🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 3️⃣2️⃣
भाग 1
( माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)
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जब तें राम ब्याही घर आए ……..
📙( रामचरितमानस )📙
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मै वैदेही ! ……………._
सुदिन सोधि कर कंकण छोरे।
मंगल मोद विनोद न थोरे॥
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बोली एक नारी सुनो अवध बिहारी यह शंभुधन है न जाय बैग गहि तोरोगे।
रसिक बिहारी हौ तिहारी चतुराई तब जानौगी सुकंकण की गांठ जब छोरोगे॥
ताछिन छबीली एक दूजी हंस बोली श्याम आज धीरताई वीरताई सब बोरोगे।
तुम पै न तो लौकवै छूटहै छबीलेलाल जौ लौ नाहीं जनकलली के कर जोरोगे॥
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अवध में नित्य उत्सव है………मेरा कँगन खुलेगा अब …….इसका भी अपना उत्सव होगा अवध में ।
ये इस तरफ की रीत है कि कँगन कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण ही खोलता है ……।
और तुम दोनों दम्पति , जो विश्व में अद्वितीय हो ……..तो ऐसे अद्वितीय दम्पति का कँगन कोई साधारण ब्राह्मण कैसे खोल सकता है …..।
ये बात मुझे मेरी सासू माँ कौशल्या जी नें बताया था ।
बहू ! गुरु वशिष्ठ जी बड़े चिंतित हैं ………..विवाह के इस कँगन को खोलनें वाला ……….ब्राह्मण श्रेष्ठ हो ……..और इससे भी बड़ी बात ये होनी चाहिये कि वही ब्राह्मण, दम्पति के कँगन खोलेगा …..जिसनें कभी वेद को बेचा नही है ……….अपनें कर्मकाण्ड का मूल्य नही लिया ।
अब बहू ! तुम ही बताओ …….ऐसा ब्राह्मण कहाँ मिलेगा ?
अब कर्मकाण्ड करवा के तो दक्षिणा हर विप्र लेतें ही है ।
स्वयं गुरु वशिष्ठ जी भी कर्मकाण्ड करवा के …….दक्षिणा को स्वीकार करते ही हैं ………..।
पर खोज में लगे हैं गुरुमहाराज ……….देखो ! कब तक ऐसा अद्भुत ब्राह्मण मिलता है ………..होगा तो कहीं ………।
मेरी सासू माँ नें मुझे आज कहा था …………….।
मेरे अवध में आये हुये तीन चार दिन तो हो ही गए हैं ।
ब्राह्मण मिल गया ! ……..मेरे पुत्र और मेरी पुत्रवधू के कँगन को खोलनें योग्य ब्राह्मण मिल गया ………..
चक्रवर्ती महाराज आज बड़े प्रसन्न थे ……….उन्होंने मेरी सासू माँ को कहा भी था …………….सुनो महारानी ! गुरु महाराज को ऐसा ब्राह्मण मिल गया …………जिसनें कभी वेद और कर्मकाण्ड को बेचा नही है ………जो दक्षिणा मिला…..उसे स्वीकार तो किया पर किसी और को फिर दान में दे दिया ……….।
पर …………………..सोच में पड़ गए चक्रवर्ती महाराज ।
और वहाँ से चले गए थे ।
मै जब वहाँ पहुंची …………..तब चक्रवर्ती महाराज जा चुके थे ……मेरे वहाँ पहुँचते ही मुझे अपनें हृदय से लगा लिया था मेरी सासू माँ नें ।
बहू ! मै बहुत खुश हूँ ….प्रसन्न हूँ ………..पता है आज चार दिन के बाद जाकर गुरु महाराज को एक ऐसा ब्राह्मण मिल गया है ……जो कँगन को खोलेगा …..तुम दोनों के कँगन को ।
मै आनन्दित होगयी थी ………….पर मै लजा भी रही थी ।
कल ही वो ब्राह्मण आरहा है ……..वो ब्राह्मण दक्षिण से आरहा है ।
मुझे बताया था मेरी माँ कौशल्या जी नें ।
वो ब्राह्मण श्रीमन्त लगता है …………….बहू ! चक्रवर्ती महाराज नें उसे लानें की व्यवस्था की …….तो गुरुवशिष्ठ जी नें कहा ……उसके पास स्वयं का विमान है …….वो स्वयं विमान लेकर आएगा ।
ऐसा ब्राह्मण ? श्रीमन्त ब्राह्मण ! लगता है ब्राह्मणों में अपवाद है ये …..है ना बहू ! मुझे ही ये सारी बातें बताती थीं मेरी सासू माँ ।
क्रमशः ….
