🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 3️⃣1️⃣
भाग 3
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#कौशल्यादिराममहतारी , #प्रेमबिबसतनदसाबिसारी ।…..
📙( #रामचरितमानस )📙
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#मैवैदेही ! ……………._
क्या हुआ सिया बहू ? कोई दिक्कत है ?
मेरे पास आगयी थीं मेरी पूज्या सास कौशल्या जी ……….
नही ………मैने सिर हिलाया ………………और फिर चलनें का प्रयास करनें लगी …………मेरे ऊपर फूल बरसाए जा रहे थे ……….पर ।
बहू ! बताओ क्या बात है ? तुम्हारा मुख मुरझा रहा है ……और तुम चल भी नही पा रही हो ।
मेरी सासू माँ नें मुझसे फिर पूछा ।
देखो ! सिया बहू ! मैने तुम्हारे लिए ही ये कमल के पराग बिछाए हैं …..ताकि तुम्हारे सुकोमल पाँव में कुछ गढ़े नही ………..
माँ ! ये पराग गढ़ रहे हैं मेरे पाँव में !
मुझे ये कहना ही पड़ा ……………..।
क्या ! चौंक गयी थीं मेरी सास कौशल्या जी ……पराग गढ़ रहा है !
नीचे झुककर जब मेरी साडी को हटाकर मेरे पाँव में देखा..कौशल्या जी नें …..तो फिर स्तब्ध हो गयी थीं ……मेरे पाँव लाल हो गए थे ……….उन पराग के कारण ………गढ़ रहे थे कमल फूल के पराग ।
पर मुख म्लान क्यों ? चेहरा मुरझा गया है , क्यों ?
मेरी सास नें फिर पूछा ।
माँ ! ये सब देख रहे हैं मुझे …………..इनकी दृष्टि की गर्मी से मेरा मुख मुरझा रहा है ।
ओह !
मेरी सासू माँ कौशल्या जी चकित थीं ………….।
बारहि बार आरती करही।
व्यजन चारु चामर शिर ढरही ॥
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मेरा ही स्वागत नही मेरी बहनों का भी स्वागत हुआ था ……….आरती हुयी …..और विधि पूरी की गयी ।
हाँ , उस दिन मुँह दिखाई की विधि थी ……..
श्री माँ सुमित्रा जी आगे आयीं ………..उन्होंने मुझे मुँह दिखाई में स्वर्ग से लाये हुए विशेष माँ अदिति के द्वारा प्रदत्त मोतियों का बहुमूल्य हार दिया था …………..
माँ कैकेई नें तो सबको चौंका ही दिया ।
ये कनकभवन की चाबी मैं अपनी बहू सीता को देती हूँ मुँह दिखाई में ।
श्री चक्रवर्ती सम्राट चकित थे ……………क्यों की मैने बाद में सुना था कि माँ कैकेई जिद्दी हैं ………..कनकभवन भी बड़ी जिद्द से बनवाया था …….वो भी विश्वकर्मा के द्वारा …………..।
अपनें लिए ……….कैकेई नें अपनें लिए बनवाया था ………..उसे आज मेरी मुँह दिखाई में दे दिया “कनक भवन” ।
मुझे कनक भवन की चाबी देते हुए कैकेई माँ नें कहा था ………ये मैने तुम दोनों के लिए ही बनवाया था ……….मेरे पुत्र राम और मेरी प्यारी बहु सीता के लिए ………तुम्हारे लिए ।
ये कहते हुए मेरे सिर में हाथ फेरा …………..आशीर्वाद दिया ।
मैने भी उनके चरणों में वन्दन किया था ।
मेरी माँ, अवध की मेरी माँ …….मेरी सासू माँ कौशल्या जी !
बहुत अच्छी हैं……….इतनी अच्छी सास ! सच में मेरे भाग्य हैं ।
भोली हैं ………बहुत भोली हैं ……….मेरे प्राण प्रियतम की माँ जो हैं ….
मुँह दिखाई में , मै क्या दूँ ? परेशान हैं …………..
