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July 6, 2025 7:02 pm

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श्री जगन्नाथ मंदिर सेवा संस्थान दुनेठा दमण ने जगन्नाथ भगवान की रथ यात्रा दुनेठा मंदिर से गुंडीचा मंदिर अमर कॉम्प्लेक्स तक किया था यात्रा 27 जुन को शुरु हुई थी, 5 जुलाई तक गुंडीचा मंदिर मे पुजा अर्चना तथा भजन कीर्तन होते रहे यात्रा की शुरुआत से लेकर सभी भक्तजनों ने सहयोग दिया था संस्थान के मुख्या श्रीमति अंजलि नंदा के मार्गदर्शन से सम्पन्न हुआ

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श्रीसीतारामशरणम्मम(24-3),“कंस-वध”(42),: भक्त नरसी मेहता चरित (43) & श्रीमद्भगवद्गीता नीरू आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम(24-3),“कंस-वध”(42),: भक्त नरसी मेहता चरित (43) & श्रीमद्भगवद्गीता नीरू आशरा

🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम* _🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣4️⃣
भाग 3

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#भयोपानिगहनुबिलोकिबिधिसुरमनुजमुनिआनंदभरे….._

📙( #रामचरितमानस )📙

🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! ……………._

इनके कोमल हृदय में तो ….एक नन्ही सी लाली भी है ………इन्हें कौन समझाये ……….इन्हें कौन सम्भाले !

मै समझती हूँ ……………..मै भी रोना चाहती हूँ …………..अरे ! अपनें कुल परिजनों का एकाएक पराया हो जाना किसे भायेगा !

अब मै निमिवंश की नही …..रघुवंश की होनें जा रही थी ………..पुरानें गोत्र को तिलांजलि देकर …………पुरानें वंश को विसर्जित करके …..

उफ़ ! सच में नारियों का हृदय बहुत बड़ा है ………………।


मेरे पिता विदेहराज तो बेसुध हो रहे थे ………….मेरी माता सुनयना आँसुओं को बस पोंछे जा रही थीं …………

ब्राह्मण क्या कह रहे हैं …..ऋषि क्या कह रहे हैं……मेरे पिता कुछ समझनें की स्थिति में ही नही थे ………..

पता नही मेरे पिता जी को क्या स्नेह का भाव उमड़ा ………मुझे अपनी गोद में बिठा लिया था ……सब लोग देख रहे थे …..इस भावुक दृश्य को देखकर महाराज चक्रवर्ती दशरथ जी के भी सजल नयन हो गए थे ।

मेरा हाथ लिया था मेरे पिता जी नें …………..कोमल हाथों को पकड़ कर फिर रो पड़े थे मेरे पिता ……………..तभी ……..

मेरे रघुनन्दन नें नीचे से अपनें हाथों का सहारा दिया ……..

मानों कह रहे हों ………मै रघुनन्दन राम ! आपकी पुत्री को स्वीकार करता हूँ ………..और इनका सम्भाल भी करूँगा ।

पहली बार मुझे छूआ था मेरे रघुनन्दन नें ………………..

मै अपनें पिता की गोद में बैठी थी ……मेरे पिता के हाथों में मेरे हाथ थे ………पर नीचे से मेरे हाथ को रघुनन्दन नें सम्भाला था …।

विरह का प्रसंग उपस्थित न हो ……….ऐसी कोशिश ब्राह्मणों नें की ….ठीक किया …………….नही तो जनकपुर वासी अगर रोनें लग जाएँ तो ये पूरी पृथ्वी ही जलाशय बन जायेगी ।

मेरे पिता महाराज जनक के राजनैतिक रूप …सामाजिक रूप, …पारिवारिक रूप, एक आध्यात्मिक व्यक्तित्त्व का रूप …ये सब तो लोगों नें देखा था …….पर एक बेटी का भावुक पिता कहीं छुपा था हृदय के कोनें में ……….आज सबनें उसका दर्शन किया ।

ब्राह्मणों नें मन्त्रोच्चार करना आरम्भ कर दिया था ………

पुष्प वृष्टि आकाश से शुरू हो गयी थी …………….

