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July 6, 2025 2:49 pm

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श्री जगन्नाथ मंदिर सेवा संस्थान दुनेठा दमण ने जगन्नाथ भगवान की रथ यात्रा दुनेठा मंदिर से गुंडीचा मंदिर अमर कॉम्प्लेक्स तक किया था यात्रा 27 जुन को शुरु हुई थी, 5 जुलाई तक गुंडीचा मंदिर मे पुजा अर्चना तथा भजन कीर्तन होते रहे यात्रा की शुरुआत से लेकर सभी भक्तजनों ने सहयोग दिया था संस्थान के मुख्या श्रीमति अंजलि नंदा के मार्गदर्शन से सम्पन्न हुआ

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श्रीसीतारामशरणम्मम(20-2),“श्रीकृष्ण सखा उद्धव”,भक्त नरसी मेहता चरित (30) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम(20-2),“श्रीकृष्ण सखा उद्धव”,भक्त नरसी मेहता चरित (30) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣0️⃣
भाग 2

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#हिमऋतुअगहनमाससुहावा ……..

📙( #रामचरितमानस )📙

🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! …………….

उस दृश्य को देखनें के लिए कमला नदी के तट पर भीड़ जुट गई थी ।

और भीड़ मात्र जनकपुर वासियों की ही नही ………….

आकाश में देवता लोग अपनी अपनी देवियों के साथ विमान में खड़े हैं ……..और फूल बरसा रहे हैं ……………….

सब जयजयकार कर रहे हैं ………………..

सब सखियां मेरे साथ ………गीत गाती हुयीं ……..नाचती गाती हुयी ……..आँगन में पहुँच गयी थीं मेरे साथ………..।


सिया जू ! जल्दी तैयार हो जाओ …..आज हल्दी लगानें की विधि है ।

हाँ …….हाँ …………मै उठी हड़बड़ाकर …………..

वनदेवी ! आप आज बिलम्ब से उठी हैं ……………….क्या बात है आप का स्वास्थ तो ठीक है ना ?

ओह ! ये सब सपना देखा था मैने ………………..

मै तो ऋषि बाल्मीकि के आश्रम में हूँ ………………..।

गंगा में जाकर स्नान किया मैने…….पर स्नान के बाद वहीँ बैठ गयी ।

जनकपुर का विवाह ! मेरा विवाह ………..मेरे प्राणनाथ श्री राम के साथ मेरा विवाह ……..वो उमंग …..वो उत्साह ……..कितना सुन्दर सजा था उन दिनों मेरा जनकपुर………शहनाई बज रही थी …।

( सीता जी फिर खो जाती हैं अपनें विवाह प्रसंग को याद करके )


सिया जू ! जल्दी तैयार हो जाओ आज हल्दी लगानें की विधि है ।

थक जाती थी ना ……………कितनें विधि हैं हमारे मिथिला में …….

पर एक आनन्द है…….पिया के लिये………पिया से मिलनें के लिए ।

अब जल्दी भी करो और हाँ…..आज हल्दी चढ़ाई जायेगी ……और उबटन भी लगाया जाएगा……..बस शीघ्र तैयार हो जाइये सिया जू !

मेरी सखियाँ आज कल मेरे पास कम ही रहती हैं ………इनको तैयारी भी तो करनी है………मेरे पास तो आती हैं मुझे बतानें के लिये कि अब इस विधि के लिये आपको चलना है ……..फिर मुझे तैयार भी कर देती हैं …………मेरी सखियाँ ।

मेरे आँगन में गणेश और गौरी की स्थापना एक चौकी में की गयी थी ।

हम चारों दुलहिन सज कर आगयी …….हम लोगों के लिये सुन्दर आसन बिछाया गया था ….हम उसी में जाकर बैठीं थीं ।

कलश पूजन इत्यादि …मौली बान्धना ……गौरी गणेश पूजन …..ब्राह्मणों के द्वारा स्वस्तिवाचन किया गया था ………..फिर इसके बाद एक एक करके मुझे हल्दी चढानें लगे थे ।

