🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣3️⃣
भाग 2
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
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#सखिनमध्यसियसोहतिकैसे…..
📙( #रामचरितमानस )📙
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#मैवैदेही ! ……………._
मेरी सखी चन्द्रकला नें मुझे बताया …………………..
आपके विवाह से पहले, दिन में ही विवाह की प्रथा थी ………….पर ।
पर, क्या चन्द्रकले ! बताओ ……….. मैने पूछा ।
दिन का मतलब है….अब रात गयी…….मिलन का समय बीत गया ।
पर साँझ का मतलब है ….दिन गया ……अब रात आनें वाली है …….यानि मिलन की वेला आनें वाली है ……।
और विवाह मिलन की वेला ही तो है ……………….दो प्रेमपूर्ण हृदय का मिलन …………….एक होंने की चाह का मिलन ………….
बेचैनी , तड़फ़, सबसे उचाट ………..और एक मात्र प्रिय से एक होनें की प्यास ……….कोई सीमा न रहे …………कोई बन्धन न रहे ।
सिया जू ! प्रेम असीम है ………वह सीमा में आबद्ध कहाँ ।
रात्रि के विवाह की परम्परा सिया जू ! आपसे ही शुरू होनें जा आरही है ।
सिया जू ! रघुवर रात्रि हैं ……तो आप उस रात्रि में खिलनें वाली चाँद हैं …………….आप दोनों एक ही हैं ………दो लगते हैं …….पर अब मै समझनें लगी हूँ………कि आप दोनों एक दूसरे के लिए ही हो ।
बस एक विनती है स्वामिनी जू !
ये कहते हुये …………चरणों में गिर गयी थी मेरी सखी चन्द्रकला ।
अरे ! तू रो क्यों रही हैं ? मैने उसे उठाया ………
हमें मत भूलना……हम आपके मायके पक्ष के हैं …………सिया जू !
आप बस ऐसे ही खुश रहना …………आप सदा सुहागन रहना ……
पर हम जनकपुर की सखियों को मत भूलना ………….
ये कहते हुए अश्रु प्रवाहित करनें लगी थी चन्द्रकला सखी ।
चलो ! मण्डप में जाना है ………….सिया जू को बुलवाया है ……
पद्मा और चारुशीला सखी आगयी थीं ………
और सखियाँ बाहर ही खड़ी थीं ……………….
चन्द्रकला से तो बातें ही करवा लो !…………सिया जू ! चलिये ……सब अब आपकी ही प्रतीक्षा में ही बैठे हैं ……………
नयनों से बह रहे आनन्दाश्रुओं को पोंछा चन्द्रकला नें …………..अन्य सखियाँ भी आगयीं ……………।
मै मध्य में थी ……………..मेरे चारों और सखियों का झुण्ड था ।
और मेरी सखियाँ भी कोई साधारण नही थीं ……….अरे ! शची, सावित्री, इन्दिरा, उमा इन सबसे सुन्दर थीं ………….
मुझे याद आरहा है वो गीत ………….जब मुझे लेकर मण्डप की और चली थीं …मेरी सखियाँ …………….और उस समय गा रही थीं ।
क्रमशः….
