🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 3️⃣2️⃣
भाग 3
( माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)
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जब तें राम ब्याही घर आए ……..
📙( रामचरितमानस )📙
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मै वैदेही ! ……………._
सुदिन सोधि कर कंकण छोरे।
मंगल मोद विनोद न थोरे॥
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बोली एक नारी सुनो अवध बिहारी यह शंभुधन है न जाय बैग गहि तोरोगे।
रसिक बिहारी हौ तिहारी चतुराई तब जानौगी सुकंकण की गांठ जब छोरोगे॥
ताछिन छबीली एक दूजी हंस बोली श्याम आज धीरताई वीरताई सब बोरोगे।
तुम पै न तो लौकवै छूटहै छबीलेलाल जौ लौ नाहीं जनकलली के कर जोरोगे॥
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वैदेही !
वो मुझे देखता रहा ।
फिर उसनें हम दोनों के हाथों में बन्धे कँगन को खोला ।
वो मुझे देखता जा रहा था ।
हे वैदेही ! हे मैथिली ! हे जनक दुलारी !
उसकी आवाज आकाश की तरह गम्भीर थी …………मेरा नाम स्पष्ट सब लोगों के सामनें ले रहा था रावण ।
मैं कुछ नही बोली ………क्या बोलती ?
इस रावण नें आज तक किसी कर्मकाण्ड की दक्षिणा नही ली …….
पर हे सीते ! आज ये रावण तुम्हारे कँगन खोलनें की दक्षिणा चाहता है ।
क्या चाहते हो ? माँगो ? चक्रवर्ती महाराज नें कहा था ।
आपसे कौन मांग रहा है अवधेश !
मै तो इनसे मांग रहा हूँ ………………और इस रावण को दक्षिणा देनें की ताकत केवल इन “वैदेही” में ही है ।
सब चुप हो गए थे …….चक्रवर्ती महाराज भी कुछ न बोल सके थे ।
आप मुझ से माँग सकते हैं ! मेरे रघुनन्दन नें कहा था ।
राम ! राम ! राम ! ये नाम तीन बार बोला था रावण …..फिर हँसा ………नही ………….मै जो माँगनें जा रहा हूँ …….वो तुम भी नही दे सकते राम !
वो तो यही “जगत जननी” ही दे सकतीं हैं !
मैं स्तब्ध थी ………रावण जैसा विद्वान, रावण जैसा कर्मकाण्डी …..और मै इसे जानती हूँ ……क्यों की मेरे पिता जनक जी का ये गुरुभाई है ………जनकपुर में आता जाता रहा है ।
हाँ अहंकार चरम पर है इसका ………………।
पर आज मुझे ये “जगत जननी” कह रहा था ।
मेरे पास आया रावण……और धीरे से कहा……मुझे दक्षिणा में इतना ही दे दो कि मेरी लंका में अपनें चरण रख दो हे वैदेही !
और इतना ही नही……..मेरा उद्धार करो…….फिर हँसा – मेरा ही उद्धार नही ……….मेरे सम्पूर्ण कुल का उद्धार करो …………..।
और ये तुम ही कर सकती हो ……….क्यों की माँ में करुणा होती है ….माँ में अपनें बालक के प्रति स्नेह होता है ……।
आप इस अहंकारी बालक के ऊपर कृपा करोगी…..ये मेरा विश्वास है ।
आप को मेरी बात माननी ही पड़ेगी ……………आपको मेरा उद्धार करना ही पड़ेगा …………ये बातें कोई और सुन नही पा रहा था ……क्यों की रावण बहुत धीरे बोल रहा था …………मेरे श्री रघुनन्दन नें सुना ।
तब रघुपति सीतहि समझाई।
पूर्व कथा सब हेतु सुनाई॥
सुरहित लागि सो करिय उपाई।
चलिये वन परिहरि ठाकुराई॥
तब श्री रामचंद्र जी ने जानकी जी को समझाया और पूर्व कथा अर्थात रावण के मारने के हेतु जन्म लिया है, वह सब सुनाई।
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रावण इतना ही बोलकर चल दिया ………….मै उसे देखती रह गयी ।
मै क्या कहती …………वो क्या बोल कर गया मै समझी भी नही ।
मेरे बगल में श्रीरघुनन्दन बिराजें हैं ………वो जब मेरे पास रहते हैं …तब मै अपनें में रह कहाँ पाती हूँ ….मैं अपनें आपको भूल जाती हूँ ।
रावण !
