🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣2️⃣
भाग 1
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
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#देखतरामबिआहुअनूपा….._
【 📙 #रामचरितमानस 📙】
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#मैवैदेही ! ……………._
सबको नचा रहा है कामदेव …….है ना सिया जू ! पर श्रीरघुनन्दन राम जब आज दूल्हा बनें तब श्रीराम नें कामदेव को नचाया ।
क्या अद्भुत बात बोली थी मेरी सखी ।
श्रीरघुनन्दन राम का घोडा स्वयं कामदेव बना था …….ये कहना है मेरी सखियों का ।
मुझे हँसी आती है ……..विदेह नगरी में मात्र यहाँ के राजा ही विदेह नही हैं ……..सब विदेह हैं ………..सब ज्ञानी हैं ………….
पर अब ज्ञानी कोई नही रहा किशोरी जू !
हँसती है मेरी सखी चन्द्रकला ।
दूल्हा रूप श्री रघुनन्दन के रूप सुधा का जिसनें पान कर लिया …..वो भला ज्ञानी रहेगा ? …………वो तो प्रेम की वारुणी पीकर अपनें होश खो बैठा है ………।
सिया जू ! यहाँ सब होश खो बैठे हैं ……….अब बताओ होश खो देनें वाला भी भला कहीं ज्ञानी होता है !
अब तो सब प्रेमी हो गए हैं ………………………..
चलो ! बरात मण्डप पर आगयी है ……………पद्मा नामकी सखी नें आकर चन्द्रकला को कहा ।
सिया जू ! मै जाती हूँ ……………..और वहाँ की सारी बातें आकर आपको बताती हूँ ………….अब आपको भी तो चलना पड़ेगा …….पर अभी तो बहुत विधि हैं …………समय लगेगा ।
ये कहते हुए चन्द्रकला चली गयी …………।
मै इन्तजार में बैठी थी कब मेरी सखी आएगी ……और मुझे वहाँ के बारे में बताएगी …….क्या हो रहा होगा वहाँ जीजी !
छोटी सी उर्मिला नें आकर मुझे पूछा ……….
पर मै भी उत्तर देनें की स्थिति में नही थी ………..।
बहुत देर में आई चन्द्रकला ………..सारी विधि करवा के आई थी ।
अब मेरे विवाह मण्डप में जानें की बारी थी ………….
पर मैने उससे कम समय में ही सब कुछ पूछ लिया था ………..मेरे साथ साथ मेरी बहनें भी कान लगाकर सुन रही थीं ।
सिया जू ! स्वागत के द्वार पर भीड़ लगी थी ……….महाराज विदेहराज ……महारानी सुनयना ……..महाराज के भाई …..आपके काका …काकी …….सब खड़े थे ।
अब उतरिये चक्रवर्ती महाराज हाथी से ………………
ये बात थोड़े विनोद में …………..और विनम्रता से कहा था महाराज जनक जी ने ……महाराज दशरथ जी से ।
अच्छा ! यहाँ से पैदल चलना है ………….ये कहते हुये महाराज दशरथ जी हाथी से उतरे थे …………..
फिर , फिर क्या हुआ चन्द्रकला ? मैने पूछा ।
समधी जी का पूजन किया गया ………महाराज विदेह के द्वारा ।
चन्दन रोरी अक्षत फूलों की सुन्दर माला ……………और सुगन्धित द्रव समधी दशरथ जी के ऊपर छींटा गया ।
सुन्दर उच्च आसन था दशरथ जी का …………..उसमें विराजे ।
गारी देनें लगी थीं सब नारियां …………और पता है सिया जू ! हमारी गारी सुनकर चक्रवर्ती महाराज बहुत प्रसन्न हुए ……….और मुँह में पान खाते हुये मसनद अपनी पीठ में लगाते हुये…..बोले …….आपको जो जो कहना है कहिये ………हमें बुरा नही लगेगा ………..
और दशरथ जी गाली सुननें लगे थे ……..गुरु वशिष्ठ जी को उच्च आसन में विराजमान कराया ……….अन्य अवध के सब विशिष्ठ जन सम्मानित होकर बैठे …….सब प्रसन्न हैं सिया जू !
तब हम सब सखियाँ पहुंची श्री रघुनन्दन के घोड़े के पास ……….मैने ही आगे बढ़कर कहा ……….अब उतरिये !
क्यों ? क्यों उतरें ? हम मण्डप में इसी घोड़े में बैठकर जायेंगें !
ये बात कही थी ………….उर्मिला के होंने वाले नें …………ये कहकर उर्मिला की और देखा था चन्द्रकला नें …………
जीजी ! देखो ना ! मुझे फिर छेड़ रही हैं । …उर्मिला बच्ची ही तो थी ।
लक्ष्मण जी से मैने कहा ……….वाह ! आप तो दो महिनें पहले ही यहाँ डेरा डालकर बैठे हो ……….और दो महिनें पहले जब आप आये थे …..तब तो आप के पास हाथी थे घोड़े थे …….उसी में बैठकर आप आये थे ना !
नही सखी ! हम तो पैदल आये थे ………….आहा ! रघुनन्दन बोले ।
फिर पैदल ही चलिये……क्यों घोडा और पालकी की बात कर रहे हो ।
ओ सखियों ! तुम लोग ज्यादा मत बोलो…………माता सुनयना नें हमें प्यार से डाँटा ………….
क्यों ? क्यों सुनयना मैया ! सिया जू मैने भी पूछ लिया ।
अगर दूल्हा गुस्सा हो गया तो ? सुनयना माता नें मुझ से कहा ।
मै हँस कर चुप हो गयी थी ………क्यों की अब आरती होनें वाली थी दूल्हा की ……………..
आरती हुयी ………….उस समय जो रूप बना था …दूल्हा का …..उसे मै तो क्या ! शारदा भी बखान नही कर सकती ।
क्रमशः ….