हल्दी चढ़ाना ………….हल्दी को शुभ माना जाता है …………

हल्दी चढानें की ये जो विवाह में विधि है ……….. ये वास्तव में दूल्हा दुल्हन के हृदय में प्रेम बढ़ानें के लिए ही किया जाता है ……..बड़े लोग इस हल्दी के रूप में आशीर्वाद देते हैं अपनी लाड़ली को ……..जिस प्रकार हल्दी तन में पचकर तन का रँग निखार देती है …..मंगल करती है ……स्वास्थ्य के लिये भी उत्तम करती है ………ऐसे ही ये हल्दी का प्रताप दूल्हा दुलहिन के जीवन में प्रेम, आयुष्य, और मंगल का बीजारोपड़ करे …. यही है इस विधि का अर्थ …..कितनी अच्छी विधि है ना ये !

शरीर के पाँच जोड़ों पर हल्दी चढ़ाई जाती है …………और मात्र हल्दी ही नही चढ़ाई जाती ….उसके साथ दूर्वा और अक्षत भी चढाया जाता है ।

क्रमशः ….
शेष चरिञ अगले भाग में……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱

Niru Ashra: “श्रीकृष्ण सखा उद्धव”

भागवत की कहानी – 29


“मुझे मेरे भाई बलराम इतने प्रिय नही हैं , न मुझे मेरी अंगसंगा लक्ष्मी ही प्रिय हैं …मुझे मैं भी प्रिय नही हूँ ….हे उद्धव ! जितने प्रिय तुम हो”।

अंतिम झाँकी है ये श्रीकृष्ण की …..समुद्र में हलचल शुरू हो गयी है ….द्वारिका छोड़कर सब प्रभाष क्षेत्र में आगये हैं …सब अपने अपने मैं मग्न हैं …कल क्या होगा किसी को पता नही है । श्रीकृष्ण एकान्तवास चले गए हैं …उनसे कोई मिल नही सकता । हाँ , मिल सकता है तो एक ही व्यक्ति …वो है उद्धव ! ये गया था इसके लिए द्वार खोल दिए थे द्वारकेश ने …..आओ उद्धव ! भीतर बुलाकर फिर द्वार बन्द ।

जीवन क्या है ? त्याग किसे कहते हैं ? सन्यास की परिभाषा ? मुक्ति क्या है ? और तो और आपकी भक्ति कैसे मिले ? ओह ! कितने प्रश्न किए थे किन्तु धैर्यता के साथ उद्धव को देखते हुए शान्त श्रीकृष्ण ने सब उत्तर दिए …अर्जुन को भी वो वस्तु न मिली जो उद्धव को श्रीकृष्ण ने दी ।

उद्धव के प्रश्न समाप्त हो गए थे …श्रीकृष्ण उद्धव की आँखों में देखते रहे …उद्धव समझ नही पा रहे कि मेरी आँखों में ये क्या देख रहे हैं ? “अपने वृन्दावन को देख रहा हूँ”. श्रीकृष्ण इतना कहते हुए रो उठे थे । उद्धव शान्त ही हैं । फिर एकाएक न जाने क्या हुआ श्रीकृष्ण ने उद्धव को अपने हृदय से लगा लिया था ….और अश्रुपात करते हुए बोले थे ….न बलराम प्रिय हैं , न लक्ष्मी प्रिय है …हे उद्धव ! मुझे मेरी आत्मा भी प्रिय नही है जितने प्रिय तुम लगते हो । ओह !


