🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम* _🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣4️⃣
भाग 1
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
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#भयोपानिगहनुबिलोकिबिधिसुरमनुजमुनिआनंदभरे….._
📙( #रामचरितमानस )📙
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#मैवैदेही ! ……………._
मै विवाह मण्डप में आगयी थी ………मेरे दाहिनी भाग पर श्रीरघुनंदन बिराजे थे …….उस समय मेरी जो स्थिति थी मै उसको लिख नही सकती ………उसे बोल नही सकती ।
नील मणि…..मेरे बगल में बिराजे थे …उनके देह की सुगन्ध ! उफ़ !
बस एक बार देखा था मैने उस विवाह मण्डप के प्रसंग में उनकी और ..क्या मदभरी अँखियाँ थीं उनकी …………जो भी देखे वो उनमें ही डूब जाए………..और जो इन नयनो की गहराई में डूब गया वो तो पार ही है………क्या राजीव नयन के वो नयन !
मेरी सखियाँ गीत गा रही थीं …………..पर गीत के साथ साथ गारी भी दे देतीं तब श्री रघुनन्दन थोडा मुस्कुराते ………ओह ! जिसनें उनकी वो मुस्कुराहट देख ली ………फिर उसे भुक्ति मुक्ति की लालसा नही रहती ……….।
मेरे पिता जी विदेहराज और मेरी माता जी सुनयना ये दोनों उठे थे ….
और इन्होनें चरण पखारनें शुरू कर दिए थे …………माता सुनयना जल झारी से जल डाल रही थीं ……और चरणों को पखार रहे थे मेरे पिता जी ………….ओह ! ये तो अभी से भावुक होनें लगे ……..
किसी वृद्ध जनकपुर की नारी नें ये भी कह दिया ।
अपनें आँसुओं को बचा के रखो महाराज ! अभी से रो रहे हो तो बेटी बिदा के समय तो आप अपनें को सम्भाल भी नही पायेगें ।
ये कहते हुए वो वृद्धा नारी भी भावुक हो उठी थी ।
इस प्रसंग में तो मेरे पिता जी नें अपनें आँसुओं को रोक लिया था ।
पर अब प्रसंग था ………..कन्यादान का !
विवाह के बाद बेटी पराई हो जाती है ……….
ये कोई कहता तो बुरा लगता था मुझे ।
मेरे पिता जी ………..मै उनकी लाड़ली थी …………मेरे पिता जी सदैव मेरा ही पक्ष लिया करते ………….हाँ मेरी माता जी कभी कभी हम बच्चों के द्वारा उपद्रव हो जाए ……….तो आँखें दिखा देती थीं…….पर मेरे पिता जी नें कभी आँख भी गुस्से में नही दिखाई ।
हर समय ….जानकी …जानकी …जानकी …………बस यही रट लगी रहती थी इनको …………..ये जब राज सभा से आते थे …….तब मेरे बिना इन्होनें भोजन भी नही किया आज तक ………मेरी “जानकी” आएगी तभी मै खाऊंगा ………….।
फिर मुझे खोजा जाता था ……………और मै ?
मै तो कभी दूध मति के किनारे………….तो कभी कमला नदी के किनारे …अपनी सखियों के साथ खेलती रहती थी …………
क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभाग_में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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] Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (41)
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आज मोरे अँगना में आओ नंदलाल
चले आओ गोपाल दर्शन को प्यासी गुजरिया
श्याम अँगना मे आओ मेरे माखन को खाओ
झूँठी साँचि बतिया सुनाओ गोपाल
दर्शन को प्यासी गुजरिया श्याम🙏😢*
दिल की सदा सुन हे जग करता
तेरी दया हो हे दुःख हरता,
मुश्किल में है हम दुखयारी दूर करो प्रभु सब अंधियारे,
कोई तो हल निकाल दे,
आई मुसीबत टाल दे प्रभु आई मुसीबत टाल दे,
तेरी धुप है तेरी छाया अप्रम पार है तेरी माया,
तू करता है सेहरा को दरिया तू देता जीने का जरियाँ,
तेरी दया का हो उजियारा
मिट जाए सारा अँधियारा,
इक नजर डाल दे प्रभु एक नजर डाल दे