#शेषचरिञ_अगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (035)
🕉😢🙏ये प्रार्थना दिल की बेकार नहीं होगी
पूरा है भरोसा मेरी हार नहीं होगी सांवरे,
जब तूं मेरे साथ है सांवरे, मेरे सर पे तेरा हाथ है🙏😢🕉🏵👏👏🏵
श्रीकृष्ण भगवान द्वारा नरसीराम रूपमे श्राद्ध की सारी तैयारी
भक्त राज ने भजन प्रारंभ किया
एकोऽपि गोविन्दकृतः प्रणामः शताश्वमेधावभृथेन तुल्यः ।।
यज्ञस्य कर्त्ता पुनरेति जन्म हरेः प्रणामो न पुनर्भवाय ।।
‘भगवान् श्रीकृष्ण को एक बार भी प्रणाम किया जाय तो वह दसियों अश्वमेध यज्ञों के अन्त में किये गये स्नान के समान फल देनेवाला होता है । इसके सिवाय प्रणाम में एक विशेषता है कि दस अश्वमेध करने वाले का तो पुनः संसार में जन्म होता है, पर श्रीकृष्ण को प्रणाम करनेवाला अर्थात् उनकी शरण में जानेवाला फिर संसार-बन्धन में नहीं आता ।’
अत्यन्त प्रेम के साथ भगवत्संकीर्तन करने लगे । उनकी सुमधुर , प्रेमपगी वाणी सुनकर कुछ ही क्षणों में वहाँ सैकड़ों आदमी एकत्र हो गये और नरसिंहजी जाति-भोजन तथा पितृ श्राद्ध को भूल कर प्रभु के भजन में लीन हो गये.
भक्त राज तो सब कुछ भूल कर भगवत्प्रेम में डूब गये ; परंतु जिन भगवान के ऊपर उनका इतना गाढ़ा प्रेम था और जिन्होंने उनका योगक्षेम वहन करने का बोझ अपने सिर लिया था , वह कैसे निशिंचत हो सकते थे ? भगवान ने अपने धाम में विचार किया कि नरसिंह तो भजन में संलग्न हो गया है, उसे इस बात का लेश मात्र भी ख्याल नहीं है कि पितृ श्राद्ध करना है और ब्राह्मण भोजन का प्रबंध करना है । यदि मैं चलकर उसका सारा कार्य स्वयं नहीं करूँगा तो आज भक्त की मर्यादा नष्ट हो जायेगी और मेरी भी भक्त वत्सलता का विरद बर्बाद हो जायगा ।
उन्होंने तुरंत अक्रूर जी को बुलाकर आज्ञा दी कि आप व्यापारी का भेष धारण कर श्राद्ध तथा ब्राह्मण भोजन के लिये सारी आवश्यक वस्तुएँ मेहता जी के घर पर पहुँचा दीजिए, मैं भी स्वयं नरसिंह राम का रूप धारण कर वहाँ शीघ्र ही आ रहा हूँ ।
नरसिंह राम को बाजार गये बहुत देर हो गयी थी । माणिकबाई सोचने लगी ,’ क्या हुआ जो घी लेकर नहीं लौटे ? क्या घी नहीं मिला ? अगर नहीं मिला तो फिर श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन कैसे होगा ? क्या आज ब्राह्मण दरवाजे पर से भूखे लौट जायँगे ? ओह ! कितना बड़ा पाप लगेगा ! ‘ वह बड़े लापरवाह है ; मालूम होता है किसी साधु -मण्डली में जाकर बैठ गये और काम काज भूल ही गये ; नहीं तो वापस तो आ ही गये होते । ‘भगवन ! कैसे आज लाज रहेगी ?’
माणिकबाई इसी चिंता में बैचेन थी कि अकस्मात भगवान की आज्ञा के अनुसार ‘सेठ- वेषधारी अक्रूर जी सारा सामान छकड़े पर लादे लेकर आ पहुँचे । माणिकबाई कि चिंता एकाएक दूर हुई और वह बड़ी प्रसन्नता के साथ सारी सामग्री यथास्थान रखवाने लगी । थोड़े समय में ही स्वयं भगवान भी नरसिंह राम के रूप में घी लेकर आ पहुँचे । इस गुप्त रहस्य को कोई जान न सका । माणिकबाई ने मेहता रूपधारी भगवान से प्रश्न किया – ‘ इतनी देर कहाँ लगा दी ? मैं बड़ी चिंता में पड़ गई थी । इतना सब सामान कहाँ से प्राप्त हुआ ?
‘सती ! आज पिता जी के श्राद्ध के उपलक्ष में सारी नागर- जाति को भोज देने की परमात्मा की इच्छा हो गयी ; यह सब सामान उन्हीं का दिया हुआ है । भगवान ने हर्ष के साथ उत्तर दिया ।’
माणिक बाई ने कहा – “नाथ ! मैं रसोई -पानी का सारा प्रबंध करती हूँ ; आप शीघ्र पुरोहित जी को बुला लाइये । मध्याहन का समय हो गया है , अब श्राद्ध का कार्य करना चाहिए ।”
भक्त -वेष में भगवान पुरोहित जी के घर पहुँचे । उन्होंने विनीत स्वर में कहा – ” पुरोहित जी ! समय हो गया है ; कृपया मेरे घर पधार कर एकोदिध्ष्ट श्राद्ध करा दीजिए ।”
भोग लगे भगवान केहो सुंदर शुभ दायक,
सुंदर शुभ दायक सुंदर शुभ दायक,
सोने की थाली में सोलह व्यंजन
भगवन भोग लगाये हो,
सुंदर शुभ दायक
पुड़ी पकवान और मधु मेवा,
खट रस भोग लगावे हो,
सुंदर शुभ दायक
दुर्योधन गिरह मेवा त्यागे
साग विधुर घर पाए हो,
सुंदर शुभ दायक
शबरी के वेर सुदामा जी के क्न्दुल,
रुज रुज भोग लगाये हो,
सुंदर शुभ दायक,
क्रमशः ………………!