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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[] Niru Ashra: “प्रणय कोप गीत”
भागवत की कहानी – 38
उफ़ ! ये प्रेम है ही ऐसा ….ये एक समान रहता कहाँ है । ये कभी कोप तो कभी प्रसन्न , कभी रुदन तो कभी हंसन । अच्छा , प्रेम में ऐसा नही होगा तो वो प्रेम ही नही होगा । अब देखिए इस झाँकी को …..बाँसुरी बजाकर रात्रि में गोपियों को उनके घरों से श्याम सुन्दर ने खींचा ….वो खिंची चली आयीं …..उनकी कैसी अवस्था थी , वो क्या कर रहीं थीं …किन्तु प्रिय बुला रहा है फिर किसके विषय में सोचना …चल दो । तो ये चल पड़ीं । कोई पति को भोजन दे रही थी …बाँसुरी सुनी …छोड़ दिया भोजन आदि और चल दीं प्रियतम के पास ….कोई अपना श्रृंगार कर रहीं थीं उसे त्याग दिया और चल पड़ीं …..शुकदेव तो कहते हैं …..एक गोपी के पति ने तो अपनी पत्नी को पकड़कर कमरे में बन्द कर दिया । बस फिर क्या था ….गोपी ने अपना स्थूल देह त्यागा और सूक्ष्म देह से वो श्रीकृष्ण के पास पहुँची । रात्रि की वेला थी ….किन्तु डर नही है इन्हें ….डर क्या ? इन्हें श्रीकृष्ण के सिवा और कुछ ध्यान भी तो नही है । ये गयीं श्यामसुन्दर के पास …मुस्कुराती हुई गयीं थीं । आलिंगन करेंगे मेरे प्रियतम मुझे , ये सोच सबके मन में थी …और क्यों भी हो ….जिसके लिए सब कुछ त्याग दिया …पिता , पुत्र , पति , सुत …..फिर आलिंगन क्यों नही ? लेकिन श्याम सुन्दर उठकर खड़े हो गये ….और गम्भीर वाणी में बोले …आओ , स्वागत है तुम्हारा । किन्तु तुम सब इतनी रात्रि में यहाँ आयी क्यों हो ?
ये क्या कह दिया था प्रिय ने , क्यों आई हो ? अब इसका उत्तर क्या दें ये बेचारी गोपियाँ ।
तब और कोप बढ़ा दिया गोपियों का नन्दनन्दन ने । तुम जाओ ! ये अच्छी बात नही है …कुलीन घर की स्त्रियाँ इस तरह नही घूमतीं । रात्रि गहन है …और तुम्हारे पुत्र भी तो ….जाओ जाओ । ये कहकर श्याम सुन्दर सबको जाने के लिए कहने लगे ।
तब गोपियों का कोप बढ़ गया …..प्रणय कोप है ये …..प्रेम का ग़ुस्सा । शुकदेव कहते हैं ….ग़ुस्से के मारे काँपने लगीं ….यानि मन में डर भी है कि कहीं हमें हमारे प्रियतम वापस घर भेज न दें …..और ग़ुस्सा तो इतना है …..कि इनका वश चले तो ये स्वयं श्याम सुन्दर के रस से भरे कपोल को दंत से काट दें …उनके अधरों को क्षत करदें । गुलचा मारें । प्यारे ! तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई हमें ये कहने की । गोपियों को क्रोध आगया है …..प्रेमी को क्रोध आता तो है लेकिन उसके मन में डर भी होता है ….कि कहीं प्रिय हमें छोड़ न दें ।
अब कुछ नही बोल रहीं गोपियाँ ….बस नीचे देख रही हैं …..पृथ्वी की ओर देख रही हैं….उनके मोटे मोटे नयनों से अश्रु बह रहे हैं …..उनका कज्जल फैल गया है कपोल में । लम्बी लम्बी साँस ले रही हैं …..और अपने पैर के अंगूठे से धरती को कुरेद रही हैं ।
गोपियों ! ये क्या कर रही हो ? श्याम सुन्दर ने रोका ।
अपने लिए गड्डा खोद रही हैं कि इसी गड्डे में गिरकर हम सब मर जायेंगी । ये कहते हुए गोपियाँ अब हिलकियों से रोने लगीं ।
किन्तु शास्त्र कहते हैं ….श्याम सुन्दर ने कहा ।
भाड़ में जाये शास्त्र ….गोपियों ने सुबकते हुये कहा ।
धर्म भी यही कहते हैं ….श्याम सुन्दर ने धर्म का हवाला दिया ।
प्यारे ! गिर गयीं चरणों में गोपियाँ ….फिर अपने आँचल को फैलाकर बोलीं …..प्यारे ! हमारे लिए तो तू ही धर्म है । हम तेरे लिए सब धर्मों को त्याग सकती हैं ….त्याग दिया है ।
शुकदेव कहते हैं – यही “प्रणय कोप गीत” है । प्रेमी ग़ुस्सा भी करे ना तो वो भी गीत बन जाता है ….रुदन प्रेमी का संगीत बन जाता है ।
हे प्यारे ! तुम्हें तो हम बहुत बुद्धिमान मानती थीं लेकिन ये क्या कह दिया तुमने ? लौट जाओ ? कहाँ लौटें ? एक गोपी कन्हैया से कहती है ..इन चरणों का आश्रय लिया है फिर कहाँ जायें ?