वसुदेव के भाई देवभाग …..इन्हीं देवभाग के यहाँ उद्धव का जन्म हुआ था । उद्धव ! मुस्कुराता मुखमण्डल ….ये जहाँ जाते उत्सव का वातावरण अपने आप प्रकट हो जाता …..श्रीकृष्ण के विषय में ये सुनते रहते …..और अपना सब कुछ इन्होंने श्रीकृष्ण को ही मान लिया था । श्रीकृष्ण वृन्दावन में हैं …..तो ये क्यों रहें मथुरा । बुद्धिमान थे ….अति बुद्धिमान । तो पुत्र ! क्या करोगे ? पाँच वर्ष के ही तो थे उस समय उद्धव । मैं विद्याध्ययन करूँगा । अपने पिता देवभाग से कहा था । तुम्हारे लिए कौन गुरु ठीक होगा ? कौन सा गुरुकुल ? पिता स्वयं निर्णय नही ले सकते उद्धव के विषय में …क्यों की ये बालक सामान्य बुद्धि का नही है ….बहुत कुछ असामान्य है इसमें । मैं देवगुरु बृहस्पति के यहाँ पढ़ने जाऊँगा । उद्धव ने दृढ़ता से कहा । बृहस्पति ? देवगुरु बृहस्पति ? देवभाग को लगा कि बालक विनोद कर रहा है । नही पिता जी ! मैं विनोद नही कर रहा …मैं सच कह रहा हूँ । किन्तु पुत्र ! मुझ में इतना सामर्थ्य नही है कि मैं तुम्हें देवगुरु के गुरुकुल में पढ़ा सकूँ । पिता जी ! आप आचार्य गर्ग जी से बात करें उनके पास इसका समाधान अवश्य होगा । है मेरे पास समाधान । आचार्य गर्ग जो इनके पुरोहित हैं उन्होंने स्वीकार किया देवगुरु के गुरुकुल में भेजने का उद्धव को । और अपने तपबल से आचार्य ने उद्धव को , बृहस्पति के गुरुकुल में भिजवा दिया । वहाँ तो अन्य भी गुरु जन पढ़ाते हैं …किन्तु उद्धव ने तो सोचा था कि वो देवगुरु से ही पढ़ेगा । देवगुरु सबको नही पढ़ाते …और तुम्हें तो बिल्कुल नही , जिद्द बहुत है तुममें ….ये अन्य गुरु थे जो विद्यार्थियों को पढ़ाते थे । किन्तु मुझे आप नही पढ़ा पायेंगे …उद्धव ने भी कह दिया था …. जब पढ़ाने लगे तो इस पाँच वर्ष के बालक ने ही उल्टा उन्हें पढ़ा दिया …बात जब देवगुरु तक पहुँची ….और वो आए उन्होंने आकर देखा उद्धव को तभी समझ गये थे कि ये कोई सामान्य बालक नही है ….तो उद्धव को बृहस्पति स्वयं पढ़ाने लगे थे ।


गुरुदेव ! मुझे अब वापस मथुरा जाना है । आज पूरे दस वर्ष हो गए हैं ….उद्धव को सूचना मिली है कि श्रीकृष्ण अब वृन्दावन से मथुरा आने वाले हैं ….उद्धव ये सुनते ही आनन्द में फूले नही समाये उन्होंने देवगुरु के चरणों में जब वन्दन किया और ये प्रार्थना की …तो देवगुरु गदगद हो गए थे …उन्होंने अपने हृदय से लगाते हुए कहा था ..हे उद्धव ! अपने सखा के चरणों में मेरा भी नमन बोल देना । गुरु जी ! हमारे सखा को नमन करने तो आपको स्वयं आना होगा …उद्धव ने चहकते हुए कहा । लम्बी साँस लेते हुए देवगुरु बोले थे …उद्धव ! इतना सौभाग्य मुझ में कहाँ …कि बृज में आकर मैं तुम्हारे सखा उन मोर मुकुटी के दर्शन करूँ । उद्धव को अब पृथ्वी में आने की जल्दी थी इसलिए देवगुरु को प्रणाम करके वो पृथ्वी में फिर मथुरा आगये थे ।

कितना उथल पुथल मचा है मथुरा में …विशेष राजनीतिक हलचल बहुत तेज है यहाँ तो । उद्धव मथुरा में आकर देखते हैं …कंस का वध हो चुका है ..राजा भी वापस उग्रसेन महाराज बन चुके हैं ।

