श्रीसीतारामशरणम्मम(21-1),भक्त नरसी मेहता चरित (032),“देवकी वसुदेव”/(31) & श्रीमद्भगवद्गीता अ-9 : नीरु आशरा

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🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣1️⃣
भाग 1

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀

#कहीनजाइसबभाँतीसुहावा….._
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! ……………._
वाद्यध्वनि नें सूचित कर दिया था कि चक्रवर्ती अवधेश महाराज बरात लेकर जनवासे से निकलनें वाले हैं ………….

मेरे पिता जी और माता जी मेरे काका सपत्निक द्वार पर स्वागत के लिए उपस्थित हो गए थे ।

मेरे पास मेरी सखियाँ थीं …..और मेरी बहनें भी थीं …………हम सब सज रही थीं …………….तब बाहर की सूचना देनें के लिये चन्द्रकला ही हमारे पास पर्याप्त थी ……..ये कहीं से भी सूचना इकठ्ठी करके सुना जाती……….सबमें अपूर्व उत्साह और उमंग था ।

मन्द ध्वनि में शहनाई बजती ही रहती थी उन दिनों ………विवाह का वातावरण जो था ।

पाँवड़े तो बिछाये ही गए थे……जनवासे से लेकर विवाह मण्डप तक ।

सिया जू ! हमारे श्री रघुनाथ जी घोड़े में बैठे हैं ……….

मेरा श्रृंगार हो रहा था …………मैने जैसे ही सुना मेरे प्राण श्री राम घोड़े में बैठकर आरहे हैं ………..मैनें तुरन्त चन्द्रकला की और मुड़कर पूछा ….
कैसे लग रहे हैं मेरे ………………..बस आगे बोल नही पाई ।

सिया जू ! …………………………….

इस चन्द्रकला की बातें सुनकर मुझे हँसी आई ………….बृहस्पति सुनें तो वह भी इसके शिष्य हो जाएँ ………ऐसी है ये सखी ।

और ये चन्द्रकला तो मेरी सखी है ……मेरी……..इसलिये इसकी बातें तो दो , अरे ! मेरे विदेह नगर का साधारण से साधारण जन भी अच्छे खासे ज्ञानी से भी ऊंचा ही निकलेगा ।

चन्द्रकला से जब मैने पूछा बता कैसे लग रहे थे मेरे श्री राम ….घोड़े में बैठे हुये ?

तब वह कहती है …..घोडा सफेद रँग का है सिया जू ! उसपर बैठे हैं रघुनन्दन श्री राम ……………..

अच्छा रघुनन्दन का वह घोडा ऐसा लग रहा है जैसे “कामदेव” ही घोडा बनकर आगया हो……राम नें “कामदेव” को ही अपना घोडा बना लिया ………..सिया जू ! इस बरात की यही तो विशेषता है कि कामदेव दूल्हा पर सवार नही है ………..अपितु दूल्हा कामदेव पर सवार होकर आरहा है ……….।

मुझे हँसी आई ………..विदेह नगरी की सखी है …………हर पक्ष को अध्यात्म से ही देखती है ………अच्छा आगे बोल चन्द्रकले ! मैने कहा ।
सिया जू ! आप थोडा झरोखे में तो आओ ………और अपनें जनकपुर को देखो तो …….बाहर की भीड़ देखो तो ………

मुझे जबरदस्ती झरोखे के पास ले आई थी वो चन्द्रकला …………..

देखो ! वो देख रही हो ना ………वो हैं देवराज इंद्र …….वो जो उनके साथ चल रहे हैं …. चारों ओर देख रहे हैं और आनन्दित हो रहे हैं वो है विधाता ब्रह्मा ………उनके ही साथ झूमते हुए हाथों में एक वाद्य यन्त्र थामें चले जा रहे हैं ………….वो है भगवान शंकर ……..।

आपका ये विवाह साधारण नही है ………….सिया जू ! यह विवाह तो “न भूतो न भविष्यति”…….न पहले कभी हुआ था ….न आगे होगा ।
मेरी सखी चन्द्रकला बोले जा रही थी …………….

मैने इन आँखों से देखा………….घोड़े में बैठे रघुनंन्दन ऐसे लग रहे थे ……जैसे काम पर सवार त्रिपुरारी ।

काम की उत्पत्ति है मन से ……..(मेरी चन्द्रकला किसी बृहस्पति से कम थोड़े ही है) …………अब मन तो चंचल होता ही है ………..इसलिये मैनें तो एक बात समझ ली ………कि मन को शान्त करनें की अपेक्षा………अपनें मन में रघुनंन्दन की इस छबि को ही बैठा लो……..इससे लाभ ये होगा सिया जू ! कि मन अपनें आप शान्त हो जाएगा…….और उसका चंचल होना भी सफल हो जाएगा ……..।

क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभागमें……….