तुम्हारी वाणी तो बड़ी मधुर थी , आज क्या हुआ ? एक गोपी कहती है तुम्हारी वाणी इतनी क्रूर कैसे हो सकती है ? तुम इतने क्रूर कैसे हो सकते हो ? जिसने तुम्हारे लिए सब कुछ त्यागा उसे तुम भी त्याग दोगे ? फिर शरणागतवत्सल नाम सार्थक कहाँ हुआ ?
एक गोपी कहती है ….ओ जिद्दी प्रियतम ! हम सब तुम्हारी भक्त हैं ….कोई भी देवता अपने भक्तों का इस तरह तिरस्कार नही करता …..अरे ! देवता के पत्थर की मूरत को भी चाहो तो वो भी तुम्हारा अनादर नही करता …जो माँगों दैव तुम्हें देता ही देता है । फिर तुम ऐसे कब से हो गये ….तुम तो पत्थर की मूरत नही हो …तुम तो प्रत्यक्ष हो …फिर क्यों हमें प्यार नही करते ! गोपियाँ ये कहते हुए रोने लगती हैं ….हम स्त्री हैं ….कोमल हैं …भाव प्रधान हैं ….हमें तो मीठे शब्दों में बोलना था ना ! हमें तो प्रेम से बोलना था ना ! फिर क्यों इतने रूखे शब्द बोल दिये ?
श्याम सुन्दर हंसे ….बोले …ठीक है फिर …..प्रेम से कहता हूँ ….तुम लौट जाओ ।
फिर वही बात ! कहाँ जायें ? ये चरण तो शिवादि को भी दुर्लभ हैं ना ? लक्ष्मी भी पकड़े रहती है इन चरणों को …कि कहीं हमें छोड़कर ये चरण चले न जायें । ये कहते हुए गोपियाँ गम्भीर हैं …..कहती हैं ….तुलसी और लक्ष्मी में यही झगड़ा तो होता है ….लक्ष्मी को वो सौभाग्य नही मिल पाता जो तुलसी को मिल जाता है …चौबीस घंटे चरणों में ही पड़ी है ……फिर हम क्यों छोड़ें ऐसे चरणों को ….गोपियाँ कहती हैं ।
नही , ये सब कुछ नही तुम जाओ ! अर्धरात्रि होने वाली है अब तो जाओ ।
क्या तुम भी वही रट लगाये हो …जाओ जाओ । ठीक है तुम यही चाहते हो तो हम लौट जायेंगी …किन्तु आगे जाकर कहीं बैठ जायेंगी …..फिर आँखें बन्दकर तुम्हारा ध्यान करेंगीं ….और ध्यान करते करते अपने प्राणों को त्याग देंगी ……अब तो हिलकियाँ छूट गयीं गोपियों की …..क्यों कि प्यारे ! कहते है ना ….जिसका गहन चिन्तन करते हुए अपने प्राणों को त्यागो दूसरे जन्म में वही मिलता है ….कोई बात नही , इस जन्म में न सही …दूसरे जन्म में तो मिलोगे ….ठीक है अब हम तुम्हें दूसरे जन्म में ही मिलेंगीं ….ये कहते हुए जैसे ही गोपियाँ वहाँ से जाने लगीं …..श्याम सुन्दर दौड़े उनक
भक्त नरसी मेहता चरित (39)
मोहे आन मिलो श्याम, इन
बहुत दिन बीत गए राधा की अँखियन के तारे,
मेरे मोहन नन्द दुलारे,
मेरे मन बस जाओ प्यारे ,
मेरा जीवन श्याम सहारे जीवन कि हो गयी शाम
बहुत दिन बीत गए

🚩🙇♀🏵🙏गतांक से आगे-*
भजन करते -करते सायं काल हो गया । भक्त राज भजन बन्द करके दामोदर कुण्ड पर आये । स्नान समाप्त कर उन्होंने समीपवर्ती उधान से फूल और तुलसी -दल लिया और उसके बाद वह घर की और चल पड़े । उनके मुख से’ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ‘ की ध्वनि अवाध गति से हो रही थी ।
रास्ते में जाते -जाते अकस्मात । ‘भक्त राज जय श्री कृष्ण’ की आवाज उनके कानों में पड़ी । जरा सचेत होकर जब उन्होंने उधर दृष्टि घुमायी तो कुछ दूरी पर एक अन्तयज (डेढ) को हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए देखा । बहुत पहले से उस अन्तयज की भक्त राज पर अत्यंत श्रद्धा थी । वह नित्य स्नान करके लौटते समय भक्त राज के दर्शन किया करता था । उसकी दृष्टि में भक्त और भगवान में कोई भेंद नहीं था ।
नरसिंह राम तो ‘आत्मवत सर्वे भेतेषु’का भाव रखने वाले थे । उन्होंने उतर दिया -‘जय श्री कृष्ण भगत !