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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“श्रीकृष्ण का स्वधाम गमन”
भागवत की कहानी – 65
हे राजन्! उद्धव के वहाँ से जाने के बाद …..यदुवंशियों में कलह व्याप्त हो गया ….प्रभाष क्षेत्र में आकर सबने यज्ञ दान आदि तो किए किन्तु बाद में इन सबने मदिरा का पान किया था फिर आपस में लड़ने लगे …..और देखते ही देखते ये लड़ाई भीषण हो गयी थी । सबने अपने ही भाई कुटुम्ब को मारने के लिए अस्त्र शस्त्र उठा लिए थे । श्रीबलभद्र इन सबको बचाने के लिए और युद्ध को रोकने के लिए जैसे ही आगे गये ….इन सब यदुवंशियों ने तो श्रीबलभद्र के ऊपर ही प्रहार करना आरम्भ कर दिया था ।
ये क्या हो रहा है ? श्रीबलभद्र भगवान श्रीकृष्ण के पास आए और उनसे पूछने लगे ।
बस , मुस्कुराए श्रीकृष्ण, कुछ नही बोले । समझ गये श्रीबलराम जी । अच्छा ! तो अपनी लीला समेट रहे हो ? तो पहले मैं जाऊँगा ….ऐसा कहकर श्रीबलराम जी वहाँ ध्यान लगाकर बैठ गये ….और देखते ही देखते उनका देह शेषनाग के रूप में परिणत हो गया था और वो सागर की अनन्त गहराइयों में प्रवेश कर गये थे ।
यदुवंशी आपस में ही लड़कर समाप्त हो चले थे …थोड़े जो बचे थे उनको द्वारिका छोड़कर हस्तिनापुर जाने की सूचना भगवान श्रीकृष्ण ने पहुँचा दी थी । क्यों ? ये प्रश्न जब भगवान श्रीकृष्ण से पूछा गया था तो उनका उत्तर था – आज के सात दिन बाद द्वारिका समुद्र में डूब जाएगी ।
श्रीकृष्ण द्वारिका नही गये …वो प्रभाष क्षेत्र में ही हैं ।
रात हो गयी है …..श्रीकृष्ण के पास कोई नही है …वो अकेले हैं ।
उस रात में वो “जरा” नामका बहेलिया बाण को धनुष में लगाये हिरण को खोज रहा है …..आज इसे कोई शिकार मिला नही था ….और रात भी हो गयी थी किन्तु घर में ऐसे कैसे जाये ….घर वाले भोजन की प्रतीक्षा में हैं …..वो बहेलिया परेशान है ……तभी झाड़ियों में हलचल हुई …बहेलिया प्रसन्न हो गया …हिरण ….वो दबे पाँव आगे बढ़ा …..रात के कारण उसे कुछ दिखाई नही दे रहा ….पास में गया …तो उसे हिरण जैसा ही कुछ लगा …..उसनें बिना कुछ विचारे बाण छोड़ दिया । और जब पास में दौड़ा हुआ गया तो …………………….
मत रो बहेलिये ! मत रो ! मेरी इच्छा को ही तुमने पूरा किया है । प्रभु की करुणामयी वाणी सुनकर …बहेलिया और रोने लगा था कि बाण मारने वाले के प्रति भी इतनी करुणा ! कुछ समय बाद भगवान ने उसे अपने घर भेज दिया था ।
अब आकाश में देवताओं की भीड़ लग गयी है …अब भगवान स्वधाम जायेंगे ….सब देवों को देखना है कि ये कैसे अपने धाम जाते हैं …भगवान संकर्षण की तरह देह बदल लेंगे ? या योगियों की तरह अपने इस देह को योग से जलाकर दिव्य रूप से अपने लोक जायेंगे ?
