🙏🥰 श्रीसीताराम शरणम् मम 🥰🙏
मैंजनकनंदिनी..8️⃣0️⃣भाग 2
( माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)
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निशिचर हीन करहुँ मही..
📙( रामचरितमानस )📙
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मैं वैदेही !
आप चलें हे राम! ……….और देखते चलें ……….हम आपके साथ ऋषि सुतीक्षण जी के आश्रम तक जायेंगें ।
ऋषि डरे हुए थे ………………………………
पर डरना स्वभाविक था ……………….ओह ! .क्या दृश्य ।
हजारों हजार ऋषियों के देह का ढाँचा………..अस्थियों का ढ़ेर ………ये क्या है ! मैं चीत्कार उठी …….क्यों की हमारे सामनें ही एक ऋषि का सिर मार्ग में पड़ा था और दूर उसका धड़ था……………
ऐसे अनगिनत हृदय विदारक दृश्य हमें दिखाई दिए थे ……।
ये मार्ग लाल क्यों है ?
लक्ष्मण नें चौंक कर एक ऋषि से पूछा था ।
रक्त से कुमार लक्ष्मण ! ऋषियों के रक्त से …………….
लाल नेत्र हो गए थे उस समय कुमार लक्ष्मण के ……………
आप लोग वध क्यों नही करते इन राक्षसों का ?……..आपके पास तप का बल है ……….उससे तो आप जो चाहे कर सकते हैं ………….।
क्रोध करनें से साधना खतम हो जाती है लक्ष्मण !
गम्भीर स्वर में बोले थे मेरे श्रीराम ।
और ये ऋषि देह त्यागना स्वीकार करेंगें ………पर साधना का फल इन राक्षसों को मारने में क्यों नष्ट करें…….?
क्रमशः …..
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: !! बुद्धि को स्थिर करो - “गीता ज्ञान” !!
जनकपुर दूधमति के तट में बैठे तो चिन्तन में भी गीता ज्ञान ही आरहा था …गीता जयन्ती जो थी ।
“बुद्धि का स्थिर रहना अत्यन्त आवश्यक है, बिना स्थिर बुद्धि के कुछ भी सम्भव नही है, आप आध्यात्मिक उन्नति की तो सोचिए ही मत भौतिक उन्नति भी सम्भव नही है,बिना स्थिर बुद्धि के।”
आप अभी कुछ निर्णय कर रहे हैं ..और कुछ ही समय बाद अपने निर्णय को बदल रहे हैं तो आपमें स्थिर बुद्धि नही है …चंचल बुद्धि है …इससे हानि ही हानि है । भौतिक जगत में क्या हानि है ? ये प्रश्न आप करेंगे तो सीधी सी बात है ….आप आज कुछ कह रहे हैं …फिर बदल रहे हैं …..फिर फिर बदलेंगे …..इससे लोगों का विश्वास आप से उठ नही जाएगा ? ये व्यापार में सबसे बड़ी हानि के रूप में देखा जाता है । अब अध्यात्म की तो बात ही जाने दीजिए ….एकादशी का व्रत ….अन्यान्य उपवास जो आपके देह मन आदि को शुद्ध करते हैं उसके लिए भी तो स्थिर बुद्धि चाहिए …नही ? भजन करना है …इसके लिए भी तो स्थिर बुद्धि चाहिए ….आज भजन करो …कल आपकी बुद्धि में चांचल्य दोष आगया तो ….भजन करने से क्या लाभ ? ये विचार आएगा ही ना !
याद रखिए …बुद्धि की चंचलता के कारण ही आप पाप कर्म में लगते हैं ….क्यों कि बुद्धि की चंचलता ही आपको सत्य मार्ग न बता कर …”हानि लाभ” की सोच देती है ….”धर्म में हानि मिली …हमने सत्य बोला तो व्यापार में घाटा हुआ”….ये सोचकर आप फिर अधर्म में लेगेंगे …असत्य बोलेंगे …क्यों कि आपकी बुद्धि में आयी चंचलता ने धर्म के मार्ग से तुम्हें डिगा दिया ….यही हानि है …बहुत बड़ी हानि है । इसलिए बुद्धि में स्थिरता बहुत आवश्यक है । इसके लिए प्रयास कीजिए ।
क्या करें ? बुद्धि स्थिर हो इसके लिए हे जगदगुरु श्रीकृष्ण ! हम क्या करें ?
