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November 22, 2024 5:28 am

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श्रीसीतारामशरणम्मम(16-3),“नरसिंह भगवान का अवतार”, भक्त नरसी मेहता चरित (19) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम(16-3),“नरसिंह भगवान का अवतार”,  भक्त नरसी मेहता चरित (19) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

] Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣6️⃣
भाग 3

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#दूतअवधपुरपठएजाई ………_
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! ……………._

मेरी दशा ऐसी ही थी ……..कहीं अवध नरेश मना कर दें तो …बरात लेकर आनें के लिये ……?

सखी चन्द्रकला कहती ………तुम भी ना सिया जू ! कुछ भी सोचती रहती हो ……………क्यों मना करेंगे अवध नरेश ?
उनके बेटे का विवाह हो रहा है ……………अयोध्या वासियों के तो लड्डू फूट रहे होंगें मन में …………..ये बात उर्मिला नें कही थी ।

पर उर्मिला ! तुम्हारे मन में लड्डू फूट रहे हैं की नही ?

जीजी ! देखो ना ………ये सब मुझे छेड़ती हैं …………

उन छोटे राजकुमार का नाम लेकर छेड़ती हैं ….उर्मिला नें मुझ से कहा ।

अरे ! हमनें तो कुछ कहा ही नही है ……………ये कहते हुये सब हँस पड़ी सखियाँ ………किशोरी जी के अंक में अपना मुख छुपा लिया था उर्मिला नें ।


मुझे चन्द्रकला ही आकर बताती थी ………….कि आज ये हुआ अवध में जब दूत पहुँचा …और अवध नरेश को सन्देश दिया ……..

क्या पिनाक को तोड़ दिया मेरे राम नें ! ……………

उस रेशमी पीले वस्त्र में लिपटे पत्रिका को जब अवध नरेश नें पढ़ा …..

आनन्द के अश्रु बह चले थे अवध नरेश के ……..।

पता है गुरु महाराज ! मेरे राम नें पिनाक तोड़ दिया ………….और अब विदेहराज की पुत्री से उसका विवाह होनें वाला है …..कितनी नम्रता से निमन्त्रण दिया है …….निवेदन किया है मिथिलेश नें ।

अपनें गुरुदेव वशिष्ठ जी से ये सारी बातें कही अवध नरेश नें ………और उस सभा को वहीं विराम देकर …….और ये कहते हुए की आप सब लोग मिथिला चलनें की तैयारी करें ………।

पता है सिया जू ! अवध नरेश इतनें अच्छे हैं कि अपनें ही साथ अपनें निज महल में हमारे दूत को ले गए हैं ।

कौशल्या महारानी ! कहाँ हो ?

कैकेई ! आओ ना यहाँ !

सुमित्रा ! जरा बाहर तो आओ ।

अवध नरेश आनन्दित थे ……………..

क्या हुआ ? महाराज ! कुछ तो बताइये ………..क्या हुआ ?

अपनें अपनें कक्ष्र से बाहर आकर रानियों नें अवध नरेश से पूछा था ।

देखो ! मेरे राम का पत्र आया है …………….

जैसे ही इतना सुना महरानी कैकेई नें ……..वो तो पागलों की तरह दौड़ी महाराज के पास …..और पत्र को लेकर अपनें कक्ष में भागी …..

महाराज ! देखो ना …..पत्र लेकर कैकेई गयी ………अब आप ही बताइये क्या समाचार है ……..कौशल्या जी नें महाराज से ही पूछा ।

“राम का विवाह हो रहा है”…………….पत्रिका को हाथ में लेकर उसे दिखाते हुए ……….उछल रही थी कैकेई ……..मेरे राम का विवाह है ….

क्या सच ! मेरे राम का विवाह है ? कौशल्या जी नें पूछा था ।

तुम्हारे राम का नही ……मेरे राम का …….राम मेरा है ……….समझीं कौशल्या जीजी ! राम मेरा है ………..कैकेई अति आनन्दित थी …….

हाँ हाँ ……तुम्हारा ही है राम ……………

लो ! मेरा बेटा तो ये है ………….आजा भरत ! आ ! कौसल्या जी नें आते हुये भरत को देखा ………अपनें पास बुलाया ……..।

शान्त भरत कौसल्या जी की और देखते हुए बोले…..राज भवन में बात फैल गयी है की मेरे बड़े भैया श्रीराम की कोई पाती आई है ?