चारों और जयजयकार गूँज उठा था …………..

उस समय मेरे पिता मेरी माता सुनयना मेरा कन्या दान कर रही थीं ।

पर उस समय सुबुक रहे थे मेरे माता पिता ……………..

साथ में जनकपुर की जितनी नारियाँ थीं …..मेरी सखियाँ थीं सब रो रही थीं …………मेरा कन्यादान करते हुए ।

#शेषचरिञअगलेभाग_में……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: “कंस-वध”

भागवत की कहानी – 42


सन्ध्या वेला में मथुरा नगरी में अपने चरण रखे श्रीकृष्ण ने …शुकदेव कहते हैं ।

यमुना किनारे एक बाग है …वहीं पर ठहरे हैं श्रीकृष्ण बलराम संग समस्त बृजवासी ।

पिता नन्द बाबा दूसरे दिन भोर में ही राजा कंस से मिलने चले गये थे ..और ये कहकर गये थे कि – बलराम ! कृष्ण को कहीं जाने मत देना , मैं अभी राजा से मिलकर आरहा हूँ । बाबा ! कंस से आप क्यों मिलने जा रहे हैं ? श्रीकृष्ण ने नन्द बाबा से गम्भीर होकर पूछा था….तो नन्द बाबा का उत्तर था …वो राजा हैं , हमें उनसे सम्बन्ध बनाकर रखना होता है …कर आदि देकर हमें उसे प्रसन्न रखना ही है ….नही तो वो बृज में कुछ भी कर दे । “बाबा ! राजा को बदल दो”। ये बात गम्भीरता के साथ ही श्रीकृष्ण बोले । नन्द बाबा ने चारों ओर देखा वो डर गये थे कि ये बात कहीं कंस के सैनिक न सुन लें । चुप रह । बहुत बोलता है । सुन ! जाना नही कहीं भी मेरे बिना …नही तो कंस के सैनिक तुझे छोड़ेंगे नही । श्रीकृष्ण बाबा की बात पर अब खूब हंसे ….फिर बोले ….आप चिंता न करो बाबा ! सैनिक तो बेचारे राजा के चाकर हैं ..राजा बदल जाए तो दूसरे राजा के चाकर हो जायेंगे ।

बलराम ! ये मानेगा नही …ठीक है तुम लोग जाओ , लेकिन सावधान ! यहाँ कंस का आतंक है ….किसी से बात मत करना …इस कृष्ण को बात करने मत देना …और हाँ …इधर उधर कहीं मत जाना नगर देखकर वापस आजाना । नन्द बाबा इतना कहकर चले गए थे ।

अब तो सब बृजवासी नगर देखने के उत्सुक …किन्तु श्रीकृष्ण कुछ और ही सोच रहे हैं ….क्या सोच रहे हो ? बलराम ने पूछा । नही , दाऊ ! पहले मथुरा नगरी को देख लूँ …यहाँ के लोगों के मन को पढ़ लूँ …कि ये अपने राजा से सन्तुष्ट हैं अथवा नही । अगर सन्तुष्ट हैं तो फिर कोई बात ही नही है …और अगर सन्तुष्ट नही हैं ….तो बहुत कुछ हो सकता है । अच्छा ! बहुत कुछ में माखन चोरी ? मनसुख ने हंसते हुये कहा । पूरी मथुरा को न चुरा लें …मनसुख की पीठ में हाथ मारते हुए श्रीकृष्ण बोले थे ….फिर सब लोग मिलकर चल दिए थे मथुरा नगरी देखने ।


