Niru Ashra: श्रीकृष्णकर्णामृत - 35
उर आवत हैं कोई भागिन के…..
पर्याचितामृत-रसानि पदार्थ-भङ्गी-
वल्गूनि वल्गित-विशाल-विलोचनानि
बाल्याधिकानि मद-वल्लवभाविनीभि-
र्भावे लुठन्ति सुकृतां तव जल्पितानि । ३३ ।
हे साधकों ! रस राज्य में बिल्वमंगल के साथ अनेकानेक दिव्यातिदिव्य लीलाएं घटित हो रही हैं ….उसी क्रम में कुँज के द्वार पर बैठे बिल्वमंगल एक लीला का दर्शन करते हैं ….इस लीला के दर्शन से बिल्वमंगल भाव सिन्धु में अवगाहन करने लगते हैं …..उस समय वो सब कुछ भूल जाते हैं ….और उस लीला में खो जाते हैं । लीला क्या देखी ?
तो बिल्वमंगल कहते हैं …..वो बैठा हुआ है …बालक के समान चंचल श्रीकृष्ण । बालकों में जो सहज मनोहरता दिखाई देती है …उससे भी कुछ अधिक श्रीकृष्ण में दिखाई दे रही है । इसके चारों ओर गोपियाँ बैठी हैं …..और वो सब गोपियाँ मन्त्र मुग्ध होकर श्रीकृष्ण को ही देखें जा रही हैं …..श्रीकृष्ण को ही सुन रही हैं । और वो श्रीकृष्ण ! वो तो सुधा धारा से ओतप्रोत है ……साँस लेते हुए भी वो बोल रहा है और छोड़ते हुए भी ….जैसे बालक करते हैं । वो अपनी ही बातें कितनी तन्मयता से बता रहा है ….बिल्वमंगल कहते हैं ….वो अपनी बातें बताते हुये नयनों को भी घुमा रहा है ….कभी भौं को उठाकर चकित होने का स्वाँग करता है तो कभी चौंकने का । कभी वो रस भरी बातें चटखारे लेकर बताता है तो कभी किसी बात पर खुल कर हँसता है ….उसकी ये रस भरी वार्ता बृजगोपियाँ ही सुन पा रही हैं ….क्यों कि वो इन्हीं को सुनाने के लिए ही ये सब कर रहा है ।
‘हाँ’…….चकित भाव से कहते हुए अपने कमल नयनों को श्रीकृष्ण पूर्ण खोल देते हैं….और अपनी ये अन्तरंग गोष्ठी को विराम देकर चले जाते हैं । जाते हुए श्रीकृष्ण को बिल्वमंगल देखते हैं ….गोपियाँ भी देख रही हैं …फिर दूर जाकर श्रीकृष्ण गोपियों की ओर मुड़ते हैं और अपने अधरों में तर्जनी रखकर गोपियों को ये बातें न बताने के लिए कहते हैं ।
आहा ! क्या सुन्दर झाँकी थी वो ….बिल्वमंगल आह भरते हैं ।
अच्छा ! झाँकी तो सुन्दर थी लेकिन बिल्वमंगल ! तुमने श्रीकृष्ण की बातें सुनी ?