Niru Ashra: “नलकूबर-
[Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (035)
🕉😢🙏ये प्रार्थना दिल की बेकार नहीं होगी
पूरा है भरोसा मेरी हार नहीं होगी सांवरे,
जब तूं मेरे साथ है सांवरे, मेरे सर पे तेरा हाथ है🙏😢🕉🏵👏👏🏵
श्रीकृष्ण भगवान द्वारा नरसीराम रूपमे श्राद्ध की सारी तैयारी
भक्त राज ने भजन प्रारंभ किया
एकोऽपि गोविन्दकृतः प्रणामः शताश्वमेधावभृथेन तुल्यः ।।
यज्ञस्य कर्त्ता पुनरेति जन्म हरेः प्रणामो न पुनर्भवाय ।।
‘भगवान् श्रीकृष्ण को एक बार भी प्रणाम किया जाय तो वह दसियों अश्वमेध यज्ञों के अन्त में किये गये स्नान के समान फल देनेवाला होता है । इसके सिवाय प्रणाम में एक विशेषता है कि दस अश्वमेध करने वाले का तो पुनः संसार में जन्म होता है, पर श्रीकृष्ण को प्रणाम करनेवाला अर्थात् उनकी शरण में जानेवाला फिर संसार-बन्धन में नहीं आता ।’
अत्यन्त प्रेम के साथ भगवत्संकीर्तन करने लगे । उनकी सुमधुर , प्रेमपगी वाणी सुनकर कुछ ही क्षणों में वहाँ सैकड़ों आदमी एकत्र हो गये और नरसिंहजी जाति-भोजन तथा पितृ श्राद्ध को भूल कर प्रभु के भजन में लीन हो गये.
भक्त राज तो सब कुछ भूल कर भगवत्प्रेम में डूब गये ; परंतु जिन भगवान के ऊपर उनका इतना गाढ़ा प्रेम था और जिन्होंने उनका योगक्षेम वहन करने का बोझ अपने सिर लिया था , वह कैसे निशिंचत हो सकते थे ? भगवान ने अपने धाम में विचार किया कि नरसिंह तो भजन में संलग्न हो गया है, उसे इस बात का लेश मात्र भी ख्याल नहीं है कि पितृ श्राद्ध करना है और ब्राह्मण भोजन का प्रबंध करना है । यदि मैं चलकर उसका सारा कार्य स्वयं नहीं करूँगा तो आज भक्त की मर्यादा नष्ट हो जायेगी और मेरी भी भक्त वत्सलता का विरद बर्बाद हो जायगा ।
उन्होंने तुरंत अक्रूर जी को बुलाकर आज्ञा दी कि आप व्यापारी का भेष धारण कर श्राद्ध तथा ब्राह्मण भोजन के लिये सारी आवश्यक वस्तुएँ मेहता जी के घर पर पहुँचा दीजिए, मैं भी स्वयं नरसिंह राम का रूप धारण कर वहाँ शीघ्र ही आ रहा हूँ ।
नरसिंह राम को बाजार गये बहुत देर हो गयी थी । माणिकबाई सोचने लगी ,’ क्या हुआ जो घी लेकर नहीं लौटे ? क्या घी नहीं मिला ? अगर नहीं मिला तो फिर श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन कैसे होगा ? क्या आज ब्राह्मण दरवाजे पर से भूखे लौट जायँगे ? ओह ! कितना बड़ा पाप लगेगा ! ‘ वह बड़े लापरवाह है ; मालूम होता है किसी साधु -मण्डली में जाकर बैठ गये और काम काज भूल ही गये ; नहीं तो वापस तो आ ही गये होते । ‘भगवन ! कैसे आज लाज रहेगी ?’
माणिकबाई इसी चिंता में बैचेन थी कि अकस्मात भगवान की आज्ञा के अनुसार ‘सेठ- वेषधारी अक्रूर जी सारा सामान छकड़े पर लादे लेकर आ पहुँचे । माणिकबाई कि चिंता एकाएक दूर हुई और वह बड़ी प्रसन्नता के साथ सारी सामग्री यथास्थान रखवाने लगी । थोड़े समय में ही स्वयं भगवान भी नरसिंह राम के रूप में घी लेकर आ पहुँचे । इस गुप्त रहस्य को कोई जान न सका । माणिकबाई ने मेहता रूपधारी भगवान से प्रश्न किया – ‘ इतनी देर कहाँ लगा दी ? मैं बड़ी चिंता में पड़ गई थी । इतना सब सामान कहाँ से प्राप्त हुआ ?
‘सती ! आज पिता जी के श्राद्ध के उपलक्ष में सारी नागर- जाति को भोज देने की परमात्मा की इच्छा हो गयी ; यह सब सामान उन्हीं का दिया हुआ है । भगवान ने हर्ष के साथ उत्तर दिया ।’
माणिक बाई ने कहा – “नाथ ! मैं रसोई -पानी का सारा प्रबंध करती हूँ ; आप शीघ्र पुरोहित जी को बुला लाइये । मध्याहन का समय हो गया है , अब श्राद्ध का कार्य करना चाहिए ।”
भक्त -वेष में भगवान पुरोहित जी के घर पहुँचे । उन्होंने विनीत स्वर में कहा – ” पुरोहित जी ! समय हो गया है ; कृपया मेरे घर पधार कर एकोदिध्ष्ट श्राद्ध करा दीजिए ।”
भोग लगे भगवान केहो सुंदर शुभ दायक,
सुंदर शुभ दायक सुंदर शुभ दायक,
सोने की थाली में सोलह व्यंजन
भगवन भोग लगाये हो,
सुंदर शुभ दायक
पुड़ी पकवान और मधु मेवा,
खट रस भोग लगावे हो,
सुंदर शुभ दायक
दुर्योधन गिरह मेवा त्यागे
साग विधुर घर पाए हो,
सुंदर शुभ दायक
शबरी के वेर सुदामा जी के क्न्दुल,
रुज रुज भोग लगाये हो,
सुंदर शुभ दायक,
क्रमशः ………………!
Niru Ashra: “नलकूबर-मणिग्रीव”
भागवत की कहानी – 34
देवर्षि नारद जी ने शाप दिया कुबेर के पुत्र नलकूबर-मणिग्रीव को । शाप दिया ? शुकदेव कहते हैं – कृपा की …महात्मा का शाप भी वरदान ही होता है …वो शाप भी सबको थोड़े ही देते हैं ….जिनके ऊपर इन्हें कृपा करनी होती है …उन्हीं को ये शाप देते हैं । हमें तो महात्माओं से वरदान चाहिए एक ने कहा …तो मुझे हंसी आगयी …तुम्हारा जीवन उनके शाप लायक भी है ?