आज कितना सुन्दर दिन है ….आज यज्ञोपवीत है …श्रीकृष्ण और बलराम का । ये बात पिता देवभाग ने उद्धव को कहा था ….उद्धव ! तुम सही समय में आए हो ….चलो , भिक्षा देना है श्रीकृष्ण और बलभद्र को ….अब चलो । उद्धव को तो श्रीकृष्ण नाम से ही रोमांच होने लगता है ….अब मैं उन्हें देखूँगा ! ओह ! वो कितने सुन्दर ! मैं उनके रूप को निहारूँगा ….मेरा परिचय मैं उनके काका का पुत्र ! यानि मैं उनका भाई ? नही , मुझे भाई नही बनना मुझे तो उनका सेवक बनना है उनके चरण मुझे मिलें । उद्धव आनंदित हैं ….वो जाते हैं अपने माता पिता , काका वसुदेव काकी देवकी , सब के साथ । यज्ञोपवीत संस्कार पूरा हुआ है ….अब भिक्षा मांगेंगे श्रीकृष्ण बलराम …उद्धव ने देखा ….मुंड़ित केश , हाथ में दंड , झोली , कमंडलु , चरणों में छोटे छोटे खड़ाऊँ । उद्धव इनका दर्शन करते ही वो सब कुछ भूल गये उसे कुछ याद नही ।

उद्धव !

भिक्षा माँगते हुये उद्धव के पास भी गए श्रीकृष्ण किन्तु उद्धव को होश कहाँ था ….

उद्धव ! नाम लेकर श्रीकृष्ण ने ही उसे पुकारा था ।

उद्धव के प्रेमाश्रु अब बह चले थे ….वो देखता रहा ….देखता रहा ….श्रीकृष्ण रथ में बैठकर चले गये थे उज्जैन ….वहीं से फिर विद्याध्ययन करने ।


“श्रीकृष्ण आरहे हैं”…..ये चर्चा , ये हल्ला कई दिनों से है ….किन्तु सही सही बात कोई बता नही रहा …..क्यों की मथुरा का शत्रु जरासन्ध बन गया है …..इसलिए हमें श्रीकृष्ण के विषय में ज़्यादा किसी को कुछ बताने की आवश्यकता नही है । पन्द्रह वर्ष का उद्धव मथुरा की राजनीति में अपनी सलाह दे रहा था । इसी ने तो “काशी पढ़ने गए” ये कहो सबको …उज्जैन की बात हमें छिपानी चाहिए क्यों कि जरासन्ध हमारे श्रीकृष्ण को खोज रहा है मैंने गुप्तचरों से सुना है । उद्धव की बातों से महाराज उग्रसेन इतने प्रभावित हुये की उद्धव को मन्त्री ही बना दिया था ।

“श्रीकृष्ण आरहे हैं”…..आज आखिर श्रीकृष्ण आही गये ….सारी व्यवस्था उद्धव ही देख रहे हैं …..महल सजाया है श्रीकृष्ण का उद्धव ने ….बाग सुन्दर लगाया है , जब झरोखा खुलता है तब दिखाई देता है …..उस बाग में नाना प्रकार के फूल हैं । श्रीकृष्ण को वृन्दावन की याद नही आनी चाहिए …माता देवकी ने उद्धव को कह दिया था । वृन्दावन ? क्या है वृन्दावन में ? उद्धव ने इस ओर ज़्यादा ध्यान नही दिया …..श्रीकृष्ण आगये हैं अपने महल में विश्राम कर रहे हैं ….करने दो …..भोजन बना है माता रोहिणी के देख रेख में….क्या प्रिय है कृष्ण को क्या अप्रिय , ये कृष्ण ही जानते हैं ना ! किन्तु आश्चर्य ! भोजन किया ही नही श्रीकृष्ण ने । क्यों ? मैंने तुम्हारे लिए माखन भी रखवाई थी …रोटी भी …बेझर की रोटी और थी …साग भी था जो तुम्हें प्रिय है ….नही , मुझे भूख नही है । श्रीकृष्ण सो गये हैं दोपहर में । सन्ध्या की वेला है …कृष्ण छत में हैं और ……..कौन ? कृष्ण ने पूछा । मैं , मैं उद्धव ।