आई मुसीबत टाल दे प्रभु आई मुसीबत टाल दे,
नरसीराम को जातिच्युत करना और
भगवान का भक्त के अपमान का बदला
कुछ लोगों ने कहा कि -‘वह तो भजन करने गया था अछूत के घर , वहाँ कोई खान-पान की बात तो थी नहीं, फिर क्यों ऐसा किया जा सकता हैं । परंतु नगाड़े के सामने -तुती की आवाज कौन सुनता ।
उपस्थित सभी जाति-नेता इस बात पर सहमत हो गये । ‘सबने यह निश्चय किया कि आज से नरसिंह मेहता जातिच्युत समझा जाय और उसके साथ खान-पान आदि व्यवहार बन्द कर दिया जाय ।इस प्रकार भक्त राज को जाति से बहिष्कृत करके जाति-नेताओं ने अपनी दृष्टि से अपनी जाति की पवित्रता की रक्षा की और इससे उन्हें बड़ा सन्तोष हुआ ।’
दूसरे दिन कृष्णराय नामक एक नागर की माता के एकादशाह श्राद्ध के निमित्त जाति- भोज था । जाति भर के आबाल -वृद्ध सब लोग निमन्त्रित किए गए थे ; केवल बहिष्कृत होने के कारण ‘नरसिंह मेहता को निमंत्रण नहीं दिया गया था ।’
सँध्यासमय कृष्णराय के घर सभी नागर एकत्र हुए और भोजन के लिये पंक्ति लगाकर बैठे ।
भक्त राज नरसिंह राम को सम्भवतः अभी इस बात का पता भी नहीं था कि मैं जातिच्युत किया गया हूँ । उन्हें कहाँ फुर्सत थी जो इस ओर वह ध्यान देते ? सच्चे भगवदभक्त तो एक क्षण के लिए भी अपने प्रभु को भुला कर दूसरी और ध्यान देना मरण से अधिक दुःख दायी समझते हैं ।
परंतु *’अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार भगवान को तो चिंता रहती ही है । भगवान अपना अपमान तो सह लेते हैं , परंतु भक्तों का अपमान कदापि नहीं सह सकते । उन्होंने नागरों को भी भक्त राज के अपमान का बदला देना उचित समझा ।
उन्होंने तुरंत अपनी विचित्र माया फैलायी ।
जब नागरों की पंक्ति में भोजन परोस दिया गया और उन्होंने भोजन करना शुरू किया तब प्रत्येक नागर ने अपने बगल में एक अन्त्यज को बैठे देखा । इस दृश्य को देखकर सभी नागर बड़े आश्चर्य में पड़ गये और भोजन छोड़ कर भागने लगे ।’*
जाति के अगुआ सारंगधर ने चिन्तित होकर कहा -‘ अन्तराय ! गजब हो गया । इन अन्त्यगजों के साथ भोजन करके तो आज हम सभी पाप के भागी हो गये । अब क्या किया जाय ।
हमलोगों को ‘ तो गंगा स्नान ‘ करके प्रायश्चित करना पड़ेगा । इस पाप से छूटने का क्या कोई और उपाय है ?
अन्तराय ने कहा- ‘सारंगधर जी ! भक्त नरसिंह राम को जातिच्युत करने का ही यह परिणाम मालूम होता है । अब तो अपने किये का हमें फल भोगना ही पड़ेगा ।’
सारंगधर ने उत्सुकता पूर्वक कहा – तो क्या यह सब उसी जादूगर के हथकण्डे है ।
क्रमशः ………………!
Niru Ashra: “महारास”
भागवत की कहानी – 40
गोपियाँ श्रीकृष्ण के साथ नृत्य करती हैं , ताल में ताल मिल गए हैं स्वर में स्वर गूंज रहे हैं …बाहों में बाहें डालकर ब्रह्म मानों अपनी ही परछाईं के साथ खेल रहा हैं। तभी – शुकदेव यहाँ रुक जाते हैं …..क्या हुआ गुरुदेव ? परीक्षित बेचैन हो उठे …रस भंग हो गया था श्रोता का ।
गोपी और श्रीकृष्ण के मध्य कोई आगया ….शुकदेव ने कहा ।
कौन आया ? परीक्षित की जिज्ञासा है ।
‘मैं’, शुकदेव कहते हैं …गोपियों का ‘मैं’ बीच में आगया । हे परीक्षित ! प्रेमी के मन में तो ‘मैं’ आना ही नही चाहिए ….उनका ध्यान ‘मैं’ में क्यों हो ? प्रेमी का ध्यान तो प्रियतम में हो न ! जो भी गुण हों …वो प्रियतम के दिखाई देने चाहिये …..किन्तु यहाँ अहंकार ने सब बिगाड़ दिया । “मुझ में विशेषता है” ..ये भाव प्रेम में वर्जित है । प्रेम तो उस भाव की माँग करता है जहाँ – “विशेषता प्रियतम में है इसलिए मुझ जैसी को भी उन्होंने अपनाया” । अपने में विशेषता दिखाई देने लगे तो समझ लो प्रेम गली से तुम्हें बाहर जाना होगा ..तुम अधिकारी नही हो इस प्रेम पथ के ।