हाँ , महात्मा लोगों का शाप और वरदान एक ही होता है …बाहर से देखने में भेद अवश्य हो …कि ये शाप है ये वरदान है …लेकिन उद्देश्य दोनों का “हित” ही है । महात्मा शाप दें या वरदान , दोनों के माध्यम से आप के ऊपर कृपा ही बरसेगी, इसलिए साधुओं से कभी कोई हानि नही है ।
“जाओ , तुम वृक्ष बन जाओ” कुबेर धनी के ये पुत्र हैं …उन्हीं को शाप दिया था नारद जी ने ।
क्या अपराध किया इन्होंने जो नारद जी को शाप देना पड़ा ? परीक्षित का प्रश्न ….शुकदेव इसके उत्तर में एक कथा सुनाने लगे थे ।
कुबेर के दो पुत्र नलकूबर-मणिग्रीव ….बड़े धनी के बेटे हैं ….इसलिए अहंकारी हैं ।
पृथ्वी में ही आते रहते हैं …..यहीं का क्षेत्र इन्हें प्रिय लगता है । अपने साथ में अप्सरायें बदल बदल कर स्वर्ग से ले आते हैं ….फिर मदिरा का उन्मत्त सेवन …फिर जल क्रीड़ा । ये दोनों कुबेर के पुत्र महारुद्र के अनुयायी भी हैं …इसलिए शिव स्थान हिमालय इन्हें अत्यन्त प्रिय है ….ये केदार खण्ड में विशेष आते रहते हैं ….वहाँ शिव की आराधना करते हैं ….फिर ये मदिरा का सेवन करके अप्सराओं के साथ काम क्रीड़ा आरम्भ कर देते हैं ….मंदाकिनी गंगा में ये अपनी वासना का खेल खेलते । शुकदेव कहते हैं ……इस तरह इनकी उन्मत्तता बढ़ती ही जा रही थी । तीर्थ क्षेत्र में ये अपराध है । एक दिन देवर्षि नारद जी हरिगुण गाते हुए केदार खण्ड में पहुँच गये । मंदाकिनी गंगा में आचमन किया और वहीं बैठ गये । तभी मंदाकिनी में खिलखिलाने की आवाज़ गूंजने लगी ….जल उलीचते हुए नग्न कुबेर के पुत्रों को नारद जी ने देख लिया …..अप्सरायें भी नग्न थीं और ये दोनों भी नग्न थे । अप्सरायें तो शर्माकर वस्त्रों को पहनने लगीं थीं ….सामने नारद जी बैठे हैं ….व्यंग में मुस्कुराए नारद जी ….ओह ! कुबेर महाराज के पुत्र ? नलकूबर-मणिग्रीव अहंकार में बोले …आपका यहाँ क्या काम ? आप तो महात्मा हो …यहाँ क्यों आए ? बोलते समय ज़ुबान लड़खड़ा रही थी ….नारद जी समझ गए अब उठ कर खड़े हो गये ….तुम लोगों ने मदिरा का सेवन किया है ? हाँ , किया है …..ये बात फिर अहंकार में बोले कुबेर के पुत्र । अब नारद जी की बारी थी हंसने की ….वो हंसे और बोले …विचित्र बात है ना ! रजोगुण के जितने कार्य हैं …अच्छे कुल में जन्म लेना …अच्छे पद का मिलना ….ये सब तो हैं , लेकिन इन सबसे बुरी चीज़ एक ही है ….वो है श्रीमद …यानि धन का अहंकार । आप कहना क्या चाहते हो ? कुबेर के पुत्रों का अहंकार अब चरम में था । नारद जी कहते हैं – मैं ये कहना चाहता हूँ “धन मद” बहुत बुरी चीज़ है ….जहाँ धन मद आगया …वहाँ मदिरा का सेवन भी होगा , वहाँ द्यूत भी खेला जाएगा और वहाँ परस्त्री संसर्ग भी होगा ही होगा । नारद जी मुस्कुराए और बोले ….धन के मद में जो अंधे हो जाते हैं उन्हें कुछ दिखाई नही देता …..उन्हें लगता है मैं ही हूँ । उन्हें लगता है ..मेरे सिवाय और कोई नही है …अपने देह को सजाते हैं …देह पुष्ट रहे इसके लिए नाना जतन करते हैं । अच्छा बताओ ! ये शरीर किसका है ? नारद जी पूछते हैं……जिन्होंने जन्म दिया उसका ? या जो खिला रहा है उसका ? या जो हमें नौकरी देकर पाल रहा है उसका ? या उस अग्नि का जो मरने पर इसे क्षणों में ही जला देगी ?
लेकिन कौन समझाये इन धन के अभिमानियों को …..जो सब कुछ अपना मान बैठे हैं । इसलिए धनियों को ठीक ठाक रखने का काम एक ही करती है …और वो है दरिद्रता । ये अच्छे अच्छों को सुधार देती है । नारद जी इतना बोलकर हंसने लगे थे । तब कुबेर के इन पुत्रों ने कहा ….हमें कौन सुधारेगा ? नारद जी इस बात पर मौन हो गये …फिर बोले ..झुकना नही आता, है ना ? हमें आप सिखाओगे झुकना ? ये अट्टहास करने लगे ….तब देवर्षि ने शान्त भाव से कहा ….वृक्ष सिखायेंगे तुम्हें झुकना । क्या ? दोनों कुबेर पुत्रों का नशा एक ही झटके में उतर गया था । हाँ , वृक्ष से बढ़िया तुम्हें कौन झुकायेगा । जाओ वृक्ष बनो ।
नारद जी ने शाप दे दिया था इन कुबेर पुत्रों को , ये कुछ नही बोले …सिर झुकाकर खड़े ही रहे …इनके मन में अब अपराधबोध उत्पन्न हो रहा था । नारद जी शाप देकर जा चुके थे और ये कुबेर के पुत्र अपना देह त्यागकर वृक्ष बन चुके थे । किन्तु केदार क्षेत्र में नही ….नारद जी की कृपा से , बृज के गोकुल गाँव में ….भगवान श्रीकृष्ण की क्रीड़ा भूमि गोकुल गाँव में ।
नलकूबर-मणिग्रीव वृक्ष बन गए हैं …अर्जुन नाम के वृक्ष । नन्द के आँगन में ही खड़े हैं ये ।
धन्य भाग हैं इनके कि कन्हैया खेलते हुए आते हैं और इस वृक्ष से लिपट जाते हैं …..माखन खाते हैं और इन वृक्ष में अपने हाथों को पोंछ देते हैं । ये कुबेर के पुत्र नारद जी की कृपा मान रहे हैं …कृपा ही तो है …नही तो इनके भाग्य थे की श्रीकृष्ण के ये दर्शन भी कर पाते ?