नहीं , दुखी होकर बिल्वमंगल बोले । फिर कुछ देर में कहते हैं – मेरे इतने सौभाग्य कहाँ ! उस वार्ता को तो वही सुन सकते हैं जिसके ऊपर इन बृजगोपियों की कृपा हो ….फिर अनेक जन्मों के सुकृत भी तो चाहिए । ये लीला और इस लीला की रसमयी वार्ता सबके भाग में नही होती ।
बिल्वमंगल आगे कहते हैं …..”भावे लुठन्ति” और जिनको इन लीलाओं की स्फूर्ति होने लगती है …जिनके हृदय में ये लीलाएं प्रकट हो जाती है …फिर तो चमत्कार हो जाता है …क्या चमत्कार होता है ? भाव फिर अपने नाना रंगों में खिल जाता है ……भाव हृदय में नृत्य करने लग जाता है ….हृदय के आकाश में वो भाव इन्द्रधनुष बनकर रंगों के सौन्दर्य को फैलाने लगता है ।
लेकिन बिल्वमंगल फिर कहते हैं ….”किसी किसी भागवान के ही भाग में ये लीला स्फूर्ति जागती है , सबके हृदय में इस भाव का आना असम्भव ही है” ।
“नहीं योगिन के , न वियोगन के , उर आवत हैं कोई भागिन के”
पर वो भाग भी तब जागता है ….जब किसी महाभाग प्रेमियों की कृपा हो ।
ये बात फिर बिल्वमंगल हुए उस रस राज्य के रज लोटने लग जाते हैं ।
क्रमशः…..
Hari sharan
] Niru Ashra: 🙏🥰 श्रीसीताराम शरणम् मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…4️⃣4️⃣भाग 3
( माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)
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समाचार निषाद जब पाये …..
📙( रामचरितमानस )📙
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मैं वैदेही !
आपको चौदह वर्ष वन में ही तो बितानें हैं ना …….तो यहीं बिताइये ना !
भोले पन में एक मिठास होती है ……।
नही …………आप जिद्द न करें …………हे निषाद राज ! हम घूम घूम कर ………..चौदह वर्ष बिताना चाहते हैं …………वैसे भी वनवासी एक जगह कहाँ रहता है ……………!
बस – एक दिन ………………श्रीराम नें कहा ।
हे प्रभु ! सेवक प्रार्थना ही तो कर सकता है …………मानना न मानना ये तो स्वामी के हाथ है ………..आप जिस में प्रसन्न हों …….आप वहीं करें ……मैने तो अपनें हृदय के उदगार व्यक्त किये थे ।
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई।
करुणासागर कीजिए सोई॥
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निषाद राज नें बड़े भोलेपन से कहा था ।
हम पत्तों पर ही सोयेंगें ………..तपश्वी का भेष धारण किये हैं…………तो आचरण भी होनें चाहिये ना तपश्वी जैसे ।
श्रीराम नें इशारे से उस स्थान को बताया ……जहाँ आज रात्रि निवास करना है …….और पत्तों की शैया बनानें का आदेश भी दे दिया ।
लै रघुनाथहि ठाव दिखावा।
कहेउ राम सब भाति सुहावा ॥
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मन कहाँ मानता उन प्रेमी भक्त निषाद राज का …की अपनें आराध्य को पत्तों की शैया में सुलाएं ……….पर श्रीराम की आज्ञा !
पिता जनक जग विदित प्रभाऊ।
ससुर सुरेश सखा रघुराऊ॥
रामचंद्र पति सो बैदेही।
सोबत महि विधि वाम न केही ॥
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भाव है
स्त्री के भाग्य का निर्णय ,,, पिता ,,,, ससुर और पति के योग्य मिलने पर निर्भर है
पत्तों की शैया लगा दी ………मेरे श्रीराम और मैं उसमें सो गए थे ।
पर मुझे नींद नही आयी थी ……..मुझे नींद आती भला ! मेरे स्वामी श्रीराम पत्तों पर सो रहे हैं …………और मुझे नींद आजाती ?
मैं जगी हुयी थी ……….मैं सब सुन रही थी ……लक्ष्मण भैया और निषाद राज की वो चर्चा ! क्या दिव्य चर्चा थी वो ।
आप नही सोयेंगें कुमार !
बैठे देखा लक्ष्मण को …….तो पास में चले गए थे निषाद राज ।
आप नही सोयेंगें कुमार !
नही……मेरे बड़े भैया पूज्या भाभी माँ………ये पत्तों पर सो रहे हैं ।
थोड़े विचलित से हो गए थे लक्ष्मण ।
कुमार ! एक बात कहूँ ?
