] Niru Ashra: श्रीकृष्णकर्णामृत - 63
“सौन्दर्य सुधा निधि”
चिकुरं वहलं बिरलं भ्रमरं मृदुलं वचनं विपुलं नयनम् ।
अधरं मधुरं वदनं मधुरं चपलं चरितं च कदानु विभोः । ६१।।
हे साधकों ! बिल्वमंगल विरह-उन्मादी हो गए हैं …उन्हें सामने जब जब श्याम सुन्दर दिखाई देते हैं वो उन्हें छूने के लिए दौड़ते हैं ..लेकिन श्याम सुन्दर नही हैं वहाँ । ये वर्णन हमने कल सुना था ।
आज के श्लोक में ये वर्णन है कि …बिल्वमंगल अत्यन्त दुखी हो गये …वो भाग भाग कर थक गये और बैठ गये हैं । विरह अत्यन्त घना हो गया है उनका । तब किसी ने इनसे कहा – हे बिल्वमंगल ! इतने दुखी मत बनो ..वो तुम्हारे ही हैं …वो आते ही होंगे । अपनों के द्वारा ये सांत्वना मिलने पर बिल्वमंगल अब कुछ सहज से हुए …फिर अपने हृदय की बात बताने लगे ।
मैं तुम्हें क्या कहूँ ! वो सौन्दर्य ! वो माधुर्य ! मैं भूल नही पा रहा हूँ …ओह ! वो सघन केश , घुंघराले केश ! ऐसा लगता है कि भ्रमरों का झुण्ड इन्हीं के केशों में उलझ गया है ….किन्तु भ्रमर क्यों आने लगे ? बिल्वमंगल कहते हैं – कमल को देखकर । कमल कहाँ है ? बिल्वमंगल कहते हैं इनका मुख , कमल सदृश ही तो लगता है ..उसी भ्रम में आस पास के पुष्पों को त्याग कर मानों भ्रमर यहाँ आगये हैं । बिल्वमंगल आह भरते हैं …ओह ! उसकी वो मीठी बातें । उसकी वो बड़ी बड़ी आँखें , उफ़ ! उसके प्यारे पतले होंठ , मुस्कुराता उसका मुखमण्डल , अति माधुर्य पूर्ण मुखमण्डल ! बिल्वमंगल कहते हैं …इनका तो सब कुछ मधुर ही मधुर है । लगता है इनको अपने बाहु पाश में भर लूँ । लगता है इन्हें प्रगाढ़ आलिंगन करूँ और और अत्यन्त निकटता से इनके मधुर सौन्दर्य को निहारता रहूँ । चंचल भी है वो …कोई अत्यन्त सुन्दर हो और चंचल भी हो तो उसकी सुन्दरता और बढ़ जाती है ….ऐसे ही ये हैं । सौन्दर्य माधुर्य के निधि हैं ये …किन्तु इतना ही नही …ये चंचल भी हैं । और चपलतापूर्ण इनकी लीलाएँ ….मेरे मन को बरबस खींचती हैं ।
इसके बाद बिल्वमंगल फिर प्रेम-उन्माद से भर जाते हैं ….वो पुकारने लगते हैं ….उनके हृदय में यही झाँकी प्रकट हो गयी है …..वो त्रिभंगी बाँसुरी लेकर मुस्कुरा रहा है …और बिल्वमंगल को ही देख रहा है ।
हे प्राण नाथ ! बिल्वमंगल चिल्लाते हैं । हे किशोर श्याम ! तुम मुझ से इतना दूर रहोगे तो मैं अपनी चिर संचित अभिलाषाओं को कैसे पूर्ण करूँगा ? तुम तो ‘विभु’ हो ….सौन्दर्य माधुर्य के निधि हो ….और अपने माधुर्य से सबके दुःखों को दूर करते हो …तो मेरे क्यों नही ? मैं कैसे पराया हो गया ? मुझे और कुछ नही चाहिए , बस तुम्हारी सेवा का अवसर चाहिए । तुम्हारी सेवा के ना मिलने से ही मैं दुखी हूँ ….अब तो कह दो …कब अपने माधुर्य रस से मेरा कष्ट हरोगे ?
कदानु ?