आज तो हद्द हो गयी …..कन्हैया ने मटकी फोड़ दी …माखन फैला दिया ….मैया यशोदा ने पकड़ा और ऊखल से बाँध दिया ….बाँध कर मैया तो गयी लेकिन कन्हैया ऊखल को घसीटते हुये जब इन वृक्षों के पास आये …और स्वयं बीच से जाने लगे ….ऊखल नही निकला तो झटका दिया …..बस वो दोनों विशाल वृक्ष उखड़ गए थे जड़ सहित ।
हे नाथ ! हमें कुछ नही चाहिए …बस आपके दिव्य अप्राकृत शरीर का ध्यान हम करते रहें । कुबेर के पुत्र बोले ।
मेरा शरीर ? कन्हैया हंसे …..तो कुबेर के पुत्रों ने कहा ….आपका शरीर , ये जो सन्त हैं महात्मा हैं यही आपके शरीर हैं …नाथ ! नारद जी ने कृपा की ….तो हमें आपके दर्शन हुए अब हम आपकी भक्ति करते हुये आपको ही चारों ओर देखते रहें , यही चाहते हैं हम । कुबेर के पुत्र यही कहते हुए अपने लोक में चले गए थे । शुकदेव कहते हैं ….जाते जाते नलकूबर-मणिग्रीव एक बात बोलते गये ….कि नाथ ! आप ऐसे ही गुणशाली बने रहना ….नाक भौं सिकोड़ते हुए बोले …निर्गुण मत बनना …ऐसे ही सुंदर छैला बने रहना …..नलकूबर-मणिग्रीव अपने लोक में चले गए और वहाँ श्रीकृष्ण लीला का गान करते हुए भक्तिरस में डूब जाते हैं ।
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 10 . 3
🌹🌹🌹🌹
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोक महेश्र्वरम् |
असम्मूढ़ः स मर्त्येषु सर्वपापै: प्रमुच्यते || ३ ||
यः – जो; माम् – मुझको; अजम् – अजन्मा; अनादिम् – अदिरहित; च – भी; वेत्ति – जानता है; लोक – लोकों का; महा-ईश्र्वरम् – परम स्वामी; असम्मूढः – मोहरहित; सः – वह; मर्त्येषु – मरणशील लोगों में; सर्व-पापैः – सारे पापकर्मों से; प्रमुच्यते – मुक्त हो जाता है |
भावार्थ
🌹🌹🌹
जो मुझे अजन्मा, अनादि, समस्त लोकों के स्वामी के रूप में जानता है, मनुष्यों में केवल वही मोहरहित और समस्त पापों से मुक्त होता है |
तात्पर्य
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जैसा कि सातवें अध्याय में (७.३) कहा गया है – मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये – जो लोग आत्म-साक्षात्कार के पद तक उठने के लिए प्रयत्नशील होते हैं, वे सामान्य व्यक्ति नहीं हैं, वे उन करोड़ो सामान्य व्यक्तियों से श्रेष्ठ हैं, जिन्हें आत्म-साक्षात्कार का ज्ञान नहीं होता | किन्तु जो वास्तव में अपनी आध्यात्मिक स्थिति को समझने के लिए प्रयत्नशील होते हैं, उनमें से श्रेष्ठ वही है, जो यह जान लेता है कि कृष्ण ही भगवान्, प्रत्येक वस्तु के स्वामी तथा अजन्मा हैं, वही सबसे अधिक सफल अध्यात्मज्ञानी है | जब वह कृष्ण की परम स्थिति को पूरी तरह समझ लेता है, उसी दशा में वह समस्त पापकर्मों से मुक्त हो पाता है |
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यहाँ पर भगवान् को अज अर्थात् अजन्मा कहा गया है, किन्तु वे द्वितीय अध्याय में वर्णित उन जीवों से भिन्न हैं, जिन्हें अज कहा गया है | भगवान् जीवों से भिन्न हैं, क्योंकि जीव भौतिक आसक्तिवश जन्म लेते तथा मरते रहते हैं | बद्धजीव अपना शरीर बदलते रहते हैं, किन्तु भगवान् का शरीर परिवर्तनशील नहीं है | यहाँ तक कि जब वे इस लोक में आते हैं तो भी उसी अजन्मा रूप में आते हैं | इसीलिए चौथे अध्याय में कहा गया है कि भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति के कारण अपराशक्ति माया के अधीन नहीं हैं, अपितु पराशक्ति में रहते हैं |
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इस श्लोक के वेत्ति लोक महेश्र्वरम् शब्दों से सूचित होता है कि मनुष्य को यह जानना चाहिए कि भगवान् कृष्ण ब्रह्माण्ड के सभी लोकों के परं स्वामी हैं | वे सृष्टि के पूर्व थे और अपनी सृष्टि से भिन्न हैं | सारे देवता इसी भौतिक जगत् में उत्पन्न हुए, किन्तु कृष्ण अजन्मा हैं, फलतः वे ब्रह्मा तथा शिवजी जैसे बड़े-बड़े देवताओं से भी भिन्न हैं और चूँकि वे ब्रह्मा, शिव तथा अन्य समस्त देवताओं से स्त्रष्टा हैं, अतः वे समस्त लोकों के परम पुरुष हैं |
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अतएव श्रीकृष्ण उस हर वस्तु से भिन्न हैं, जिसकी सृष्टि हुई है और जो उन्हें इस रूप में जान लेता है, वह तुरन्त ही सारे पापकर्मों से मुक्त हो जाता है | परमेश्र्वर का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मनुष्य को समस्त पापकर्मों से मुक्त होना चाहिए | जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है कि उन्हें केवल भक्ति के द्वारा जाना जा सकता है, किसी अन्य साधन से नहीं |
मनुष्य को चाहिए कि कृष्ण को सामान्य मनुष्य न समझे | जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, केवल मुर्ख व्यक्ति ही उन्हें मनुष्य मनाता है | इसे यहाँ भिन्न प्रकार से कहा गया है | जो व्यक्ति मुर्ख नहीं है, जो भगवान् के स्वरूप को ठीक से समझ सकता है, वह समस्त पापकर्मों से मुक्त है |
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यदि कृष्ण देवकीपुत्र रूप में विख्यात हैं, तो फिर अजन्मा कैसे हो सकता है? इसकी व्याख्या श्रीमद्भागवत में भी की गई है – जब वे देवकी तथा वसुदेव के समक्ष प्रकट हुए तो वे सामान्य शिशु की तरह नहीं जन्मे | वे अपने आदि रूप में प्रकट हुए और फिर एक सामान्य शिशु में परिणत हो गए |