हाँ पुत्र ! “पिनाक” तोड़ दिया मेरे राम ने …………..और मिथिलेश की कुमारी जानकी से अब विवाह होनें जा रहा था …….मेरा राम दूल्हा बननें जा रहा है ।

नेत्रों से अश्रु बह चले थे भरत के ………….आनन्द के कारण कुछ बोल ही नही पा रहे थे भरत ……..शत्रुघ्न खड़े रहे ………..वो भी प्रसन्न्ता के कारण गदगद् थे ।

सिया जू ! विशेष सूचना के आधार पर …………..बरात चल पड़ी है अवध से …………………सखी चन्द्रकला नें जैसे ही मुझे ये बात बताई …..मै तो ख़ुशी के मारे उछल पड़ी थी ……और अपनी सखी चन्द्रकला को मैने अपनें हृदय से लगा लिया था ……….।

जीजी ! मुझे भी अपनें हृदय से लगाओ………..

उर्मिला खड़ी थी ……वही बोली………….

तुम्हे तो लक्ष्मण हृदय से लगायेंगें ………….

जीजी ! देखो ना …..ये चन्द्रकला कुछ भी बोलती है ……………

अच्छा ! अच्छा आ………..मैने अपनी प्यारी छोटी बहन उर्मिला को अपनें हृदय से लगा लिया था …………

#शेषचरिञअगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱

] Niru Ashra: “नरसिंह भगवान का अवतार”

भागवत की कहानी – 18


असुर बालकों को अपार आनन्द आरहा था …वो आनन्दमग्न थे …”नारायण” नाम का उच्च स्वर से संकीर्तन ….इस पावन नाम ने पहले तो बाहरी सुख दिया इन बालकों को …”जोर से गाओ …डूब जाओ ..पुकारो”….प्रह्लाद सबको प्रेरित कर रहे थे और झाँझ बजाकर स्वयं संकीर्तन में तल्लीन थे ….किन्तु अब ये पावन नाम इन बालकों का मन भी पवित्र कर रहा था । ये तो विद्यालय है ..असुर सम्राट हिरण्यकशिपु का विद्यालय ।

भैया प्रह्लाद ! नाच सकते हैं क्या ?

ये बालक सबसे छोटा था …इसे बहुत आनन्द आरहा था ….इसने प्रह्लाद का हाथ पकड़कर पूछा …तो वो बोले ..नाचने से तो और आनन्द आता है ….नाचो ! नाचने से तो देह और मन को प्रसन्नता मिलती है नाचो ! इतना ही नही उस बालक के साथ प्रह्लाद भी नाचने लगे थे । फिर तो सब नाच उठे थे …नारायण नाम की गूंज चारों दिशाओं में फैलनें लगी थी ।


कैसा जिद्दी है प्रह्लाद ! मैंने कितनी बार कहा है ….मेरे शत्रु नारायण का नाम मत ले ….पर वो मानता ही नही । आज तो मैंने सोच लिया है कि प्रह्लाद ने अब मेरे यहाँ नारायण नाम लिया तो मैं उसे मारूँगा ….उसके प्राण खींच लूँगा । कयाधु रो पड़ी थी …ये महारानी है इसका बेटा प्रह्लाद ही तो है । मत मारिये ! बालक है …और आपका भी तो बालक है …आपका ही है । हाँ , समझा लेना …नही तो …हिरण्यकशिपु ये कहता हुआ क्रोध से भरकर वहाँ से चला गया था ।

ये साधारण असुर कहाँ है ? सृष्टि का प्रथम असुर है ….इसका भाई हिरण्याक्ष , उसका जब से नारायण भगवान ने वराह रूप धरकर संहार किया है तब से ये नारायण का द्रोही हो गया था ।

इसका पुत्र प्रह्लाद है ।

शुकदेव कहते हैं ….संस्कार के कुछ बीज तो चाहिए …नही तो असुर घर में परम भक्त का जन्म होना ये तो आश्चर्य की बात थी । इसका समाधान शुकदेव करते हैं …..और प्रह्लाद के द्वारा ही करवाते हैं ।


भैया प्रह्लाद ! हमने तो कभी ये नारायण नाम सुना नही …हमारे बाप दादा ने भी नही सुना फिर तुमने कहाँ से सुन लिया । ये बात भी वही बालक पूछ रहा था जिसने नाचने की बात पूछी थी ।

प्रह्लाद सबका उत्तर देते हैं और विशेष तो इस कुमार का ….इनका कहना भी तो यही है कि भक्ति तो कुमार अवस्था से ही होनी चाहिए ..बुढ़ापे में क्या भक्ति ?