जग संभव स्थिति प्रलय, जाकी भ्रकुटी विलास।
सो प्रभु यत्न विचारत,केहि विधि निसचर नास॥
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( सीता जी ये सब लिखते हुये आज गहरे चिन्तन में चली गयी थीं )
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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“शुकदेव का अंतिम उपदेश, परीक्षित की मुक्ति”
भागवत की कहानी – 67
हे राजन्! मूल बात ये समझने की है ….कि हम ये देह नही हैं ….हम आत्मा हैं । और वो आत्मा हैं जिसका न जन्म है और न मृत्यु । इसलिए परीक्षित ! “मैं मरूँगा” ये विचार अगर तुम्हारे मन में आता है तो उसे तत्काल त्यागो …..ये पशुबुद्धि है …..क्यों की पशु ही है जो अपने शरीर को ही “मैं” मानकर चलता है ।
शुकदेव अब अंतिम उपदेश कर रहे हैं राजा परीक्षित को ……….
हे राजन्! देह जन्मता है और मरता है …और देह का जन्मना और मरना तुम्हारा जन्मना मरना नही है । तुम जो देख रहे हो अपना जन्म और मृत्यु , ये तो सपना है …सपने में कोई मरता है जन्मता है लेकिन जागने के बाद तो वो हँसता ही है ना । शुकदेव कहते हैं ….यही बात समझने की है परीक्षित ! कि सब सपना है ….और हम सपने को कितनी गम्भीरता के साथ पकड़े हुए हैं ।
हे भगवन्! सपना देखने वाला कौन है ? परीक्षित ने प्रश्न किया ।
आत्मा, शुकदेव बोले । आत्मा ही देह का कटना मरना देखता है ..किन्तु वह स्वयं अजन्मा है ..अमर है ।
शरीर में रहती आत्मा ही है ना ? वही सब देख रही है ….फिर जब शरीर छूट जाता है तब आत्मा कहाँ जाती है ? परीक्षित ने ये प्रश्न किया तो शुकदेव ने हंसते हुए उत्तर दिया ….राजन्! आत्मा का कहीं आना जाना नही होता ….वो यहाँ आयी फिर यहाँ से वहाँ गयी ….ऐसा नही है …आत्मा एक है और सर्वत्र है , सर्वदा है ।
हे गुरुदेव ! फिर शरीर में आत्मा आती है तो जाती भी होगी ….क्यों कि शरीर तो छूट गया ना !
परीक्षित के इस प्रश्न का उत्तर शुकदेव ने बड़ी सरलता से दिया ।
हे परीक्षित ! आकाश यहाँ है कि वहाँ ?
आकाश इधर आया ,इधर से उधर गया …क्या ऐसा है ?
नही ना ?