आकाश में देवताओं के साथ गन्धर्व भी हैं जो बाजे गाजे बजाकर नाच गा रहे हैं ..विधाता ब्रह्मा और भगवान शिव भी पधारे हैं ..भगवान की इस अन्तिम लीला के साक्षी सब बनना चाह रहे हैं।
किन्तु ये क्या ? भगवान श्रीकृष्ण ने एक बार आकाश की ओर देखा तो ये दो अपनी विभूतियाँ ही उन्हें दिखाई दीं …फिर कमल लोचन ने अपने लोचन बन्द कर लिए …बिजली चमकी और वो बिजली कहाँ गयी कोई लक्षित नही कर सका था । जब गोलोक में जाकर देखा ब्रह्मा शिव ने तो भगवान श्याम सुन्दर वहाँ मुस्कुराते हुए विराजमान हैं । सब समझ गये …कि भगवान का देह हमारी तरह नही होता…जिसे छोड़ना पड़े ..वो देह चिन्मय है ..अविकारी है ..चिदानंद से निर्मित है । सब देवों ने वहीं प्रणाम किया था ।
हे राजन्! इस तरह भगवान श्रीकृष्ण अपने स्वधाम चले गये थे …लेकिन वो तो यहाँ भी हैं …कोई इनका गुणगान प्रेम से करता है …तो वो वहीं होते हैं ……ये कहते हुए शुकदेव ने भगवान श्रीकृष्ण को प्रणाम किया था ।
भक्त नरसी मेहता चरित (65)
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गोविंद गोविंद गोपाला
मुरली मनोहर नंदलाला
गोविंद मेरो है गोपाल मेरो है
श्री बाँके विहारी नंदलाल मेरो है👏🌝
श्रीहरि बैकुण्ठ धाम से प्रस्थान निरपधारी भक्तराज की सहायता को व्यथित
किसी मनुष्य का जमा किया हुआ द्रव्य समय पाकर नष्ट हो जाता है, विधा, यौवन और जीवन भी चंचल होने के कारण काल -कर्म के अधीन होकर नष्ट हो जाते है । ‘ परंतु भगवान का भजन कालान्तर में भी नष्ट नहीं होता । उसका फल यदि इस जन्म में न भी मिले तो जन्मान्तर में चक्रवृद्धि ब्याज के साथ मिलता है, परंतु मिलता जरूर है बेकार नहीं जाता ।’
भक्तराज इसी विश्वास को हृदय में रखकर भगवान का भजन कर रहे थे ।
भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिंछं कटितटे
दुकूलं नेत्रांते सहचर कटाक्षं विदधते
सदा श्रीमद्बृंदा वनवसतिलीलापरिचयो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥
आपके बाए हस्त में बांसुरी है और शीश पर मयूर पिच्छ तथा कमर में पीत वस्त्र बंधा हुआ है, आप अपने कटाक्ष नेत्रों से तिरछी निगाहो से अपने प्रेमी भक्तो को निहार कर आनंद प्रदान कर रहे है, और अपनी लीलाओ का जो की वृन्दावन में आपने की उनका स्मरण करवा रहे है और स्वयं भी लीलाओ का आनंद ले रहे है, ऐसे जगन्नाथ स्वामी मेरे पथप्रदर्शक बनकर मुझे शुभ दृष्टि प्रदान करे,
न धर्मनिष्ठोऽस्मि न चात्मवेदी,
न भक्तिमांस्त्वच्चरणारविन्दे।
अकिञ्चनोऽनन्यगतिश्शरण्यं,
त्वत्पादमूलं शरणं प्रपद्ये ।।
हे शरणागत प्रतिपालक ! मैँ धर्म मेँ निष्ठा रखने वाला नहीँ हूँ , आत्मज्ञानी भी नहीँ हूँ तथा आपके श्रीचरणोँ मेँ पूर्ण एवं अनन्य भक्तिभावा भी नहीँ हूँ । मै सव प्रकार के मोक्ष साधनोँ से शून्य अतएव अकिञ्चन हूँ। मेरी रक्षा करने वाला कोई दूसरा नहीँ अपितु एकमात्र आप ही हैँ , अतएव मैँ अनन्यगति हूँ और इसी कारण से मैँ आपके श्रीचरणकमलो के मूल मेँ ही शरण ग्रहण करता हूँ ।।
परंतु यह बात रह-रहकर उनके हृदय में खटक रही थी कि मेरा प्रिय ‘राग केदार तो साठ रुपयों में बन्धक पड़ा हुआ है ।’ उसके बिना भगवान का आवाहन कैसे करूंगा ? उन्होंने भगवान का ध्यान करने की बहुत चेष्टा की, परंतु इस बात के लिये उनका चित विह्वलव हो उठता था । परन्तु उनका मन व् ध्यान पूर्ण रूप से श्रीहरि में ही है ।
॥ श्रीहरि बैकुण्ठ से भक्तराज नरसी के उद्धार हेतु॥
*** ‘दिव्य वैकुण्ठधाम में भगवान श्रीहरि सो रहे थे और जगन्माता श्रीलक्ष्मीजी पादसेवन कर रही थी । आधी रात के समय भगवान एकाएक जाग उठे और मानों कहीं जाने की तैयारी करने लगे । इस प्रकार सहसा उन्हें तैयार होते देख श्रीलक्ष्मीजी सहित समस्त पार्षदों को बड़ा आश्चर्य हुआ ।
श्रीलक्षमीजी हँसते हुए प्रश्न किया- प्राणेश्वर प्रभु ! आज अचानक आपकी निद्रा कैसे भंग हो गयी ? क्या किसी दुर्धर्ष दैत्य का वध करने के लिये आप इस समय उधत हो रहे हैं ? अथवा किसी पशु भक्त गजेन्द्र का उद्धार करना है ?
