदा विकल-से, पागल-से, अधीर-से, तथा अतृप्त-से ही बने रहते हैं। उनके नेत्रों से सदा जल टपकता रहता है, इस प्रकार वे अपनी सम्पूर्ण आयु को श्रीहरि भगवान के ही निमित्त समर्पण कर देते हैं। (अहा, वे भगवत-भक्त धन्य हैं) हरि. भ. सु. 18/38
क्रमशः ………………!
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