तब गीता प्रकट होती है ……तब श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुये अपने अनादि सखा अर्जुन को देखते हैं …..और कहते हैं ….बुद्धि कोई शरीर में बाहर से ठूँसी गयी थोड़ी ही है …ये तो है …..इसे बस स्थिर करो ….यही करना होगा।
लेकिन कैसे ? अर्जुन फिर पूछते हैं।
श्रीकृष्ण रथ की लगाम छोड़कर उठ खड़े होते हैं ….और कहते हैं …पार्थ ! मलीन मन जिसका होता है …जिसके मन में मैल भरा है …उसकी बुद्धि कभी स्थिर हो ही नही सकती । बुद्धि को स्थिर करने के लिए मन को पवित्र बनाओ ….साफ करो मन को । स्वच्छ-पवित्र मन से ही पवित्र काम होते हैं …इसलिए मन को पवित्र बनाओ तो बुद्धि स्थिर होगी….वासुदेव यही कहते हैं ।
लेकिन मन पवित्र कैसे होगा ? अर्जुन का फिर प्रश्न ।
“प्रसन्न रहने से” ….पार्थ सारथी मुस्कुराते हैं ये कहते हुये ।
आहा ! कितनी करुणा से भरी बात कही है …और सरलतम भी ।
इतना तो कर ही सकते हो …कि नही ?
कोशिश कीजिए कि आप प्रसन्न रहें ….खुश रहें ….चाहे कुछ हो ..प्रयास करें कि आप प्रसन्न रहेंगे …..योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं ….प्रसन्न व्यक्ति का मन शुद्ध होता है ….प्रसन्नता उसके मन के मैल को बाहर निकाल देती है ….और प्रसन्न मन वाला ही स्थित बुद्धि का स्वामी होता है ….प्रसन्न मन ही आपके स्थित बुद्धि का परिचायक है ….और जब आपकी बुद्धि स्थिर हो गयी फिर तो आप जहाँ हैं वहीं सफल होते जायेंगे …..अध्यात्म में भी और भौतिक जगत में भी ।
भगवान श्रीकृष्ण फिर रथ में बैठ जाते हैं …रथ की लगाम हाथ में लेकर, फिर मुड़कर अपने सनातन मित्र अर्जुन को देखकर मुस्कुराते हुये कहते हैं ….मुस्कुराओ पार्थ ! प्रसन्न रहो ..हर परिस्थिति में ।
यही गीता का ज्ञान है …..मैं दूधमति से ध्यान के उपरान्त उठ गया था ।
Hari sharan
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (037)
पूज्यपाद श्री रामेश्वर दास रामायणी जी , श्री गणेशदास भक्तमाली जी , श्री राजेंद्रदासचार्य जी के कृपाप्रसाद और भक्तमाल टीका से प्रस्तुत भाव ।
सुंदर कथा २७ (श्री भक्तमाल – श्री शबरी जी)
त्रेतायुगका समय है, वर्णाश्रम धर्मकी पूर्ण प्रतिष्ठा है, वनों-में स्थान-स्थानपर ऋषियो के पवित्र आश्रम बने हुए हैं । तपोधन ऋषियो के यज्ञधूमसे दिशाएँ आच्छादित और वेदध्वनिसे आकाश मुखरित हो रहा है । ऐसे समय दण्डकारण्यमे एक पति-पुत्र-विहीना भक्ति श्रद्धा-सपन्ना भीलनी रहती थी; जिसका नाम था शबरी ।
शबरीने एक बार मतंग ऋषिके दर्शन किये । संत दर्शनसे उसे परम हर्ष हुआ और उसने विचार किया कि यदि मुझसे ऐसे महात्माओ की सेवा बन सके तो मेरा कल्याण होना कोई बडी बात नहीं है । परंतु साथ ही उसे इस बातका भी ध्यान आया कि मुझ नीच कुल में उत्पन्न अधम नारी की सेवा ये स्वीकार कैसे करेंगे ? अन्तमें उसने यह निश्चय किया कि यदि प्रकट रूपसे मेरी सेवा स्वीकार नहीं होती तो न सही, मैं इनकी सेवा अप्रकट रूपसे अवश्य करूँगी ।