बड़े बड़े राजमार्ग हैं , उन मार्गों के दोनों तरफ बड़ी सुन्दर वृक्षावलियाँ हैं ….लोग यहाँ के अच्छे हैं ….चौराहा की शोभा अलग ही है ….मध्य में रंगीन जल के फुब्बारे हैं ….वो चलते हैं तो और भी सुन्दर लगता है । नागरी सुन्दर हैं …..वो चलते चलते श्रीकृष्ण को देख रहीं हैं …देख कर सीधे नही जा रहीं कोई तो वहीं रुक गयी हैं तो कोई शीघ्र अपने घर के छत में चढ़ गयी हैं वो सबको बता रही हैं कि देखो ! सुन्दर , नही नही …अति सुन्दर ग्वाल आए हैं ….ये कौन हैं ? एक पूछ रही है तो दूसरी उत्तर देती है …अरे ! यही तो हैं बृज के नन्दलाला । ओह ! ये वही हैं ? जिन्होंने जन्म लेते ही दूध पीते हुए पूतना जैसी महाआतंकिनी को मार दिया था ! हाँ , ये वहीं हैं । श्रीकृष्ण उन सबकी बातें सुन रहे हैं ….बड़े ध्यान से सुन रहे हैं । एक नागरी ने कहा …कितना अच्छा होता ये कंस को भी मार देते । ये सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराए । हाँ , हम मथुरावासियों को बहुत सुख मिलता …दूसरी कहती है । श्रीकृष्ण आगे बढ़ते जा रहे हैं ….कुछ नागरियों ने तो ऊपर से इन पर पुष्प वर्षा भी किए । श्रीकृष्ण ने आगे जाकर देखा …मथुरा के कुछ गणमान्य व्यक्ति बैठे हुए हैं ….श्रीकृष्ण उनके निकट से होकर गुजरते हैं तो एक कह रहा था ….कंस का अत्याचार बढ़ता जा रहा है ..तो दूसरा कह रहा था अपने पिता तक को जिसने नही छोड़ा कारागार में डाल दिया उसकी क्या बात करोगे ? तभी कुछ सैनिक उधर से जा रहे हैं, उनको देखकर ये चुप हो गए हैं ।

श्रीकृष्ण समझ गये कि प्रजा बहुत दुखी है …..क्या किया जाये ? श्रीकृष्ण विचार करते हैं …फिर मन में सोचते हैं की अच्छा न हो प्रजा को ही अपने पक्ष में कर लिया जाये और प्रजा का विद्रोह ! किन्तु इनके विद्रोह का नेतृत्व करेगा कौन ? श्रीकृष्ण अपने से ही कहते हैं …मैं ।

अब मुस्कुराते हुए श्रीकृष्ण आगे बढ़ते हैं । वो समझ गए हैं मथुरा को और मथुरा के राजा के आतंक को भी ।


सुनो ! कपड़े दो हमें …पहनने हैं ।

ये धोबी है ….ये परम भक्त है कंस का …उसके वस्त्र यही धोता है और अभी लेकर जा रहा कंस के यहाँ उसके वस्त्र । श्रीकृष्ण ने देखा ….प्रजा के विद्रोह की बात पहले कंस को पता तो चले …ऐसा विचार करके इसी कंस भक्त को श्रीकृष्ण ने प्रथम अपना हथियार बनाया ।

सुनो ! कपड़े दो , हमें पहनने हैं ।

मथुरा के लोगों ने देखा ….सब नगर वासी चौंक गये ….ये धोबी किसी से सीधे मुँह बात कहाँ करता था …कंस का ख़ास था ये । जिसकी शिकायत ये कर दे कंस से …कंस उसे मृत्यु दण्ड देता था । श्रीकृष्ण ने जब इसे छेड़ा तो मथुरावासी ये सब देखने के लिए वहाँ इकट्ठे हो गये थे ।

तुझे पता नही मैं कौन हूँ ? रुक कर धोबी बोला ।

मुझे कपड़े चाहिये ….तुम कौन हो उससे मुझे कोई प्रयोजन नही है ।

ये राजा के कपड़े हैं । धोबी बोला ।

तो हम भी राजा हैं ….ये सब राजा हैं ….क्यों ? प्रजा की ओर देखकर जब श्रीकृष्ण ने कहा तो प्रजा वहाँ से खिसकने लगी …..कोई कुछ नही बोला । श्रीकृष्ण समझ गये कि भय व्याप्त है प्रजा में ….इनका भय निकालना ही पड़ेगा ।