मेरे केश , मेरे कपोल , मेरे सुन्दर हाथ , मेरे नेत्र सुन्दर ,
इसलिए श्रीकृष्ण मेरे साथ रास कर रहे हैं ।
श्रीकृष्ण सब समझते हैं ! “गरब गोपाल को कहाँ प्रिय है” …..इसलिए श्रीकृष्ण वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गये ।
गोपियों ने देखा …श्रीकृष्ण नही हैं ….लेकिन वो निराश नही हुईं ….रोईं , गिरीं , चिल्लाईं …किन्तु निराशा ने उन्हें घेरा नही ….अपितु वो खोज में लग गयीं कि श्रीकृष्ण ने हमें क्यों छोड़ा ? अन्वेषण श्रीकृष्ण का उन्होंने और तीव्रता से आरम्भ कर दिया । उन्होंने सोचा , उन्होंने विचार किया कि श्रीकृष्ण क्यों गये ? इस रात्रि में नाचते गाते एकाएक ऐसा क्या हुआ की वो हमें छोड़कर चले गये , क्यों ? तब उनके बात समझ में आयी ….कि हमारे मन में अहंकार आगया था …..मैं , मैं , मैं । अब देखिए – यहाँ गोपियों ने उस अहंकार को गलाने का प्रयास किया …नही गल रहा ….तो उन्होंने रोना आरम्भ किया ….रोने से दैन्यता आती है ….अहंकार गलता है ….’मैं’ को हटाकर उन्होंने ‘तू’ को स्थान दिया । अब जो भी है तू ही है ….मैं तो मिथ्या है ….सरासर मिथ्या …सत्य सिर्फ़ तू है । वो रोते हुए वृक्षों से पूछने लगीं …हमारे प्यारे कहाँ हैं …तुमने देखा क्या ? वो लताओं से पूछने लगीं …..हमारे प्रियतम कहाँ हैं ?
कृष्ण , कृष्ण , कृष्ण , कृष्ण ….तुम कहाँ गये ? यहाँ एक प्रेम की विलक्षण घटना घट गयी ….कृष्ण कृष्ण कहते कहते गोपियाँ कृष्ण ही हो गयीं । उन्हें लगने लगा मैं ही कृष्ण हूँ ….अद्वैत घटित हो गया । ये प्रेम मार्ग है ही ऐसा ….बिना द्वैत को अद्वैत किए प्रेम को चैन कहाँ मिलता है …..“ कृष्णोहम् “ । किन्तु फिर वापस द्वैत में आगयीं ….हा नाथ ! पुकारने लगीं । यही तो प्रेम की लीला है ..द्वैत से अद्वैत और अद्वैत से फिर द्वैत । कभी लगता है हम एक हैं और कभी लगता है ..मैं प्रेमी वो प्रियतम । गोपियों के मन में आया ….कहाँ जायें , कहाँ खोजें …वो यहीं हैं …यहीं कहीं छिपे हैं …..तो सब गोपियाँ वहीं बैठ गयीं । और गीत गाने लगीं ।
गायन प्रेम की उच्च अभिव्यक्ति है …..इसी विरह के गायन ने श्रीकृष्ण को प्रकट होने के लिए बाध्य किया । जी , बाध्य किया …क्यों की ये प्रेम के बंधन में बंधे हैं । प्रकट हो गये ।
जय हो मेरे रास बिहारी , जय हो मेरे कुँज बिहारी ….सब गोपियाँ आनंदित हो उठीं ….और अब यहाँ महारास होता है । श्रीवृन्दावन की प्रेम भूमि, समय रात्रि शरद का । और उसमें भी पूनौं का चन्द्रमा । साथ में सनातन प्रियतम और ये सुंदरियाँ , अनगिनत सौन्दर्य की धनी गोपियाँ । ये सब नाच उठे ….नभ में देवों का झुण्ड है …जो इस महारास का दर्शन करके गोपियों के भाग को सराह रहा है …..सब नाच रहे हैं , अस्तित्व नाच रहा है , चाँद तारे नाच रहे हैं , शिव और ब्रह्मा नाच रहे हैं , सावित्री और पार्वती नाच रही हैं …आकाश और पृथ्वी नाच रही है …..परम आनंदित होकर शुकदेव कहते हैं …..श्रीकृष्ण और गोपियाँ नाच रहे हैं । श्रीवन में महारास हुआ फिर यमुना के जल में इन्होंने प्रवेश किया …वहाँ पर भी महारास हुआ । यमुना के मध्य में वर्तुलाकार मण्डली खड़ी हो गयी और मध्य में श्याम सुन्दर । ओह ! इसका क्या वर्णन किया जाए परीक्षित ! ये रस ही रस का समूह है …मूल रूप से देखा जाये तो यहाँ न कृष्ण हैं न गोपियाँ , है तो बस …रस , रस , ये रस का ही विलास है ….शुकदेव मौन हो गये , ये रस इतना बढ़ गया है कि शुकदेव बोलना भी भारी पड़ रहा है ।
