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🙏🥰 श्रीसीताराम शरणम् मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 3️⃣3️⃣
भाग 1
( माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)
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विमल वंश यह अनुचित एकु……..
📙( रामचरितमानस )📙
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मैं वैदेही !
मेरे श्रीराम …..नही नही “मेरे” नही, सबके श्रीराम ।
जन जन के श्रीराम..सम्पूर्ण आस्तित्व के श्रीराम…आस्तित्व ही श्रीराम ।
आप लोग कल्पना भी कर सकते हैं कि मेरे श्रीराम कितनें बड़े त्यागी हैं ……आप लोग कल्पना भी कर सकते हैं कि मेरे श्रीराम कितनें बड़े वैराग्यवान् हैं ……. शायद नही ।
इस त्रिभुवन में मेरे श्रीराम जैसा त्याग किसका है ?
ओह ! जो व्यक्ति अपनें आपको भी त्याग देता है…….वो हैं मेरे श्रीराम ।
वैराग्य इतना कि राग तो मानों इनके जीवन में कभी था ही नही ।
मेरे अवध में आये हुए 4 महिनें लगभग हो गए थे ………….
एक दिन दोपहर में मेरे श्रीराम महल में आये ……..परेशान थे …..हाँ उनकी परेशानी उनके मुख मण्डल पे स्पष्ट देखी जा सकती थी ……।
वो आये और बैठनें जा रहे थे ….पर वो बैठे नही ……..खड़े ही रहे ……..मैने जल ला कर दिया उन्हें ।
उन्होंने जल पीया……………. फिर झरोखे के पास में आगये ……. उद्विग्नता उनमें साफ दीख रही थी ।
हे नाथ ! आप परेशान लग रहे हैं क्या बात है ?
मुझे पूछना चाहिए …………मैने उनसे पूछा ।
मेरी और देखा मेरे श्रीराम नें …………….फिर अपनी नजरें हटा लीं मेरी और से …….फिर झरोखे से शून्य आकाश को देखनें लगे थे ।
नाथ ! मैं आपकी अर्धांगिनी हूँ …………आप मुझे बताएं कि क्या हुआ ऐसा जिसके कारण आप इतनें परेशान हैं ।
हे सीते ! मेरा नाम लिया मेरे प्रभु नें ……………
इस रघुकुल में आज तक अनुचित कुछ नही हुआ था …..पर आज !
क्या हुआ नाथ ! आज क्या हुआ ?
बहुत गलत हो रहा है ……………मेरे श्रीराम परेशान थे …..।
मुझे आप कहें ……..कुछ न छुपाएँ नाथ ! मैने कहा ।
सीते !
कल मुझे अयोध्या के युवराज पद पर अभिषिक्त किया जायेगा ।
किस मिट्टी के बनें हैं मेरे नाथ मैं आज तक समझ नही पाई ।
ये मेरे श्रीराम हैं ……………..जो स्वयं के राज्याभिषेक की बात सुनकर दुःखी हो जाते हैं ………और वो चाहते हैं कि मेरा भाई क्यों नही ?
जन्मे एक संग सब भाई।
भोजन शयन केलि लरिकाई॥
करण वेध उपवीत विवाहा।
संग संग सब भयउ उछाहा॥
विमल वंश यह अनुचित एकू।
अनुज विहाय बड़ेहि अभिषेकू ॥
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सीते ! मै दुःखी इसलिए हूँ कि हम चारों भाइयों का जन्म साथ साथ हुआ ……………खेले साथ साथ, पढ़े साथ साथ …….और तो और विवाह भी हम लोगों का साथ साथ ही हुआ …….।
फिर ये अनुचित कार्य आज क्यों हो रहा है ……….कि अन्य भाइयों को छोड़कर मेरा ही अभिषेक ?
क्रमशः ….