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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Nriru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (032)


लाज बचाओ हे गिरधारी हे गिरधारी,

जल रुपत गज लाज बचाइयो,
ध्याओ नाथ लगाओ न देरी,
अब की बारी नाथ हमारी,
हे गिरधारी हे गिरधारी,

किस के द्वार प्रभु मैं जाऊ,
किस को मन की बात सुनाऊ,
दया करो हे कृष्ण मुरारी
हे गिरधारी हे गिरधारी,

अर्ध नाम सुनी ध्याऊ आयो खिचत चीर दुसाशन हारयो,
वस्रत रूप धरी चीर बढ़ायो हे गिरधारी ,

माणिकबाई को कसौटी से प्रभु पर विस्वास

साध्वी ! तू बार-बार ऐसी घृणित प्रकट करते हुए वृथा क्यों भाषण करती है । आज भी तूने फिर मेरे नाथ पर व्यर्थ शंका की है । उनके यहाँ पाप -पुण्य का न्याय युक्त बदला दिया जाता हैं । मेरा दुर्भाग्य है कि मेरी अर्धान्गिनी होकर भी तेरे अन्दर श्रृद्धा का अभाव है । प्रिये ! मैं बार -बार कह चुका हूँ और आज भी कहता हूँ कि जो सच्चा सोना होता है उसे ही घर्षण , छेदन ,तापन तथा ताड़न आदि दुःखो को सहते हुए कसौटी पर चढना पड़ता है । स्व॔णकारको भी यही उचित है कि वह लोहादि धातुओं की परीक्षा न कर खरे सोने की ही परीक्षा करें ।

‘वास्तव में आज हम कसौटी पर है और ऐसी कसौटी ही मनुष्यत्व की सच्ची परीक्षा है । मेरा दृढ़ विश्वास है कि उस परम पिता के दरबार में कभी भूलकर भी अन्नाय नहीं होता । नरसिंह राम ने खूब जोरदार शब्दों में पत्नी का समाधान किया ।

नाथ ! क्षमा करें, अब मेरी आँखें खुल गई । अब अगर इससे भी अधिक कोई कष्ट आ पड़े तो मैं विचलित न होऊँगी और उस कृपालु जगन्नाथ पर पूर्ण विश्वास रखूँगी । मेरे पास यह जो दो मासे सोने का कर्णभूषण है ; इसे बेचकर आवश्यक सामग्री ले आइये और कलका काम चलाइये । इतना कहते हुए माणिकबाई ने आभूषण नरसिंह राम के हाथ पर रख दिया । सच्ची अर्धान्गिनी वहीं है जो पति की आपत्ति में उसे धैर्य प्रदान करे और उसके दुःख में स्वयं भाग ले ।’

धीरज धर्म मित्र अरू नारी ।आपदा काल परिखिअहिं चारी।।

धन नाश होने पर ही स्त्री की परीक्षा होती है ।

माणिकबाई का आभूषण लेकर नरसिंह राम बाजार में गये और उसे बेचकर उन्होंने जरूरी चीजें ले ली ,केवल घृत लेना बाकी रह गया । अन्य सामान लेकर वह घर पर आये । माणिकबाई ने चीजें देखने के बाद कहा -‘स्वामिन ! इतनी सामग्री में केवल छः-सात मनुष्यों का ही भोजन हो सकेगा । अतएव आप तीन -चार ब्राह्मणों तथा पुरोहित जी को भोजन का निमंत्रण दे आइये ।

मेहता जी नागरों के चौबतरे पर आये । वहाँ पर जाति के कई प्रतिष्ठित व्यक्ति बैठे थे । भक्त राज को देखकर प्रसन्नराय नामक एक नागर हँसते हुए बोला -‘क्यों भक्तजी ! किधर को शुभागमन हुआ है ?

भाई ! कल पिता जी का श्राद्ध है ; अतएव दो-चार नागर भाईयों तथा पुरोहित जी को भोजन का निमंत्रण देने आया हूँ । नरसिंह राम ने सरलता पूर्वक कहा.

क्रमशः ………………!