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कृष्ण की अध्यक्षता में जो भी कर्म किया जाता है, वह दिव्य है | वह शुभ या अशुभ फलों से दूषित नहीं होता | इस जगत् में शुभ या अशुभ वस्तुओं का बोध बहुत कुछ मनोधर्म है, क्योंकि इस भौतिक जगत् में कुछ भी शुभ नहीं है | प्रत्येक वस्तु अशुभ है, क्योंकि प्रकृति स्वयं ही अशुभ है | हम इसे शुभ मानने की कल्पना मात्र करते हैं | वास्तविक मंगल तो पूर्णभक्ति और सेवाभाव से युक्त कृष्णभावनामृत पर ही निर्भर करता हैं | अतः यदि हम तनिक भी चाहते हैं कि हमारे कर्म शुभ हों तो हमें परमेश्र्वर की आज्ञा से कर्म करना होगा | ऐसी आज्ञा श्रीमद्भागवत तथा भगवद्गीता जैसे शास्त्रों से या प्रामाणिक गुरु से प्राप्त की जा सकती है | चूँकि गुरु भगवान् का प्रतिनिधि होता है, अतः उसकी आज्ञा प्रत्यक्षतः परमेश्र्वर की आज्ञा होती है | गुरु, साधु तथा शास्त्र एक ही प्रकार से आज्ञा देते हैं | इन तीनों स्त्रोतों में कोई विरोध नहीं होता | इस प्रकार से किये गये सारे कार्य इस जगत् के शुभाशुभ कर्मफलों से मुक्त होते हैं | कर्म सम्पन्न करते हुए भक्त की दिव्य मनोवृत्ति वैराग्य की होती है, जिसे संन्यास कहते हैं | जैसा कि भगवद्गीता के छठे अध्याय के प्रथम श्लोक में कहा गया है कि, जो भगवान् का आदेश मानकर कोई कर्तव्य करता है और जो अपने कर्मफलों की शरण ग्रहण नहीं करता ( अनाश्रितः कर्मफलम्), वहि असली संन्यासी है | जो भगवान् के निर्देशानुसार कर्म करता है, वास्तव में संन्यासी तथा योगी वही है, केवल संन्यासी या छद्म योगी के वेश में रहने वाला व्यक्ति नहीं |
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भागवत की कहानी – 34
देवर्षि नारद जी ने शाप दिया कुबेर के पुत्र नलकूबर-मणिग्रीव को । शाप दिया ? शुकदेव कहते हैं – कृपा की …महात्मा का शाप भी वरदान ही होता है …वो शाप भी सबको थोड़े ही देते हैं ….जिनके ऊपर इन्हें कृपा करनी होती है …उन्हीं को ये शाप देते हैं । हमें तो महात्माओं से वरदान चाहिए एक ने कहा …तो मुझे हंसी आगयी …तुम्हारा जीवन उनके शाप लायक भी है ?
हाँ , महात्मा लोगों का शाप और वरदान एक ही होता है …बाहर से देखने में भेद अवश्य हो …कि ये शाप है ये वरदान है …लेकिन उद्देश्य दोनों का “हित” ही है । महात्मा शाप दें या वरदान , दोनों के माध्यम से आप के ऊपर कृपा ही बरसेगी, इसलिए साधुओं से कभी कोई हानि नही है ।
“जाओ , तुम वृक्ष बन जाओ” कुबेर धनी के ये पुत्र हैं …उन्हीं को शाप दिया था नारद जी ने ।
क्या अपराध किया इन्होंने जो नारद जी को शाप देना पड़ा ? परीक्षित का प्रश्न ….शुकदेव इसके उत्तर में एक कथा सुनाने लगे थे ।
कुबेर के दो पुत्र नलकूबर-मणिग्रीव ….बड़े धनी के बेटे हैं ….इसलिए अहंकारी हैं ।
पृथ्वी में ही आते रहते हैं …..यहीं का क्षेत्र इन्हें प्रिय लगता है । अपने साथ में अप्सरायें बदल बदल कर स्वर्ग से ले आते हैं ….फिर मदिरा का उन्मत्त सेवन …फिर जल क्रीड़ा । ये दोनों कुबेर के पुत्र महारुद्र के अनुयायी भी हैं …इसलिए शिव स्थान हिमालय इन्हें अत्यन्त प्रिय है ….ये केदार खण्ड में विशेष आते रहते हैं ….वहाँ शिव की आराधना करते हैं ….फिर ये मदिरा का सेवन करके अप्सराओं के साथ काम क्रीड़ा आरम्भ कर देते हैं ….मंदाकिनी गंगा में ये अपनी वासना का खेल खेलते । शुकदेव कहते हैं ……इस तरह इनकी उन्मत्तता बढ़ती ही जा रही थी । तीर्थ क्षेत्र में ये अपराध है । एक दिन देवर्षि नारद जी हरिगुण गाते हुए केदार खण्ड में पहुँच गये । मंदाकिनी गंगा में आचमन किया और वहीं बैठ गये । तभी मंदाकिनी में खिलखिलाने की आवाज़ गूंजने लगी ….जल उलीचते हुए नग्न कुबेर के पुत्रों को नारद जी ने देख लिया …..अप्सरायें भी नग्न थीं और ये दोनों भी नग्न थे । अप्सरायें तो शर्माकर वस्त्रों को पहनने लगीं थीं ….सामने नारद जी बैठे हैं ….व्यंग में मुस्कुराए नारद जी ….ओह ! कुबेर महाराज के पुत्र ? नलकूबर-मणिग्रीव अहंकार में बोले …आपका यहाँ क्या काम ? आप तो महात्मा हो …यहाँ क्यों आए ? बोलते समय ज़ुबान लड़खड़ा रही थी ….नारद जी समझ गए अब उठ कर खड़े हो गये ….तुम लोगों ने मदिरा का सेवन किया है ? हाँ , किया है …..ये बात फिर अहंकार में बोले कुबेर के पुत्र । अब नारद जी की बारी थी हंसने की ….वो हंसे और बोले …विचित्र बात है ना ! रजोगुण के जितने कार्य हैं …अच्छे कुल में जन्म लेना …अच्छे पद का मिलना ….ये सब तो हैं , लेकिन इन सबसे बुरी चीज़ एक ही है ….वो है श्रीमद …यानि धन का अहंकार । आप कहना क्या चाहते हो ? कुबेर के पुत्रों का अहंकार अब चरम में था । नारद जी कहते हैं – मैं ये कहना चाहता हूँ “धन मद” बहुत बुरी चीज़ है ….जहाँ धन मद आगया …वहाँ मदिरा का सेवन भी होगा , वहाँ द्यूत भी खेला जाएगा और वहाँ परस्त्री संसर्ग भी होगा ही होगा । नारद जी मुस्कुराए और बोले ….धन के मद में जो अंधे हो जाते हैं उन्हें कुछ दिखाई नही देता …..उन्हें लगता है मैं ही हूँ । उन्हें लगता है ..मेरे सिवाय और कोई नही है …अपने देह को सजाते हैं …देह पुष्ट रहे इसके लिए नाना जतन करते हैं । अच्छा बताओ ! ये शरीर किसका है ? नारद जी पूछते हैं……जिन्होंने जन्म दिया उसका ? या जो खिला रहा है उसका ? या जो हमें नौकरी देकर पाल रहा है उसका ? या उस अग्नि का जो मरने पर इसे क्षणों में ही जला देगी ?