ओह ! आओ । बैठो …..कृष्ण ने कहा …..उद्धव नीचे ही बैठ गये ….अरे ! तुम यहाँ बैठो ना ! कृष्ण ने अपने साथ बिठाना चाहा किन्तु ….नही , मुझे चरणों में ही बैठने दो । उद्धव चरणों में ही बैठ गये । कुछ नही बोल रहे कृष्ण वृन्दावन की ओर फिर देखने लगे ।

उधर वृन्दावन है ना ? उद्धव ने ही पूछा ।

हाँ , हाँ हाँ …..कृष्ण को कुछ हुआ इस नाम को सुनकर ।

अच्छा ! आपको भोजन प्रिय नही लगा ? उद्धव ने बात को घुमा दी थी ।

नही , ठीक था । कृष्ण बोले ।

आपने तो खाया ही नही …..उद्धव बोले ।

उसमें मैंने सब कुछ बनवाया था जो आपको प्रिय है ….रोहिणी माता ने हमें बता दिया है ।

आपको माखन प्रिय है …आपको बेझर की रोटी प्रिय है …

उद्धव के मुख से ये सब सुनते ही श्रीकृष्ण तो रोने लगे …आप रो क्यों रहे हैं ?

मुझे वृन्दावन की याद आरही है । रोते हुये ही श्रीकृष्ण बोले ।

याद आरही है ? किन्तु ये सब तो मिथ्या है …उद्धव ने कहा ।

प्रेम मिथ्या नही होता उद्धव ! तुम जाओ मेरी मैया के पास , तुम जाओ मेरे बाबा मेरे सखा मेरी गोपियाँ उन सबको समझाकर आओ …जाओ उद्धव ! कृष्ण उठकर खड़े हो गए थे …उद्धव का हाथ अपने हाथों में ले लिया था । तुम तो देवगुरु के शिष्य हो ना ! उद्धव हंसे …देवगुरु की शिक्षा वो गंवार गोपियाँ समझेंगी ? समझेंगी उद्धव ! तुम जाओ । उद्धव को भेजा कृष्ण ने वृन्दावन ….उद्धव आये …देवगुरु का शिष्य कहाँ फंस गया था । सब रो रहीं थीं …कृष्ण कृष्ण कहकर सब अपने आपको भूल रहीं थीं …फूलों में इन्हें कृष्ण दिखाई दे रहा था तो फूलों के रस को पी रहे भँवरे में भी कृष्ण दिखाई दे रहा था । उद्धव चकित थे ….प्रेम ज्ञान से बड़ा है ये बात उद्धव के समझ में आगयी थी ….और जाते जाते गोपियों के चरण रज को अपने माथे से लगाते हुए और रज होने की कामना करते हुए उद्धव मथुरा चले गये थे ।


मेरी आँखों में क्या देख रहे हो आप ? उद्धव ने द्वारिकाधीश से पूछा था ।

वृन्दावन ! तेरी आँखों में मुझे वृन्दावन दिखाई देता है …रोती बिलखती गोपियाँ दिखाई देती हैं …मेरी मैया दिखाई देती है मेरे बाबा दिखाई देते हैं ….कृष्ण रोने लगे ।

पूरा कुनवा खतम होने को आया है ….पुत्र पौत्र लड़कर मरने मारने को उतारू हो गये हैं द्वारकेश के….किन्तु इनको रोना नही आया …..पर उद्धव को देखकर ये रो पड़े …वृन्दावन , वृन्दावन , वृन्दावन । तू बद्रीनाथ जा ! पर उद्धव ! बद्रीनाथ जाते समय मेरे वृन्दावन भी होते जाना …वहाँ की माटी बहुत पवित्र है …प्रेम के अश्रुओं से सिंचित है । प्रेमिन गोपियों के पद धूल हैं वो …उससे पवित्र और कुछ नही है । तू जा ! मेरे वृन्दावन जा । श्रीकृष्ण को बहेलिया बाण का प्रहार करता है ….चरणों में बाण लगते हैं …..उद्धव ! ये चरण वृन्दावन छोड़ने के अपराधी थे ….श्रीकृष्ण हंसते हैं और परमधाम चले जाते हैं ….उद्धव वृन्दावन आये हैं ….यहाँ की भूमि में उद्धव लोटते हैं ….और खूब रोते हैं …खूब रोते हैं ।


Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (30)


नरसी भक्त के पिता का श्राद्ध

प्रातःकाल नरसी अपनी धुन में मगन होकर लीला गान कर रहे थे

अधरं मधुरं वदनं मधुरं,
नयनं मधुरं हसितं मधुरम्।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥१॥

(हे कृष्ण !) आपके होंठ मधुर हैं, आपका मुख मधुर है, आपकी ऑंखें मधुर हैं, आपकी मुस्कान मधुर है, आपका हृदय मधुर है, आपकी चाल मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥१॥

वचनं मधुरं चरितं मधुरं
वसनं मधुरं वलितं मधुरम्।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥२॥

आपका बोलना मधुर है, आपके चरित्र मधुर हैं, आपके वस्त्र मधुर हैं, आपका तिरछा खड़ा होना मधुर है, आपका चलना मधुर है, आपका घूमना मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥२॥

वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः
पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥३॥

आपकी बांसुरी मधुर है, आपके लगाये हुए पुष्प मधुर हैं, आपके हाथ मधुर हैं, आपके चरण मधुर हैं , आपका नृत्य मधुर है, आपकी मित्रता मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है।

गीतं मधुरं पीतं मधुरं
भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम् ।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥४॥

आपके गीत मधुर हैं, आपका पीना मधुर है, आपका खाना मधुर है, आपका सोना मधुर है, आपका रूप मधुर है, आपका टीका मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥४॥

तभी द्वार पर सांकल खडकाए जाने की आवाज उनके कानो में पड़ी , बाहर द्वार पर जाकर देखा तो बड़े भाई आये हुए हैं, उन्होंने कहा -‘नरसिंह ! कल पिता जी की श्राद्ध तिथि है : अतएव मैं तुम्हें सकुटुम्ब भोजन का निमंत्रण देता हूँ । अपनी स्त्री को तो आज ही भेज देना ; क्योंकि वहाँ कई तरह का काम-काज रहेगा । तुम भी कल प्रातः काल सात बजे ही आ जाना , वैरागियों के अखाड़े में एक एक दिन मत जाना ।

( पुत्र वियोग के प्रायः छः मास बाद पितृ पक्ष शुरू हुआ था । गुजरात -काठियाबाड़ में प्रायः सभी लोग पितरों के निमित्त एकोद्धिष्ट श्राद्ध विधि पूर्वक करके पिण्डदान करते हैं और उस दिन ब्राह्मण -भोजन कराते हैं । नरसिंह मेहता के पिता जी की श्राद्ध तिथि सप्तमी थी । वंशीधर ने उस दिन श्राद्ध करने का निश्चय किया था । अतएव उन्होंने एक दिन पूर्व अपने जाति भाईयो को भोजन का निमंत्रण दे दिया । वह कुल के प्रथानुसार नरसिंह राम के घर भी निमंत्रण देने आये । )

नरसिंह राम ने बड़े शान्त चित से उतर दिया -‘ भाई ! साधु-सन्त तो मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है । अतः मैं तो साधुओ की सेवा करके ही आऊँगा । मेरी स्त्री भी भगवान का नैवेध तैयार करने के पश्चात कल ही आयेगी ।

‘ ओहो ! भीख माँग-माँगकर साधु सेवा करने का दम्भ रखने वाले का इतना मिजाज ! ‘०० यदि तू इतनी लापरवाही रखता है तो फिर पिता जी का श्राद्ध भी क्यों नही कर लेता ? पास न एक कौड़ी, बाजार में दौड़ी ०० ‘–बस, यही तेरा हाल है । वंशीधर क्रोध से तमतमाते हुए बोले ।