” भक्त राज ! मैं आपसे कुछ विनती करना चाहता हूँ ।” अन्त्यजने नम्रता पूर्वक निवेदन किया ।
” भाई ! ऐसा कौन -सा कार्य आ पड़ा जिसके लिए मुझसे विनती करने की आवश्यकता पड़ी । मैं तो एक श्री कृष्ण नाम के सिवा और कुछ नहीं जानता , तथापि मेरे योग्य कोई कार्य हो तो संकोच छोड़ कर बताओ ।’ नरसिंह राम ने अभिमान रहित होकर कहा ।
” मेहता जी ! मैं किसी सांसारिक कार्य के लिए विनती नहीं करता । आज एकादशी का उपवास मैंने भी किया है । अतएव रात्रि में जागरण करने के निमित्त भजन कराना चाहता हूँ । क्या मेरी विनती स्वीकार कर आप मेरे आँगन को आज पवित्र कर सकेंगे ।” अन्त्यजने श्रद्धा के साथ अपनी इच्छा प्रकट की।
” भैया ! इस काम के लिए विनती करने का कया प्रयोजन ? भगवान का भजन करना तो मेरा काम ही है । फिर स्वयं भगवान ने कहा है –
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हर्दय न च ।
मदभ्कता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद
तुम बिन मोरी कौन खबर ले गोवर्धन गिरधारी,
भरी सबा में द्रोपदी खाड़ी राखो लाज हमारी,
तुम बिन मोरी कौन खबर ले गोवर्धन गिरधारी,
मोर मुकट पीताम्भर सोहे,कुण्डल की छवि न्यारी,
तुम बिन मोरी कौन खबर ले गोवर्धन गिरधारी,
मीरा के प्रभु श्याम सूंदर है चरण कमल बलिहारी,
तुम बिन मोरी कौन खबर ले गोवर्धन गिरधारी,
क्रमशः ………………!
0 Niru Ashra: óश्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 श्लोक 8
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श्लोक 10 . 8
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अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः || ८ ||
अहम् – मैं; सर्वस्य – सबका; प्रभवः – उत्पत्ति का कारण; मत्तः – मुझसे; सर्वम् – सारी वस्तुएँ; प्रवर्तते – उद्भूत होती हैं; इति – इस प्रकार; मत्वा – जानकर; भजन्ते – भक्ति करते हैं; माम् – मेरी; बुधाः – विद्वानजन; भाव-समन्विताः – अत्यन्त मनोयोग से |
भावार्थ
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मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है | जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं |
तात्पर्य
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जिस विद्वान ने वेदों का ठीक से अध्ययन किया हो और भगवान् चैतन्य जैसे अधिकारियों से ज्ञान प्राप्त किया हो तथा यह जानता हो कि इन उपदेशों का किस प्रकार उपयोग करना चाहिए, वही यह समझ सकता है कि भौतिक तथा आध्यात्मिक जगतों के मूल श्रीकृष्ण ही हैं | इस प्रकार के ज्ञान से वह भगवद्भक्ति में स्थिर हो जाता है | वह व्यर्थ की टीकाओं से या मूर्खों के द्वारा कभी पथभ्रष्ट नहीं होता | सारा वैदिक साहित्य स्वीकार करता है कि कृष्ण ही ब्रह्मा, शिव तथा अन्य समस्त देवताओं के स्त्रोत हैं | अथर्ववेद में (गोपालतापनी उपनिषद् १.