Niru Ashra: “देवकी वसुदेव”

भागवत की कहानी – 31


ये श्रीकृष्ण के माता पिता हैं – देवकी वसुदेव ।

शुकदेव इनका अद्भुत चित्रण करते हैं अपनी भागवत में …….वसुदेव बचपन के मित्र हैं कंस के …और देवकी चचेरी बहन । बात जब उठती है की बहन युवा हो गयी है किसके साथ इसका ब्याह किया जाए तब कंस ही निर्णय करता है ….वसुदेव । सब राजी हैं क्यों की वसुदेव सबको प्रिय हैं ….इनके पिता शूरसेन हैं जिनका मथुरा नरेश उग्रसेन से बहुत निकटता है । किसी को कोई आपत्ति नही है कि वसुदेव और देवकी का विवाह न हो ….और आपत्ति करने वाला यही कंस ही था लेकिन वसुदेव नाम तो इसी ने सुझाया है । अब विवाह होता है इन दोनों का ….दहेज बहुत देता है कंस….शुकदेव कहते हैं …कई लोगों को दिखावा प्रिय होता है …उन्हीं में से कंस एक है । मंगलसूत्र , सात फेरे , कन्यादान आदि आदि सब विधि पूर्वक ही हो रहे थे कि कंस के सामने एक रथ आकर खड़ा हो जाता है …ये सुवर्ण का रथ है …कंस ने अपनी बहन बहनोई के लिए मगध से इसे मँगवाया है …..वो अपने बहनोई वसुदेव को रथ दिखाता है …फिर बातों बातों में वो सारथी के आसन पर जा बैठता है ….वसुदेव मना करते हैं ….देवकी भी संकेत करती है कि भैया ! आप वहाँ न बैठें ….किन्तु कंस नही मानता ….अपनी बहन देवकी के सिर में हाथ रखते हुए कहता है ….”तेरे लिए तेरा भाई कुछ भी कर सकता है बहन”। वो संकेत में दोनों को उस रथ में बैठने के लिए कहता है …वसुदेव और देवकी बैठ जाते हैं …कंस रथ की लगाम खींचता है …..तभी – आकाश से भीषण गर्जना ….गर्जना इतनी भयानक थी और साथ में बिजली का चमकना ….घोड़े बिदक गये ….ये तो अच्छा हुआ कि कंस ने सम्भाल लिया …बहन ! तुझे लगी तो नही …देवकी की ओर देखकर स्नेह से कंस पूछ ही रहा था कि आकाशवाणी हो गयी ……

“ओ दुष्ट कंस !
जिस बहन को तू इतने प्यार से लेकर जा रहा है …उसी का अष्टम गर्भ तेरा काल होगा ! “

ये क्या ! देवकी के प्रति कंस की दृष्टि एक क्षण में बदल गयी है …ये मेरे शत्रु को जन्म देगी ? ये मेरे काल को जन्म देगी ? मुझे मारने वाला इसके कोख से जन्म लेगा ? तुरन्त कंस रथ से नीचे कूदा और देवकी के केश को पकड़ कर रथ के नीचे खींचा ….किन्तु देखो इन देवकी को ! कुछ नही बोलीं ..शान्त रहीं …..न कंस से कहा कि भैया ! मुझे मत मारो । न वसुदेव से कहा कि मुझे बचाओ । ये शान्त हैं ….इन्होंने सब कुछ अस्तित्व के हाथों में छोड़ दिया है । तलवार निकाला कंस ने और जैसे ही मारने के लिए तैयार हुआ देवकी को ….वसुदेव ने कंस का हाथ पकड़ लिया । क्या कर रहे हो कंस ! एक नारी और उसमें भी बहिन इसको मारना उचित नही है । मेरे शत्रु को जन्म देने वाली है ये …मेरे मृत्यु को जन्म देगी ….कंस चीखता है तब शान्त वसुदेव कहते हैं …..मृत्यु तो हमारा संगी साथी है …हमारे साथ वो भी जन्म लेता है …..लेकिन ये उपदेश भला क्यों अच्छा लगे कंस को । तब वसुदेव को कहना पड़ता है …”देवकी के सारे पुत्र हम तुम्हें देंगे” । कंस को ये बात ठीक लगती है और दोनों को कारागार में बन्द कर देता है ।


कारागार में प्रथम पुत्र को जन्म दिया है देवकी ने ……….