मुझे मेरे गुरुदेव ने ये नाम दिया …जब मैं अपनी माता के पेट में था …प्रह्लाद ने उस बालक को उत्तर दिया । अब तो सब आगये और प्रह्लाद की बातों को बड़े ध्यान से सुनने लगे ।

किन्तु हमारे गुरु तो ये “शन्ड अमर्क” हैं …बालकों की बात सुनकर प्रह्लाद खूब हंसने लगे ….फिर बोले ….ये गुरु नही हैं …..मेरे गुरुदेव तो देवर्षि नारद जी हैं ….उन्होंने ही मुझे नारायण नाम की दीक्षा दी …और उन्होंने ही भक्ति की शिक्षा दी । किन्तु वो तो यहाँ आए नही ? तुम कैसे गए वहाँ ? प्रह्लाद बोले …देवराज इन्द्र मेरी माता को चुराकर ले गया था …अपने स्वर्ग में ।

हट्ट ! झूठ बोलते हो तुम ! उस छोटे से बालक ने भी प्रह्लाद को ऐसा बोल दिया । अरे ! तुम्हारे पिता से त्रिलोकी काँपता है ..ये इन्द्र क्या है । उस बालक की बात सुनकर प्रह्लाद खूब हंसे …तुम ठीक कह रहे हो ..किन्तु उस समय मेरे पिता ब्रह्मा की तपस्या करने गये थे ..अवसर देखा इन्द्र ने , मैं माता के उदर में था, मेरी माता को ले गया ।

पर क्यों ? उस बालक की सहज जिज्ञासा ।

मुझे मारने के लिए । प्रह्लाद बोले ।

तुम्हें ! क्यों ? बालक ने फिर पूछा ।

यही , यही प्रश्न मेरे गुरुदेव ने भी आकर देवराज से पूछा था । उसी समय नारद जी आगये थे …और इन्द्र को बोले ….इस गर्भवती कयाधु को तुम क्यों लाए हो देवराज ? ये सुनते ही देवराज ने कहा …इसका पिता इतना भयानक असुर है तो बेटा कैसा होगा ? मैं इसे मारूँगा ।

महान भक्त ! इतिहास में ऐसा भक्त नही हुआ । मेरे गुरुदेव बोले …और मेरी माता को ले आए अपनी कुटिया में । वो वीणा में नारायण नारायण गाते थे …मैं सुनता था …वो नारायण की भक्ति बताते थे मेरी माता को , मैं गर्भ में बैठे बैठे सुनता था ….मुझे परम आनन्द आने लगा था इस नाम के श्रवण में ।

ओह ! तो इस तरह तुममें भक्ति आयी है ? उस बालक ने ताली बजाते हुए कहा ।

किन्तु ये क्या ?

तभी सैकड़ों सैनिक उस विद्यालय में प्रवेश कर गए थे ।

“इस बार मत ले जाओ हमारे भैया प्रह्लाद को ….इस बार मत ले जाओ “। सारे बालक उन सैनिकों की ओर झपटे थे ….किन्तु प्रह्लाद को कोई मतलब नही ….विश्वास दृढ़ है …अरे ! पहले अग्नि में जलाकर देख तो लिया ….प्रह्लाद का कुछ हुआ ? प्रह्लाद को हाथी के नीचे फेंका तो था …क्या हुआ ? हाथी ने सूँड़ से उठाकर अपने ऊपर बिठा लिया था । प्रह्लाद अपने मित्रों से कहते हैं …कुछ नही होगा …मेरे साथ मेरे नारायण हैं ….प्रह्लाद की वाणी में अपूर्व ओज था ।

तभी –

ठीक है …अब बता ! कहाँ है तेरा नारायण ! आज मैं तेरे नारायण को ही देखूँगा !