तुम दे रहे हो या नही ? श्रीकृष्ण ने जब इस बार कहा …. तो धोबी बोला ….तुम गंवार , गाँव में रहने वाले कपड़े पहनोगे राजा महाराजा के ? बस इतना ही कहना श्रीकृष्ण के लिए पर्याप्त था …श्रीकृष्ण ने एक कस कर थप्पड़ दिया कि उसका सिर ही धड़ से अलग कर दिया ।

ये देखते ही मथुरावासियों में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी ….सब लोगों को आस बनी कि ये कंस को सत्ता से हटा सकते हैं । शुकदेव कहते हैं – प्रजा वीरता देखती है वो श्रीकृष्ण ने दिखा दी थी कि बिना शस्त्र के मस्तक अलग कर दिया था इस कंस प्रिय धोबी का । अब तो मथुरावासी आनन्द के कारण इनको अपने अपने यहाँ बुलाने लगे …श्रीकृष्ण सबके यहाँ जाने लगे ।

यहाँ से विशेष मार्ग आरम्भ होता है …जो मार्ग सीधे कंस के यहाँ जाता है …इस मार्ग पर चलने से पहले माली का घर श्रीकृष्ण ने देखा ….इस माली का नाम था सुदामा । ये गये …ताकि इसका वर्ग श्रीकृष्ण के साथ खड़ा हो जाए ….सुदामा माली ने श्रीकृष्ण और बलराम को माला पहनाई और बड़े गदगद भाव से बोला …कंस के आतंकवाद को समाप्त कीजिए …श्रीकृष्ण उसकी ओर देखते हैं उसकी पीठ थपथपाते हैं ….और आगे बढ़ते हैं । कुब्जा नामकी एक स्त्री श्रीकृष्ण को मिली …ये कंस की दासी थी …और प्रमुख दासी थी …श्रीकृष्ण ने इससे मीठी बातें कीं अपनी बातों से इसे प्रभावित किया और इसी को अपने पक्ष में कर लिया इसका कूबड़ भी ठीक हो गया फिर तो कंस का जो दास और दासी वर्ग था वो सब श्रीकृष्ण के पक्ष में हो गया था ।

“कपड़े धोबी के सही माप के नही हैं , है ना ? “ अपने सखाओं से ये कहते हुये श्रीकृष्ण दर्ज़ी के दुकान में चले जाते है …ये दर्ज़ी मथुरा का विशेष दर्ज़ी था । इससे अपने वस्त्र ठीक करवाते हैं श्रीकृष्ण …अपने ग्वालों के भी ….इससे ये दर्ज़ी इतना प्रसन्न हुआ कि उसका पूरा वर्ग श्रीकृष्ण के पक्ष में आकर खड़ा हो गया था ।

सत्ता पक्ष के प्रति प्रजा के विद्रोह की हवा श्रीकृष्ण ने चला दी थी ।


रंगमंच है ….विशाल रंगभूमि ….उच्च सिंहासन में कंस बैठा हुआ है ….उसने ही श्रीकृष्ण को मारने के लिए ये सब किया था । प्रजा को बुलाया है …इन सबके सामने श्रीकृष्ण को मारूँगा …ये उद्देश्य है कंस का । उस रंगमंच के द्वार पर एक हाथी खड़ा किया है कंस ने , ये हाथी से कुचलावाना चाहता है ….श्रीकृष्ण आए …साथ में बलभद्र हैं …सखा हैं …..हाथी कुचलने के लिए जैसे ही आगे बढ़ा ….प्रजा के प्राण सूख गये ….श्रीकृष्ण ने भी अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए उसकी सूँड़ पकड़ ली और उसके ऊपर चढ़ कर महावत के हाथों से खींच ली अंकुश और हाथी के ऊपर वार करने लगे ….कूद गये नीचे , हाथी के कण्ठ में जैसे ही अंकुश का प्रहार किया वो तो चीखते हुए गिर गया । प्रजा आनंदित हो उठी करतल ध्वनि की कंस के ही सामने ….कंस भयभीत हो उठा …ये रंगभूमि में आये …..चार पहलवान हैं उनको बारी बारी से पछाड़ा …प्रजा को अब पूर्ण विश्वास हो गया कि यही राजा बदलने वाले हैं …प्रजा अब श्रीकृष्ण के उत्साह को बढ़ाती है …प्रजा में विशेष युवक उतर गये रंगभूमि में ….और श्रीकृष्ण को अपने स्कन्ध में उठा लिया , श्रीकृष्ण वहीं से उछलते हुये कंस के पास पहुँच गये ….और उसके केश पकड़ , घुमाकर नीचे फेंक दिया और स्वयं उसके ऊपर कूद गये थे । कंस का वध किया ….मथुरा की प्रजा ने आज आतंक से अपने आपको मुक्त पाया । सब श्रीकृष्ण की जय जयकार कर रहे थे । और शुकदेव कहते हैं …श्रीकृष्ण सत्ता में स्वयं नही बैठे उग्रसेन को बैठाया , लेकिन …मथुराधीश उग्रसेन नही श्रीकृष्ण ही कहलाए ।