आर्यपुत्र ! इसका नाम है कीर्तिमान । चूमते हुए अपने नवजात प्रथम बालक का नाम भी रख दिया था देवकी ने तो । किन्तु मुझे वचन का पालन करना है …वसुदेव देवकी के प्रत्येक पुत्र जाकर कंस को सौंपते रहे और कंस उन्हें मारता रहा । इस तरह छ पुत्रों को कंस मार देता है । सातवें स्वयं शेषनाग के अवतार बलभद्र हैं । लेकिन श्रीकृष्ण की माया वो घुमा देती हैं …और सातवें बालक को देवकी के गर्भ से निकाल कर गोकुल में रोहिणी के गर्भ में पहुँचा देती है ….ये अद्भुत था ….ये माया का चमत्कार था । माया स्वयं यशोदा की कन्या के रूप में भी जन्म लेती है । इधर कंस को जब सूचना मिली …कि सातवाँ बालक नष्ट हो गया तो वो प्रसन्न तो बहुत होता लेकिन उसके मन में भय घर कर गया है । अब तो देवकी के गर्भ में साक्षात श्रीकृष्ण आगये हैं …देवकी का उदर पूर्णिमा के चन्द्र की तरह हो गया है ….प्रकाश का गोला ही गर्भ में आगया हो ऐसा लगता है । देवकी को स्वप्न सुन्दर सुन्दर आरहे हैं …देवकी के चारों ओर सुबह की वेला में फूल दिखाई देते हैं …ये फूल कारागार में कहाँ से आए ! और ये फूल पृथ्वी के भी नही हैं ….देवता फूल बरसा रहे हैं ये बात सबके समझ में नही आरही । देवकी का मन प्रसन्न हैं …वसुदेव का मन आनंदित है …..दिशायें प्रफुल्लित हैं । शुकदेव कहते हैं …..पृथ्वी में मंगल होने वाला है …मंगल आने वाला है …इसलिए पृथ्वी भी अतिप्रसन्न है ।

Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 34
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मन्मनाभवमद्भक्तोमद्याजीमांनमस्कुरु |
मामेवैष्यसियुक्त्वैवमात्मनंमत्परायणः || ३४ ||

मत्–मनाः – सदैव मेरा चिन्तन करने वाला; भव – होओ; मत् – मेरा; भक्तः – भक्त; मत् – मेरा; याजी – उपासक; माम् – मुझको; नमस्कुरु – नमस्कार करो; माम् – मुझको; एव – निश्चय ही; एष्यसि – पाओगे; युक्त्वा – लीन होकर; एवम् – इस प्रकार; आत्मानम् – अपनी आत्मा को; मत्-परायणः – मेरी भक्ति में अनुरक्त |

भावार्थ
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अपने मन को मेरे नित्य चिन्तन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा करो | इस प्रकार मुझमें पूर्णतया तल्लीन होने पर तुम निश्चित रूप से मुझको प्राप्त होगे |