यह सोचकर उसने ऋषियोंके आश्रमों से थोडी दूरपर अपनी छोटी सी कुटिया बना ली और कंद-मूल-फलसे अपना उदर पोषण करती हुई वह अप्रकट रूपसे सेवा करने लगी । जिस मार्ग से मुनिगण स्नान करने जाया करते, उषाकालके पूर्व ही उसको झाड़-बुहारकर साफ कर देती, कहीं भी कंकड़ या काँटा नहीं रहने पाता । इसके सिवा वह आश्रमों के समीप ही प्रातः कालके पहले-पहले ईंधन के सूखे ढेर लगा देती ।
शबरीको विश्वास था कि मेरे इस कार्य से दयालु महात्माओ की कृपा मुझपर अवश्य होगी । कँकरीले और कँटीले रास्तेको निष्कण्टक और कंकडो से रहित देखकर तथा द्वारपर समिधा का संग्रह देखकर ऋषियो को बडा आश्चर्य हुआ और उन्होंने अपने शिष्यों को यह पता लगानेकी आज्ञा दी कि प्रतिदिन इन कामों को कौन कर जाता है ?आज्ञाकारी शिष्य रातको पहरा देने लगे और उसी दिन रातके पिछले पहर शबरी ईंधनका बोझा रखती हुई पकडी गयी । शबरी बहुत ही डर गयी । शिष्यगण उसे मतंग मुनिके सामने ले गए और उन्होंने मुनियों कहा -महाराज ! प्रतिदिन रास्ता साफ करने और ईधन रख जानेवाले चोरको आज हमने पकड़ लिया है । यह भीलनी ही प्रतिदिन ऐसा किया करती है ।
शिष्यों की बातको सुनकर भयकातरा शबरी-से मुनिने पूछा ‘ तू कौन है और किसलिये प्रतिदिन मार्ग बुहारने और ईधन लानेका काम करती है ?भक्तिमती शबरीने कांपते हुए अत्यन्त विनय-पूर्वक प्रणाम करके कहा – नाथ ! मेरा नाम शबरी है, मन्द भाग्य से मेरा जन्म नीच कुलमें हुआ है, मैं इसी वनमें रहती हूं और आप जैसे तपोधन मुनियों के दर्शन से अपनेको पवित्र करती हूं ।
अन्य किसी प्रकारक्री सेवा में अपना अनधिकार समझकर मैंने इस प्रकार की सेवा में ही मन लगाया है । भगवन् ! मैं आपकी सेवाके योग्य नहीं । कृपापूर्वक मेरे अपराध को क्षमा करें । शबरी के इन दीन और यथार्थ वचनों को सुनकर मुनि मतंगने दयापरवश हो अपने शिष्यो से कहा कि -यह बडी भाग्यवती है, इसे आश्रम के बाहर एक कुटियामें रहने दो और इसके लिये अन्नादिका उचित प्रबंध कर दो । ऋषि के दयापूर्ण वचन सुनकर शबरीने हाथ जोडकर प्रणाम किया और कहा – कृपानाथ ! मैं तो कंद मूलादि से ही अपना उदर पोषण कर लिया करती हूं ।
आपका अन्न प्रसाद तो मुझे इसीलिये इच्छित है कि इससे मुझपर आपकी अवास्तविक कृपा होगी जिससे मैं कृतार्थ हो सकुंगी । मुझे न तो वैभव की इच्छा है और न मुझे यह असार संसार ही प्रिय लगता है । दीनबन्धो ! मुझें तो आप ऐसा आशीर्वाद दें कि जिससे मेरी सद्गति हो । विनयावनत श्रद्धालु शबरीके ऐसे वचन सुनकर मुनि मतंगने कुछ देर सोच विचारकर प्रेमपूर्वक उससे कहा – हे कल्याणि ! तू निर्भय होकर यहाँ रह और भगवान् के नामका जप किया कर । ऋषिकी कृपासे शबरी जटा चीर धारिणी होकर भगवद्भजनमें निरत हो आश्रममें रहने लगी ।