सबनें दे दिया ……कैकेई माँ नें भी ….सुमित्रा माँ नें भी ………..पर ये मेरी भोली भाली सासू माँ परेशान हैं ।
हार अमूल्य है ……………..देवराज इंद्र नें दिया था एक बार ………चक्रवर्ती महाराज को …………
वही दे दो ना जीजी ! माँ कैकेई नें कहा था ।
हार लेकर भी आयीं ……….फिर मेरे मुख को जब देखा ………मुँह बनाते हुए बोलीं ……बहू के अनुरूप नही है ये हार !
ऐसे ही कई बहुमूल्य वस्तुएँ लायीं …….पर उनका मन नही माना ।
अब बोर मत करो जीजी !
कैकेई माँ नें झुँझलाकर कहा ।
तब मेरी सासू माँ कौशल्या जी नें बिना समय गंवाए अपनें पुत्र श्रीराम का हाथ पकड़ा और मेरे हाथों में देती हुयी बोलीं ……..बहू ! तेरे अनुरूप मेरे पास मुँह दिखाई में देनें के लिए कुछ नही है ….इसलिये ये मेरे पुत्र राम को ही ले ……यही है तेरे अनुरूप ।
ये कहते हुए श्रीरघुनंदन का हाथ मेरे हाथों में दे दिया था मेरी सासू माँ कौशल्या जी नें ।
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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उद्धव गीता – “अंतिम उपदेश” न
भागवत की कहानी – 64
उद्धव भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम कर रहे थे …उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु बह चले थे ।
हे नाथ ! आपने जो भी साधन बताए वो सब मन वश में होने के बाद के हैं …लेकिन जिसका मन वश में नही है …वो क्या करे ? जिसका मन उद्दण्ड है ….अत्यधिक चंचल है …वो कहाँ इन साधनों को कर पाएगा । उद्धव ने प्रार्थना की थी …..कि कोई सरल सा साधन बताइये ना ! जिस साधन से आपके चरणारविन्द का निरन्तर सेवन वो जीव करता रहे । उद्धव ने ये प्रश्न किया था । हे नाथ ! मैं और की क्या कहूँ ….मैं स्वयं मन की चंचलता से दुखी हूँ …..ये उत्तर मुझे ही दीजिए ….क्यों कि भले मैं देवगुरु का शिष्य ….किन्तु मन अभी भी वश में नही है ….फिर आप तक कैसे पहुँचा जाये । नाथ ! कोई सरल सा मार्ग बताइये ना ।
हे प्रिय उद्धव ! तुम्हारी बात सुनकर मुझे प्रसन्नता होती है ….तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति जो निष्ठा है वो विलक्षण है इसलिए मैं तुमसे बहुत प्रसन्न रहता हूँ ……भगवान श्रीकृष्ण बोले ….तुमने प्रश्न किया कि कोई सरल सी साधना बताओ ….तो उद्धव ! सुनो , सबसे सरल साधन तो मेरा “भागवत धर्म” ही हैं…ये विशुद्ध भक्ति का एक मार्ग है । इसमें जो चलता है उसको मैं स्वयं सम्भालता हूँ ….क्यों कि उसका साधन कोई दूसरा है ही नही …न वो किसी देवि देवता पर भरोसा करता है न पितर न अपने रिश्तेदारों पर ….वो भरोसा करता है सिर्फ मेरे पर । वो जो करता है वो मेरे लिए ही करता है …..यानि ये इतना सरल मार्ग है कि इसमें कुछ नया करने की जरुरत ही नही है ….इसमें तो जो कर रहे हो वही करो , लेकिन जो करो वो अपने इष्ट के लिए ही करो…हर कर्म भगवान के लिए जो करता है …वही भक्त है …वही भागवत है । जगत में जो हो रहा है वो सब मेरी लीला मानकर आनन्द लेता हुआ अपने जीवन को बिताये । हे उद्धव ! जिसकी दृष्टि पवित्र हो जाती है उसे सर्वत्र मैं ही दिखाई देता हूँ ….फिर क्या ब्राह्मण और क्या कसाई ? क्या साधु क्या चोर ? ऐसी दृष्टि हो जाती है भक्त की , क्यों कि उनकी दृष्टि में कहीं कोई भेद नही रहता है …..प्रेम के कारण मैं ही मैं उसे दिखाई देता हूँ …..