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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“इति श्रीमद्भागवते”
भागवत की कहानी – 68
भागवत धर्म कहती है ….आप जो करो उसे भगवान के लिए करो । आपकी हर क्रिया भगवान के लिए हो ….तो वही भागवत धर्म कहलाएगी । बाजार जारहे हो , सब्जी ख़रीदने जा रहे हो ….लेकिन अगर ये भावना बना लो कि ये सब्जी मैं भगवान के लिए बनाऊँगा उन्हें ही भोग लगाऊँगा, उनके लिए ही ख़रीदने जा रहा हूँ , ऐसी भावना रखोगे तो भागवत धर्म वही हो जाएगा ।
आप शरीर से , वाणी से , मन से , इंद्रियों से जो करते हो वो अगर सब भगवान को अर्पण करते चलो तो आप पाप पुण्य से बचे रहोगे और भगवान के प्रति आपका अनुराग दृढ़ हो जाएगा ।
आप चिंतन कीजिए भगवान का । कैसे भी कीजिए । वासना के साथ कीजिए …आपकी शादी नही हो रही , या आपके बच्चे नही हो रहे …आप भगवान से कहिए ….आपको ग़ुस्सा आरहा है ….आप अपना गुस्सा किसी ओर पर क्यों उतार रहे हैं ….भगवान पर उतारिये ….बुरा भला भगवान को कहिए ….उन्हें शिकायत कीजिए …झगड़िए । डरिये …अब डरना भी हो तो भगवान से ही डरिये …गलत कभी हो जाए हमसे ….तो डरिए भगवान से । जैसे – गलत काम करने पर हम अपने मालिक से डरते हैं ना , ऐसे ही डरिए । स्नेह कीजिए तो भगवान से …अपने हृदय के स्नेह को भगवान की ओर मोड़िये । यानि अपनी सभी वासनाओं को संसार से हटा कर भगवान की ओर घुमाइये ….मोड़िये । इसे ही कहते हैं – “भागवत धर्म”। सूत जी कहते …शौनक से ।
भगवान को तुम्हारा मन चाहिए …..भगवान तुमसे धन नही चाहते । भगवान तुमसे भोग आदि भी नही चाहते । भगवान तुमसे तप व्रत आदि नही चाहते …..भगवान सिर्फ तुमसे तुम्हारा मन चाहते हैं , अपना ध्यान तुम भगवान में लगाओ …भगवान ये चाहते हैं। भगवान को अपना मन दो ….भगवान को अपनी बुद्धि दो ….भगवान को अपना चित्त दो …और भगवान को अपना अहंकार सौंप दो । मैं भगवान का हूँ ….बस – ये अहंकार रहे । सूत जी कहते हैं …..मैं भगवान का हूँ …ये अहंकार भी हमारी मुक्ति के द्वार खोल देती है ।
आसक्ति बंधन का कारण है …किन्तु वही आसक्ति अगर भगवान से हो तो तुम्हारे लिए यही आसक्ति मुक्ति के द्वार खोल देगी ।
कुल मिलाकर “भागवत धर्म” उसे कहते हैं ….जिसमें सामान्य सी वासना को भी मनुष्य साधना बनाकर भगवान तक पहुँच सकता है ये “भागवत धर्म” है । “भागवत धर्म” में क्रिया नही देखी जाती …भाव देखा जाता है ।
हे साधकों ! भागवत धर्म ही कलियुग में श्रेष्ठ धर्म है …..इसलिए इस धर्म का पालन करते हुए भगवान की अहैतुकी भक्ति को प्राप्त करो । ये भागवत धर्म सरल और सहज है । सूत जी अंतिम में कहते हैं …..भगवान के नाम का सदैव स्मरण करो …ये भागवत धर्म का सार है ।
और भागवत इतने पर विश्राम ले लेती है ।
इति श्रीमद्भागवते…….