बिल्वमंगल पूछते हैं …हे विभो ! कब ये होगा ? कब मुझे तुम दीखोगे ? कब मैं तुम्हारे केशों को समेट कर जूड़ा बनाऊँगा …और उसमें मुकुट लगाकर तुम्हें सजाऊँगा ! ये मनोरथ करते हुए बिल्वमंगल आनंदित हो उठते हैं ….वो हंसते हैं । अभी तो रो रहे थे और अभी हंसते हैं ….क्यों कि यही प्रेम है …प्रेम में ये सब होता ही है । मैं तुम्हारे केशों को जब सजाऊँगा न , तब उसमें सुमन गुच्छ लगा दूँगा ….मोर पिच्छ और सुमन गुच्छ ….हे विभु ! तुम कितने सुन्दर लगोगे उस समय । बिल्वमंगल ये कहते हुए फिर विरह दशा में चले जाते हैं । वो धीरे धीरे अब इतना ही बोलते हैं ….मुझे ऐसा सौभाग्य कब मिलेगा ? बताओ ना नीलमणि ! कब ?
इसके बाद बिल्वमंगल मूर्छित ही हो जाते हैं ।
क्रमशः…..
Hari sharan
Niru Ashra: || राधाषोडशनामस्तोत्रम् ||
वैदिक पथिक✍️
श्रीनारायण उवाच
राधा रासेश्वरी रासवासिनी रसिकेश्वरी।
कृष्णप्राणाधिका कृष्णप्रिया कृष्णस्वरूपिणी।।1।।
कृष्णवामांगसम्भूता परमानन्दरूपिणी।
कृष्णा वृन्दावनी वृन्दा वृन्दावनविनोदिनी ।।2।।
चन्द्रावली चन्द्रकान्ता शरच्चन्द्रप्रभानना।
नामान्येतानि साराणि तेषामभ्यन्तराणि च।।3।।
उपरोक्त 1 से 3 श्लोकों का अर्थ –
*
श्री नारायण ने कहा – राधा, रासेश्वरी, रासवासिनी, रसिकेश्वरी, कृष्णप्राणाधिका, कृष्णस्वरूपिणी, कृष्ण वामांग सम्भूता, परमानन्दरूपिणी, कृष्णा,वृन्दावनी, वृन्दा, वृन्दावनविनोदिनी, चन्द्रावली, चन्द्रकान्ता औ शरच्चन्द्रप्रभानना – ये सारभूत सोलह नाम उन सहस्त्र नामों के ही अन्तर्गत हैं।
राधेत्येवं च संसिद्धौ राकारो दानवाचक:।
स्वयं निर्वाणदात्री या सा राधा परिकीर्तिता।।4।।
अर्थ – राधा शब्द में “धा” का अर्थ – संसिद्धि अर्थात निर्वाण है और “रा” का अर्थ दानवाचक है. जो स्वयं निर्वाण(मोक्ष) प्रदान करने वाली है, वे “राधा” कही गई हैं।
रासेश्वरस्य पत्नीयं तेन रासेश्वरी स्मृता।
रासे च वासो यस्याश्च तेन सा रासवासिनी।।5।।
अर्थ – रासेश्वरी की ये पत्नी हैं इसलिए इनका नाम “रासेश्वरी” है. उनका रासमण्डल में निवास है, इससे वे “रासवासिनी” कहलाती हैं।
सर्वासां रसिकानां च देवीनामीश्वरी परा।
प्रवदन्ति पुरा सन्तस्तेन तां रसिकेश्वरीम् ।।6।।
अर्थ – वे समस्त रसिक देवियों की परमेश्वरी हैं अत: पुरातन संत-महात्मा उन्हें “रसिकेश्वरी” कहते हैं।
प्राणाधिका प्रेयसी सा कृष्णस्य परमात्मन:।
कृष्णप्राणाधिका सा च कृष्णेन परिकीर्तिता।।7।।
अर्थ – परमात्मा श्रीकृष्ण के लिए वे प्राणों से भी अधिक प्रियतमा हैं, अत: साक्षात श्रीकृष्ण ने ही उन्हें ‘कृष्णप्राणाधिका’ नाम दिया है।
कृष्णस्यातिप्रिया कान्ता कृष्णो वास्या: प्रिय: सदा।
सर्वैर्देवगणैरुक्ता तेन कृष्णप्रिया स्मृत्वा।।8।।
अर्थ – वे श्रीकृष्ण की अत्यन्त प्रिया कान्ता हैं अथवा श्रीकृष्ण ही सदा उन्हें प्रिय हैं इसलिए समस्त देवताओं ने उन्हें ‘कृष्णप्रिया’ कहा है।
कृष्णरूपं संनिधातुं या शक्ता चावलीलया।
सर्वांशै: कृष्णसदृशी तेन कृष्णस्वरूपिणी।।9।।
अर्थ – वे श्रीकृष्ण रुप को लीलापूर्वक निकट लाने में समर्थ हैं तथा सभी अंशों में श्रीकृष्ण के सदृश हैं, अत: ‘कृष्णस्वरुपिणी’ कही गई हैं।
वामांगार्धेन कृष्णस्य या सम्भूत परा सती।
कृष्णवामांगसम्भूता तेन कृष्णेन कीर्तिता।।10।।