२४) कहा गया है – यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च गापयति स्म कृष्णः – प्रारम्भ में कृष्ण ने ब्रह्मा को वेदों का ज्ञान प्रदान किया और उन्होंने भूतकाल में वैदिक ज्ञान का प्रचार किया | पुनः नारायण उपनिषद् में (१) कहा गे है – अथ पुरुषो ह वै नारायणोSकामयत प्रजाः सृजेयते – तब भगवान् ने जीवों की सृष्टि करनी चाही | उपनिषद् में आगे भी कहा गया है – नारायणाद् ब्रह्मा जायते नारायणाद् प्रजापतिः प्रजायते नारायणाद् इन्द्रो जायते | नारायणादष्टौ वसवो जायन्ते नारायणादेकादश रुद्रा जायन्ते नारायणाद्द्वादशादित्याः – “नारायण से ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं, नारायण से प्रजापति उत्पन्न होते हैं, नारायण से इन्द्र और आठ वासु उत्पन्न होते हैं और नारायण से ही ग्यारह रूद्र तथा बारह आदित्य उत्पन्न होते हैं |” यह नारायण कृष्ण के ही अंश हैं |
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वेदों का ही कथन है – ब्रह्मण्यो देवकीपुत्रः – देवकी पुत्र, कृष्ण, ही भगवान् हैं (नारायण उपनिषद् ४) | तब यह कहा गया – एको वै आसीन्न ब्रह्मा न ईशानो नापो नाग्निसमौ नेमे द्यावापृथिवी न नाक्षत्राणि न सूर्यः – सृष्टि के प्रारम्भ में केवल भगवान् नारायण थे | न ब्रह्मा थे, न शिव | न अग्नि थी, न चन्द्रमा, न नक्षत्र और न सूर्य (महा उपनिषद् १) | महा उपनिषद् में यह भी कहा गया है कि शिवजी परमेश्र्वर के मस्तक से उत्पन्न हुए | अतः वेदों का कहना है कि ब्रह्मा तथा शिव के स्त्रष्टा भगवान् की ही पूजा की जानी चाहिए |
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मोक्षधर्म में कृष्ण कहते हैं –
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प्रजापतिं च रूद्र चाप्यहमेव सृजामि वै |
तौ हि मां न विजानीतो मम मायाविमोहितौ ||
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“मैंने ही प्रजापतियों को, शिव तथा अन्यों को उत्पन्न किया, किन्तु वे मेरी माया से मोहित होने के कारण यह नहीं जानते कि मैंने ही उन्हें उत्पन्न किया |” वराह पुराण में भी कहा गया है –
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नारायणः परो देवस्तस्माज्जातश्र्चतुर्मुखः |
तस्माद्र रुद्रोSभवद्देवः स च सर्वज्ञतां गतः ||
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“नारायण भगवान् हैं, जिनसे ब्रह्मा उत्पन्न हुए और फिर ब्रह्मा से शिव उत्पन्न हुए |” भगवान् कृष्ण समस्त उत्पत्तियों से स्त्रोत हैं और वे सर्वकारण कहलाते हैं | वे स्वयं कहते हैं, “चूँकि सारी वस्तुएँ मुझसे उत्पन्न हैं, अतः मैं सबों का मूल कारण हूँ | सारी वस्तुएँ मेरे अधीन हैं, मेरे ऊपर कोई भी नहीं हैं |” कृष्ण से बढ़कर कोई परम नियन्ता नहीं है | जो व्यक्ति प्रामाणिक गुरु से या वैदिक साहित्य से इस प्रकार कृष्ण को जान लेता है, वह अपनी सारी शक्ति कृष्णभावनामृत में लगाता है और सचमुच विद्वान पुरुष बन जाता है | उसकी तुलना में अन्य लोग, जो कृष्ण को ठीक से नहीं जानते, मात्र मुर्ख सिद्ध होते हैं | केवल मुर्ख ही कृष्ण को सामान्य व्यक्ति समझेगा | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को चाहिए कि कभी मूर्खों द्वारा मोहित न हो, उसे भगवद्गीता की समस्त अप्रामाणिक टीकाओं एवं व्याख्याओं से दूर रहना चाहिए और दृढ़तापूर्वक कृष्णभावनामृत में अग्रसर होना चाहिए |

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