H hu
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॥ भक्तराज नरसी को भक्तवत्सल भगवान से हार प्राप्त॥
भक्तराज नरसीराम श्रीहरि से प्रार्थना करते हुए कह रहें है —
‘परमात्मन ! राजा का कहना ठीक ही है, शर्त पूरी होने से काम चलेगा, अन्यथा इस कार्य में आप विलम्ब करेंगे तो । राजा माण्डलिक के खड्ग से आपके इस भक्त की मृत्यु हो जायेगी ।
परन्तु ” नाथ ! मैं मृत्यु से नही डरकर विनय नही कर रहा , परन्तु आपकी कीर्ति यदि शर्त पूरी न हुई, तो इस संसार में आपका नाम लेकर लोग हँसते हुये कहा करेंगे कि ‘ नरसी राम को श्रीहरि की टेक का फल अच्छा मिला ?’ किन्तु प्रभु ! यह तो मैं कर्मो का फल भोग रहा हूँ । आपका इसमें बिलकुल दोष नही है ।
परन्तु फिर भी फिर भी मेरे नाथ ! मैं आपके सिवा दुसरे किसको पुकारू ? अवश्य ही आपके मेरे जैसे बहुत से सेवक है ;
‘किन्तु मेरे तो आप ही केवल ऐक ही पति है, प्राण भले ही चले जाए, मैं अन्य स्वामी कैसे खोज सकता हूँ ? मेरे जीवन की रक्षा आप करे या न करे ? मैं तो आपके सिवा अन्य किसी पति की सेवा नही कर सकता ? और ऐसा निर्लज्ज पति कौन होगा जो अपने प्रिय जन को अन्य पति के साथ रमण करते हुये देख देख सके ? । दयालु दामोदर ! जैसा भी है यह नरसि़ंहराम आपका ही है। उसे चाहे जिलाइये या मार डालिये। “
बस, भला भक्तवत्सल भगवान इससे अधिक प्रेमोपालम्भ कैसे सहन कर सकते थे ? उन परीक्षक ने अब अधिक परीक्षा लेना उचित नहीं समझा । उधर क्षितिज में ज्यों ही भगवान भुवन भास्कर ने अपने वरेण्य भर्ग की सबसे पहली झाँकी दिखायी, त्यों ही इधर ‘राजभवन के मन्दिर के द्वार की लोहे की मजबूत जंजीर और ताला धङ़ाधङ़ टुटकर जमीन पर गिर पड़ा, फाटक अपने -आप खुल गया और एक दिव्य ज्योति मन्दिर से निकल कर भक्तराज की ओर चलने लगी ।’ वहाँ उपस्थित सब लोग आश्चर्य के मारे आँखें फाड़ -फाड़कर यह अलौकिक दृश्य देखने लगे ।
भक्तराज के पास पहुँचने पर उस आलोक मण्डल के अन्दर भगवान् मुरलीमनोहर का धुतिमय स्वरूप दिखाई पड़ा और ‘भगवान ने सबके देखते -देखते अपने कण्ठ का हार उतार कर भक्तराज के गले में पहना दिया-।” हार गले में पङ़ते ही भक्तराज उच्च। स्वर से बोल उठे — ‘ == = बोलो भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र की जय? ॥ ===
क्रमशः ………………!
श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
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श्लोक 10 . 38
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दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् |
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् || ३८ ||
दण्डः – दण्ड; दमयताम् – दमन के समस्त साधनों में से; अस्मि – हूँ; नीतिः – सदाचार; अस्मि – हूँ; जिगीषताम् – विजय की आकांशा करने वालों में; मौनम् – चुप्पी, मौन; च – तथा; एव – भी ; अस्मि – हूँ; गुह्यानाम् – रहस्यों में; ज्ञानम् – ज्ञान; ज्ञान-वताम् – ज्ञानियों में; अहम् – मैं हूँ |
भावार्थ
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अराजकता को दमन करने वाले समस्त साधनों में मैं दण्ड हूँ और जो विजय के आकांक्षी हैं उनकी मैं नीति हूँ | रहस्यों में मैं मौन हूँ और बुद्धिमानों में ज्ञान हूँ |
तात्पर्य
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वैसे तो दमन के अनेक साधन हैं, किन्तु इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है दुष्टों का नाश | जब दुष्टों को दण्डित किया जाता है तो दण्ड देने वाला कृष्णस्वरूप होता है | किसी भी क्षेत्र में विजय की आकांक्षा करने वाले में नीति की ही विजय होती है | सुनने, सोचने तथा ध्यान करने की गोपनीय क्रियाओं में मौन ही सबसे महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मौन रहने से जल्दी उन्नति होती है | ज्ञानी व्यक्ति वह है, जो पदार्थ तथा आत्मा में, भगवान् की परा तथा अपरा शक्तियों में भेद कर सके | ऐसा ज्ञान साक्षात् कृष्ण है |
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877