*श्रीहरि बोले – प्रिये देवी ! तुमलोग इस रहस्य को क्या समझोगी ? मेरी शरण में आये हुए समस्त जीव मुझे एक समान प्रिय है, चाहे वे पशु योनि में हों या देवयोनि में अथवा मनुष्य योनि में हो । परंतु आज तो में एक अपने परम प्रिय निरपधारी भक्त को सहायता देने के लिये जा रहा हूँ, उस निरपराधधी भक्तराज जो —।
इतना कहते -कहते बात अधूरी छोड़ कर भगवान् अत्यन्त शीध्रता से चल पड़े । भक्तवत्सल भगवान ने आज साथ में गरूड़ या किसी पार्षद को भी लेने की आवश्यकता नहीं समझी । भक्तराज के दुःखी हृदय की पुकार सुनकर उनके हृदय में भी व्यथा हो रही थी ।’*
उन्होंने तुरंत , ‘ जूनागढ़़ आकर भक्तराज का सा स्वरूप धारण किया और धरणीधर मेहता ( जिन को भक्तराज नरसीराम केदारराग गिरवे रखी थी ) के घर पर पहुँच ‘ कर उसका दरवाजा खट खटाना आरम्भ किया । ‘
क्रमशः ………………!
श्रीमद्भगवद्गीता
एमएम
बृहत्-साम – बृहत्साम; तथा – भी; साम्नाम् – सामवेद के गीतों में; गायत्री – गायत्री मंत्र; छन्दसाम् – समस्त छन्दों में; अहम् – मैं हूँ; मासानाम् – महीनों में; मार्ग-शीर्षः – नवम्बर-दिसम्बर (अगहन) का महीना; अहम् – मैं हूँ; ऋतूनाम् – समस्त ऋतुओं में; कुसुम-आकरः – वसन्त |
भावार्थ
🪷🪷🪷
मैं सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूँ और छन्दों में गायत्री हूँ | समस्त महीनों में मैं मार्गशीर्ष (अगहन) तथा समस्त ऋतुओं में फूल खिलने वाली वसन्त रितु हूँ |
तात्पर्य
🪷🪷
जैसा कि भगवान् स्वयं बता चुके हैं, वे समस्त वेदों में सामवेद हैं | सामवेद विभिन्न देवताओं द्वारा गाये जाने वाले गीतों का संग्रह है | इन गीतों में से एक बृहत्साम है जिसको ध्वनि सुमधुर है और जो अर्धरात्रि में गाया जाता है |
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संस्कृत के काव्य के निश्चित विधान हैं | इसमें लय तथा ताल बहुत ही आधुनिक कविता की तरह मनमाने नहीं होते | ऐसे नियमित काव्य में गायत्री मन्त्र, जिसका जप केवाल सुपात्र ब्राह्मणों द्वारा ही होता है, सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है | गायत्री मन्त्र का उल्लेख श्रीमद्भागवत में भी हुआ है | चूँकि गायत्री मन्त्र विशेषतया ईश्र्वर-साक्षात्कार के ही निमित्त है, इसलिए यह परमेश्र्वर का स्वरूप है | यह मन्त्र अध्यात्म में उन्नत लोगों के लिए है | जब इसका जप करने में उन्हें सफलता मिल जाती है, तो वे भगवान् के दिव्य धाम में प्रविष्ट होते हैं | गायत्री मन्त्र के जप के लिए मनुष्य को पहले सिद्ध पुरुष के गुण या भौतिक प्रकृति के नियमों के अनुसार सात्त्विक गुण प्राप्त करने होते हैं | वैदिक सभ्यता में गायत्री अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और उसे ब्रह्म का नाद अवतार माना जाता है | ब्रह्मा इसके गुरु हैं और शिष्य-परम्परा द्वारा यह उनसे आगे बढ़ता रहा है |
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मासों में अगहन (मार्गशीर्ष) मास सर्वोत्तम माना जाता है क्योंकि भरत में इस मॉस में खेतों से अन्न एकत्र किया जाता है और लोग अत्यन्त प्रसन्न रहते हैं | निस्सन्देह वसन्त ऐसी ऋतू है जिसका विश्र्वभर में सम्मान होता है क्योंकि यह न तो बहुत गर्म रहती है, न सर्द और इसमें वृक्षों में फूल आते है | वसन्त में कृष्ण की लीलाओं से सम्बन्धित अनेक उत्सव भी मनाये जाते हैं, अतः इसे समस्त ऋतुओं में से सर्वाधिक उल्लासपूर्ण माना जाता है और यह भगवान् कृष्ण की प्रतिनिधि है |
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877