अर्थ – परम सती श्रीराधा श्रीकृष्ण के आधे वामांग भाग से प्रकट हुई हैं, अत: श्रीकृष्ण ने स्वयं ही उन्हें ‘कृष्णवामांगसम्भूता’ कहा है।
परमानन्दराशिश्च स्वयं मूर्तिमती सती।
श्रुतिभि: कीर्तिता तेन परमानन्दरूपिणी।।11।।
अर्थ – सती श्रीराधा स्वयं परमानन्द की मूर्तिमती राशि हैं, अत: श्रुतियों ने उन्हें ‘परमानन्दरूपिणी’ की संज्ञा दी है।
कृषिर्मोक्षार्थवचनो न एवोत्कृष्टवाचक:।
आकारो दातृवचनस्तेन कृष्णा प्रकीर्तिता।।12।।
अर्थ – ‘कृष’ शब्द मोक्ष का वाचक है, ‘ण’ उत्कृष्टता का बोधक है और ‘आकार’ दाता के अर्थ में आता है. वे उत्कृष्ट मोक्ष की दात्री हैं इसलिए ‘कृष्णा’ कही गई हैं।
अस्ति वृन्दावनं यस्यास्तेन वृन्दावनी स्मृता।
वृन्दावनस्याधिदेवी तेन वाथ प्रकीर्तिता।।13।।
अर्थ – वृन्दावन उन्हीं का है इसलिए वे ‘वृन्दावनी’ कही गई है अथवा वृन्दावन की अधिदेवी होने के कारण उन्हें यह नाम प्राप्त हुआ है।
संघ: सखीनां वृन्द: स्यादकारोSप्यस्तिवाचक:।
सखिवृन्दोSस्ति यस्याश्च सा वृन्दा परिकीर्तिता।।14।।
अर्थ – सखियों के समुदाय को “वृन्द” कहते हैं और ‘अकार’ सता का वाचक है. उनके समूह की, समूह सखियाँ हैं इसलिए वे ‘वृन्दा’ कही गई हैं।
वृन्दावने विनोदश्च सोSस्या ह्यस्ति च तत्र वै।
वेदा वदन्ति तां तेन वृन्दावनविनोदिनीम्।।15।।
अर्थ – उन्हें सदा वृन्दावन में विनोद प्राप्त होता है,
अत: वेद उनको ‘वृन्दावनविनोदिनी’ कहते हैं।
नखचन्द्रावली वक्त्रचन्द्रोSस्ति यत्र संततम्।
तेन चन्द्रावली सा च कृष्णेन परिकीर्तिता।।16।।
अर्थ – वे सदा मुखचन्द्र तथा नखचन्द्र की अवली अर्थात पंक्ति से युक्त हैं. इस कारण श्रीकृष्ण ने उन्हें ‘चन्द्रावली’ नाम दिया है
|| जय जय श्री राधे ||
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Niru Ashra: || राधा अष्टमी ||
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वैदिक पथिक✍️
पौराणिक कथा के अनुसार, भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि पर श्री राधा रानी का जन्म बरसाना में हुआ था। इसलिए इस दिन को राधा अष्टमी के रूप में मनाया जाता है। इस खास पर्व का श्रीकृष्ण भक्त बेसब्री से इंतजार करते हैं। राधा अष्टमी के लिए श्री राधा रानी के मंदिरों को बेहद सुंदर तरीके से सजाया जाता है और राधा रानी की विशेष उपासना की जाती है।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के ठीक 15 दिन बाद राधा अष्टमी का त्योहार मनाया जाता है। राधा अष्टमी को राधा रानी के जन्म उत्सव के रूप में मनाया जाता है। हिंदू पंचांग के अनुसार, भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को राधा अष्टमी मनाई जाती है। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार, राधा अष्टमी आमतौर पर अगस्त या सितंबर में मनाई जाती है। जानें इस साल कब है राधा अष्टमी व पूजन का मुहूर्त-
राधा अष्टमी कब है 2024 अष्टमी तिथि 10 सितंबर 2024 को रात 11 बजकर 11 मिनट पर प्रारंभ होगी और 11 सितंबर 2024 को रात 11 बजकर 46 मिनट पर समाप्त होगी। पंचांग के अनुसार, राधा अष्टमी का पर्व 11 सितंबर 2024, बुधवार को मनाया जाएगा।
|| राधा अष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं ||
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Niru Ashra: ऐसा मंदिर,जहां बिना सूंड वाले
गणेशजी की होती है पूजा
वैदिक पथिक✍️