अब एक आकाश बाहर है …और एक आकाश जब घड़ा बना तो उसके अंदर हो गया ….उस आकाश को कहते हैं घटाकाश । घड़ा फूट गया तो घड़े का आकाश कहाँ गया ? जो बाहर महाकाश था उसमें ही विलीन हो गया …..ऐसे ही आत्मा है ….आत्मा एक ही है आकाश की तरह …देह में प्राप्त अवकाश मिलता है तो वो देह में है …देह ख़त्म हो गया तो वो देह में पड़ी आत्मा परम आत्मा में विलीन हो गयी , शुकदेव सहज भाव से कहते हैं ।
फिर ये भटकाने की सृष्टि कौन कर रहा है ? जिसके कारण ये जीव भटक रहा है …इसकी जन्म और मृत्यु हो रही है ? परीक्षित ने प्रश्न किया तो शुकदेव का उत्तर था ….मन ही भटका रहा है ….मन के साथ तादात्म्य होने के कारण ये जीव भटकता है …..यही मन मिथ्यात्व की सृष्टि करता है । शुकदेव कहते हैं …..ये भटकाव हमारे साथ इसलिए है क्यों कि हम अपने मूल स्वरूप को भूल गए हैं ….ये शरीर ‘मैं’ नही है ….ये मन ‘मैं’नही है …..’मैं’ तो आत्मा है । मैं आत्मा हूँ ….मैं ही उस ब्रह्म का हूँ ……वो ब्रह्म जो है मैं भी वही हूँ ….क्यों कि मैं उसका ही तो हूँ ।
शुकदेव कहते हैं – हे परीक्षित ! इस तरह अपने मूल का विचार करने पर हम पाते हैं कि हम ब्रह्म से अलग नही हैं …..उसकी सत्ता ही हमारी सत्ता है …इसे इस तरह समझो ….जैसे पिता की सत्ता पुत्र की ही है …ऐसे ही ब्रह्म जो है वही मैं हूँ ….मैं ब्रह्म का ही हूँ । वही मेरा रूप है ।
शुकदेव ने ये अन्तिम उपदेश किया और उठ गये …..परीक्षित ने शुकदेव का पूजन किया है ..साष्टांग प्रणाम किया है ….शुकदेव चले गए …परीक्षित ध्यान लगाकर बैठे हैं …तभी तक्षक सर्प आया और परीक्षित के देह को दंश किया …..ये तो देहातीत हो चुके थे …..इनके लिए विमान आया है और विमान में बैठ कर परीक्षित भगवदधाम में चले गये हैं । हे ऋषिवर शौनक ! इस तरह परीक्षित की मुक्ति हुई थी । सूत जी कहते हैं ।
भक्त नरसी मेहता चरित (67)
😌👏👏😌🕉🙇♀🚩
कन्हैया कन्हैया पुकारा करेंगे,
लताओं में बृज की गुज़ारा करेंगे
अगर रूठ जायेंगे हम से बिहारी,
चरण पड़ उनको मनाया करेंगे बनायेंगे
ह्रदय में हम प्रेम मंदिर प्रेम के झूले पे झुलाया करेंगे
🚩🙇♀परंतु भक्तराज को इन सब बातों से क्या प्रयोजन था ? उनके दिल में तो अनायास प्रतिज्ञा प्राप्त हो जाने से भगवान के प्रति अनन्य प्रेम उमड़ पड़ा था । भगवान के हृदय में मेरे -जैसे क्षूद्र जीव के लिये भी स्थान है ‘ इस विचार ने उन्हें पागल बना रखा था और वह बेसुध होकर प्रेमा वेश में नृत्य कर रहे थे । उन्हें यह भी स्मरण नहीं था कि अब प्रातःकाल में कुछ क्षण ही शेष रह गये।
राजा माण्डलिक ने कहा – “भक्तराज ! पागलपन दिखाते – दिखाते तो सबेरा हो आया । अब इस अन्तिम मुहूर्त में यदि आपके कण्ठ में हार नहीं पड़ा तो यह नृत्य आपकी रक्षा नहीं कर सकता । इन फालतू बातों में क्या रखा है , शीघ्र शर्त पुरी कीजिये ।”
राजा की सत्ता-सूचक आवाज सुनकर भक्तराज प्रेम -समाधि से जाग उठे । उस समय पूर्व दिशा में अरुणोदय होने ही जा रहा था । पक्षिगण जाग्रत होकर अपने कलरव से सूर्य भगवान का आवाहन कर रहे थे । भक्तों के हृदय स्थित नटखट नटवर की मनोरम मूर्ति मन्द -मन्द हँस रही थी । भक्त राज मन ही मन में प्रार्थना करने लगे —-
कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च ।
नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नम: ॥
भावार्थ – आप श्रीकृष्ण, वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्दगोप लाडले लाल गोविन्द को हमारा बारम्बार प्रणाम है.