इसलिए भक्ति का मार्ग ही सबसे श्रेष्ठ बताया गया है …हे उद्धव ! भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ……किसी में दोष मत देखो ….किसी को छोटा या बड़ा मत समझो …अपनी दृष्टि सम रखो …तुम पर कोई हंसता है तो हंसने दो ….पर तुम उसको जवाब हंसकर ही दो …..सबको मेरा रूप मानकर दण्डवत प्रणाम करो उद्धव ! चाहे वो कुत्ता हो या चाण्डाल , बैल हो या गधा , सबमें मुझ को देखो । ये शरीर झूठा है …लेकिन इससे तुम सत्य का अनुसंधान करो …भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं …..ये शरीर मरने वाला है लेकिन तुम जल्दी ही इस मरने वाले शरीर से अमृत प्राप्त कर लो ….इसी जीवन से तुम सत्य रूप परमात्मा को पा जाओगे । इतना ही बोलकर भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराने लगे थे …….तब उद्धव उठे भगवान के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया ….फिर सजल नयनों से भगवान की प्रार्थना करने लगे थे । उद्धव का कण्ठ भाव के कारण अवरुद्ध हो रहा था …..”श्रीकृष्ण मुझे छोड़कर चले जाएँगे” ….ये बात मन में आते ही उद्धव बिलख उठे थे । फिर भगवान के उपदेश को स्मरण कर उद्धव शान्त हुए । रुँधे कण्ठ से उद्धव ने कहा …नाथ ! आपके चरणों में मेरी अनपायिनी भक्ति हो । भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव के मस्तक में हाथ रखा था ….उद्धव अब शान्त हैं । बद्रीनाथ जाने की आज्ञा उन्हें मिल चुकी ….किन्तु वो अभी भगवान के चरणों को ही निहार रहे हैं । बोलो ! अब क्या चाहते हो ? भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव से पूछा ।
आधार ….उद्धव इतना ही बोले ।
भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पादुका उद्धव को दे दी ….गदगद उद्धव ने प्रभु की पादुका को अपने सिर में रख लिया था ।
भक्त नरसी मेहता चरित (64) न
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कदाचि त्कालिंदी तटविपिनसंगीतकपरो
मुदा गोपीनारी वदनकमलास्वादमधुपः
रमाशंभुब्रह्मा मरपतिगणेशार्चितपदो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे
हे प्रभु ! आप कदाचित जब अति आनंदित होते है,तब कालिंदी तट के निकुंजों में मधुर वेणु नाद द्वारा सभी का मन अपनी ओर आकर्षित करने लगते हो, वह सब गोपबाल ओर गोपिकाये ऐसे आपकी ओर मोहित हो जाते है जैसे भंवरा कमल पुष्प के मकरंद पर मोहित रहता है, आपके चरण कमलो को जोकि लक्ष्मी जी, ब्रह्मा,शिव,गणपति ओर देवराज इंद्र द्वारा भी सेवित है ऐसे जगन्नाथ महाप्रभु मेरे पथप्रदर्शक हो,मुझे शुभ दृष्टि प्रदान करे,
पण्डित व् अपण्डित विवेचन और आत्म चिँतन महत्व
राजा ने नरसी को प्रभु पुष्प हार अर्पण करवाया की प्रभु तुम्हे वापस देगे तभी तुम् सत्य भक्त माने जाओगे, वरना सजा के हकदार होंगे ।
अर्थात् ‘हे मन ! जबतक तुम आत्मतत्व को पूर्ण रूप से नहीं जान लेते तबतक सभी साधन झूठे है । तुम्हारा मनुष्य -तन भी शरद् -ऋतु की वर्षा के समान व्यर्थ ही चला गया ।
‘ स्नान, सेवा-पूजा, दान करने तथा भस्म लगाकर नेत्रों को रक्तवर्ण बनाने से क्या लाभ ? और तप, तीर्थ सेवन, जप तिलकमाला धारण करने एंव गंगाजल पान करने से ही क्या हुआ ? वेद, व्याकरण और वाणी बोलने, राजा और रंक को पहचानने, देव दर्शन और पूजा करने तथा वर्ण -भेद समझने से क्या हुआ ?