ऐसा राजनैतिज्ञ कोई हुआ है ? शुकदेव मुस्कुराते हुए पूछते हैं ।

Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (43)


ऐसी मोहन ने मुरली बजाई
सारी गोपी है सुन ने को आई,

ऐसी मधुर बजाई तूने मुरली की तान,
मैं तो जाती हु झूम जब सुनते है कान,
मैं खुद को रोक न पाई सारी गोपी है सुन ने को आई,
ऐसी मोहन ने मुरली बजाई

तेरी मुरली में जाने न क्या जादू है मेरे मन में न रहता काबू है,
ऐसा जादू घर है कन्हाई सारी गोपी है सुन ने को आई,
ऐसी मोहन ने मुरली बजाई

मोहन मुझको भी मुरली बना लीजिये अपने होठो पे मुझको सजा लीजिये,
सपने में भी देती सुनाई सारी गोपी है सुन ने को आई,
ऐसी मोहन ने मुरली बजाई

🙏🌌🕉😊👏जग रूठे मेरा सांवरिया सरकार न रूठे,
जीयु मैं जब तक श्याम तेरा दरबार न छुटे,
एक तेरे भरोसे पर मैंने अपनी ये नाव चलाई है,
लाखो तूफ़ान आये लेकिन मेरी नाव ने मंजिल पाई है,
हाथो से तेरे मेरी पतवार न छुटे जीउ मैं जबतक श्याम तेरा दरबार न छुटे👏😊

माणिकबाई का एकादस व् द्वादस श्राद्ध

‘स्वार्थमय संसार में धनवान – धनहीन, दाता – कृपण, विद्वान – मूर्ख, कुलीन – अकुलीन एवं सज्जन – दुर्जन का मानों परम्परागत वैर चला आ रहा है । श्रीमदभगवदगीता में भी दैवी तथा आसुरी-सम्पति में परस्पर विरोध बतलाया गया है ।

परंतु यह कहने की आवश्यकता नहीं कि उस वैर में यह बात भी उसी तरह निश्चित है कि अन्त में दैवी पक्ष की विजय और असुरी पक्ष का पराजय होती है ।

‘दैवी सम्पत्ति सम्पन नरसिंह राम भी आरम्भ से ही यह युद्ध लड़ते आ रहे थे और उसमें लौकिक और पारमार्थिक दोनों दृष्टियों से उन्हीं की विजय भी होती आ रही थी ।’

इन्हें पुनः एक संकट का सामना करना पड़ा । उनकी पत्नी को मरे प्रायः नौ दिन बीत चूके थे । अब उनका श्राद्ध तथा जाति-भाइयों को भोजन कराने की आवश्यकता आ पड़ी थी । परंतु वह भगवान के भरोसे निश्चन्त थे ।