अन्यान्य ऋषियों को यह बात अच्छी नहीं लगी । उन्होंने मतंग ऋषिसे कह दिया कि आपने नीच जाति की शबरी-को आश्रम में स्थान दिया है, इससे हमलोग आपके साथ भोजन करना तो दूर रहा, संभाषण भी करना नहीं चाहते । भक्तितत्व के मर्मज्ञ मतंगने इन शब्दोंपर कोई ध्यान नहीं दिया । वे इस बातको जानते थे कि ये सब भ्रममें हैं । शबरीके स्वरूपका इन्हें ज्ञान नहीं है, शबरी केवल नीच जाति की साधारण स्त्री ही नहीं है, वह एक भगवद्भक्ति परायण उच्च आत्मा है, ऐसा कौन बुद्धिमान है जो हीन वर्णमें उत्पन्न भगवत्परायण भक्तका आदर न करता हो ? जिस शबरी के हृदयमे: राम का रमण होने लगा था, उससे ऋषि मतंग केसे घृणा कर सकते थे । उन्होंने इस अवहेलना का कुछ भी विचार नहीं किया और वे अपने उपदेश से शबरी की भक्ति बढाते रहे ।
इस प्रकार भगवद् गुण स्मरण और गान करते करते बहुत समय बीत गया । मतंग ऋषिने शरीर छोड़नेकी इच्छा की , यह जानकर शिष्यों को बडा दुख हुआ, शबरी अत्यन्त क्लेशके कारण क्रन्दन करने लगी । गुरुदेव का परमधाममें पधारना उसके लिये असहनीय हो गया । वह बोली – नाथ ! आप अकेले ही न जायं, यह किंकरी भी आपके साथ जाने को तैयार है, विषष्णवदना कृताञ्जलिदीना शबरी को सम्मुख देखकर मतंग ऋषिने कहा- हे सुव्रते ! तू यह विषाद छोड़ दे, भगवान् श्री राम इस समय चित्रक्रूट में हैं । वे यहाँ अवश्य पधारेंगे । उन्हें तू इन्हीं चर्म-चक्षुओं से प्रत्यक्ष देख सकेगी, वे साक्षात् नारायण हैं । उनके दर्शन से तेरा कल्याण हो जायगा । भक्तवत्सल भगवान् जब तेरे आश्रममें पधारें, तब उनका भलीभांति आतिथ्य कर अपने जीवन को सफल करना, तबतक तू श्रीराम नामका जप करती हुई यहीं निवास कर ।
शबरी को इस प्रकार आश्वासन देकर मुनि दिव्य लोक को चले गये । इधर शबरीने श्रीराम नाम में ऐसा मन लगाया कि उसे दूसरी किसी बातका ध्यान ही नहीं रहा। शबरी कंद मूल फलोंपर अपना जीवन निर्वाह करती हुई भगवान् श्रीरामके शुभागमन की प्रतीक्षा करने लगी । ज्यो ज्यो दिन बीतते हैं त्यों त्यों शबरी की राम दर्शन लालसा प्रबल होती जाती है । जरा सा शब्द सुनते ही वह दौड़कर बाहर जाती है और बडी आतुरताके साथ प्रत्येक वृक्ष, लता-पत्र, पुष्प और फलो से तथा पशु पक्षीयों से पूछती है की अब श्रीराम कितनी दूर हैं, यहाँ कब पहुँचेंगे ? प्रातःकाल कहती है कि भगवान् आज संध्या को आवेंगे । सायंकाल फिर कहती है, कल सबेरे तो अवश्य पधारेंगे । कभी घरके बाहर जाती है, कभी भीतर जाती है ।
कहीं मेरे रामके पैरोंमे चोट न लग जाय, इसी चिन्तासे बारम्बार रास्ता साफ करती और कांटे-कंकडों को बुहारती है । घरको नित्य गोबर-गोमूत्र से लीप पोत ठोक कर लेती है । नित नयी मिट्टी गोबर की चौकी बनाती है । कभी चमककर उठती है, कभी बाहर जाती है और सोचती है, भगवान् बाहर आ ही गये होंगे । वनमें जो फल सबसे अधिक सुस्वादु और मीठा लगता है, वही अपने रामके लिये बड़े चावसे रख छोड़ती है । इस प्रकार शबरी उन राजीवलोचन रामके शुभ दर्शन की उत्कण्ठा से रामागमन आकांक्षा से पागल सी हो गयी है । सूखे पत्ते बृक्षों से उड़कर नीचे गिरते हैं तो उनके शब्द को शबरी अपने प्रिय रामके पैरों की आहट समझकर दौड़ती है ।