‘ये सब केवल पेट भरने के प्रपंच है । इन साधनों के द्वारा परब्रह्म स्वरूप आत्मा का चिन्तन नहीं हो सकता। इसलिये नरसिंह कहता है कि आत्म दर्शन किये बिना तुमने इस चिन्तामणी के समान मनुष्य -तन को भी व्यर्थ ही गँवा दिया । अतः भाई ! इस व्यर्थ झमेले में कौन पड़े ? शास्त्रार्थ उन्हीं लोगों को मुबारक हो जिन्हें अपनी पेट की पड़ी है । मुझे तो रोटी का टुकड़ा मिल गया तो भी ठीक और न मिला तो भी ठीक-। इस प्रकार भक्तराज ने पंडित – अपंडित का विवेचन किया और आत्म -चिन्तन का महत्त्व बतलाया ।’
भक्तराज के इस निर्भीक विवेचन को सुनकर उपस्थित सब लोग अवाक् हो गये । राजा ने विचार किया कि पूर्ण रूप से परीक्षा किये बिना भक्तराज को दोषी या निर्दोष कुछ भी कहना न्याय विरूद्ध है । तब ऐसा कोई उपाय करना चाहिए जिसमें निरपराधी मनुष्य को दण्ड भी न मिले और अन्य पक्ष को भी पूर्ण सन्तोष हो जाय । इस प्रकार विचार करते -करते सहसा उन्हें एक मार्ग सूझ पड़ा ।
*’उन्होंने एक फूलों का हार मँगाया और उसे हाथ में लेकर कहा- ” भक्तराज ! यद्यपि आपका कथन एकदम सत्य है, फिर भी आपके विरूद्ध इन लोगों की गवाहियाँ होने के कारण सत्य -असत्य का निर्णय करना कठिन हो गया है । अतःमैनें एक उपाय सोचा है जिसमें न्याय भी ठीक -ठीक हो जाय और दोनों पक्षों से किसी को कोई शिकायत करने का मौका न मिले । आप यह पुष्प हार अपने हाथ में लीजिए और राजमंदिर में चलकर ‘ भगवान् राधा-दामोदर ‘ के कण्ठ में समर्पित कर दीजिये ।
मैं स्वयं मन्दिर का ताला बन्द करके चाभी अपने पास रखूँगा, यदि कल प्रातःकाल होने के पहले स्वयं भगवान प्रकट होकर यही हार आपके गले में डाल देंगे तो आपकी निर्दोषता सिद्ध हो जायेगे और यदि ऐसा न होगा तो फिर आपको उचित दण्ड दिया जायेगा ।’*
राजा का अन्तिम फैसला सुनकर भक्तराज ने प्रसन्नता पूर्वक कहा – ” न्याय प्रिय नीतिज्ञ राजन् ! भगवान भक्तवत्सल है । यदि मेरी सच्ची निष्काम भक्ति उनमें होगी तो वह अवश्य अपने कण्ठ का हार मुझे दे देंगे, और यदि ऐसा न भी हुआ तो भी क्या ? मेरे लिये राजमहल और कारागृह समान है । मुझे तो भगवत्कीर्तण करने के लिये कोई भी एक स्थान मिलना चाहिए, इतना ही मेरे लिये बस है ।
‘भक्तराज ने राजा के हाथ से पुष्पहार ले लिया । उन्होंने राजमहल के मन्दिर में जाकर भगवान राधा-दामोदर के कण्ठ में हार डाल दिया और भक्ति पूर्वक प्रणाम करके बाहर निकल आये ।’ राजा ने मन्दिर के ताले को बड़ी सावधानी से बन्द करके चाभी अपने पास रख ली ।
सारंगधर अपना अधिकार प्रदर्शित करते हुए कहा – ‘नरसि़ंहराम ! यदि इस न्याय में तू असफल रहा तो राजा की तलवार से तेरा सिर धड़ से अलग कर दिया जायेगा ।’
भक्तराज नरसी जी ने दृढ़ता पूर्वक कहा – ‘भाई ! राजा के हाथ से, भगवान के मन्दिर में और मेरे नाथ के सामने यदि मेरी मृत्यु हो जाय तो इससे बढ़कर और क्या सौभाग्य की बात होगी ? फिर मेंरे आत्मा को स्वंय यमराज भी नष्ट नहीं कर सकते और इस नाशवान देह के नष्ट होने का मुझे किसी प्रकार का दुःख नहीं है, क्योंकि सत्य के लिये किया गया देहत्याग मुझे अमर बना देगा ।’
इतना कहकर भक्तराज मन्दिर के चौके में बैठ गये और भजन करने लगे । अन्य पक्ष वालों के साथ स्वयं राजा भी वहाँ भक्तराज का न्याय करने के लिये बैठ गये ।