नागर -जाति के प्रमुख व्यक्ति उनके पास आते थे और सारी जाति को एकादशाह और द्वादशाह दोनों दिन भोजन कराने पर जोर दे रहे थे । परंतु नरसिंह राम परमात्मा की जैसी इच्छा कहकर बात टाल दिया करते थे । एक दिन प्रातःकाल ही सारंगधर नामक एक प्रमुख नागर उनके यहाँ उपस्थित हुए । उन्होंने आते ही ‘जय श्री कृष्ण ‘कहकर भक्त राज का अभिवादन किया । भक्त राज ने भी ‘जय श्री कृष्ण ‘कहकर अभिवादन का उत्तर देते हुए कहा -‘ पधारिये सारंगधर जी! आज तो आपने मेरी पर्णकुटि पावन कीजिए ।

इस प्रकार शिष्टाचार की दो- एक बातें होने के बाद सारंगधर बोले – ” नरसिंह राम ! आज मैं तुम्हें एक सलाह देने के लिए आया हूँ । तुम उच्च कुल के पुरूष हो , अपने कुल की प्रथा के अनुसार तुम्हें माणिकबाई के निमित्त एकादशाह और द्वादशाह दो दिन जाति भोज देना चाहिए । इससे कम करने से तुम्हारी मर्यादा बट्टा लगेगा ।

सारंगधर जी आप ठीक कहते हैं ; परंतु इसमें कुल की प्रथा का कोई ख्याल नहीं । यह बात अपनी वर्तमान अवस्था पर निर्भर करती है । शक्ति के बाहर कोई काम करना ठीक नहीं । मैं तो बस दो चार साधु सन्तो को °°°।

सारंगधर ने बीच में ही बात काटते हुए कहा — ” है ! पागल हो गये हो क्या नरसिंह राम ? दो- चार भगत-भिखारियों को भोजन कराने से थोड़े ही तुम्हारी पत्नी का कल्याण होगा ? जाति-गंगा को तृप्त किए बिना उस बिचारी की कैसे सदगति प्राप्त होगी ? वह बिचारी क्या कुछ साथ लेकर गयी है ?अब यही तो उसका अन्तिम नाता है । उसके नाम पर इतना भी नहीं कर सकते ? बार-बार थोड़े ही करना है ।

क्रमशः ………………!


[:Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 10 . 12 , 13
🌹🌹🌹🌹🌹🌹

अर्जुन उवाच
🌹🌹
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् |
पुरुषं शाश्र्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् || १२ ||

आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा |
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे || १३ ||

अर्जुन उवाच – अर्जुन ने कहा; परम् – परम; ब्रह्म – सत्य; परम् – परम; धाम – आधार; पवित्रम् – शुद्ध; परमम् – परम; भवान् – आप; पुरुषम् – पुरुष; शाश्र्वतम् – नित्य; दिव्यम् – दिव्य; आदि-देवम् – आदि स्वामी; अजम् – अजन्मा; विभुम् –सर्वोच्च; आहुः- कहते हैं; त्वाम् – आपको; ऋषयः – साधुगण; सर्वे – सभी; देव-ऋषि – देवताओं के ऋषि; नारदः – नारद; तथा – भी; असितः – असित; देवलः – देवल; व्यासः – व्यास; स्वयम् – स्वयं; च – भी; एव – निश्चय ही; ब्रवीषि – आप बता रहे हैं; मे – मुझको |