इस तरह आठों पहर उसका चित्त श्रीराममें रमा रहने लगा, परंतु राम नहीं आये । एक बार मुनिबालको ने कहा- शबरी ! तेरे राम आ रहे हैं । फिर क्या था बेर आदि फलो को आँगन में रखकर वह दौडी सरोवर से जल लानेके लिये । प्रेम के उन्मादमे उसे शरीर की सुधि नहीं थी, एक ऋषि स्नान करके लौट रहे थे । शबरीने उन्हें देखा नहीं और उनसे उसका स्पर्श हो गया । मुनि बड़े क्रुद्ध हुए । वे बोले-कैसी दुष्टा है ! जान बूझकर हमलोगों का अपमान करती है । शबरी ने अपनी धुन में कुछ भी नहीं सुना और वह सरोवर पर चली गयी । ऋषि भी पुन: स्नान करने को उसके पीछे-पीछे गये । ऋषि ने ज्यों ही जलमे प्रवेश किया त्यों ही जलमे कीड़े पड़ गये और उसका वर्ण रुधिर(रक्त) सा हो गया । इत्तनेपर भी उनको यह ज्ञान नहीं हुआ कि यह भगवद्भक्तिपरायणा शबरीके तिरस्कार का फल है ।
इधर जल लेकर शबरी पहुँच ही नहीं पायी थी कि उसे भगवान् श्रीराम मेरी शबरी कहां है पूछते हुए दिखाई दिये । यद्यपि अन्यान्य मुनियोंको भी यह निश्चय था कि भगवान् अवश्य पधारेंगे परंतु उनकी ऐसी धारणा थी कि वे सर्वप्रथम हमारे ही यहाँ पदार्पण करेंगे । परंतु दीनवत्सल भगवान श्री रामचन्द्र जब पहले उनके यहाँ न जाकर शबरी की मडैया का पता पूछने लगे तो उन तपोबलके अभिमानी मुनियोंको बडा आश्चर्य हुआ । श्रीरामका अपने प्रति इतना अनुग्रह देखकर शबरी उनकी अगवानी के लिये मनमें अनेक उमंगें करती हुई सामने चली ।
आज शबरीके आनन्दका पार नहीं है । वह प्रेममें पगली होकर नाचने लगी । हाथसे ताल दे देकर नृत्य करनेमें वह इतनी मग्न हुई कि उसे अपने उत्तरीय वस्त्र तक का ध्यान नहीं रहा, शरीरकी सारी सुध बुध जाती रही। इस तरह शबरी को आन्दसागरमें निमग्न देखकर भगवान् बड़े ही सुखी हुए और उन्होंने मुसकराते हुए लक्ष्मण की ओर देखा। तब लक्ष्मणजीने हंसते हुए गम्भीर स्वर से कहा कि – शबरी ! क्या तू नाचती ही रहेगी ? देख ! श्रीराम कितनी देरसे खड़े है। क्या इनको बैठाकर तू इनका आतिथ्य नहीं करेगी? इन शब्दोंसे शबरी को चेत हुआ और उस धर्मपरायण तापसी सिद्धा संन्यासिनी ने धीमान् श्रीराम लक्ष्मण को देखकर उनके चरणों में हाथ जोड़कर प्रणाम किया और पाद्य आचमन आदिसे उनका पूजन किया । (वाल्मीकि रामायण ३। ७४। ६-७)
भगवान् श्रीराम उस धर्मनिरता शबरीसे पूछने लगे-
हे तपोधने ! तुमने साधनके समस्त विघ्नों पर तो विजय पायी है तुम्हारा तप तो बढ़ रहा है? तुमने कोप और आहारका संयम तो किया है ? है चारुभाषीणि ! तुम्हारे नियम तो सब बराबर पालन हो रहे हैं ? तुम्हारे मनमें शान्ति तो है ?तुम्हारी गुरुसेवा सफ़ल तो हो गयी ? अब तुम क्या चाहती हो ?