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
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श्लोक 10 . 10
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तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || १० ||
तेषाम् – उन; सतत-युक्तानाम् – सदैव लीन रहने वालों को; भजताम् – भक्ति करने वालों को; प्रीति-पूर्वकम् – प्रेमभावसहित; ददामि – देता हूँ; बुद्धि-योगम् – असली बुद्धि; तम् – वह; येन – जिससे; माम् – मुझको; उपयान्ति – प्राप्त होते हैं; ते – वे |
भावार्थ
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जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
तात्पर्य
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इस श्लोक में बुद्धि-योगम् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है | हमें स्मरण हो कि द्वितीय अध्याय में भगवान् ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा था कि मैं तुम्हें अनेक विषयों के बारे में बता चुका हूँ और अब मैं तुम्हें बुद्धियोग की शिक्षा दूँगा | अब उसी बुद्धियोग की व्याख्या की जा रही है | बुद्धियोग कृष्णभावनामृत में रहकर कार्य करने को कहते हैं और यही उत्तम बुद्धि है | बुद्धि का अर्थ है बुद्धि और योग का अर्थ है यौगिक गतिविधियाँ अथवा यौगिक उन्नति | जब कोई भगवद्धाम को जाना चाहता है और भक्ति में वह कृष्णभावनामृत को ग्रहण कर लेता है, तो उसका यह कार्य बुद्धियोग कहलाता है | दूसरे शब्दों में, बुद्धियोग वह विधि है, जिससे मनुष्य भवबन्धन से छुटना चाहता है | उन्नति करने का चरम लक्ष्य कृष्णप्राप्ति है | लोग इसे नहीं जानते, अतः भक्तों तथा प्रामाणिक गुरु की संगति आवश्यक है | मनुष्य को ज्ञात होना चाहिए कि कृष्ण ही लक्ष्य हैं और जब लक्ष्य निर्दिष्ट है, तो पथ पर मन्दगति से प्रगति करने पर भी अन्तिम लक्ष्य प्राप्त हो जाता है |
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जब मनुष्य लक्ष्य तो जानता है, किन्तु कर्मफल में लिप्त रहता है, तो वह कर्मयोगी होता है | यह जानते हुए कि लक्ष्य कृष्ण हैं, जब कोई कृष्ण को समझने के लिए मानसिक चिन्तन का सहारा लेता है, तो वह ज्ञानयोग में लीन होता है | किन्तु जब वह लक्ष्य को जानकर कृष्णभावनामृत तथा भक्ति में कृष्ण की खोज करता है, तो वह भक्तियोगी या बुद्धियोगी होता है और यही पूर्णयोग है | यह पूर्णयोग ही जीवन की सिद्धावस्था है |
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जब व्यक्ति प्रामाणिक गुरु के होते हुए तथा आध्यात्मिक संघ से सम्बद्ध रहकर भी प्रगति नहीं कर पाता, क्योंकि वह बुद्धिमान नहीं है, तो कृष्ण उसके अन्तर से उपदेश देते हैं, जिससे वह सरलता से उन तक पहुँच सके | इसके लिए जिस योग्यता की अपेक्षा है, वह यह है कि कृष्णभावनामृत में निरन्तर रहकर प्रेम तथा भक्ति के साथ सभी प्रकार की सेवा की जाए | उसे कृष्ण के लिए कुछ न कुछ कार्य रहना चाहिए, किन्तु प्रेमपूर्वक | यदि भक्त इतना बुद्धिमान नहीं है कि आत्म-साक्षात्कार के पथ पर प्रगति कर सके, किन्तु यदि वह एकनिष्ट रहकर भक्तिकार्यों में रत रहता है, तो भगवान् उसे अवसर देते हैं कि वह उन्नति करके अन्त में उनके पास पहुँच जाये |


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