निषाद राज नें लक्ष्मण भैया से कुछ कहना चाहा ।
हाँ ………कहिये ! निश्चिन्त होकर कहिये निषाद राज !
कुमार !
कैकेई नें अच्छा नही किया ।
केकईनंदनि मंद मति, कठिन कुटिल पन कीन्ह। जेहि रघुनंदन जानकिहि, सुख अवसर दुख दिन्ह॥
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भाव है— लक्ष्मण जी को निषादराज के मोह को दूर करना है, “जीव करम बस दुख सुख लागी ” के अनुसार ,,,,,,, निषाद राज को श्री रामजी को जीव समझकर मोह हुआ
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……..निषाद राज की आँखें फिर गीली हो गयीं थीं ।
लंबी साँस ली ये बात सुनते ही लक्ष्मण भैया नें ।
पता है निषाद राज ! ये बात मै भी सोचता था ………..मै भी सोचता था कि कैकेई नें बहुत गलत किया …………
पर पता है निषाद राज ! मेरी माता सुमित्रा नें मुझे एक बात बताई ……
उन्होंने मुझ से कहा ……….किसी का कोई दोष नही है !
बोले लखन मधुर मृदु बानी।
ज्ञान विराग भक्ति रस सानी॥
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता।
निज कृत कर्म भोग सब भ्राता॥
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हे निषाद राज ! हम जब किसी को दोष देते हैं ……दूसरों की बुराई में हमारी रूचि होनें लग जाती है …..तब समझना कि हम अध्यात्मतत्व से दूर होते जा रहे हैं ………और अध्यात्म का अभिप्राय है …….अपनें आप से सम्बन्ध ………यानि हम अपनें आपसे दूर हो जाते हैं ….जब हम किसी की निन्दा करते हैं ।
ये सृष्टि का चक्र है निषाद राज ! ये घूमता ही रहता है ………….कभी दुःख है तो कभी सुख है …………….दुःख आया है …..तो पक्का समझना कल सुख आएगा ………..सुख आया है तो दुःख आएगा ।
यहाँ एक वस्तु स्थिर कहाँ है ?
लक्ष्मण भैया श्रीराम के चरणों को देखते हुए बोले जा रहे थे ……और वीरासन में बैठे निषाद राज सुन रहे थे ….लक्ष्मण भैया की एक एक बात ……….सुन तो मैं भी रही थी ।
जीवन में जिसनें सुख और दुःख इन दोनों को …………..समान रूप से समझ लिया है ……..तब वह अपनें मूल की और बढ़ रहा है ये समझना चाहिये …………..।
प्रभु श्रीराम को मैने देखा है निषाद राज !
इनके राज्याभिषेक की बात थी……….तब इन्हें कोई ख़ुशी नही थी ।
और दूसरे ही क्षण इन्हें वन में आना पड़ा …..कोई दुःख नही था ।
समान रखना अपनें आप को ………….ये सिखाया है मेरे श्रीराम नें ।
लक्ष्मण बोलते गए …….निषाद राज सुनते रहे ……………..