तात्पर्य
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इस श्लोक में स्पष्ट इंगित है कि इस कल्मषग्रस्त भौतिक जगत् से छुटकारा पाने का एकमात्र साधन कृष्णभावनामृत है | कभी-कभी कपटी भाष्यकार इस स्पष्ट कथन को तोड़मरोड़ कर अर्थ करते हैं : कि सारी भक्ति भगवान् कृष्ण को समर्पित की जानी चाहिए | दुर्भाग्यवश ऐसे भाष्यकार पाठकों का ध्यान ऐसी बात की ओर आकर्षित करते हैं जो सम्भव नहीं है | ऐसे भाष्यकार यह नहीं जानते कि कृष्ण के मन तथा कृष्ण में कोई अन्तर नहीं है | कृष्ण कोई सामान्य मनुष्य नहीं है, वे परमेश्र्वर हैं | उनका शरीर, उनका मन तथा स्वयं वे एक हैं और परम हैं | जैसा कि कूर्मपुराण में कहा गया है और भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ने चैतन्यचरितामृत (पंचम अध्याय, आदि लीला ४१-४८) के अनुभाष्य में उद्धृत किया है – देहदेहीविभेदोSयं नेश्र्वरे विद्यते क्वचित् – अर्थात् परमेश्र्वर कृष्ण में तथा उनके शरीर में कोई अन्तर नहीं है | लेकिन इस कृष्णतत्त्व को न जानने के कारण भाष्यकार कृष्ण को छिपाते हैं और उनको उनके मन या शरीर से पृथक् बताते हैं | यद्यपि यह कृष्णतत्त्व के प्रति निरी अज्ञानता है, किन्तु कुछ लोग जनता को भ्रमित करके धन कमाते हैं |
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कुछ लोग आसुरी होते हैं, वे भी कृष्ण का चिन्तन करते हैं किन्तु इर्श्यावश, जिस तरह कृष्ण का मामा कंस करता था | वह भी कृष्ण का निरन्तर चिन्तन करता रहता था, किन्तु वह उन्हें शत्रु रूप में सोचता था | वह सदैव चिन्ताग्रस्त रहता था और सोचता रहता था कि न जाने कब कृष्ण उसका वध कर दें | इस प्रकार के चिन्तन से हमें कोई लाभ होने वाला नहीं है | मनुष्य को चाहिए कि भक्तिमय प्रेम में उनका चिन्तन करे | यही भक्ति है | उसे चाहिए कि वह निरन्तर कृष्णतत्त्व का अनुशीलन करे | तो वह उपयुक्त अनुशीलन क्या है? यह प्रामाणिक गुरु से सीखना है | कृष्ण भगवान् हैं और हम कई बार कः चुके हैं कि उनका शरीर भौतिक नहीं है अपितु सच्चिदानन्द स्वरूप है | इस [प्रकार की चर्चा से मनुष्य को भक्त बनने में सहायता मिलेगी | अन्यथा अप्रामाणिक साधन से कृष्ण का ज्ञान प्राप्त करना व्यर्थ होगा |
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अतः मनुष्य को कृष्ण के आदि रूप में मन को स्थिर करना चाहिए, उसे अपने मन में यह दृढ़ विश्र्वास करके पूजा करने में प्रवृत्त होना चाहिए कि कृष्ण ही परम हैं | कृष्ण की पूजा के लिए भारत में हजारों मन्दिर हैं, जहाँ पर भक्ति का अभ्यास किया जाता है | जब ऐसा अभ्यास हो रहा हो तो मनुष्य को चाहिए कि कृष्ण को नमस्कार करे | उसे अर्चविग्रह के समक्ष नतमस्तक होकर मनसा वाचा कर्मणा हर प्रकार से प्रवृत्त होना चाहिए | इससे वह कृष्णभाव में पूर्णतया तल्लीन हो सकेगा | इससे वह कृष्णलोक को जा सकेगा | उसे चाहिए कि कपटी भाष्यकारों के बहकावे में न आए | उसे श्रवण, कीर्तन आदि नवधा भक्ति में प्रवृत्त होना चाहिए | शुद्ध भक्ति मानव समाज की चरम उपलब्धि है |
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भगवद्गीता के सातवें तथा आठवें अध्यायों में भगवान् की ऐसी शुद्ध भक्ति की व्याख्या की गई है, जो कल्पना, योग तथा सकाम कर्म से मुक्त है | जो पूर्णतया शुद्ध नहीं हो पाते वे भगवान् के विभिन्न स्वरूपों द्वारा तथा निर्विशेषवादी ब्रह्मज्योति तथा अन्तर्यामी परमात्मा द्वारा आकृष्ट होते हैं, किन्तु शुद्ध भक्त तो परमेश्र्वर की साक्षात् सेवा करता है |
कृष्ण सम्बन्धी एक उत्तम पद्य में कहा गया है कि जो व्यक्ति देवताओं की पूजा में रत हैं, वे सर्वाधिक अज्ञानी हैं, उन्हें कभी भी कृष्ण का चरम वरदान प्राप्त नहीं हो सकता | हो सकता है कि प्रारम्भ में कोई भक्त अपने स्तर से नीचे गिर जाये, तो भी उसे अन्य सारे दार्शनिक तथा योगियों से श्रेष्ठ मानना चाहिए | जो व्यक्ति निरन्तर कृष्ण भक्ति में लगा रहता है, उसे पूर्ण साधुपुरुष समझना चाहिए | क्रमशः उसके आकस्मिक भक्ति-विहीन कार्य कम होते जाएँगे और उसे शीघ्र ही पूर्ण सिद्धि प्राप्त होगी | वास्तव में शुद्ध भक्त के पतन का कभी कोई अवसर नहीं आता, क्योंकि भगवान् स्वयं ही अपने शुद्ध भक्तों की रक्षा करते हैं | अतः बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह सीधे कृष्णभावनामृत पथ का ग्रहण करे और संसार में सुखपूर्वक जीवन बिताए | अन्ततोगत्वा वह कृष्ण रूपी परम पुरस्कार प्राप्त करेगा |
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इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के नवेँ अध्याय “परम गुह्य ज्ञान” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ |


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