नम: पङ्कजनाभाय नम: पङ्कजमालिने ।
नम: पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये ॥
भावार्थ – जिनकी नाभि से ब्रह्मा का जन्मस्थान कमल प्रकट हुआ है, जो सुन्दर कमलों की माला धारण करते हैं, जिनके नेत्र कमल के समान विशाल और कोमल हैं, जिनके चरमकमलों में कमल का चिह्न है, ऐसे श्रीकृष्ण को मेरा बार-बार नमस्कार है.
यथा हृषीकेश खलेन देवकी कंसेने रुद्धातिचिरं शुचार्पिता ।
विमोचिताहं च सहात्मजा विभो त्वयैव नाथेन मुहुर्विपद्गणात् ॥
भावार्थ – हृषीकेश! जैसे आपने दुष्ट कंस के द्वारा कैद की हुई और चिरकाल से शोकग्रस्त देवकी की रक्षा की थी, वैसे ही पुत्रों के साथ मेरी भी आपने बार-बार विपत्तियों से रक्षा की है. आप ही हमारे स्वामी हैं. आप सर्वशक्तिमान् हैं.
भक्तराज ने मन में विचार किया कि राजा का कथन ठीक ही है । मैं तो भगवान के विश्वास पर बैठा हुआ हूँ , परंतु न मालूम वह क्या विचार कर रहे है । क्या इस समय तक वे निद्रा में ही मग्न पड़े होंगे ? या इस प्रेम यज्ञ में वह मैरा बलिदान लेना चाहते है ? इस प्रकार विचार करते -करते उनके नेत्रों से अश्रु प्रवाह चलने लगा । उन्होंने अपनी करताल सँभाली और केदारराग में प्रेम पूर्ण भजन गाना शुरू कर दिया । उस भजन का भाव इस प्रकार था —
अब न सताओ जल्दी से आओ,
अब न रुलाओ जल्दी से आओ,
ओ कान्हा तेरे बिना मुझको कुछ भी न भाये,
अब न रुलाओ जल्दी से आओ,
अब न सताओ जल्दी से आओ,
अखियाँ तरस गई तेरे दीदार को,
देर न लगाओ मोहन इस लचार को,
कैसे बताऊ कैसे सम्बालू हमेशा तू ही सब में समाये,
अब न सताओ जल्दी से आओ,
कहा जा छुपा है कन्हिया सुन के तो आओ,
जान दे दू गा सच में अब न सताओ,
दिल ने वसे है धड़कन में वसे हो,
तू ही आके स्म्जाओ,
अब न सताओ जल्दी से आओ,
‘दयालु देव ! क्या आपकी प्रीति का यही फल मिलेगा ? परंतु मेरा तो निश्चय है कि मेरी गर्दन की अपेक्षा आपकी लाज का मूल्य कहीं अधिक है । भगवान ! शास्त्र -पुराणों में आपकी महान् उदारता दिखाते हुए कहा गया है कि आपने एक मुट्ठी तन्दुल के बदले सुदामा को कंचन -महल बनवा दिया था, एक धागे के बदले द्रौपदी को 999 चीर प्रदान करके उसकी लाज बचायी थी, कुब्जा का चन्दन ग्रहण करके उसे अनुपम सुन्दरी बना दिया था और गोप-बालकों का गोवर्धनयाग स्वीकार करके उनकी रक्षा के निमित सात दिन पर्यन्त अपनी कनिष्ठिका अँगुली पर गोवर्धनगिरि उठाने का कष्ट उठाया था । तो क्या मेरी बार इस पुष्पहार के लिये ही आप कृपण बन जायँगे ?’