श्री रामके ये वचन सुनकर वह सिद्ध षुरुषोंमें मान्य वृद्धा तापसी बोली – भगवन् ! आप मुझे सिद्धा, सिद्धसम्मता, तापसी आदि कहकर लज्जित न कीजिये । मैंने तो आज़ आपके दर्शनसे ही जन्म सफल कर लिया है। (वाल्मीकि रामायण ३। ७४। ८-९)
हे भगवन् ! आज आपके दर्शन से मेरे सभी तप सिद्ध हो गये हैं, मेरा जन्म सफल हो गया, आज मेरी गुरूओं की पूजा सफल हो गयी, मेरा तप सफल हो गया, हे पुरुषोत्तम ! आप देवताओं में श्रेष्ठ रामकी कृपा से अब मुझे अपने स्वर्गापवर्गमें कोई संदेह नहीं रहा । (वाल्मीकि रामायण ३। ७४। ११ -१२)
शबरी अधिक नहीं बोल सकी । उसका गला प्रेमसे रुँध गया । थोडी देर चुप रहकर फिर बोली, है प्रभो ! आपके लिये संग्रह किये हुए कंद फलादि तो अभी रखे ही हैं । भगवन् ! मुझ अनाथिनी के फलोको ग्रहणकर मेरा मनोरथ सफ़ल कीजिये । यों कहकर शबरी चिरकाल से संग्रह किये हुए फलों को लाकर भगवान् को देने लगी और भगवान् प्रेमसे सने फलोंकी बारबार सराहना करते हुए उन्हें खाने लगे ।
शबरी वनके पके हुए मूल और फलो को स्वयं चख-चखकर परीक्षा कर भगवान् को देने लगी । उसमे अत्यन्त मधुर फल होते वही भगवान् को निवेदन करती । इस प्रकार भगवान् का आदर सत्कार कर शबरी हाथ जोड़कर आगे खडी हो गयी । प्रभु को देखकर उनका प्रेम अत्यन्त बढ गया । उन्होंने कहा मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ ? मैं नीच जातिकी और अत्यन्त मूढ़बुद्धि हूं । जो अधमसे भी अधम हैं, स्त्रीयां उनमें भी अत्यन्त अधम हैं, और उनमें भी हे पापनाशन ! मैं मन्दबुद्धि हूँ ।
श्री रघुनाथ जी ने कहा – हे भामिनि! तुम मेरी बात सुनो। मैं एकमात्र भक्तिका नाता मानता हूँ । जो मेरी भक्ति करता है वह मेरा है और मैं उसकी हूं। जाति पाँति, कुल ,बडाई, द्रव्य, बल, कुटुम्ब, गुण, चतुराई सब कुछ हो, पर यदि भक्ति न हो तो वह मनुष्य बिना जलके बादलोंके समान शोभाहीन और व्यर्थ है ।
इसीसे भगवान् श्रीराम कहते हैं –
पुरुषत्व-स्त्रीत्वका भेद या जाति, नाम और आश्रम आदि मेरे भजनमे कारण नहीं हैं, केवल भक्ति ही एक कारण है। (अध्यात्म रामायण ३। १०। २०)
जो मेरी भक्ति से विमुख हैं, यज्ञ, दान, तप और वेदाध्ययन करके भी वे मुझे नहीं देख सकते । (अध्यात्म रामायण ३।१०।२१) यही घोषणा भगवान् ने गीता मे की है ।
इसके बाद भगवान् ने शबरी को नवधा भक्तिका स्वरूप बतलाया।
श्रीराम ने कहा – मेरी भक्ति नौ प्रकार की है( १ ) संतो की संगति अर्थात् सत्सङ्ग, (२) श्रीरामकथा में प्रेम (३) गुरुजनों की सेवा (४) निष्कपट भावसे हरिगुणगान, ( ५ ) पूर्ण विश्वाससे श्री रामनाम जप ( ६) इंद्रीय दमन तथा कर्मोंसे वैराग्य, (७) सबको श्री राममय जानना, (८) यथालाभ में संतुष्टि तथा (९) छलरहित सरल स्वभाव से हृदय में प्रभु का विश्वास।
इनमें से किसी एक प्रकार की भक्तिवाला मुझे प्रिय होता है, फिर तुझमें तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ है । अतएव जो गति बैरागियों-ज्ञानियों को भी दुर्लभ है, वह आज तेरे लिये सुलभ हो गयी है। उसीके फलस्वरूप तुम्हें मेरे दर्शन हुए, जिससे तुम सायुज्य स्वरूप को प्राप्त करोगी । इस प्रकार भक्ति का वर्णन करने के बाद भगवान् शबरी को अपना परम पद प्रदान करते हैं ।