भाई ! जब आपकी आज्ञा है तो अवश्य पिता जी का श्राद्ध करूँगा और अपनी शक्ति के अनुसार दो-चार ब्राह्मणों को भोजन करा दूंगा । श्राद्ध में सगे -सम्बनधी तथा जाति – भाईयों को भोजन कराना पारस्परिक व्यवहार है और उचित भी है ; परंतु हमलोग जो ‘श्रदध्या दीयते अनेनेति श्राद्धम’— इस शास्त्र -वाक्य को भुला कर केवल नात -जात के लोगों को स्वादिष्ट भोजन कराने में ही अपने पितरों का उद्धार समझते हैं, यह ठीक नहीं । अपनी स्वाभाविक शान्ति के साथ नरसिंह राम ने निवेदन किया ।

क्रमशः ………………!


] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 32
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मांहिपार्थव्यपाश्रित्ययेSपिस्यु: पापयोनयः |
स्त्रियोवैश्यास्तथा शुद्रास्तेSपियान्तिपरांगतिम् || ३२ ||

माम् – मेरी; हि – निश्चय ही; पार्थ – हे पृथापुत्र; व्यपाश्रित्य – शरण ग्रहण करके; ये – जो; अपि – भी; स्युः – हैं; पाप-योनयः – निम्नकुल में उत्पन्न; स्त्रियः – स्त्रियाँ; वैश्याः – वणिक लोग; तथा – भी; शूद्राः – निम्न श्रेणी के व्यक्ति; ते अपि – वे भी; यान्ति – जाते हैं; पराम् – परम; गतिम् – गन्तव्य को |

भावार्थ
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हे पार्थ! जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही निम्नजन्मा स्त्री, वैश्य (व्यापारी) तथा शुद्र (श्रमिक) क्यों न हों, वे परमधाम को प्राप्त करते हैं |

तात्पर्य
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यहाँ पर भगवान् ने स्पष्ट कहा है कि भक्ति में उच्च तथा निम्न जाती के लोगों का भेद नहीं होता | भौतिक जीवन में ऐसा विभाजन होता है, किन्तु भगवान् की दिव्य भक्ति में लगे व्यक्ति पर यह लागू नहीं होता | सभी परमधाम के अधिकारी हैं | श्रीमद्भागवत में (२.४.१८) कथन है कि अधम योनी चाण्डाल भी शुद्ध भक्त के संसर्ग से शुद्ध हो जाते हैं | अतः भक्ति तथा शुद्ध भक्त द्वारा पथप्रदर्शन इतने प्रबल हैं कि वहाँ ऊँचनीच का भेद नहीं रह जाता और कोई भी इसे ग्रहण कर सकता है | शुद्ध भक्त की शरण ग्रहण करके सामान्य से सामान्य व्यक्ति शुद्ध हो सकता है | प्रकृति के विभिन्न गुणों के अनुसार मनुष्यों को सात्त्विक (ब्राह्मण), रजोगुणी (क्षत्रिय) तथा तामसी (वैश्य तथा शुद्र) कहा जाता है | इनसे भी निम्न पुरुष चाण्डाल कहलाते हैं और वे पापी कुलों में जन्म लेते हैं | सामान्य रूप से उच्चकुल वाले इन निम्नकुल में जन्म लेने वालों की संगति नहि८न करते | किन्तु भक्तियोग इतना प्रबल होता है कि भगवद्भक्त समस्त निम्नकुल वाले व्यक्तियों को जीवन की परं सिद्धि प्राप्त करा सकते हैं | यह तभी सम्भव है जब कोई कृष्ण की शरण में जाये | जैसा कि व्यपाश्रित्य शब्द से सूचित है, मनुष्य को पूर्णतया कृष्ण की शरण ग्रहण करनी चाहिए | तब वह बड़े से बड़े ज्ञानी तथा योगी से भी महान बन सकता है |


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