भावार्थ
🌹🌹

अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं |

तात्पर्य
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इन दो श्लोकों में भगवान् आधुनिक दार्शनिक को अवसर प्रदान करते हैं, क्योंकि यहाँ यह स्पष्ट है कि परमेश्र्वर जीवात्मा से भिन्न हैं | इस अध्याय के चार महत्त्वपूर्ण श्लोकों को सुनकर अर्जुन की सारी शंकाएँ जाती रहीं और उसने कृष्ण को भगवान् स्वीकार कर लिया | उसने तुरन्त ही उद्घोष किया “आप परब्रह्म हैं |” इसके पूर्व कृष्ण कह चुके हैं कि वे प्रत्येक वस्तु तथा प्रत्येक प्राणी के आदि कारण हैं | प्रत्येक देवता ततः प्रत्येक मनुष्य उन पर आश्रित है | वे अज्ञानवश अपने को भगवान् से परं स्वतन्त्र मानते हैं | ऐसा अज्ञान भक्ति करने से पूरी तरह मिट जाता है | भगवान् ने पिछले श्लोक में इसकी पूरी व्याख्या की है | अब भगवत्कृपा से अर्जुन उन्हें परमसत्य रूप में स्वीकार कर रहा है, जो वैदिक आदेशों के सर्वथा अनुरूप है | ऐसा नहीं है कि परं सखा होने के कारण अर्जुन क्रष्ण की चाटुकारी करते हर उन्हें परमसत्य भगवान् कः रहा है | इन दो श्लोकों में अर्जुन जो भी कहता है, उसकी पुष्टि वैदिक सत्य द्वारा होती है | वैदिक आदेश इसकी पुष्टि करते हैं कि जो कोई परमेश्र्वर की भक्ति करता है, वही उन्हें समझ सकता है, अन्य कोई नहीं | इस श्लोकों में अर्जुन द्वारा कहे शब्द वैदिक आदेशों द्वारा पुष्ट होते हैं |
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केन उपनिषद् में कहा गया है परब्रह्म प्रत्येक वस्तु के आश्रय हैं और कृष्ण पहले ही कः चुके हैं कि सारी वस्तुएँ उन्हीं पर आश्रित हैं | मुण्डक उपनिषद् में पुष्टि की गई है कि जिन परमेश्र्वर पर सब कुछ आश्रित है, उन्हें उनके चिन्तन में रत रहकर ही प्राप्त किया जा सकता है | कृष्ण का यह निरन्तर चिन्तन स्मरणम् है, जो भक्ति की नव विधियों में से हैं | भक्ति के द्वारा ही मनुष्य कृष्ण की स्थिति को समझ सकता है और इस भौतिक देह से छुटकारा पा सकता है |
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वेदों में परमेश्र्वर को पवित्र माना गया है | जो व्यक्ति कृष्ण को परं पवित्र मानता है, वह समस्त पापकर्मों से शुद्ध हो जाता है | भगवान् की शरण में गये बिना पापकर्मों से शुद्धि नहीं हो पाती | अर्जुन द्वारा कृष्ण को परम पवित्र मानना वेदसम्मत है | इसकी पुष्टि नारद आदि ऋषियों द्वारा भी हुई है |
कृष्ण भगवान् हैं और मनुष्य को चाहिए कि वह निरन्तर उनका ध्यान करते हुए उनसे दिव्य सम्बन्ध स्थापित करे | वे परं अस्तित्व हैं | वे समस्त शारीरिक आवश्यकताओं तथा जन्म-मरण से मुक्त हैं | इसकी पुष्टि अर्जुन ही नहीं, अपितु सारे वेड पुराण तथा इतिहास ग्रंथ करते हैं | सारे वैदिक साहित्य में कृष्ण का ऐसा वर्णन मिलता है और भगवान् स्वयं चौथे अध्याय में कहते हैं, “यद्यपि मैं अजन्मा हूँ, किन्तु धर्म किस थापना के लिए इस पृथ्वी पर प्रकट होता हूँ |” वे परम पुरुष हैं, उनका कोई कारण नहीं है, क्योंकि वे समस्त कारणों के कारण हैं और सन कुछ उन्हीं से उद्भूत है | ऐसा पूर्णज्ञान केवल भगवत्कृपा से प्राप्त होता है |
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यहाँ पर अर्जुन कृष्ण की कृपा से ही अपने विचार व्यक्त करता है | यदि हम भगवद्गीता को समझना चाहते हैं तो हमें इन दोनों श्लोकों के कथनों को स्वीकार करना होगा | यह परम्परा-प्रणाली कहलाती है अर्थात् गुरु-परम्परा को मानना | परम्परा-प्रणाली के बिना भगवद्गीता को नहीं समझा जा सकता | यह तथाकथित विद्यालयी शिक्षा द्वारा सम्भव नहीं है | दुर्भाग्यवश जिन्हें अपनी उच्च शिक्षा पर घमण्ड है, वे वैदिक साहित्य के इतने प्रमाणों के होते हुए ही अपने इस दुराग्रह पर अड़े रहते हैं कि कृष्ण एक सामान्य व्यक्ति है |


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