उसी समय दण्डकारण्य वासी अनेक ऋषि मुनि शबरीजी के आश्रममें आ गये । मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम और लक्ष्मणने खड़े होकर मुनियों का स्वागत किया और उनसे कुशल प्रश्न किया । सबने उत्तरमे यही कहा हे रघुश्रेष्ठ आपके दर्शन से हम सब निर्भय हो गये हैं । हे प्रभो ! हम बड़े अपराधी हैं । इस परम भक्तिमती शबरीके कारण हमने मतंग जैसे महानुभावका तिरस्कार किया । योगिराजो के लिये भी जो परम दुर्लभ हैं ऐसे आप साक्षात् नारायण जिसके घरपर पधारे हैं वह भक्तिमती शबरी सर्वथा धन्य है । हमने बडी भूल की । इस प्रकार सब ऋषि मुनि पश्चात्ताप करते हुए भगावान् से विनय करने लगे । आज दण्डकारण्यवासी ज्ञानाभिमानियो की आंखे खुली ।
जब व्रजक्री ब्राह्मण वनिताओ ने अपने पतिदेवों की आज्ञाका उल्लंघन कर साक्षात् यज्ञपुरुष श्रीकृष्ण की सेवामें पहुंचकर अनन्य भक्तिका परिचय दिया था, तब ब्राह्मणोंने एक बार तो वहुत बुरा माना परंतु अन्तमें जब उन्हें बोध हुआ, तब उन्होंने भी बड़े पश्चाताप के साथ इसी प्रसार अपनेको धिक्कार देते हुए कहा था
हमारी तीन जन्मों को (एक गर्भ से, दूसरे उपनयन से और तीसरे यज्ञदीक्षासे) विद्याको, ब्रह्मचर्यव्रत को, बहुत जानने को, उत्तम कुल को, यज्ञादि क्रियाओं में चतुर होने को बार बार धिवकार है क्योंकि इम श्रीहरिके विमुख हैं ।(श्रीमद्भागवद् १० । २३ । ३९ -४०)
ऋषि मुनियों को पश्चात्ताप करते देखकर श्री लक्ष्मणजी ने उनसे कहा महर्षिगण ! आपलोग धन्य है । आप बड़े ही तपव्रतपरायण हैं ।आप सांसारिक विषयज़न्य सुखों को त्यागकर निस्पृह होकर वनमें निवास करते हैं । आपलोगो के प्रभाव से यह चराचर जगत् धर्म को धारण कर रहा है । इस प्रकारके वाक्यो से ऋषियों को कुछ संतोष हुआ, इतनेमे एक ऋषिने कहा- हे शरणागतवत्सल ! यहांके सुंदर सरोवरके जलमें कीड़े क्यों पड़ रहे हैं तथा वह रुधिर(रक्त) सा क्यों हो गया है ? लक्ष्मणजीने हँसते हुए कहा
मतंग मुनि के साथ द्वेष करने तथा शबरी जैसी रामभक्ता साध्वी का अपमान करनेके कारण आपके अभिमानरूपी दुर्गुण से ही यह सरोवर इस दशको प्राप्त हो गया है । इसके फिर पूर्ववत् होनेका एक यही उपाय है कि शबरी एक बार फिरसे उसका स्पर्श करे । भगवान् की आज्ञासे शबरी ने जलाशय में प्रवेश किया और तुरंत ही जल पूर्ववत् निर्मल हो गया । यह है भक्तों की महिमा !
श्री राम ने शबरी को जानकी के विषय में पूछा, तब शबरी ने उन्हें पम्पासरोवर जाने को कहा ।उसने प्रभु से कहा की वह आपकी मित्रता सुग्रीव से होगी। वे सब हाल बताएँगे।
फिर शबरी ने प्रभु से कहा – हे धीरबुद्धि !आप अन्तर्यामी होते हुए भी ये सब मुझसे पूछते है? भगवान् ने प्रसन्न होकर फिर शबरी से कहा कि तू कुछ वर माँग । शबरी ने कहां मैं अत्यन्त नीच कुल में जन्म लेने पर भी आपका साक्षात् दर्शन कर रही हूँ यह क्या साधारण अनुग्रह का फल है? तथापि में यही चाहती हूँ कि आपमें मेरी दृढ़ भक्ति सदा बनी रहे । भगवान ने हँसते हुए कहा तथास्तु !