अस बिचार नहि कीजिअ रोसू।
काहुहि बादि न देइअ दोसू ॥
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मैं भी सुनती रही थी लक्ष्मण भैया की वो बातें ………
पर मुझे भी कुछ समय बाद नींद आगयी थी …………….।
शेष चरिञ अगले भाग में………._
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 11 : विराट रूप
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श्लोक 11.33
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तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रुन्भुंक्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भाव सव्यसाचिन् || ३३ ||
तस्मात् – अतएव; त्वम् –तुम; उत्तिष्ट – उठो; यशः – यश; लभस्व – प्राप्त करो; जित्वा – जीतकर; शत्रून् –शत्रुओं को; भुङ्क्ष्व – भोग करो; राज्यम् – राज्य का; समृद्धम् – सम्पन्न; मया –मेरे द्वारा; एव – निश्चय ही; एते – ये सब; निहताः – मारे गये; पूर्वम् एव – पहलेही; निमित्त-मात्रम् – केवल कारण मात्र; भव – बनो; सव्य-साचिन् – हे सव्यसाची |
भावार्थ
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अतः उठो! लड़ने के लिएतैयार होओ और यश अर्जित करो | अपने शत्रुओं को जीतकर सम्पन्न राज्य का भोग करो |ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं और हे सव्यसाची! तुम तो युद्ध मेंकेवल निमित्तमात्र हो सकते हो |
तात्पर्य
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सव्यसाची का अर्थ है वह जो युद्धभूमि में अत्यन्त कौशल के साथ तीर छोड़ सके | इस प्रकार अर्जुनको एक पटु योद्धा के रूप में सम्बोधित किया गया है, जो अपने शत्रुओं को तीर सेमारकर मौत के घाट उतार सकता है | निमित्तमात्रम् – “केवल कारण मात्र” यह शब्द भीअत्यन्त महत्त्वपूर्ण है | संसार भगवान् की इच्छानुसार गतिमान है | अल्पज्ञ पुरुषसोचते हैं कि प्रकृति बिना किसी योजना के गतिशील है और सारी सृष्टि आकस्मिक है |ऐसा अनेक तथाकथित विज्ञानी हैं, जो यह सुझाव रखते हैं कि सम्भवतया ऐसा था, या ऐसाहओ सकता है, किन्तु इस प्रकार के “शायद” या “हो सकता है” का प्रश्न ही नहीं उठता | प्रकृति द्वारा विशेष योजना संचालित की जा रही है | यह योजना क्या है? यह विराट जगत् बद्धजीवों के लिए भगवान् के धाम वापस जाने के लिए सुअवसर (सुयोग) है | जब तकउनकी प्रवृत्ति प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व स्थापित करने की रहती है, तब तक वे बद्धरहते हैं | किन्तु जो कोई भी परमेश्र्वर की इस योजना (इच्छा) को समझ लेता है औरकृष्णभावनामृत का अनुशीलन करता है, वह परम बुद्धिमान है | दृश्यजगत की उत्पत्तितथा उसका संहार ईश्र्वर की परम अध्यक्षता में होता है | इस प्रकार कुरुक्षेत्र कायुद्ध ईश्र्वर की योजना के अनुसार लड़ा गया | अर्जुन युद्ध करने से मना कर रहा था,किन्तु उसे बताया गया कि परमेश्र्वर की इच्छानुसार उसे लड़ना होगा | तभी वह सुखीहोगा | यदि कोई कृष्णभावनामृत से पूरित हो और उसका जीवन भगवान् की दिव्य सेवा में अर्पित हो, तो समझो कि वह कृतार्थ है |
Niru Ashra: श्री भीष्म पितामह
23-