मुझे है इक आस तेरी मन को प्यास तेरी सांवरे साथ तेरा
थाम लो हाथ मेरा अर्ज घनश्याम मेरी,
ना सेवा ना सुमिरन तेरा ना कोई साधन जानू
ज्ञान योग ना कर्म योग ना भक्ति का मार्ग जानू
तेरा ही नाम सुबहो शाम
काम यही हो सांवरे साथ तेरा
मैंने सुना है तुम भक्तों की टेर सुन आते हो
हर संकट में हर मुश्किल में राह दिखलाते हो
ऐसी दया ऐसी कृपा सदा बरसा दो सांवरे साथ तेरा,,,,
कन्हैया मेरी सुन लो पुकार करुणा कर लो उबार
हरी मैं तेरे आई हूं द्वार
मुरलीधर दे दो प्यार नाथ अधम को उबार लेना पल में काम तुम्हारा
तुम चाहो तो कर दो कान्हा बेड़ा पार हमारा
यह मझधार तू पतवार यार तुम ही हो सांवरे साथ तेरा,,
(धुन, मैं तेनु समझावा की,)
क्रमशः ………………!
श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
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श्लोक 10 . 34
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मृत्यु: सर्वहरश्र्चाहमुद्भवश्र्च भविष्यताम् |
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा || ३४ ||
मृत्युः – मृत्यु; सर्व-हरः – सर्वभक्षी; च – भी; अहम् – मैं हूँ; उद्भवः – सृष्टि; च – भी; भविष्यताम् – भावी जगतों में; कीर्तिः – यश; श्रीः – ऐश्र्वर्य या सुन्दरता; वाक् – वाणी; च – भी; नारीणाम् – स्त्रियों में; स्मृतिः – स्मृति, स्मरणशक्ति; मेधा – बुद्धि; धृतिः – दृढ़ता; क्षमा – क्षमा, धैर्य |
भावार्थ
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मैं सर्वभक्षी मृत्यु हूँ और मैं ही आगे होने वालों को उत्पन्न करने वाला हूँ | स्त्रियों में मैं कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति तथा क्षमा हूँ |
तात्पर्य
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ज्योंही मनुष्य जन्म लेता है, वह क्षण क्षण मरता रहता है | इस प्रकार मृत्यु समस्त जीवों का हर क्षण भक्षण करती रहती है, किन्तु अन्तिम आघात मृत्यु कहलाता है | यह मृत्यु कृष्ण ही है | जहाँ तक भावी विकास का सम्बन्ध है, सारे जीवों में छह परिवर्तन होते हैं – वे जन्मते हैं, बढ़ते हैं, कुछ काल तक संसार में रहते हैं, सन्तान उत्पन्न करते हैं, क्षीण होते हैं और अन्त में समाप्त हो जाते हैं | इन छहों परिवर्तनों में पहला गर्भ से मुक्ति है और यह कृष्ण है | प्रथम उत्पत्ति ही भावी कार्यों का शुभारम्भ है |
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यहाँ जिन सात ऐश्र्वर्यों का उल्लेख है, वे स्त्रीवाचक हैं – कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति तथा क्षमा | यदि किसी व्यक्ति के पास ये सभी, या इनमें से कुछ ही होते हैं, तो वह यशस्वी होता है | यदि कोई मनुष्य धर्मात्मा है, तो वह यशस्वी होता है | संस्कृत पूर्ण भाषा है, अतः यह अत्यन्त यशस्विनी है | यदि कोई पढ़ने के बाद विषय को स्मरण रख सकता है तो उसे उत्तम स्मृति मिली होती है | केवल अनेक ग्रंथों पर विजय पाना धृति या दृढ़ता है | पूर्णतया योग्य होकर यदि कोई विनीत भी हो और सुख तथा दुख में समभाव से रहे तो यह ऐश्र्वर्य क्षमा कहलाता है |
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877