जयपुर। शहर के नाहरगढ़ पहाड़ी पर स्थित गणेश जी के बाल रूप को देखकर यहां आने वाला हर भक्त मंत्रमुग्ध हो जाता है। बिना सूंड वाले गणेश जी को देखकर लोग चकित भी हो जाते हैं। देश में ये एक मात्र ऐसा मंदिर है जहां बिना सूंड वाले गणेश जी की प्रतिमा है। गणेश जी का यह प्राचीन मंदिर राजस्थान की राजधानी जयपुर में है। यह मंदिर गढ़ गणेश के नाम से विख्यात है। गणेश जी के आशीर्वाद से ही जयपुर की नींव रखी गई थी। जानिए कैसे बना ये मंदिर…
नाहरगढ़ की पहाड़ी पर महाराजा सवाई जयसिंह ने अश्वमेघ यज्ञ करवा कर गणेश जी के बाल स्वरूप वाली इस प्रतिमा की विधिवत स्थापना करवाई थी।इसके बाद जयपुर की नींव रखी गई थी। मंदिर के पास खड़े होकर देखने से पूरा जयपुर का विहंगम दृश्य दिखाई देता है।
यह मंदिर रियासत कालीन है और करीब 350 साल पुराना है। मंदिर में मूर्ति की तस्वीर लेना प्रतिबंधित है।
- मंदिर में गणपति को इस प्रकार प्रतिष्ठित किया गया है कि सिटी पैलेस के इंद्र महल से वे दूरबीन से साफ दिखाई देते हैं।कहते हैं इंद्र महल से महाराजा दूरबीन से भगवान के दर्शन किया करते थे।
मंदिर की सीढ़ियां बहुत कुछ कहती हैं,इस मंदिर तक पहुंचने के लिए हर रोज एक सीढ़ी का निर्माण होता था।
इस तरह पूरे साल तक निर्माण चलता रहा और 365 सीढ़ियां बन गईं।
हालाँकि, दक्षिण भारत में, एक ऐसा मंदिर है जिसमें भगवान गणेश की मानव सिर के रूप में एक मूर्ति है, इससे पहले गणपति को गज का सिर दिया गया था। ऐसा माना जाता है कि यह मानव सिर वाली दुनिया की एकमात्र गणेश मूर्ति है। यह मंदिर तमिलनाडु के कुथनूर के पास तिलतर्पणपुरी के पास स्थित है।इस मंदिर का नाम आदि विनायक है।गजमुखी अवतार से पहले भगवान गणेश की मानव रूप में मूर्ति होने के कारण इसे आदि गणपति कहा जाता है…।
मंदिर का इतिहास-
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पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान राम जब अपने पिता की मृत्यु के बाद पिंडदान कर रहे थे, तब उनके द्वारा बनाए गए चावल के पिंड कीड़ों में बदल जा रहे थे। श्री राम ने जितनी बार चावल के पिंड बनाए, उतनी बार वो कीड़ों में बदल जाते। अंततः उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की, तब महादेव ने उन्हें आदि विनायक मंदिर जाकर विधि-विधान से पूजा करने के लिए कहा। इसके बाद भगवान राम आदि विनायक मंदिर आए और महाराजा दशरथ के लिए पूजा की। उनके द्वारा बनाए गए चावल के चार पिंड बाद में शिवलिंग के रूप में बदल गए, जो आदि विनायक मंदिर के पास स्थित मुक्तेश्वर महादेव मंदिर में स्थापित हैं।
भगवान राम के द्वारा इस मंदिर में महाराजा दशरथ और अपने पूर्वजों के लिए किए गए पिंडदान के बाद से यहाँ देश के कोने-कोने से लोग अपने पूर्वजों की शांति के लिए आते हैं। तिलतर्पणपुरी भी दो शब्दों से मिलकर बना है, तिलतर्पण अर्थात पूर्वजों के तर्पण से सम्बंधित और पुरी का अर्थ है नगर। इस प्रकार इस स्थान को पूर्वजों के मोक्ष और मुक्ति का नगर कहा जाता है। पितरों की शांति के लिए पिंडदान नदी के किनारे किया जाता है लेकिन धार्मिक अनुष्ठान मंदिर के अंदर ही होते हैं।
|| गणपति बप्पा मोरया ||
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Author: admin
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