लेकिन कौन समझाये इन धन के अभिमानियों को …..जो सब कुछ अपना मान बैठे हैं । इसलिए धनियों को ठीक ठाक रखने का काम एक ही करती है …और वो है दरिद्रता । ये अच्छे अच्छों को सुधार देती है । नारद जी इतना बोलकर हंसने लगे थे । तब कुबेर के इन पुत्रों ने कहा ….हमें कौन सुधारेगा ? नारद जी इस बात पर मौन हो गये …फिर बोले ..झुकना नही आता, है ना ? हमें आप सिखाओगे झुकना ? ये अट्टहास करने लगे ….तब देवर्षि ने शान्त भाव से कहा ….वृक्ष सिखायेंगे तुम्हें झुकना । क्या ? दोनों कुबेर पुत्रों का नशा एक ही झटके में उतर गया था । हाँ , वृक्ष से बढ़िया तुम्हें कौन झुकायेगा । जाओ वृक्ष बनो ।
नारद जी ने शाप दे दिया था इन कुबेर पुत्रों को , ये कुछ नही बोले …सिर झुकाकर खड़े ही रहे …इनके मन में अब अपराधबोध उत्पन्न हो रहा था । नारद जी शाप देकर जा चुके थे और ये कुबेर के पुत्र अपना देह त्यागकर वृक्ष बन चुके थे । किन्तु केदार क्षेत्र में नही ….नारद जी की कृपा से , बृज के गोकुल गाँव में ….भगवान श्रीकृष्ण की क्रीड़ा भूमि गोकुल गाँव में ।
नलकूबर-मणिग्रीव वृक्ष बन गए हैं …अर्जुन नाम के वृक्ष । नन्द के आँगन में ही खड़े हैं ये ।
धन्य भाग हैं इनके कि कन्हैया खेलते हुए आते हैं और इस वृक्ष से लिपट जाते हैं …..माखन खाते हैं और इन वृक्ष में अपने हाथों को पोंछ देते हैं । ये कुबेर के पुत्र नारद जी की कृपा मान रहे हैं …कृपा ही तो है …नही तो इनके भाग्य थे की श्रीकृष्ण के ये दर्शन भी कर पाते ?
आज तो हद्द हो गयी …..कन्हैया ने मटकी फोड़ दी …माखन फैला दिया ….मैया यशोदा ने पकड़ा और ऊखल से बाँध दिया ….बाँध कर मैया तो गयी लेकिन कन्हैया ऊखल को घसीटते हुये जब इन वृक्षों के पास आये …और स्वयं बीच से जाने लगे ….ऊखल नही निकला तो झटका दिया …..बस वो दोनों विशाल वृक्ष उखड़ गए थे जड़ सहित ।
हे नाथ ! हमें कुछ नही चाहिए …बस आपके दिव्य अप्राकृत शरीर का ध्यान हम करते रहें । कुबेर के पुत्र बोले ।
मेरा शरीर ? कन्हैया हंसे …..तो कुबेर के पुत्रों ने कहा ….आपका शरीर , ये जो सन्त हैं महात्मा हैं यही आपके शरीर हैं …नाथ ! नारद जी ने कृपा की ….तो हमें आपके दर्शन हुए अब हम आपकी भक्ति करते हुये आपको ही चारों ओर देखते रहें , यही चाहते हैं हम । कुबेर के पुत्र यही कहते हुए अपने लोक में चले गए थे । शुकदेव कहते हैं ….जाते जाते नलकूबर-मणिग्रीव एक बात बोलते गये ….कि नाथ ! आप ऐसे ही गुणशाली बने रहना ….नाक भौं सिकोड़ते हुए बोले …निर्गुण मत बनना …ऐसे ही सुंदर छैला बने रहना …..नलकूबर-मणिग्रीव अपने लोक में चले गए और वहाँ श्रीकृष्ण लीला का गान करते हुए भक्तिरस में डूब जाते हैं ।
[6/6, 9:28 PM] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
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श्लोक 10 . 3
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यो मामजमनादिं च वेत्ति लोक महेश्र्वरम् |
असम्मूढ़ः स मर्त्येषु सर्वपापै: प्रमुच्यते || ३ ||
यः – जो; माम् – मुझको; अजम् – अजन्मा; अनादिम् – अदिरहित; च – भी; वेत्ति – जानता है; लोक – लोकों का; महा-ईश्र्वरम् – परम स्वामी; असम्मूढः – मोहरहित; सः – वह; मर्त्येषु – मरणशील लोगों में; सर्व-पापैः – सारे पापकर्मों से; प्रमुच्यते – मुक्त हो जाता है |
भावार्थ
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जो मुझे अजन्मा, अनादि, समस्त लोकों के स्वामी के रूप में जानता है, मनुष्यों में केवल वही मोहरहित और समस्त पापों से मुक्त होता है |
तात्पर्य
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जैसा कि सातवें अध्याय में (७.३) कहा गया है – मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये – जो लोग आत्म-साक्षात्कार के पद तक उठने के लिए प्रयत्नशील होते हैं, वे सामान्य व्यक्ति नहीं हैं, वे उन करोड़ो सामान्य व्यक्तियों से श्रेष्ठ हैं, जिन्हें आत्म-साक्षात्कार का ज्ञान नहीं होता | किन्तु जो वास्तव में अपनी आध्यात्मिक स्थिति को समझने के लिए प्रयत्नशील होते हैं, उनमें से श्रेष्ठ वही है, जो यह जान लेता है कि कृष्ण ही भगवान्, प्रत्येक वस्तु के स्वामी तथा अजन्मा हैं, वही सबसे अधिक सफल अध्यात्मज्ञानी है | जब वह कृष्ण की परम स्थिति को पूरी तरह समझ लेता है, उसी दशा में वह समस्त पापकर्मों से मुक्त हो पाता है |