सामने से चिल्लाता हुआ हिरण्यकशिपु आया । उसके हाथों में नग्न खड्ग थी ….क्रोध से काँप रहा था वो …..तू मेरा पुत्र नही है …तू तो मेरा शत्रु है …क्यों की शत्रु का साथ देने वाला भी शत्रु ही होता है …और तू तो साथ ही नही दे रहा प्रह्लाद ! तू तो उसकी भक्ति भी करता है …बोल तेरा नारायण कहाँ है ? पास में आकर और क्रोध में चिल्लाया ।

पिता जी ! आप जिस बल के कारण अहंकार कर रहे हैं ना ….वो बल भी नारायण हैं …वो सबके बल हैं ….उनके बल के सामने किसी का बल टिक नही सकता । प्रह्लाद शान्त स्वर में बोले ।

तू मेरे सामने बोल रहा है …मैं सबसे बड़ा बली हूँ ..महाबली हूँ …हिरण्यकशिपु फिर चीखा ।

नही , नही पिता जी ! आप महाबली नही हैं …अगर आपको महाबली बनना है तो इन बाहरी शत्रुओं को मारना छोडिये …आपके भीतर जो शत्रु हैं …उनको मारिए …पिता जी ! सबसे बड़ा शत्रु तो आपका क्रोध है ..काम है …लोभ है …और अहंकार है । इनको जीतिये । जैसे ही प्रह्लाद ने ये कहा ….और क्रोध से भर गया हिरण्यकशिपु । तू मरना चाहता है ? हे प्रह्लाद ! मैं तो तेरी माता को देखकर कुछ नही कह रहा था …किन्तु अब तो अति हो गयी ….तू अपने पिता के सामने इस तरह बोल रहा है । पिता जी ! मैंने गलत बात नही कही है …कही है तो बोलिए ? मैंने तो जो सत्य है उसे सत्य कहा है …..इसमें गलत कहाँ है ? प्रह्लाद जी पूछते हैं ।

तू उसी नारायण के नाम से उछल रहा है ना ? अच्छा बोल , तेरा नारायण कहाँ है ? बोल ! तेरे नारायण को अभी मैं देखता हूँ …..हिरण्यकशिपु क्रोध से काँप रहा है ….

पिता जी !
वो तो सर्वत्र हैं ….इस खम्भे में हैं ……प्रह्लाद की बात सुनकर क्रोध से हिरण्यकशिपु उछला ।

कहाँ है खम्भे में ?

आपके नेत्र दूषित हैं …मुझे तो दिखाई दे रहे हैं । प्रह्लाद ने जैसे ही कहा ….

हिरण्यकशिपु ने अतिक्रोध में भरकर अपनी मुष्टिका का प्रहार सामने के खम्भे में जैसे ही किया …..खम्भ फटा ….भयानक गर्जना हुई और नरसिंह भगवान प्रकट हो गये ।

शुकदेव कहते हैं ….”निज भृत्य भाषितम”….अपने भक्त की वाणी को सत्य करने के लिए भगवान खम्भे से प्रकट हुए थे ।

तपाये हुए सुवर्ण के समान उनके नेत्र थे …कंधे पर बड़ी बड़ी जटाएँ थीं …बड़ा भयानक सिंह का मुख था…..बड़े बड़े तीखे दाँत थे….शरीर इतना बड़ा था कि अंतरिक्ष का स्पर्श कर रहा था….बड़ी बड़ी भुजाएँ थीं उनके बड़े बड़े नख थे ….आयुध कुछ नही ….नख ही इनके आयुध थे ।

इनको देखते ही हिरण्यकशिपु तो डर से भागा ….पीछे से पकड़ लिया नरसिंह प्रभु ने ….और खिलाते खिलाते उसे देहरी पर ले आए ….सन्ध्या की वेला भी हो गयी थी उसी समय अपनी जंघा में बैठाकर बीच में से अपने भयानक नख से हिरण्यकशिपु का नरसिंह प्रभु ने पेट फाड़ दिया ।

देवताओं ने जयजयकार की ….पुष्प वृष्टि होने लगी …चारों ओर आनन्द छा गया ।

भाव में भरकर सजल नेत्रों से भगवान नरसिंह प्रभु की स्तुति भक्तराज प्रह्लाद ने की थी ।

Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (19)