उसी समय भगवान् श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए प्रवेश किया। उन्होंने कहा-‘आज घोड़ों की देखभाल करने में विशेष विलम्ब हो गया, कहिये आप लोग चुपचाप क्यों बैठे हैं?’ युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर कहा-‘प्रभो! आपसे क्या छिपा है? क्या आप नहीं जानते कि भीष्म पितामह ने हम पाँचों भाइयों को मारने के लिये पाँच बाण निकाल रखे हैं। हम लोग इसी चिन्ता में थे कि अब हमारी रक्षा कैसे होगी? हमारा जीवन आपके हाथ में है, आपकी इच्छा हो सो कीजिये। बचाइये न बचाइये, हम कुछ नहीं जानते।’
भगवान् हँसने लगे। उन्होंने कहा-‘आज का बचाना न बचाना हमारे हाथ में नहीं है। आज द्रौपदी चाहे तो तुम लोग बच सकते हो।’ द्रौपदी बोल उठीं-‘प्रभो! आप क्या कहते हैं? क्या मैं अपने प्राणप्रिय स्वामियों को बचाने की चेष्टा न करूँगी? यदि मेरे बलिदान से भी इन लोगों की रक्षा होती हो तो आप शीघ्र बतावें।’ भगवान् ने कहा-‘बलिदान करने की कोई बात नहीं है, तुम्हें मेरे साथ भीष्म पितामह के पास चलना पड़ेगा।’ द्रौपदी तैयार हो गयी, आगे-आगे द्रौपदी और पीछे-पीछे भगवान् श्रीकृष्ण चलने लगे। इस प्रकार उन्होंने पाण्डवों की सेना के अंदर का मार्ग समाप्त किया।
कौरवों की सेना में प्रवेश करने के पहले ही भगवान् ने कहा कि द्रौपदी! तुम्हारा और सब शरीर तो चादर से ढका है, परंतु तुम्हारी जूतियाँ साफ दीख रही हैं। उनके पंजाबी होने के कारण सब लोग समझ जायेंगे कि पंजाब की बनी हुई जूतियों को पहनकर द्रौपदी ही जा रही है। तब मुझ पर लोगों को संदेह हो जायेगा, इसलिये तुम अपनी जूतियाँ मुझे दे दो, इससे तुम्हें लोग नहीं पहचान सकेंगे और मुझे भी जूती लिये देखकर सामान्य सेवक ही समझेंगे। द्रौपदी ने कुछ संकोच के साथ, परंतु प्रेम में मुग्ध होकर अपनी जूतियाँ भगवान् को दे दीं। भगवान् की भक्तवत्सलता स्मरण करके आनन्द-विभोर द्रौपदी आगे-आगे चल रही थी और अपने पीताम्बर में द्रौपदी की जूती लपेटकर उसे कांख में दबाये हुए पीछे-पीछे श्रीकृष्ण चल रहे थे। क्या है जगत् में कोई इतना दीनवत्सल स्वामी?
भीष्म उस समय अपनी शय्या पर बैठे हुए भगवान् का चिन्तन कर रहे थे, वे सोच रहे थे-मेरा जीवन भी कितना गया-बीता है। जिनके पक्ष में भगवान् हैं उनके विरोधियों के पक्ष में मैं हूँ। केवल पक्ष में ही नहीं हूँ, उनका अन्न खाकर मैंने अपना शरीर पुष्ट किया है, उन्हीं की ओर से लड़ रहा हूँ और आज तो दुर्योधन की बात में आकर मैंने अपने हृदय के विरुद्ध, आत्मा के विरुद्ध पाण्डवों को मारने की प्रतिज्ञा भी कर ली। मेरे इस अपराध की सीमा नहीं है। क्या भगवान् कोई उपाय करके पाण्डवों को बचायेंगे! हे प्रभो! इन बाणों की शक्ति हर लो, जिससे ये मेरे चलाने पर भी पाण्डवों को न मार सकें। मैं नीचों का संगी हूँ, तुम्हारे भक्तों का अपराधी हूँ। तुम्हारे चरणों में मेरा प्रेम नहीं, मेरा यह जीवन व्यर्थ है। भीष्म पितामह यही सब सोच रहे थे, उनके हृदय में शत-शत वृश्चिक-दंशन की भाँति पीड़ा का अनुभव हो रहा था। आँखों से आँसू की अजस्र धारा बह रही थी। ऐसी ही परिस्थिति में द्रौपदी ने जाकर उनके चरणों में प्रणाम किया। भीष्म ने अधखुली आँखों से देख और सोचा कि दुर्योधन की स्त्री होगी। उन्होंने अपनी उसी विचारधारा में तल्लीन रहते हुए ही कह दिया- ‘बेटी! तुम्हारा सुहाग अचल रहे।’ द्रौपदी अपना सिर नीचा करके अलग खड़ी हो गयी। हँसते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने प्रवेश किया। श्रीकृष्ण के चरणों की ध्वनि और हँसी पहचानकर भीष्म ने अपनी आँख खोलीं और देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण सामने खड़े-खड़े मुस्कुरा रहे हैं। उन्होंने आश्चर्यचकित होकर उनका यथायोग्य सत्कार किया। अब तक उन्होंने द्रौपदी को पहचान लिया था। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा- ‘भगवन्! मैं जान गया कि इस समय आप यहाँ कैसे पधारे हैं; आप भक्तों के भक्त हैं, उनकी रक्षा के लिये आप दिन-रात चिन्तित रहते हैं। मेरी प्रतिज्ञा से उनकी रक्षा करने के लिये आपने यह अभिनय किया है। आपकी इच्छा पूर्ण हो। आपकी इच्छा के सामने भला किसकी इच्छा चल सकती है? अब मेरी प्रतिज्ञा टूट गयी। द्रौपदी का सौभाग्य अचल हुआ। अब क्या आज्ञा है? जो कहिये वही करूँ।
श्रीकृष्ण ने कहा- ‘पितामह! तुम मेरे सच्चे भक्त हो। तुमने मेरी इच्छा पूर्ण करने के लिये अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी। तुम्हारी प्रतिज्ञा भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से प्रसिद्ध है, तुमने अब तक जो प्रतिज्ञा की है वह कभी नहीं तोड़ी है। आज तुमने मेरे लिये अपनी प्रतिज्ञा का परित्याग करके अपनी सर्वोत्कृष्ट वस्तु मुझे दान की है। मैं तुम्हारा चिरकृतज्ञ-चिरऋणी रहूँगा। ‘भगवान् मेरे चिरऋणी रहेंगे’ यह सुनकर भीष्म विह्ल हो गये। वे बहुत देर तक भगवान् की कृपा के अनन्त समुद्र में डूबते-उतराते रहे। उन्होंने होश आने पर कहा-‘अच्छा भगवन्! पाण्डवों की तो रक्षा हुई, परंतु अब हमारी-तुम्हारी कल बनेगी। जैसे मैंने प्रतिज्ञा तोड़ी है, वैसे ही कल तुम्हारी प्रतिज्ञा भी टूटेगी। कल तुम्हें भी अपने हाथों में शस्त्र लेना पड़ेगा।’ भगवान् ने मौन से ही स्वीकृति दी और द्रौपदी के साथ लौट आये।[1] भीष्म मन-ही-मन गाने लगे-
आज जो हरिहि न शस्त्र गहाऊँ।
तौ लाजौं गंगाजननी को सांतनु सुत न कहाऊँ।।
स्यंदन खंडि महारथ खंडौं कपिध्वज सहित डुलाऊँ।
इती न करौं सपथ मोहि हरि की, क्षत्रिय गतिहि न पाऊँ।।
पांडव दल सनमुख ह्वै धाऊँ, सरिता रुधिर बहाऊँ।
सूरदास रनभूमि विजय बिन, जियत न पीठ दिखाऊँ।।
नवें दिन प्रात:काल नित्य-कृत्य से निवृत्त होकर सभी योद्धा रणभूमि में आये। उस दिन पहले के दिनों से भी भयंकर संग्राम हुआ। कौन-कौन से वीर किन-किन से लड़े और किन्होंने किनका वध किया और किसने किसको कितने बाण मारे, यह सब जानना हो तो महाभारत का भीष्मपर्व ही पढ़ना चाहिये। उस समय पाण्डवों की सेना में भीष्म दावानल की भाँति प्रज्वलित हो रहे थे। बहुत-से रथ अग्नि के कुण्ड थे, धनुष उनकी ज्वाला थी; तलवार, गदा, शक्ति आदि ईंधन थे, बाण चिनगारी थे। भयंकर नर-संहार हो रहा था।
क्रमश:…..
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877