फिर कहने लगी जिनका यह आश्रम है,जिनके चरणों की मैं सदा दासी रही,उन्ही पवित्र आत्मा महर्षि के समीप अब मुझे जाना है। शबरी ने पार्थिव देह परित्याग करने के लिये भगवान् की आज्ञा चाही, भगवान ने उसे आज्ञा दे दी । ह्रदय में श्रीराम चरणों को धारण करके शबरी मुनिजनो के सामने ही देह छोडकर परम धाम को प्रयाण कर गयी और सब तरफ जयजयकार की ध्वनि होने लगी ।
समस्त हरी हर भक्तों की जय।
भक्तवत्सल भगवान की जय।।
[12/12, 20:18] Niru Ashra: अध्याय 15 : पुरुषोत्तम योग
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श्लोक 15.20
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इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ |
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्र्च भारत || २० ||
इति – इस प्रकार; गुह्य-तमम् – सर्वाधिक गुप्त; शास्त्रम् – शास्त्र; इदम् – यह; उक्तम् – प्रकट किया गया; मया – मेरे द्वारा; अनघ – हे पापरहित; एतत् – यह; बुद्ध्वा – समझ कर; बुद्धिमान – बुद्धिमान; स्यात् – हो जाता है; कृत-कृत्यः – अपने प्रयत्नों में परम पूर्ण; च – तथा; भारत – हे भरतपुत्र |
भावार्थ
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हे अनघ! यह वैदिक शास्त्रों का सर्वाधिक गुप्त अंश है, जिसे मैंने अब प्रकट किया है | जो कोई इसे समझता है, वह बुद्धिमान हो जाएगा और उसके प्रयास पूर्ण होंगे |
तात्पर्य
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भगवान् ने यहाँ स्पष्ट किया है कि यही सारे शास्त्रों का सार है और भगवान् ने इसे जिस रूप में कहा है उसे उसी रूप में समझा जाना चाहिए | इस तरह मनुष्य बुद्धिमान तथा दिव्य ज्ञान में पूर्ण हो जाएगा | दूसरे शब्दों में, भगवान् के इस दर्शन को समझने तथा उनकी दिव्य सेवा में प्रवृत्त होने से प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति के गुणों के समस्त कल्मष से मुक्त हो सकता है | भक्ति आध्यात्मिक ज्ञान की एक विधि है | जहाँ भी भक्ति होती है, वहाँ भौतिक कल्मष नहीं रहता | भगवद्भक्ति तथा स्वयं भगवान् एक हैं, क्योंकि दोनों आध्यात्मिक हैं | भक्ति परमेश्र्वर की अन्तरंगा शक्ति के भीतर होती है | भगवान् सूर्य के समान हैं और अज्ञान अंधकार है | जहाँ सूर्य विद्यमान है, वहाँ अंधकार का प्रश्न ही नहीं उठता | अतएव जब भी प्रामाणिक गुरु के मार्गदर्शन के अन्तर्गत भक्ति की जाती है, तो अज्ञान का प्रश्न ही नहीं उठता |
प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि इस कृष्णभावनामृत को ग्रहण करे और बुद्धिमान तथा शुद्ध बनने के लिए भक्ति करे | जब तक कोई कृष्ण को इस प्रकार नहीं समझता और भक्ति में प्रवृत्त नहीं होता, तब तक सामान्य मनुष्य की दृष्टि में कोई कितना बुद्धिमान क्यों न हो, वह पूर्णतया बुद्धिमान नहीं है |
जिस अनघ शब्द से अर्जुन को संबोधित किया गया है, वह सार्थक है | अनघ अर्थात् “हे निष्पाप” का अर्थ है कि जब तक मनुष्य पापकर्मों से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक कृष्ण को समझ पाना कठिन है | उसे समस्त कल्मष, समस्त पापकर्मों से मुक्त होना होता है, तभी वह समझ सकता है | लेकिन भक्ति इतनी शुद्ध तथा शक्तिमान् होती है कि एक बार भक्ति में प्रवृत्त होने पर मनुष्य स्वतः निष्पाप हो जाता है |
शुद्ध भक्तों की संगति में रहकर पूर्ण कृष्णभावनामृत में भक्ति करते हुए कुछ बैटन को बिलकुल ही दूर कर देना चाहिए | सबसे महत्त्वपूर्ण बात जिस पर विजय पानी है, वह है हृदय की दुर्बलता | पहला पतन प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की इच्छा के कारण होता है | इस तरह मनुष्य भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति को त्याग देता है | दूसरी हृदय की दुर्बलता है कि जब कोई अधिकाधिक प्रभुत्व जताने की इच्छा करता है, तो वह भौतिक पदार्थ के स्वामित्व के प्रति आसक्त हो जाता है | इस संसार की सारी समस्याएँ इन्हीं हृदय की दुर्बलताओं के कारण हैं | इस अध्याय के प्रथम पाँच श्लोकों में हृदय की इन्हीं दुर्बलताओं से अपने को मुक्त करने की विधि का वर्णन हुआ है और छठे श्लोक से अंतिम श्लोक तक पुरुषोत्तम योग की विवेचना हुई है |
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय “पुरुषोत्तम योग” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूरा हुआ |
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