श्याम पिया मोरी रंग दे चुनरिया ।

ऐसी रंग दे, के रंग नहीं छुटे ।
धोभिया धोये चाहे सारी उमरिया ॥

लाल ना रंगाऊं मैं, हरी ना रंगाऊ ।
अपने ही रंग में रंग दे चुनरिया ॥

बिना रंगाये मैं तो घर नाही जाउंगी ।
बीत ही जाए चाहे सारी उमरिया ॥

मीरा के प्रभु गिरिधर नागर ।
प्रभु चरनन ने लागी नजरिया

कृष्ण भगवान एवं महालक्ष्मीजी का कुंवरि बाई को दहेज देना

संध्या के समय भक्त राज कृष्ण -मंदिर पहुँच गये और हाथ में करताल लेकर भगवान के भजन में दतचित हो गये । माणिकाबाई तथा शामलदास भी आकर शामिल हो गये । शामलदास मृदंग बजा रहे थे । पुरोहित जी अलग अपने आसन पर पड़े -पड़े सोचने लगे -यह सब क्या पागलपन कर रहे हैं ? ऐसे उछलने -कूदने तथा चिल्लाने से क्या भगवान आ जायँगे ? यदि इस प्रकार भगवान का साक्षात्कार हो जाय तब तो सारा संसार ही भगवान को अपने वश में कर लें । खैर, इससे मुझे क्या ? मैं तो कल अवश्य जाऊँगा ,चाहे भगवान प्रकट होकर दहेज पहुँचा जाये या न पहुँचाये।

पुरोहित जी इसी उधेड़-बुन में पड़े हुए थे कि अकस्मात उनके कानों में “बोलो भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र की जय , जय माँ महा लक्ष्मीजी” की आवाज आ पड़ी ; और भजन की आवाज बन्द हो गयी । वह झट खड़े हो गये और जैसे बटन दबाते ही मशीन चल पड़ती है ,वैसे ही एकाएक मंदिर की ओर दौड़ पड़े । वहाँ जाकर क्या देखते हैं कि साक्षात भगवान श्रीकृष्णचन्द्र हार ,कूंकण, साड़ियाँ आदि दहेज की अनेक वस्तुएँ दे रहे हैं और स्वयं माँ श्रीलक्ष्मीजी सभी चीजें अपने हाथों कुँवरबाई को पहना रही हैं ।

भक्त राज तथा माणिकबाई तो दोनों हाथ जोडे खड़े है और शामलदास भगवान के चरणों में साष्टांग दण्डवत पड़ा हुआ है । वह अन्त तक इस दृश्य को चित्रवत देखते रहे ।

नरसिंह राम को सकुटुम्ब निश्चित और प्रसन्न करके तथा कुँवरबाई को वस्त्र भूषण आदि दहेज की वस्तुओं से सन्तुष्ट करके भगवान, लक्ष्मीजी के साथ अन्तर्-ध्यान हो गये । दूसरे दिन कुँवरबाई पुरोहित जी के साथ प्रसन्नता पूर्वक विदा हो गयी । पुरोहित भी भक्त के संग साक्षात दर्शनो से।कृतार्थ हो गये ।

भक्तभावन भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र की कृपा से भक्त राज कुँवरबाई की विदाई की चिंता से मुक्त हो गये । अब निश्चित होकर वह अपना जीवन पूर्ववत केवल भजन -पूजन और साधु सेवा की चर्चा नगर भर में खूब फैल गई थी । अतएव उनकी जाति के लोग अब उनसे असन्तुषट रहने लगे थे । जाति के गण्यमान्य लोग तो उनसे घृणा करते थे और उनसे मिलना -जुलना भी अपनी प्रतिष्ठा के विरूद्ध समझते थे परंतु परमभागवत नरसिंह राम को इन बातों की तनिक भी परवाह नहीं थी ।

सच्चे भक्त इस और ध्यान ही नहीं देते कि दुनिया उनके विषय में क्या कहती- सुनती या समझती है । वे तो केवल एक इसी विचार मग्न रहते हैं कि हमारे प्रियतम भगवान किस बात से प्रसन्न होते हैं । संसार की बातें सुनने को उन्हें स्वप्न में भी फुर्सत नहीं मिलती -या यो कहें कि भगवान के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की सता ही उनकी दृष्टि में नहीं रहती, फिर दूसरी और ध्यान ही कैसे जाय ?