‘परमात्मन ! राजा का कहना ठीक ही है, शर्त पूरी होने से काम चलेगा, अन्यथा इस कार्य में यदि आप विल्मब करेंगे तो माण्डलीक के खड्ग से मेरी मृत्यु हो जायगी । परंतु नाथ ! मैं मृत्यु से डर कर विनय नहीं कर रहा हूँ । मैं डरता हूँ आपकी अपकीर्ति से । यदि शर्त पूरी न हुई तो पीछे संसार आपके नाम पर हँसते हुए कहेगा – ‘नरसि़ंहराम की टेक का क्या अच्छा फल मिला । किन्तु मदनमोहन ! मैं भूल रहा हुँ । यह तो मैं अपने कर्मो का फल भोग रहा हूँ । इसमें आपका बिलकुल दोष नहीं है । परंतु फिर भी नाथ ! आपके सिवा दूसरे किसको पूकारुँ ? अवश्य ही मेरे -जैसे आपके बहुत सेवक है, किन्तु नरसि़ंहराम के तो एक आप ही पति है । प्राण भले ही चले जायँ, भला वह अन्य पति को कैसे खोज सकता है ? मेरे प्राणों की रक्षा आप करें या न करें, मैं तो आपके अतिरिक्त अन्य किसी पति की सेवा स्वीकार नहीं कर सकता और ऐसा निर्लज्ज पति भी कौन होगा जो अपने प्रियजन को अन्य पति के साथ रमण करते हुए देख सके ? ‘
क्रमशः ………………!
श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
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श्लोक 10 . 37
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वृष्णीनां वासुदेवोSस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः |
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः || ३७ ||
वृष्णीनाम् – वृष्णि कुल में; वासुदेवः – द्वारकावासी कृष्ण; अस्मि – हूँ; पाण्डवानाम् – पाण्डवों में; धनञ्जय – अर्जुन; मुनीनाम् – मुनियों में; अपि – भी; अहम् – मैं हूँ; व्यासः – व्यासदेव, समस्त वेदों के संकलकर्ता; कवीनाम् – महान विचारकों में; उशना – उशना, शुक्राचार्य; कविः – विचारक |
भावार्थ
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मैं वृष्णिवंशियों में वासुदेव और पाण्डवों में अर्जुन हूँ | मैं समस्त मुनियों में व्यास तथा महान विचारकों में उशना हूँ |
तात्पर्य
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कृष्ण आदि भगवान् हैं और बलदेव कृष्ण के निकटतम अंश-विस्तार हैं | कृष्ण तथा बलदेव दोनों ही वासुदेव के पुत्र रूप में उत्पन्न हुए, अतः दोनों को वासुदेव कहा जा सकता है | दूसरी दृष्टि से चूँकि कृष्ण कभी वृन्दावन नहीं त्यागते, अतः उनके जितने भी रूप अन्यत्र पाये जाते हैं वे उनके विस्तार हैं | वासुदेव कृष्ण के निकटतम अंश-विस्तार हैं, अतः वासुदेव कृष्ण से भिन्न नहीं है | अतः इस श्लोक में आगत वासुदेव शब्द का अर्थ बलदेव या बलराम माना जाना चाहिए क्योंकि वे समस्त अवतारों के उद्गम हैं और इस प्रकार वासुदेव के एकमात्र उद्गम हैं | भगवान् के निकटतम अंशों को स्वांश (व्यक्तिगत या स्वकीय अंश) कहते हैं और अन्य प्रकार के भी अंश हैं, जो विभिन्नांश (पृथकीकृत अंश) कहलाते हैं |
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पाण्डुपुत्रों में अर्जुन धनञ्जय नाम से विख्यात है | वह समस्त पुरुषों में श्रेष्ठतम है, अतः कृष्णस्वरूप है | मुनियों अर्थात् वैदिक ज्ञान में पटु विद्वानों में व्यास सबसे बड़े हैं, क्योंकि उन्होंने कलियुग में लोगों को समझाने के लिए वैदिक ज्ञान का अनेक प्रकार से प्रस्तुत किया | और व्यास को कृष्ण के एक अवतार भी माने जाते हैं | अतः वे कृष्णस्वरूप हैं | कविगन किसी विषय पर गंभीरता से विचार करने में होते हैं
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कवियों में उशना अर्थात् शुक्राचार्य असुरों के गुरु थे, वे अत्यधिक बुद्धिमान तथा दूरदर्शी राजनेता अथे | इस प्रकार सुक्राचय कृष्ण के ऐश्र्वर्य के दुसरे स्वरूप हैं |
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877