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यहाँ पर भगवान् को अज अर्थात् अजन्मा कहा गया है, किन्तु वे द्वितीय अध्याय में वर्णित उन जीवों से भिन्न हैं, जिन्हें अज कहा गया है | भगवान् जीवों से भिन्न हैं, क्योंकि जीव भौतिक आसक्तिवश जन्म लेते तथा मरते रहते हैं | बद्धजीव अपना शरीर बदलते रहते हैं, किन्तु भगवान् का शरीर परिवर्तनशील नहीं है | यहाँ तक कि जब वे इस लोक में आते हैं तो भी उसी अजन्मा रूप में आते हैं | इसीलिए चौथे अध्याय में कहा गया है कि भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति के कारण अपराशक्ति माया के अधीन नहीं हैं, अपितु पराशक्ति में रहते हैं |
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इस श्लोक के वेत्ति लोक महेश्र्वरम् शब्दों से सूचित होता है कि मनुष्य को यह जानना चाहिए कि भगवान् कृष्ण ब्रह्माण्ड के सभी लोकों के परं स्वामी हैं | वे सृष्टि के पूर्व थे और अपनी सृष्टि से भिन्न हैं | सारे देवता इसी भौतिक जगत् में उत्पन्न हुए, किन्तु कृष्ण अजन्मा हैं, फलतः वे ब्रह्मा तथा शिवजी जैसे बड़े-बड़े देवताओं से भी भिन्न हैं और चूँकि वे ब्रह्मा, शिव तथा अन्य समस्त देवताओं से स्त्रष्टा हैं, अतः वे समस्त लोकों के परम पुरुष हैं |
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अतएव श्रीकृष्ण उस हर वस्तु से भिन्न हैं, जिसकी सृष्टि हुई है और जो उन्हें इस रूप में जान लेता है, वह तुरन्त ही सारे पापकर्मों से मुक्त हो जाता है | परमेश्र्वर का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मनुष्य को समस्त पापकर्मों से मुक्त होना चाहिए | जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है कि उन्हें केवल भक्ति के द्वारा जाना जा सकता है, किसी अन्य साधन से नहीं |
मनुष्य को चाहिए कि कृष्ण को सामान्य मनुष्य न समझे | जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, केवल मुर्ख व्यक्ति ही उन्हें मनुष्य मनाता है | इसे यहाँ भिन्न प्रकार से कहा गया है | जो व्यक्ति मुर्ख नहीं है, जो भगवान् के स्वरूप को ठीक से समझ सकता है, वह समस्त पापकर्मों से मुक्त है |
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यदि कृष्ण देवकीपुत्र रूप में विख्यात हैं, तो फिर अजन्मा कैसे हो सकता है? इसकी व्याख्या श्रीमद्भागवत में भी की गई है – जब वे देवकी तथा वसुदेव के समक्ष प्रकट हुए तो वे सामान्य शिशु की तरह नहीं जन्मे | वे अपने आदि रूप में प्रकट हुए और फिर एक सामान्य शिशु में परिणत हो गए |
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कृष्ण की अध्यक्षता में जो भी कर्म किया जाता है, वह दिव्य है | वह शुभ या अशुभ फलों से दूषित नहीं होता | इस जगत् में शुभ या अशुभ वस्तुओं का बोध बहुत कुछ मनोधर्म है, क्योंकि इस भौतिक जगत् में कुछ भी शुभ नहीं है | प्रत्येक वस्तु अशुभ है, क्योंकि प्रकृति स्वयं ही अशुभ है | हम इसे शुभ मानने की कल्पना मात्र करते हैं | वास्तविक मंगल तो पूर्णभक्ति और सेवाभाव से युक्त कृष्णभावनामृत पर ही निर्भर करता हैं | अतः यदि हम तनिक भी चाहते हैं कि हमारे कर्म शुभ हों तो हमें परमेश्र्वर की आज्ञा से कर्म करना होगा | ऐसी आज्ञा श्रीमद्भागवत तथा भगवद्गीता जैसे शास्त्रों से या प्रामाणिक गुरु से प्राप्त की जा सकती है | चूँकि गुरु भगवान् का प्रतिनिधि होता है, अतः उसकी आज्ञा प्रत्यक्षतः परमेश्र्वर की आज्ञा होती है | गुरु, साधु तथा शास्त्र एक ही प्रकार से आज्ञा देते हैं | इन तीनों स्त्रोतों में कोई विरोध नहीं होता | इस प्रकार से किये गये सारे कार्य इस जगत् के शुभाशुभ कर्मफलों से मुक्त होते हैं | कर्म सम्पन्न करते हुए भक्त की दिव्य मनोवृत्ति वैराग्य की होती है, जिसे संन्यास कहते हैं | जैसा कि भगवद्गीता के छठे अध्याय के प्रथम श्लोक में कहा गया है कि, जो भगवान् का आदेश मानकर कोई कर्तव्य करता है और जो अपने कर्मफलों की शरण ग्रहण नहीं करता ( अनाश्रितः कर्मफलम्), वहि असली संन्यासी है | जो भगवान् के निर्देशानुसार कर्म करता है, वास्तव में संन्यासी तथा योगी वही है, केवल संन्यासी या छद्म योगी के वेश में रहने वाला व्यक्ति नहीं |

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