भक्त राज के पुत्र शामलदास की अवस्था धीरे -धीरे बारह वर्ष हो गयी । माणिकबाई ने देखा कि अब लड़का भी विवाह योग्य होने को आया और हमारे घर में खाने का भी ठिकाना नहीं है । गरीब के घर अपनी पुत्री कौन देना चाहेगा ? और कुल -परिवार के लोग भी प्रसन्न नहीं जो इस काम में सहायता करेंगे, वे तो यही कारण दिखाकर उलटे बाधक हो सकते हैं ।

ऐसी स्थिति में तो पुत्र का विवाह होना कठिन ही प्रतित होता है । एक दिन उसने अपनी चिंता पति पर प्रकट की । पति ने कहा -प्रिये ! तुम व्यर्थ दुःख क्यों करती हो ? चिंता छोड़ो, केवल श्रीकृष्ण का ध्यान करो , सदा मन में उन्हीं को रखो । वह दयालु प्रभु अपने -आप हमारे सारे कार्य यथा समय करते रहेगें ; वह स्वयं हमसे अधिक हमारे लिए चिन्तित होंगे ।

भगवान अपनी पूजा से उतने संतुष्ट नहीं होते, जितने अपने भक्तों की पूजा से संतुष्ट होते हैं। उनका तो कथन है, जो केवल मेरे ही भक्त हैं, वे तो भक्त ही नहीं, यथार्थ भक्त तो वही है जो मेरे भक्तों का भक्त हो। भगवान स्वयं कहते हैं-*

ये मे भक्तजना: पार्थ न मे भक्ताश्च ते जना: ।
मद्भक्तानां च ये भक्तास्ते में भक्ततमा मता:।।[1]

भगवान अर्जुन के प्रति कहते हैं- ‘हे पार्थ! जो मनुष्य मेरे ही भक्त है वे भक्त नहीं है। सर्वोत्तम भक्त तो वे ही हैं जो मेरे भक्तों के भक्त हैं।

क्रमशः ………………!


Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 9 . 21
🌹🌹🌹🌹

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं
विशालंक्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति |
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते || २१ ||

ते – वे; तम् – उसको; भुक्त्वा – भोग करके; स्वर्ग-लोकम् – स्वर्ग को; विशालम् – विस्तृत; क्षीणे – समाप्त हो जाने पर; पुण्ये – पुण्यकर्मों के फल; मर्त्य-लोकम् – मृत्युलोक में; विशन्ति – नीचे गिरते हैं; एवम् – इस प्रकार; त्रयी – तीनों वेदों में; धर्मम् – सिद्धान्तों के; अनुप्रपन्नाः – पालन करने वाले; गत-आगतम् – मृत्यु तथा जन्म को; काम-कामाः – इन्द्रियसुख चाहने वाले; लभन्ते – प्राप्त करते हैं |

भावार्थ
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इस प्रकार जब वे (उपासक) विस्तृत स्वर्गिक इन्द्रियसुख को भोग लेते हैं और उनके पुण्यकर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं तो वे मृत्युलोक में पुनः लौट आते हैं | इस प्रकार जो तीनों वेदों के सिद्धान्तों में दृढ रहकर इन्द्रियसुख की गवेषणा करते हैं, उन्हें जन्म-मृत्यु का चक्र ही मिल पाता है |

तात्पर्य
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जो स्वर्गलोक प्राप्त करता है उसे दीर्घजीवन तथा विषयसुख की श्रेष्ठ सुविधाएँ प्राप्त होती हैं, तो भी उसे वहाँ सदा नहीं रहने दिया जाता | पुण्यकर्मों के फलों के क्षीण होने पर उसे पुनः इस पृथ्वी पर भेज दिया जाता है | जैसा कि वेदान्तसूत्र में इंगित किया गया है, (जन्माद्यस्य यतः) जिसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं किया या जो समस्त कारणों के कारण कृष्ण को नहीं समझता, वह जीवन के चरमलक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता | वह बारम्बार स्वर्ग को तथा फिर पृथ्वीलोक को जाता-आता रहता है, मानो वह किसी चक्र पर स्थित हो, जो कभी ऊपर जाता है और कभी नीचे आता है | सारांश यह है कि वह वैकुण्ठलोक न जाकर स्वर्ग तथा मृत्युलोक के बीच जन्म-मृत्यु चक्र में घूमता रहता है | अच्छा तो यह होगा कि सच्चिदानन्दमय जीवन भोगने के लिए वैकुण्ठलोक की प्राप्ति की जाये, क्योंकि वहाँ से इस दुखमय संसार में लौटना नहीं होता |

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